Saturday 30 April 2011

रीयलिटी शो - कैसे कैसे


टीवी पर दर्शकों को कुछ नया और वास्तविक दिखाने का प्रचलन इन दिनों बढ़ा है। इसी क्रम में भारत में टीवी शो के क्षेत्र में रीयलिटी शो का पदार्पण हो चुका है। अभी सोनी पर बिग बास नाम रियलिटी शो का प्रसारण हो रहा है। इसमें 13 प्रमुख सेलिब्रिटी को तीन महीने यानी 90 दिन तक एक ही घर में रहने के लिए भेजा गया है। इस दौरान वे दुनिया से कटे रहेंगे। फोनटीवी अखबार कुछ भी नहीं। बस बिग बास के द्वारा बातचीत। इसमें बिग बास की भूमिका फिल्मों के लोकप्रिय स्टार अरसद वारसी निभा रहे हैं। पर टीवी पर ऐसे शो की परंपरा कोई नई नहीं है। दुनिया का 100 से ज्यादा देशों के टीवी पर ऐसे शो लोकप्रिय हो रहे हैं। भारत में सोनी टीवी पर प्रसारित होने वाला शो बिग बास इसके मूल प्रोडक्शन हाउस एंडेमोल को सहयोह से ही निर्मित हो रहा है। यह शो मूल रुप से 1999 में नीदरलैंड में शुरू हुआ।
कैंडिड कैमरा - टीवी पर रियलिटी शो की शुरूआत सबसे पहले 1948 में कैंडिड कैमरा से आरंभ हुआ। इस शो में एक छुपा हुआ कैमरा होता था। शो में मौजूद लोगों को यह पता नहीं होता था कि उनकी बातें रिकार्ड हो रही हैं पर बाद में सब कुछ प्रसारित हो जाता था। एलेन फंट का यह धारावाहिक रेडियो पर प्रसारित होने वाले उन्ही के सीरिज कैंडिड माइक्रोफोन की अगली कड़ी थी।
रीयल वर्ल्ड - अगर हम नए संदर्भों में रियलिटी शो की बात करें तो इसकी शुरूआत 1992 में एमटीवी न्यूयार्क ने की। रीयल वर्ल्ड नामक इस सीरिज में डाक्यूमेंटरी स्टाइल में लोगों की जानकारी के बिना ही चीजें शूट की जाती थीं। बाद में भारत में भी एमटीवी ने इसी स्टाइल में एमटीवी बकरा नामक शो पेश किया जो एमटीवी का हास्य उत्पन्न करने वाला धारावाहिक था। ठीक इसी तरह का धारावाहिक एनडीटीवी प्रोडक्शन हाउस ने स्टार के लिए बनाया छुपा रुस्तम। इसमें कुछ लोगों समूह सार्वजनिक स्थलों पर अजीबोगरीब हरकतें करता हुआ पाया जाता था। उसमें कुछ लोग राह चलते लोग भी शामिल हो जाते थे। उन्हे बाद में पता चलता था कि वे छुपा रुस्तम में हैं और टीवी पर आ रहे हैं।
तरह तरह के शो - अगर रीयलिटी शो को अलग अलग भागों में बांट कर देखना चाहें तो टीवी पर दिखाए जाने वाले वे सभी धारावाहिक जो फिक्शन नहीं हैं वे किसी न किसी तरह से रियलिटी शो ही हैं। जैसे क्विज शोगेम शो इंटरव्यू पर आधारित शो आदि को भी हम इस श्रेणी में रखते हैं। इसमें हम दो तरह की श्रेणी देख सकते हैं। एक शो में तो लोगों को पता होता है कि वे कैमरे के सामने हैं वहीं कुछ शो में यह पता नहीं होता। कुछ शो में वास्तविकता का टच देने की कोशिश की जाती है तो कुछ में नाटकीयता आरोपित की जाती है। जैसे रजत शर्मा के शो आपकी अदालत जैसे शो में एक नकली अदालत का वातावरण तैयार किया जाता है तो शेखर गुप्ता के वाक द टाक में चलते चलते बातचीत की जाती है। यह सब कुछ शो को वास्तविक दिखाने की कोशिश का ही नमूना है। विदेशों में कुछ इंटरव्यू शो में मेहमान को बताया जाता है कि अब कैमरा आफ हो चुका है लिहाजा वह बेतकल्लूफ होकर बातें करने लगता है जबकि वह सब कुछ प्रसारित होता रहता है। इस तरह से उनकी वास्तविकता दिखाने की कोशिश की जाती है। हालांकि आप यह कह सकते हैं कि सामने को बताए बिना उसकी रिकार्डिंग प्रसारित कर देना उसके साथ धोखा हो सकता है। पर यह सब कुछ कार्यक्रम को रोचक बनाने के लिए किया जाता है। अनुपम खेर का वह शो जिसमें वे बच्चों से सवाल पूछते नजर आते हैं में भी बच्चों की वास्तविक अभिव्यक्ति देखने को मिलती है।

-विद्युत प्रकाश vidyutp@gmail.com

Thursday 28 April 2011

साजिश, साजिश और साजिश


सास बहू के इन धारावाहिकों में साजिश प्रमुख पहलू है। यानी हर सीरियल में चल रहा है कोई न कोई साजिश। अपने धरावाहिकों के प्रचार प्रसार के उद्देश्य से स्टार प्लस ने एक धारावाहिक अलग से स्टार न्यूज पर शुरु किया है। इस धारावाहिक का नाम ही सास बहू और साजिश रखा गया है। यानी की स्टार समूह भी मानता है कि धारावहिकों में साजिश प्रमुख पहलू है। किसी भी धारावाहिक की स्क्रिप्ट तैयार करते समय यह नहीं देखा जाता है कि इस धारावाहिक की कहानी से हम दर्शकों को क्या संदेश देना चाहते हैं। अब टीवी पर संदेश देने वाले धारावाहिक बहुत कम ही हैं। अगर हम हमलोग , बुनियाद जैसे धारावाहिकों को याद करें तो आजकल सब टीवी पर लेफ्ट राइट लेफ्ट और जी बहन जी जैसे धारावाहिक ही हैं जो अपने साथ कुछ संदेश लेकर चल रहे हैं। बाकी सभी धारावाहिकों में अगर कामेडी नहीं है तो वह सास बहू और साजिश ही है।
गांव कहीं खो गए हैंअगर आप किसी धारावाहिक की कहानी में गांव की पृष्ठभूमि ढूंढने निकले हों तो आपको निराशा ही मिलेगी। यहां तक की इन धारावाहिकों में कस्बाई संस्कृति की झलक भी देखने को नहीं मिलती है। हालांकि अगर लक्षित दर्शक समूह की बात की जाए तो इन धारावाहिकों की रेंज में अब कस्बे भी हैं। अगर डाइरेक्ट टू होम के द्वारा पहुंच देखें तो अब सेटेलाइट चैनल गांव में भी पहुंच रहे हैं।
कुछ दिन पहले स्टार वन पर एक धारावहिक शुरू हुआ था चांदनी यह जालंधर में पंजाबी संस्कृति की महक से साथ आरंभ जरूर हुआ पर वह आगे जाकर मुंबई की रंगिनियों में खो गया। जी टीवी के कुछ धारावाहिकों में आजकल गांव जरूर दिखाई दे रहैं। स्टार प्लस के सभी धारावाहिक लगभग शहरी हैं। वहां आजकल एक ऐतिहासिक धारावाहिक पृथ्वीराज का प्रसारण जरूर हो रहा है।
टीआरपी का दबाव - आमतौर पर जब किसी धारावाहिक की योजना बनती है तो उसकी कहानी को लेकर इस बात की चिंता बिल्कुल नहीं की जाती है कि वह किन उद्देश्यों को लेकर चलेगा। सबसे पहले पायलट एपीसोड की कहानी तैयार की जाती है। कुछ एपीसोड प्रसारण के बाद दर्शकों की प्रतिक्रिया के आधार पर कहानी को आगे बढ़ाया जाता है। जब किसी धारावाहिक की टीआरपी गिरने लगती है विज्ञापनदाता घटने लगते हैं तो या तो उसकी कहानी में विज्ञापनदाताओं के दबाव के अनुसार बदलाव किए जाते हैं या फिर उस धारावाहिक को बंद भी कर दिया जाता है। एकता कपूर के बारे में तो कहा जाता है कि वे जिस किरदार से वास्तविक जिंदगी में नाराज होती हैं उसको धारावाहिक के मूल कहानी में या तो आउट कर देती हैं या फिर मरवा डालती हैं। यानी कहानी उनकी मरजी से आगे बढ़ती है। यहां स्क्रिप्ट लेखक दबाव में काम करता है।
लोगों पर प्रभावआर्य समाज जैसे संगठनो का दर्द है कि एकता कपूर टाइप के धारावाहिकों से परिवार में झगड़े बढ़ रहे हैं। अदालतों में तलाक के मामले बढ़ रहे हैं। भारतीय समाज में जहां लोग सहनशील और समझौतावादी प्रकृति के होते थे वहीं इन धारावाहिकों को देखकर हर आदमी अपने इगो की टकराहट को खुलकर खेलना चाहता है। इसका परिणाम है कि झगड़े बढ़ रहे हैं। यानी समाज में विखंडन की प्रवृति को तेजी से बढ़ावा मिल रहा है। इसलिए अब कई सामाजिक संगठन इन मुद्दों पर सवाल उठा रहे हैं तो यह कोई अचरज भरा कदम नहीं होना चाहिए। हमें इस तरह की सामाजिक विकृति से बचने के लिए समय रहते ही कुछ सोचना होगा।




Tuesday 26 April 2011

सास बहू के सीरियल न देखें


हाल में दिल्ली में संपन्न आर्यसमाज अंतरराष्ट्रीय सम्मेलन में कुछ वक्ताओं ने आह्वान किया कि आर्य समाज के लोग टीवी के विभिन्न चैनलों पर दिखाए जाने वाले एकता कपूर के धारावाहिकों का पूरी तरह बहिष्कार करें। यह बहिष्कार सिर्फ बालाजी टेलीफिल्म्स के धारावाहिकों के लिए ही नहीं है बल्कि उस तरह के कथानक वाले तमाम धारावाहिकों के लिए जिनके कारण परिवारों पर बुरा प्रभाव पड़ रहा है। आर्य समाज देश की सम्मानित और अति प्राचीन संस्था है और इसके उपदेशकों ने कहीं यह महसूस किया है कि टीवी पर दोपहर में दिखाए जाने वाले ये धारावाहिक कहीं न कहीं समाज पर बहुत बुरा प्रभाव डाल रहे हैं।
क्या वाकई सास बहू के इन धारावाहिकों ने देश के लाखों परिवारों पर बुरा प्रभाव डाला है। अगर हम इस विषय पर सूक्ष्मता से विचार करें तो पाएंगे कि महानगरों व कस्बों में जहां तक केबल टीवी का प्रसार है सचमुच इन धारावाहिकों से महिलाएं और बच्चे प्रभावित होते हैं।

मेगा धारावाहिक और परिवारअगर हम परिवार को प्रभावित करने वाले धारावाहिकों की बात करें तो हमें दूरदर्शन पर प्रसारित हुए मेगा धारावाहिक शांति और स्वाभिमान को भी याद करना चाहिए। इन धारावाहिकों ने ही सास बहू के अहंकारों की टकराहट वाले धारावाहिकों की नींव रखी। उससे पहले के दूरदर्शन धारावाहिकों में एक सोशल मैसेज था जिसका अब नितांत अभाव दिखता है। हम अगर बुनियाद और हमलोग को याद करें तो उसने मध्यमवर्गीय परिवारों को जोड़ने के संदेश दिया था। इन धारावाहिकों के लेखक मनोहर श्याम जोशी थे जो पहले एक संवेदनशील पत्रकार और कथाकार बाद में स्क्रिप्ट राइटर थे।
एकता कपूर की अगर हम बात करते हैं तो वह कोई समाज शास्त्री या विदुशी महिला नहीं हैं। वे वही सबकुछ दिखाती हैं जो बिकता है। उनके धारावाहिक की कहानियों पर विज्ञापनदाताओं का दबाव रहता है उसके अनुरूप ही उनकी कहानियों में परिवेश का चयन किया जाता है। यानी खूबसूरत सा ड्राइंग रूममहंगी साडियांसलवार सूटहीरे और सोने के गहने कारें। यानी धारावाहिक की कहानी में उत्पादों का छद्म तरीके से प्रचार भी। हालांकि अमेरिका जैसे देशों में लंबे धारावाहिकों को सोप औपेरा कहने का प्रचलन है। वहां ऐसे धारावाहिकों के स्पांसर आम तौर पर साबुन बनाने वाली कंपनियां होती थीं। इसलिए उन्हें सोप औपेरा कहते थे। पर उन धारावाहिकों में आमतौर पर परिवारों का बिखराव नहीं बल्कि परिवार कल्याण के संदेश दिए जाते थे।

कहानी का ताना बाना - एकता कपूर द्वारा निर्मित स्टार प्लस पर या दूरदर्शन सहित अन्य चैनलों पर दोपहर मे दिखाए जाने वाले धारावाहिकों की कहानी के तानाबाना पर हम चर्चा करें तो यहां हमें चेहरे जरूर सुंदर सुंदर देखने के मिलते हैं। पर सुंदर चेहेरे में फरेबी सास तो कुटिल बहू होती है। हर धारावाहिक मे कुछ विवाहेत्तर संबंध होते हैं। अगर हम सोशल मैसेज की बात करें तो यहां इसका अभाव ही होता है। हर धारावाहिक में नायक का कोई न कोई चक्कर चल रहा होता है। इन धारावाहिकों में भले ही किसी खतरनाक खलनायक का कोई रोल नहीं रहता हो पर इसके चरित्र ही एक दूसरे के खिलाफ साजिश का तानाबाना बुनते रहते हैं। धारावाहिकों की कहानी भी साजिश के आधार पर ही चलती रहती है। अधिकांश चरित्र अंदर से कुछ और और बाहर से कुछ और होते हैं। कई बार उनके संवाद के साथ वह संवाद भी चलता रहता है कि वास्तव में अंदर से क्या सोच रहे हैं।   
 --- विद्युत प्रकाश मौर्य



Sunday 24 April 2011

गरम है भोजपुरी का बाजार


भारत में कई रीजनल लैंगवेज के चैनलों के बाद अब बारी भोजपुरी की है। कुछ महीनों में कई भोजपुरी चैनल बाजार में आने की तैयारी में हैं। एक ओर जहां भोजपुरी संविधान की आठवीं अनुसूची में अपना नाम दर्ज कराने को तैयार है वहीं अब भोजपुरी के बाजार में कई टीवी चैनलों की नजर पड़ गई है। साल 2003 में भोजपुरी फिल्म ससुरा बड़ा पैसा वाला के सुपर हिट होने के बाद मुंबई में एक बार फिर भोजपुरी फिल्मों की बहार आ गई। अब हर साल सैकड़ो भोजपुरी फिल्में बन रही हैं और वे अच्छा कारोबार कर रही हैं। भोजपुरी फिल्में न सिर्फ बिहार यूपी के भोजपुरी इलाकों में बल्कि दिल्लीमुंबईभोपालरायपुरलुधियानारांचीकोलकाता में भी अच्छा बिजनेस कर रही हैं।
ऐसे में भोजपुरी में आने वाले टीवी चैनलों को भी उम्मीद है कि जहां जहां भी भोजपुरिया भाईयों ने कदम रखे हैं वहां वहां तक भोजपुरी चैनल देखे जाएंगे। कई सालों से भोजपुरी को हिंदी की एक बोली मान लेने के कारण उसे उसका अपेक्षित सम्मान नहीं मिला। बारत देश की आठवीं अनुसूची में कई ऐसी भाषाएं शामिल हैं जिनके बोलने समझने वाले भोजपुरी से कम हैं। 

आंकड़ों की बात करें तो देश में 13 करोड़ लोग भोजपुरी बोलने वाले हैं जबकि भारत से बाहर यह संख्या एक करोड़ है। वहीं भोजपुरी फिल्में और गाने वे लोग भी देखते हैं जो हिंदी की अन्य बोलियां बोलते हैं। इस तरह भोजपुरी का एक बड़ा बाजार है। भारत से बाहर मारीशससूरीनामट्रिनिडाड टूबैगोफिजी नीदरलैंड जैसे देश में भी लोग भोजपुरी बोलते हैं। इसके अलावे दुनिया के जिन देशों में भी एनआरआई कम्यूनिटी है उनमें भोजपुरी भाईयों का एक बड़ा हिस्सा है। तो ये आने वाले भोजपुरी चैनल उन सभी देशों तक पहुंच जाएंगे जहां तक हमारे भोजपुरी भाई हैं।

भोजपुरी में चैनल लाने की पहली घोषणा पूर्वा टीवी के रूप में हुई पर उसे अमली जामा नहीं पहनाया जा सका। अधिकारी बंधुओं ने भी भोजपुरी चैनल लाने की घोषणा की थी। पर इस साल अधिकृत रूप से महुआ टीवी और हमार टीवी का काम शुरू हो चुका है। दोनों इन्फोटेनमेंट चैलन के रूप में आ रहे हैं। 

महुआ टीवी के प्रोमोटर पीके तिवारी हैं। उनका टीवी मीडिया में तीन दशक का लंबा अनुभव है। उनकी कंपनी प्रज्ञा टीवी नामक धार्मिक चैनल पहले से चला रही है। इसके अलावा यह कंपनी इंडिया टीवी समेत कई चैनलों को विभिन्न तरह के साल्यूसन प्रोवाइड करती है। कंपनी के पास कई सौ भोजपुरी फिल्मों के अधिकार हैं। वहीं एनई टीवी के प्रोमोटर पूर्व केंद्रीय मंत्री मतंग सिंह हमार टीवी लेकर आ रहे हैं।

एक और समूह गंगा टीवी के नाम से भोजपुरी चैनल लाने की योजना बना रहा है। इनकी सफलता देखते हुए इससे इनकार नहीं किया जा सकता है कि भविष्य में जीटीवी और स्टार समूह भी भोजपुरी भाषा में चैनल लाने की बात करने लगे हैं। अब सबकी नजर भोजपुरी के बढ़ते बाजार पर है जिसमें अब पेइंग क्लास तेजी से उभर रहा है। चूंकि भोजपुरी के लोक संगीतसाहित्य बहुत समृद्ध है इसलिए भोजपुरी के बाजार में अऩंत संभावनाएं हैं। यह अब इस पर निर्भर करता है कि कौन सा समूह इसका कितना दोहन कर पाता है।
 -विद्युत प्रकाश मौर्य vidyutp@gmail.com


Friday 22 April 2011

क्षेत्रीय चैनलों का तेजी से विस्तार


न सिर्फ राष्ट्रीय बल्कि सेटेलाइट चैनलों के मामले में क्षेत्रीय चैनलों के बाजार में भी तेजी से विस्तार हो रहा है। टीवी पर दर्शकों का वर्ग अब अपने अड़ोस पड़ोस की खबरें भी देखना चाहता है। अब लगभग देश की सभी प्रमुख क्षेत्रीय भाषाओं में कई प्रमुख चैनल संचालित हो रहे हैं। इनका बाजार तेजी से बढ़ भी रहा है। पंजाबी में सर्वाधिक म्यूजिक चैनल प्रसारित हो रहे हैं पर वहां समाचार चैनल कम हैंपर कई क्षेत्रीय भाषाओं में समाचार चैनल भी लोकप्रिय हो रहे हैं। रीजनल चैनलों का सबसे बड़ा नेटवर्क ईटीवी 12 क्षेत्रीय चैनलों का संचालन करता है। ईटीवी के तेलगू भाषा के दो चैनल हैं।

वहीं उड़ियाबांग्लाकन्नड़मराठीगुजराती और उर्दू में समाचार चैनल कई सालों से सफलतापूर्वक चल रहे हैं। ईटीवी के सभी 12चैनलों का संचालन रामजी फिल्म सिटी हैदराबाद स्थित परिसर से होता है। वहीं ईटीवी बिहार-झारखंडउप्र-उत्तरांचलमप्र-छत्तीसगढ़ और राजस्थान के लिए अलग अलग समाचार चैनल संचालित कर रहा है। ईटीवी के तेलगू और उर्दू चैनल काफी लोकप्रिय भी हैं। वहीं ईटीवी बिहार हिंदी चैनलों में सर्वाधिक सफल रीजलन चैनल के रूप में झंडे गाड़ रहा है। अब ईटीवी को बिहारउत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश में सहारा के रीजनल चैनलों से चुनौती मिल रही है तो उड़िया में ओ टीवी नामक सेटेलाइट चैनल आरंभ हो चुका है। अभी सबसे बड़ा घमासान तेलगू में देखने को मिल रहा है। यहां समाचार चैनल ईटीवी-2 के मुकाबले टीवी 9 नामक चैनल आ चुका है।

वहीं 2009 में आंध्र प्रदेश में होने वाले विधान सभा चुनाव से पहले कई और समाचार चैलन मैदान में कूदने की तैयारी में हैं। इस क्रम में प्रमुख तमिल चैनल नेटवर्क सन टीवी ने सन का तेलगू समाचार चैनल लाने की घोषणा कर दी है। सन टीवी की तैयारियों के साथ ही दो और समचार चैनल मैदान में कूदने की होड़ में लगे हैं। सन नेटवर्क तमिल में कई चैलनों का संचाल कर रहा है। यह नेटवर्क डीएमके पार्टी के नेता करूणानिधि का समर्थक है। न्यूज तथा इंटरटेनमेंट में लीडर समूह अब एफएम चैनल और डीटीएच के क्षत्र में भी कदम रख रहा है। यह दक्षिण भारत का एक सुव्यवस्थित और सफल नेटवर्क चैनल समूह है। अब कोई राजनीतिक समूह टीवी चैनल और समाचार पत्रों का संचालन करेगा तो जाहिर है कि उसके विरोधी समूह को भी अपनी बात ठीक ढंग से रखने के लिए किसी मीडिया का सहारा लेना पड़ेगा इसलिए डीएमके की कट्टर विरोधी जय ललिता का भी अपना जया टीवी है।

कुछ ऐसा ही हाल मराठी और बंगाली में भी है। स्टार समूह ने क्षेत्रीय भाषा की ताकत को देखते हुए स्टार के बांग्ला समाचार चैनल स्टार आनंद की शुरूआत कर दी है। इसके अलावा बांग्ला में दो और सेटेलाइट चैनल पहले से संचालित हो रहे हैं। स्टार के प्रमुख प्रतिद्वंद्वी जी समूह ने भी जी बांग्ला चला रखा है तो जी समूह ने अभी हाल में ही मराठी भाषा में 24 घंटे का समाचार चैनल भी आरंभ कर दिया है। जी समूह के क्षेत्रीय भाषा में बढ़ते प्रभाव को देखते हुए ही स्टार समूह ने भी कई क्षेत्रीय भाषाओं में अपने चैनल की योजना बनाई है। मराठी में एक नए चैनल मी मराठी का भी आगाज हो चुका है। राष्ट्रीय परिदृश्य में कई समाचार चैनलों के आने के बाद अब कई समूह क्षेत्रीय चैनल के बारे में सोचने लगे हैं क्योंकि राष्ट्रीय चैनलों में क्षेत्रीय खबरों को ज्यादा जगह नहीं मिल पाती है। वहीं राज्य पर केंद्रित चैनल अपने बुलेटिनों में हर जिले की खबरें चलाते हैं। इन चैनलों के संवाददाताओं का नेटवर्क राज्य के हर जिले में फैला हुआ है जो अपने शहर के अलावा गांव गांव की खबरे भेजते हैं।
 --- विद्युत प्रकाश मौर्य ( 2008 ) 




Wednesday 20 April 2011

टीवी पर क्षेत्रीय भाषाओं की बढ़ती ताकत


यह क्षेत्रीय भाषाओं की बढ़ती ताकत है कि बड़े बड़े मीडिया बायरन को इसके सामने शीश नवाना पड़ रहा है। स्टार और जी जैसे बड़े समूहों का क्षेत्रीय भाषाओं में चैनल आरंभ करना इसी का प्रमाण है। उन्हे वहां दर्शक और रेवेन्यू दोनों ही दिखाई दे रहा है। वैसी भाषाएं जिनके बोलने वाले आठ से 10 करोड़ तक लोग हैं उनके लिए सेटेलाइट चैनल का आरंभ होना कोई नई बात नहीं है। दुनिया कई ऐसे देश और ऐसी भाषाएं हैं जिनके बोलने वाले 10 करोड़ से ज्यादा नहीं हैं। उन भाषाओं में भी टीवी चैनल समफलता पूर्वक चल रहे हैं। भारत में कई 10 ऐसी भाषाएं जिसके बोलने वाले लोगों की संख्या पांच करोड़ से ज्यादा है। ऐसे में यहां क्षेत्रीय भाषा में चैनल की अपार संभावनाएं हैं। अभी जितने क्षेत्रीय चैनल दिखाई दे रहे हैं उससे ज्यादा की भविष्य में उम्मीद की जा सकती है। भाषायी दृष्टि से देखें तो पंजाबी और गुजराती बोलने वाले लोग सर्वाधिक अमीर हैं इसलिए इन भाषाओं में कई क्षेत्रीय चैनल हैं। अगर किसी बड़े समूह के क्षेत्रीय चैनल की बात करें तो इसकी सबसे पहले शुरूआत जी समूह ने की अपने अल्फा चैनलों के माध्यम से। अब इन चैनलों के नाम जी से ही जाने जाते हैं। स्टार ने भी तारा नाम से चार क्षेत्रीय चैनलों की शुरूआत की थी पर तब वह प्रयोग सफल नहीं रहा था पर अब स्टार ने बांग्ला और मराठी में अच्छी शुरूआत की है। पर अब क्षेत्रीय चैनलों में कई क्षेत्रीय समूह आ रहे हैं। इनमें कई समाचार पत्र समूह हैं तो कई स्वतंत्र व्यवसायी।

अपनी मातृभाषा से भला किसे लगाव नहीं होताचाहे आप खूब पढ़ लिखकर कितनी भी अच्छी अंग्रेजी बोलने लग जाएं मातृभाषा में जो मिठास महसूस की जा सकती है वह कहीं और नहीं हो सकती है। हिंदी के बाद सबसे बड़ा दर्शक वर्ग बांग्ला में है क्योंकि बांग्ला बोलने वाले लोग न सिर्फ पश्चिम बंगाल में बल्कि संपूर्ण बांग्लादेश की मातृभाषा भी बांग्ला है। दुनिया का पहला उर्दू चैनल आरंभ करने का श्रेय ईटीवी का जाता है। ईटीवी भारत के उन सभी शहरों में लोकप्रिय है जहां मुस्लिम आबादी ज्यादा है वहीं कश्मीर उसका अच्छा खासा दर्शक वर्ग हैं। वहीं दुनिया के कई अन्य मुस्लिम देशों में भी उसकी अच्छी पकड़ है। भले ही उर्दू अखबारों का सरकुलेश खत्म हो रहा है पर बोलने के रूप में उर्दू जबान अपनी मिठास और शायरी के कारण काफी लोकप्रिय है।

बोलने वालों की संख्या की दृष्टि से भोजपुरी भाषा का दायरा भी बहुत बड़ा है। बिहारउत्तर प्रदेशमध्य प्रदेशछत्तीसगढ़ का एक बड़ा इलाका भोजपुरी बोलता है। पिछले कुछ सालों से भोजपुरी फिल्में बड़ी मात्रा में बन रही हैं और हिट भी हो रही हैं। ऐसे में भोजपुरी भाषा के चैनल के लिए भी अच्छी संभावनाएँ हैं। संविधान की आठवीं अनुसूची में भोजपुरी के शामिल होने के मार्ग प्रशस्त हो जाने के बाद भोजपुरी को राजकीय सम्मान भी प्राप्त हो रहा है।

ईटीवी का बिहार चैनल भोजपुरी कंटेट का प्रसारण करता आ रहा है। पर देश में 24 घंटे के भोजपुरी चैनल के लिए भी काफी संभावनाएं हैं। ऐसे लखनऊ से एक समूह पूर्वा टीवी का प्रसारण आरंभ करने जा रहा है। आने वाले समय में भोजपुरी में कई और खिलाड़ी आ सकते हैं। वहीं कई बड़े औद्योगित समूहों की भी प्रमुख क्षेत्रीय भाषाओं के बढ़ते बाजार पर कड़ी नजर है। आने वाले समय में इस क्षेत्र में कई रोचक घमासान देखने को मिल सकता है। एक से 10 लाख की आबादी वाले कई शहरों में टैम मशीने लग जाने के बाद रीजनल चैलनों की भी टीआरपी का आकलन किया जा रहा है।
-- विद्युत प्रकाश मौर्य  ( 2006 ) 




Monday 18 April 2011

कहां ले जाएंगे ये टीवी धारावाहिक


सवाल ये उठता है कि ये टीवी धारावाहिक समाज को कहां ले जाएंगे। जब आप टीवी पर कोई धारावाहिक देख रहे होते हैं तो आपको पता नहीं होता है कि इसके कहानी की परिणति क्या होने वाली है। स्टार प्लस पर कई धारावाहिक सालों से चल रहे हैं और उनकी कहानी कितनी आगे बढ़ी है। उस कहानी ने समाज को क्या संदेश दिया है यह सब कुछ गुनने लगें तो निराशा ही हाथ लगेगी। वर्तमान परिवेश में टीवी के अभिननेताओं के पास भी धारावाहिक में अभिनय करने के नाम पर कुछ नहीं होता। सिवाय की डिजाइनर कपड़ों को पहनकर कुछ चलताउ संवाद बोलने के।
टीवी पर कई धरावाहिकों में गंभीर भूमिकाएं कर चुके अभिनेता सचिन खेडेकर का कहना है कि अब टीवी धारावाहिकों की कहानी ऊंगली पड़ आगे बढ़ती है। कहानी के नाम पर उसमें कुछ भी पहले से तय नहीं होता है। किसी भी टीवी धारावाहिक की टीआरपी को देखकर ही उसकी कहानी को आगे बढ़ाया जाता है। अगर टीआरपी ठीक चल रही है तो कहानी को किसी भी तरह आगे बढ़ाते रहो लोग टीवी धारावाहिक को पसंद करते रहेंगे। सचिन कहते हैं कि एक अच्छे अभिनेता के लिए इसमें करने लायक कुछ खास नहीं बचा है। पर हां जिस कलाकार को कुछ धारावाहिकों में लगातार भूमिका मिल रही है वह अच्छे पैसे जरूर बना रहा है। पर एक अच्छे अभिनेता को इन धारावाहिकों में काम करके अभिनय के नाम पर कोई संतुष्टि नहीं मिल पा रही है। बतौर अभिनेता अगर उसे कोई रोल आफर होता है तो वह कर ही लेता है क्योंकि जीने के लिए रूपया चाहिए। साथ ही काम करते रहने से ही इंडस्ट्री में पहचान बनी रहती है।
कई टीवी चैनलों पर ढेर सारे धारावाहिक बनाने वाली एकता कपूर कई साल पहले दूरदर्शन पर एक टीवी धारावाहिक लेकर आई थीं औरत। यह तीन बहनों की कहानी थी। जब इन पंक्तियों के लेखक ने एकता कपूर से पूछा कि धारावाहिक का अंत कैसा होगा तो उन्होंने कहा कि हमने इसके अंत के बारे में नहीं सोचा। हर एपीसोड के प्रसारण के बाद दर्शकों के जो पत्र आएंगे उसके अनुसार ही धारावाहिक की कहानी को आगे बढ़ाया जाएगा। यानी धारावाहिक के लिए किसी कहानी की भी जरूरत नहीं है। बस एक सिनाप्सिस लेकर टीवी धारावाहिक का निर्माण शुरू कर दीजिए। उसके बाद दर्शकों की मांग और टीआरपी के अनुसार कहानी को आगे बढ़ाते रहिए। यह है सीरियल के चलते रहने का मूल मंत्र।
अगर कहानी की दृष्टि से देखें तो कोई भी कहानीकार या उपन्यासकार जब लिखना शुरू करता है तो अपने कहानी के पात्रों के अंत के बारे में भी शुरू में ही सोच लेता है। पर टीवी पर ऐसा नहीं होता। एक सास एक बहू सालों साल चलती रहेंगी। एक दूसरे के खिलाफ साजिश करती रहेंगी जब तक कि दर्शक उनको पसंद करते रहें। जब कहानी को लोग पसंद करना कम कर दें तो उसमें कोई नया ट्विस्ट डाला जाता है। कहानी अचानक 20 साल आगे चली जाती है। सारे पात्र बूढ़े हो जाते हैं। कहानी में अचानक नए पात्र भी आ जाते हैं। अगर विष्णु शर्मा की कालजयी कृति पंचतंत्र की तरह कोई संदेश आज के धारावाहिकों में ढूंढे तो आपको निराशा हाथ लगेगी। पर पंचतंत्र की कथाएं डिस्कवरी चैनल के युग के बच्चों के लिए भी उतनी ही प्रासंगिक है जितनी की वह पहले हुआ करती थी।
-विद्युत प्रकाश vidyutp@gmail.com




Saturday 16 April 2011

कहानी ढूंढते रह जाओगे...


आजकल के टीवी धारावाहिकों में आप कहानी की दृष्टि से कुछ ढूंढना चाहें तो हो सकता है आपको निराशा हाथ लगे। पिछले कुछ सालों से यह स्थापित सत्य सा हो गया है कि किसी टीवी सीरियल की कहानी क्या होगी। या तो अमीर घर के सास बहू के झगड़े होंगे। अहंकारों का टकराव होगा। या फिर दो बिजनेस टाइकूनों की लड़ाई होगी। इसी चासनी में परोस कर स्टार प्लसजी टीवी और दूरदर्शन के मुख्य चैनल पर भी इस तरह के कथानक आगे बढ़ रहे हैं। पिछले कई सालो में ट्रेंड में कोई बदलाव भी नहीं आ रहा है। दूरदर्शन के जमाने में कई अच्छी कहानियों और उपन्यासों का टीवी धारावाहिकों के रुप में रूपांतरण हुआ। पर यह काम किसी सेटेलाइट चैनल ने नहीं किया।

एक दो अपवाद को छोड़ दें तो हालात सास बहू के आसपास ही हैं। अभी हाल में स्टार समूह ने पृथ्वीराज चौहान पर पीरियड धारावहिक शुरू करने का जोखिम उठाया है।
ऋतुपर्णो घोष की मर्मस्पर्शी फिल्म रेनकोट में दो प्रेमी सालों बाद मिलते हैं तो प्रेमिका पूछती कि क्या कर रहे हो। प्रेमी बताता है कि टीवी पर धारावाहिक बना रहा हूं। तब प्रेमिका उससे पूछती है कहानी क्या होगी। तब प्रेमी बताता है कि सास बहू तो प्रेमिका कहती है नहीं यह विषय को सड़ चुका है। वहीं बिजनेस टाइकूनों की कहानी पर भी वह कहती है कि धारावाहिक मत बनाओ। तब वह मित्र को सलाह देती है। ऐसी कहानी क्यों नहीं लिखते कि दो लोग बचपन में प्यार करते हैं पर प्रेमिका की शादी कहीं और हो जाती है। नई जगह में जाकर वह खुश नहीं है।

आखिर प्रेम कहां है....
अगर आप आजकल के टीवी धारावाहिकों में प्रेम का तत्व ढूंढना शुरू करें तो शायद ही कहीं कोई प्रेम करता हुआ मिले। टीवी पर दिखाई जाने वाली कहानियों इंस्टेंट प्रेम होता है। प्रेम में समर्पण की भावना कम दिखाई देती है। साजिश का पहलू ज्यादा होता है। हर चरित्र किसी न किसी के खिलाफ साजिश करता हुआ नजर आता है। चाहे उपन्यास हो या पुरानी फिल्में जब हम वहां दो लोगों को प्रेम करते हुए देखते हैं तो प्रेमी प्रेमिका एक दूसरे के लिए त्याग करते हुए नजर आते हैं। पर टीवी धारावाहिकों कहानियों में होने वाले प्रेम में बाजारवाद घुस आया है। यहां उपहारों का लेनदेन और अपेक्षाएं ज्यादा बढ़ गई हैं। पति पत्नी या प्रेमी प्रेमिका एक दूसरे से कुछ प्राप्त करना चाहते हैं जो भौतिक स्वरूप में होता है। यह वास्तव में प्रेम का विकृत रूप है जो घर घर में रिश्तों में जह घोल रहा है।
समाज पर प्रभाव
जाहिर है कि सिनेमा हो या टीवी इन माध्यमों पर दिखाए जाने वाली कहानियों का समाज पर व्यापक प्रभाव पड़ता है। टीवी धारावाहिक भी समाज पर प्रबाव डाल रहे हैं। घरों में रिश्तों में टकराव बढ़ने लगा है। पर रिश्ते को उपहारों के तराजू में तौल कर देखा जाने लगा है। पत्नी पति से बेटा बाप से बहन भाई से उपहारों की उम्मीद लगाए बैठी है। जो जितना महंगा उपहार देता है उस रिश्ते को उतना ही बड़ा मांगा जाता है। रिश्तेदारों नातेदारों के संबंधों के बीच भौतिकवाद बढ़ गया है। इससे परिवारों में टूटन और बिखराव की स्थिति बढ़ने लगी है। खासकर महिलाओं और बच्चों के मानस पटल पर तो इन टीवी धारावाहिकों का असर बहुत घातक है।
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-विद्युत प्रकाश 
vidyutp@gmail.com


Thursday 14 April 2011

टीवी पर आखिर क्या क्या प्रतिबंधित होगा


टेलीविजन की दुनिया में नया कोड आफ कंडक्ट लाने की चर्चा जोरों पर है। इसमें विभिन्न चैनलों पर कई तरह के प्रतिबंध लगाने की बात चल रही है। जो मुद्दे विचारणीय है उनमें स्टिंग आपरेशनचुंबन दृश्यसंगीन अपराध के कार्यक्रमहारर शोअसभ्य भाषा अंधविश्वास बढ़ाने वाले कार्यक्रम और खबरें शामिल हैं। हालांकि टीवी की दुनिया के एक बड़े तबके को इस तरह की आचार संहिता बनाए जाने या किसी कानून बनाए जाने से आपत्ति है। उनका मानना है कि हम जो दिखाते हैं उसमें सरकार नियमन करने वाली कौन होती है। वे इसे मीडिया पर सेंसरशिप के रुप में देखते हैं।

पर क्या यह वास्तव में सेंसरशिप होगी। या यह वक्त की जरूरत है। निश्चित तौर पर आज जब देश में 400 के करीब टेलीविजन चैनल हैं जिसमें 50 से अधिक समाचार चैनल विभिन्न भाषाओं में प्रसारित हो रहे हैं उनके लिए किसी तरह के कोड आफ कंडक्ट की जरूरत महसूस की जा सकती है। अखबारों में जब प्रकाशित होने वाली खबरों के लिए कानून तो ऐसा इलेक्ट्रानिक मीडिया के लिए भला क्यों न हो। जिस तरह के दर्जनों इलेक्ट्रानिक मीडिया के चैनलों में दर्शकों की भीड़ जुटाने के लिए प्रतिस्पर्धा बढ़ रही है उसमें कई चैनल लक्ष्मण रेखा का उल्लंघन कर रहे हैं।

निश्चित तौर पर आज टीवी चैनलों की पहुंच देश की 90 फीसदी से ज्यादा आबादी तक है ऐसे में विजुअल मीडिया में क्या दिखाया जाए और क्या नहीं इसकी कोई आचार संहिता तय होनी चाहिए।

स्टिंग आपरेशन – लगभग सारे समाचार चैनल आजकल छोटे बड़े स्टिंग आपरेशन जरूर कर रहे हैं। इस पर पूरी दुनिया में चर्चा चल रही है कि बिना किसी को बताए हुए शूटिंग करना कहां तक उचित है। यह अग बात है कि कई स्टिंग आपरेशनों ने बड़े बड़े भ्रष्टाचार को बेनकाब किया है। पर यह सवाल उठता है कि चोर को पकड़न के लिए चोरी कहां तक उचित है। अगर हम गांधी जी का हवाला दें तो सिर्फ साध्य ही नहीं साधन की पवित्रता भी जरूरी है। जब स्टिंग आपरेशन किया जाता है तब जिन तरीकों का इस्तेमाल किया जाता है उसे सही नहीं ठहराया जा सकता है। अगर स्टिंग आपरेशन के लिए किसी अधिकारी को रिश्वत दी जाती है तो ऐसी स्थिति में रिश्वत देने वाला भी उतना ही दोषी है और कानून उसे भी सजा उतनी ही होनी चाहिए जितनी भ्रष्टाचारी को। 

हां अगर आपको किसी भ्रष्टाचार की शिकायत मिलती है तो आप उसे सीबीआई से ट्रैप करवा दें और उसका लाईव शूटिंग करें तो यह एक हद तक उचित हो सकता है। अगर हम पत्रकारिता की लिहाज से देंखे तो खोजी पत्रकारिता का एक लंबा इतिहास रहा है वहीं किसी की निजी जिंदगी में झांकर कर देखने का भी एक लंबा इतिहास है। पर आज इलेक्ट्रानिक मीडिया जगह जगह लोगों की निजता में दखल दे रहा है। कहां कौन सा हिडेन कैमरा आपको शूट कर रहा हो इसकी कोई गारंटी नहीं दी जा सकती। 

अब जब मीडिया तमाम लोगों की निजता भंग कर रहा है तो मीडिया वालों पर नजर रखने की जरूरत पड़ सकती है। इस पेशे में भी अगर गंदे लोग हैं तो उन्हें भी बेनकाब किया जाना चाहिए। पर आखिर उन्हें कौन बेनकाब करेगा। बड़े बड़े पत्रकारों को कई बार बायस्ड होकर खबरें करते हुए देखा जा सकता है। कई बार ऐसा देखा जा सकता है कि किसी खबर के पीछे असली खबर कुछ और होती है। कई बार अगर कोई पीड़ित व्यक्ति अपना पक्ष रखना भी चाहता है तो उसकी अवहेलना करते हैं। किसी बयान के उस हिस्से को खास तौर पर संपादित करके बार बार दिखाते हैं जिससे सनसनी फैलती हो। कुछ टीवी चैनलों ने स्टिंग आपरेशन को लेकर अपनी आचार संहिता बना रखी है कि वे सामाजिक उत्तरदायित्व का ख्याल रखते हुए ही कुछ दिखाएंगे।

अपराध के तौर तरीके- लगभग सभी टीवी चैनलों पर अपराध के बुलेटिन प्रमुखता से दिखाए जाते हैं। यह कुछ उसी अंदाज में है जैसे कभी मनोहर कहानियां और सत्यकथा जैसी पत्रिकाओं में होता था। उन पत्रिकाओं की हर उम्र तक पहुंच नहीं होती थी। पर टीवी के कार्यक्रमों को बच्चों के कोमल मन पर कैसा प्रभाव पड़ता है इसका सहज ही अंदाजा लगाया जा सकता है। वहीं मुद्रित माध्यम का समाज पर उतना प्रभाव नहीं पड़ता जितना दृश्य माध्यम का। इसलिए कहानी और उपन्यास पर भी जब कोई फिल्म बनती है तो उसे सार्वजनिक प्रदर्शन से पहले सेंसर बोर्ड से लाइसेंस लेना पड़ता है। वहीं टीवी के कार्यक्रमों के लिए कोई सेंसरशिप का प्रावधान नहीं है पर इसके लिए कोई कोड आफ कंडक्ट तो तय होना ही चाहिए कि क्या दिखाया जाए और क्या नहीं दिखाया जाए। क्राइम के विशेष बुलेटिनों में अपराधियों के अपराध करने के तौर तरीकों ( मोडस आपरेंडीदिखाया जाता है उससे जहां नए अपराधी प्रेरणा लेते है वहीं किशोर वय के बच्चों में भी अपराध करने की प्रवृति बढ़ती है। ऐसे में इसकी भी कोई सीमा रेखा तय करनी जरूरी है कि कितना दिखाया जाए।

हारर शोअंधविश्वास - इसी तरह हारर शो और अंधविश्वास बढ़ाने वाले क्रायक्रमों को लेकर भी कुछ आचार संहिता तय होनी चाहिए। हारर शो देखकर छोटे-छोटे बच्चों को मष्तिष्क पर बुरा प्रभाव पड़ता है। इससे कुछ बच्चे बचपन से ही जहां डरपोक प्रवृति के हो जाते हैं वहीं छोटी उम्र से ही वे कई बार अंधविश्वासी भी बनने लग जाते हैं। देश भर में प्रचलित अंधविश्वास की परंपराओं को कई टीवी चैनल खबर के रुप में महिमामंडित करके दिखाते हैं। भले ही वे अंत में कहते हैं कि अंधविश्वास है पर ऐसे कार्यक्रमों के विजुअल लंबे समय तक दिखाए जाते हैं। इससे निरक्षर समाज में प्रचलित अंधविश्वास की परंपराओं को अनावश्यक प्रचार मिलता है।

चुंबन दृश्य और भाषा- अमूमन हर टीवी चैनल पर अब चुंबन दृश्य आम हो चले हैं। फिल्मों में जहां यह सब कुछ खुलेआम हो रहा है वहीं फिल्मी खबरों में ऐसे दृश्यों खुलेआम आवृति होती है। वहीं सार्वजनिक स्थल पर ऐसा कोई विजुअल मिल जाए तो समाचार चैनल उस पर टूट पड़ते हैं। शिल्पा शेट्टी और रिचर्ड गेर के चुंबन दृश्य को असंख्य बार टीवी चैनलों ने रीपिट किया। हालांकि अब समाज में चुंबन को स्वीकार्य मान लिया गया है पर यह देखना जरूरी है कि वह कितना शालीन है।

इलेक्ट्रानिक मीडिया को शब्दों को लेकर भी सावधान होने की जरूरत है। टीवी सीरियलों भाषा और समाचार चैनलों की भाषा सयंत होनी चाहिए। जिस तरह लंबे चलने वाले सोप ओपेरा में अवैध संबंधों की दास्तान दिखाई जाती है और उसमें जिस तरह की भाषा का प्रयोग किया जाता हैवह सब कुछ किसी वयस्क फिल्म की कथानक की तरह ही होता है। हमें यह याद रखना चाहिए कि दुनिया में सोप ओपरा की शुरुआत समाज को परिवार नियोजन और अन्य सामाजिक मूल्यों की शिक्षा देने के लिए हुई थी। वहीं आज कई सामाजिक संस्थाएं इस पर विचार करती नजर आ रही हैं कि अगर परिवारों को विघटन से बचाना है तो वे एकता कपूर के धारावाहिकों को न देखें। इसमें एक हद तक सच्चाई है कि अंतहीन कथानक वाले मेगा धारावाहिकों से परिवारों का विघटन हो रहा है। वहीं कुछ समाचार चैनल भी लेट नाइट शो में लोगों की यौन समस्या का निदान पेश करने वाले फोन इन कार्यक्रम पेश कर रहे हैं जिनकी भाषा निहायत ही बोल्ड या यों कहें की भदेश होती है जो बातें बंद कमरे में किसी डाक्टर से की जाना चाहिए उसे लाखों करोड़ों लोगों के बीच एयर किया जा रहा है। यानी टीवी चैनल अब सेक्स क्लिनिक के रुप में भी फंक्शन करने लगे हैं। इस प्रवृति से भले किसी टीवी चैनल के दर्शक बढ़ रहे हों पर क्या इसे सेक्स कंसल्टेंसी के नाम पर उचित ठहराया जा सकता है।
 --- विद्युत प्रकाश मौर्य


Tuesday 12 April 2011

आखिर कब तक देखें विज्ञापन


जब आप टीवी देख रहे होते हैं तो कई बार ऐसा होता है कि एक बाद दूसरा व दूसरे के बाद तीसरा विज्ञापन आता रहता है। आप अपने मनपसंद प्रोग्राम का इंतराज करते हुए झल्ला उठते हैं कि आखिर ये विज्ञापन कब खत्म होगा। आप परेशान होकर चैनल बदलते हैं तो वहां भी विज्ञापन आ रहा होता है। यानी आप टीवी पर लगातार विज्ञापन देखते देखते बोर हो चुके हैं। अब सरकार इस मामले में हस्तक्षेप करने का मन बना रही है। यानी टीवी पर एक घंटे में कितनी देर तक विज्ञापन दिखाया जाए इसके लिए आचार संहिता बनाई जाए। अभी तो यह स्थिति है कि 60 मिनट के प्रसारण में लोकप्रिय चैनलों पर 30 मिनट तक विज्ञापन दिखाई देते हैं। ऐसे में दर्शक टीवी कैसे देखे। खास कर पे चैनलों के मामले में जहां आप टीवी चैनल देखने के लिए भी भुगतान कर रहे हैं वहां पर कोई सीमा रेखा तो तय होनी ही चाहिए।
इस मामले में अखबारों और पत्रिकाओं में एक आचार संहिता तय है। कुछ समाचार पत्र खुद ही इसका पालन करते हैं। जैसे अधिकांश अखबार पहले पन्ने पर कितना विज्ञापन लेना है इस मामले में अपनी नीति बनाते हैं। व्यवहार में कोई भी समाचार पत्र संपादकीय पन्ने पर कोई विज्ञापन नहीं लेता है। पूरे अखबार के बारे में एक एक आचार संहिता तय की गई है कि 40 फीसदी से ज्यादा विज्ञापन प्रकाशित नहीं किए जाएंगे। हालांकि इस नियम को कई बार अखबार भी नहीं मानते।
ठीक इसी तरह टीवी के बारे में भी सरकार तय करना चाहती है। सरकार की मंशा है कि टीवी पर एक घंटे में 12 मिनट से अधिक विज्ञापन नहीं दिखाया जाए। यानी कि 20 फीसदी से ज्यादा विज्ञापन कंटेंट न हो। बाकी सब साफ्टवेयर कंटेंट ही हो। कुछ उपभोक्ता संगठनों की सलाह है कि जो पे चैनल हैं वे दर्शकों से सब्सक्रिप्शन फी वसूली करते हैं चैनल देखने की एवज में इसलिए उन्हें अपने चैनलों पर विज्ञापन बिल्कुल ही नहीं दिखाना चाहिए। अमेरिका सहित कई देशों में ऐसी परिपाटी है। वहां पे चैनल बिना विज्ञापन के होते हैं। वहीं कुछ चैनल सीमित विज्ञापन ही दिखाते हैं। भारत में भी टीवी चैनल विज्ञापनों की अधिकता को महसूस तो करते हैं पर विज्ञापन उनकी कमाई के बड़े साधन हैं इसलिए इस मामले में वे कोई नियम या आचार संहिता नहीं बनने देना चाहते हैं। आप टीवी पर किसी मूवी चैनल में एक ढाई घंटे की फिल्म देखना चाहते हैं तो आपको चार घंटे टीवी के साथ चिपके रहना पड़ेगा। इस चार घंटे में न जाने कितनी बार ब्रेक आएगा। यानी फिल्में देखने का स्वाद खराब। कुछ चैनलों ने बिना किसी ब्रेक के फिल्म दिखाने की परिपाटी भी आरंभ की है पर ऐसा सिर्फ हप्ते में एक दिन किसी फिल्म के साथ होता है।
वहीं जब समाचार चैनलों पर कोई लंबी खबर या किसी गंभीर विषयों पर चर्चा चल रही होती है तो उसमें भी बार बार कामर्सियल ब्रेक लिया जाता है। वह भी बता बता कर। कई बार तो खास कार्यक्रमों के लिए तुरंत फुरत विज्ञापन बुक किए जाते हैं। कई बार ऐसा लगता है कि शो या विशेष रिपोर्ट विज्ञापन के लिए ही दिखाया जा रहा हो। ये विज्ञापन कई बार किसी शो की गंभीरता को खत्म कर देते हैं। सभी चैनल मिलकर विज्ञापनों के लिए कोई संहिता तय करें ऐसा तो नहीं लगताअब यह देखना है कि सरकारी प्रयास कितना रंग ला पाता है।




Sunday 10 April 2011

टीवी से दूर रखें छोटे बच्चों को

अगर आपका नन्हा मुन्ना ज्यादा टीवी देखता हो तो यह अच्छी बात नहीं है। उसे आप टीवी से यथा संभव दूर ही रखें। आमतौर पर तीन चार महीने के बच्चे अपने आसपास की चीजों को देखकर खुश होने लगते हैं। ऐसे में वे टीवी की स्क्रीन पर भी देखते हैं। कई माता पिता को यह देखकर खुशी होती है उनकी बच्चा टीवी देख रहा है। पर वास्तव में यह कोई अच्छी बात नहीं है। आपकी कोशिश होनी चाहिए कि आपका बच्चा कम से कम टीवी देखे। बहुत छोटे बच्चे अगर ज्यादा टीवी देखने लगें तो उनका वास्तविक विकास रुक जाता है। आपको चाहिए कि बच्चों के साथ ज्यादा से ज्यादा समय तक आप खुद इंटरैक्ट करें। अगर आपके पास समय नहीं है तो परिवार को अन्य निकट सदस्य हो। बच्चा जितने ज्यादा समय तक परिवार के लोगों के साथ खेलता है बातें करता हैउसका विकास उतना ही स्वभाविक होता है।


नजदीक से टीवी देखना है हानिकारक- टीवी से खतरनाक एक्स किरणें निकलती हैं। ये बड़े लोगों के लिए भी खतरनाक होती हैं। जाहिर है छोटे बच्चे पर ज्यादा असर डाल सकती हैं। इसलिए बच्चे को ज्यादा देर तक टीवी नहीं देखने दें। खास तौर पर उसकी आंखों पर बुरा असर पड़ सकता है। इसके साथ ही टीवी के विभिन्न चैनलों पर कई बार अपराध व खून खराबे वाले दृश्य आते रहते हैं। उन पर यह चेतावनी भी लिखी होती है कि इन्हें बच्चे और कमजोर दिल वाले लोग नहीं देखें। कई बार आप यह ध्यान नहीं दे पाते कि बच्चे टीवी पर क्या देख रहे हैं। इसलिए ऐसे मामले को गंभीरता से लें।

उम्र के अनुसार खिलौने देंबच्चे को टीवी के सामने उलझाने के बजाय उसको उसकी उम्र के अनुसार ही खिलौने दें। जब आप किसी अच्छी खिलौने की दुकान पर जाते हैं। तो वहां आपको हर उम्र के हिसाब से खिलौने की रेंज देखने को मिलती है। सबसे छोटे बच्चों को अक्सर रंग पहचाने वाले खिलौने दिए जाते हैं। उसके बाद अलग अलग जानवरों फलों के आकार के खिलौने। अलग अलग तरह के ध्वनि उत्पन्न करने वाले खिलौने भी बच्चे पसंद करते हैं।

बच्चे को पार्क में घुमाएं- अगर आपके घर में सदस्यों की संख्या कम है तो बच्चे को अपने साथ पार्क में घुमाने के लिए ले जाएं। वहां की हरियाली और रंग बिरंगे फूलों को देखकर बच्चे खुश होते हैं। इसके साथ ही उनके दिमाग में एक बड़े लैंडस्केप की छवि बनती है। यह बच्चे के विकास में बहुत अच्छा योगदान करता है। पार्क में बच्चा अपनी उम्र के अन्य बच्चों को देखता है तो उसे खुशी होती है। वह उनके साथ कई बार खेलता है। अक्सर यह देखा जाता है कि संयुक्त परिवार में नन्हे बच्चे का विकास बेहतर होता है। पर अब संयुक्त परिवारों की परंपरा टूट रही है। ऐसे में बच्चे को पार्क में ले जाकर घुमाना अच्छा विकल्प हो सकता है।

बन जाएं बच्चे आप भी - कभी कभी आपको अपने बच्चे के साथ बच्चा ही बन जाना चाहिए। आप उसी की तरह चलें। उसी की तरह हरकत करें। हाथी घोड़ा बनकर उसके साथ खेलने की कोशिश करें इससे आपके बच्चे को काफी खुशी होगी। वह आपसे आत्मीयता महसूस करेगा। जो लोग अपने बच्चों के साथ ज्यादा समय नहीं दे पाते हैं उनके बच्चों का विकास रुक जाता है। वे एकांगी हो जाते हैं। मायूस रहने लगते है। बाकी बच्चों से उनका दिमाग भी कमजोर विकसित होता है।

टीवी देखने का समय तय करें - ये संभव नहीं है कि आप अपने लाडले को बिल्कुल टीवी देखने से रोक दें। पर आप उनका टीवी देखने का समय नीयत कर सकते हैं। इसके साथ उनकी उम्र के हिसाब से एक चैनलों की सूची बनाकर दें। अगर बच्चे की उम्र 6 साल से ऊपर की है तो उन्हें समझा कर कार्टून से शैक्षिक चैनलों की ओर शिफ्ट करें। इसका आपको लाभ दिखाई देगा।  दिन रात टीवी के साथ गुजारने वाले बच्चों की आंखों पर नन्ही उम्र में चश्मा चढ़ जाता है, उससे बचने की कोशिश करें।
- विद्युत प्रकाश मौर्य



Friday 8 April 2011

छोटे परदे पर एडल्ट कंटेंट


- विद्युत प्रकाश 
vidyutp@gmail.com
हो सकता है भारत में आपको टीवी पर वयस्क फिल्में खुलेआम देखने को मिल सकें। बस इसका समय तह हो जाएगा। भारत में सेटेलाइट चैनलों का प्रसारण अब दूसरे दशक में है। आज 200 के करीब चैनलों के सिग्नल भारत में प्राप्त हो रहे है। पिछले कई सालों से कुछ चैनल एडल्ट कंटेंट का प्रसारण अपने चैनल पर करने को तैयार बैठे हैं। कई साल पहले एक भारतीय कंपनी ने पूर्णतया वयस्क चैनल लाने की बात कही थी। पर अभी तक ऐसा नहीं हो सका। समय पर कुछ ऐसे चैनल आए जिन्होंने एडल्ट प्रसारण किया पर सरकार ने शिकायत मिलने पर ऐसे चैनलों के खिलाफ कार्रवाई की। जब सुषमा स्वराज सूचना प्रसारण मंत्री बनीं थीं तो उन्होंने किसी भी टीवी चैनल पर तमाम एडल्ट कंटेट को नहीं दिखाए जाने की बात कही थी। पर एक लाबी सक्रिय है जो चाहती है कि टीवी पर वयस्क प्रसारण हो।
हाल मे सेंसर बोर्ड की चेयर पर्सन शर्मिला टैगौर खान ने कहा कि अब टीवी पर वयस्क प्रसारण में कोई बुराई नहीं है। हां इसके लिए समय तय होना चाहिए। यह समय देर रात का हो सकता है जब बच्चे सो जाते हैं। यानी रात के 11 बजे से लेकर सुबह 4 बजे तक का समय। इस मामले में वे सूचना प्रसारण मंत्रालय को सलाह भी दे रही हैं।
इस बात की क्या गारंटी है कि इस समय पर अगर टीवी चैनलों पर वयस्क कंटेंट का प्रसारण होगा तो कोई बच्चा उसे नहीं देखेगा। नई पीढ़ी के बच्चे भी सूचना संपन्न हैं। उन्हें सब कुछ पता चल जाएगा। दूसरा यह कि आजकल टीवी सेट एक घर के सभी बेडरूम में होता है बच्चे चुपके चुपके ऐसे कार्यक्रमों को देख सकते हैं। आप उन्हें कैसे रोकेंगे। शर्मिला टैगोर का तर्क है कि दुनिया के कई देशों में इस तरह के चैनलों का प्रसारण होता है तो हम कैसे उसे रोक कर रख सकते हैं। स्टार अपने चैनल पर एडल्ट कंटेंट का प्रसारण करता है। इसके लिए उसने खुद की ही सेंसर नीति बनाई हुई है। उसने फिल्मों को चार भागों में वर्गीकृत कर रखा है। पर वहां भी ऐसा नहीं होता है कि जो फिल्में सिर्फ वयस्कों के लिए होती हैं उसे बच्चे नहीं देखते। ऐसी फिल्मों के प्रसारण से पूर्व एक मार्क जरूर आता है जिसका कोई मतलब नहीं होता। इस वर्गीकरण को जितना भी प्रचारित किया जाए कम उम्र के लोगों में ऐसी फिल्मों के प्रति रूचि बढ़ती ही जाएगी।
वहीं डीटीएच पर मूवी आन डिमांड का विकल्प मौजूद है। इसमें आप कोई फिल्म देखना चाहते हैं तो उचित शुल्क देकर फिल्म को अपने टीवी पर मंगा सकते हैं। एक निश्चित समय पर देखने के बाद यह फिल्म आपके टीवी से अपने आप चली जाएगी। ऐसी स्थिति में यहां बच्चों से एडल्ट मूवी को दूर रखे जाने का विकल्प मौजूद है। फिलहाल तो डीटीएच के मूवी आन डिमांड वाले भी एडल्ट फिल्मों का प्रसारण नहीं कर रहे हैं। पर सरकार की कोई स्पष्ट नीति बन जाने के बाद ऐसा संभव हो सकेगा। सरकार अभी तक को वयस्क प्रसारण को लेकर इस सिद्धांत पर ही चल रही है कि भारत में ऐसे चैनलों का प्रसारण रोकना है। समय समय पर ऐसे चैनलों के खिलाफ कार्रवाई भी हुई है। पर शर्मिला टैगौर जैसी शख्शियतें जिस तरीके से भारत में टीवी पर वयस्क प्रसारण की वकालत कर रही हैं उससे लगता है कि वह दिन दूर नहीं है जब सरकार का सूचना प्रसारण मंत्रालय इस बारे में कोई साफ नीति बना लेगा। तब देर रात में ऐसी फिल्मों और कार्यक्रमों का प्रसारण वैधानिक रूप से संभव होगा।




Wednesday 6 April 2011

आ गया हाई डेफनिशन टीवी का दौर


दिल्ली में कॉमनवेल्थ खेलों की शुरूआत के साथ ही एक और इतिहास रचा जा चुका है। टेलीविजन प्रसारण के क्षेत्र में हमने हाईडेफनिशन यानी एचडी टीवी के दौर में कदम रख दिया है। 1982 में जब भारत में एशियाई खेलों की शुरूआत हुई थी तब पहली बार देश में रंगीन प्रसारण की शुरूआत हुई थी। अब साल 2010 में डीडी एचडी टीवी नामक नया चैनल शुरू कर चुका है। हाई डेफनिशन टीवी पर तस्वीरें परंपरागत टीवी की तुलना में पांच गुनी ज्यादा साफ दिखाई देती हैं। हालांकि अभी देश में हाई डेफनिशन टीवी देखने वालों की संख्या महज तीन लाख के आसपास है, लेकिन जल्द ही इस संख्या में इजाफा होगा। अगर दुनिया की बात करें 2003 में पहली बार अमेरिकन फुटबाल का प्रसारण हाई डेफनिशन टीवी पर हुआ था। तो डिश टीवी, रिलायंस बिग, सन डाइरेक्ट समेत कई डीटीएच आपरेटरों ने हाई डेफनिशन टीवी का प्रसारण अपने नेटवर्क पर शुरू कर दिया है।लेकिन हाई डेफनिशन टीवी का मजा लेने के लिए आपके डीटीएच का सेट टाप बाक्स भी हाई डेफनिशन रेडी होना चाहिए। यानी पुराने सेट टाप बाक्स को बदलना पड़ेगा। साथ ही अगर आपके पास परंपरागत सीआरटी यानी कैथोड रे ट्यूब वाला टीवी सेट है तो उस टीवी सेट को भी बदलना पड़ेगा। आजकल बाजार में जितने भी एलसीडी,एलईडी या प्लाज्मा स्क्रीन मिल रहे हैं, सभी हाई डेफनिशन रेडी हैं।

क्या है एचडी और एऩलॉग में अंतर-
हाई डेफनिशन टीवी की स्क्रीन का अनुपात 16:9 का होता है। जबकि परंपरागत सीआरटी टीवी का 4:3 का। यानी हाई डेफनिशन टीवी में स्क्रीन की चौड़ाई अधिक होती है, जैसा कि आप बाजार में मिलने वाले नए टीवी स्क्रीन और लैपटॉप आदि के स्क्रीन को देखते होंगे।समान्यटीवी एनलाग टेक्नोलाजी परकाम करता है जबकि एचडीटीवीडिजिटल तकनीक पर काम करता है। रिजोल्यूशन ज्यादा होने केकारण इस तरह के टीवी पर आपकोतस्वीर बिल्कुल साफ दिखाईदेगी। काफी हद तक वैसे जैसैघटनाएं आपकी आंखों के सामनेघट रही हों। समान्य भाषा मेंहम कह सकते हैं कि एचडीटीवीमें तस्वीर की स्पष्टता समान्यटीवी से पांच गुनी ज्यादा होगी।
परंपरागतटेलीविजन में जो तस्वीरें आपदेखते हैं वह कई सौ ब्राइटनेसलाइनों से मिलकर बनती हैं।इन लाइनों में छोटे-छोटेडाट्स (बिंदुहोतेहैं जिन्हें हम पिक्सेल कहतेहैं। आमतौर पर एनलाग रंगीनटीवी में 525 ब्राइटनेसलाइन होती हैं जबकि हर लाइनमें 500 डाट्सहोते हैं। इनसे मिलकर ही बनतीहै आपके टीवी की मुकम्मल तस्वीर।एनलॉग टीवी एनटीएससी ( नेशनलटेलीविजन स्टैंडर्ड कमिटीतकनीकपर काम करता है। इसमें अधिकतम 525 लाइनेंहोती हैं जिनमें 480 हीदिखाई देती हैं। समान्यतःटीवी की तस्वीर कुल 2.10 लाखपिक्सेल से बनती है। जबकिएचडीटीवी में तस्वीर 20 लाखपिक्सेल से बनती है। यानीएनलाग टीवी से तस्वीर 10 गुनीसाफ दिखाई देगी।
एचडीटीवीकी विशेषताएं
1.तस्वीरों की जीवंतताउच्चरिजोल्यूसन।
डाल्बीडिजिटल क्वालिटी की आवाज।
3.कंप्यूटरसे सीधे जोड़ने रिकार्ड करनेकी सुविधा
4. वाइडतस्वीर यानी अतिरक्त इमेजएरिया,स्क्रीनके चौड़ा होने के कारण एचडीटीवीमें वाइड उपस्थिति होती है।टीवी स्क्रीन का अनुपात 16- 9 काहोता है। वैसी ही जैसी कीसिनेमास्कोप फिल्म देखतेसमय महसूस होता है। यानीप्रसारण में आप अतिरिक्त इमेजएरिया देख सकते हैं। 5. एचडीटीवीमें 5.1 चैनलसीडी प्लेयर जैसी क्वालिटीकी आवाजहोती है। यानी आप घरमें होम थियेटर लगा सकते हैं।साथ ही डाल्बी डिजिटल क्वालिटीकी आवाज सुनी जा सकती है।
 6. एचडीटीवीमें तस्वीर का प्रसारण एमपीईजी-2 या एमईपीजी-4 तकनीकका इस्तेमाल होता है। वहीतकनीक जिसका इस्तेमाल कंप्यूटरोंमें तस्वीरें के लिए हो रहाहै। इसलिए एचडीटीवी की तस्वीरों कोकंप्यूटर या मल्टी मीडियापीसी पर सीधे रिकार्ड कियाजा सकता है।

अगर आप एचडीटीवी खरीद भी लेते हैंतो सिर्फ इतने से बात नहीं बनती। बेहतर क्वालिटी कीतस्वीर प्राप्त करने के लिएजरूरी है कि प्रसारक भी एचडीटीवीकी क्वालिटी पर ही प्रसारणकरें। अमेरिका और जापान केकई टेलीविजन प्रसारक अब इसतकनीक पर प्रसारण कर रहे हैं।यानी टेलीविजन स्टेशन के लिएतकनीक में अपग्रेडेशन जरूरीहोगा। भारत में भी डीडी एचडी के अलावा डिस्कवरी और नेशनल ज्योग्राफिर जैसे चैनलों ने एचडी प्रसारण शुरू कर दिया है। आने वालेदिनों में कई और ब्राडकास्टर इसतरह का बदलाव करने की तैयारी कर रहे हैं। टेलीविजनबनाने वाली कंपनियां धीरे-धीरे एचडीटीवी पर शिफ्ट कर रहीहैं। दुनिया भर के टीवी कंपनियों ने अब नए एनलॉग कलर टीवी का निर्माणपर रोक लगा दी है।
विद्युत प्रकाश मौर्य


Monday 4 April 2011

आईपी टीवी का दौर


अभी बाजार में डाइरेक्ट टू होम यानी डीटीएच के क्षेत्र में दो खिलाडि़यों के बीच घमासान देखने के मिलने वाला था कि अब आईपीटीवी ने भी भारतीय बाजार में दस्तक दे दी है। अब आपको न तो केबल कनेक्शन लेने की जरूरत है न ही डीटीएच उपकरण पर कोई राशि खर्च करने की। 

आपको पास अगर बेसिक टेलीफोन की लाइन है तो इसके उपर ही आपको टेलीविजन देखने को भी मिल सकेगा। इसका सबसे बड़ा फायदा है कि आप टेलीफोन पर बातें भी कर सकेंगे साथ ही टीवी भी देख सकेंगे। यानी एक ही तार से टीवी और टेलीफोन दोनों ही चलेंगे पर किसी भी सिस्टम में कोई व्यावधान नहीं पैदा होगा। ब्राडबैंड टेलीफोन के साथ आपको इंटरनेट चलाने की सुविधा को प्राप्त होगी ही। इसका मतलब यह हुआ कि एक ही तार पर टेलीफोन इंटरनेट और केबल टीवी का सपना अब मूर्त रूप ले चुका है। इसके साथ ही सेटेलाइट चैलनों को अब टीवी पर प्राप्त करने के लिए तीन अलग अलग विकल्प सामने आ गए हैं। केबल टीवी डीटीएच और आईपीटीवी।

आईपीटीवी के फायदे - आईपीटीवी यानी इंटरनेट प्रोटोकाल टीवी के केबल या डीटीएच की तुलना में कई फायदे हैं। सबसे बड़ा फायदा तो यह है कि इसके लिए आपको केबल पर अलग से कोई राशि खर्च करने की कोई जरूरत नहीं है। न ही केबल के लिए घर में अलग से कोई वायरिंग कराने की जरूरत है। 
जब चाहें देंखे प्रोग्राम- किसी भी सेटेलाइट चैनल पर आने वाले कार्यक्रम को अपने पसंदीदी समय पर आईपीटीवी पर देखा जा सकता है। जैसे मान लिजिए सोनी पर कोई कार्यक्रम प्रसारित होता है जिसे आप दफ्तर में होने के कारण नहीं देख पाते। आईपीटीवी पर आप उस चैनल की सूची में जाकर पिछले एक हप्ते में प्रसारित किसी भी कार्यक्रम को देख सकते हैं। उसे अपनी पसंद के अनुसार समय पर प्ले कर सकते हैं। यह एक विशेष सुविधा है जो अभी तक केबल टीवी पर उपलब्ध नहीं थी। अब आपको इस बात का कोई संकट नहीं है कि आपका पसंदीदा धारावाहिक छूट गया। आप उसे अपने समय के अनुसार ट्यून कर सकते हैं।

वीडियो आन डिमांड आईपीटी पर आप अपने पसंद के कार्यक्रम को डिमांड करके मंगा सकते हैं। यह एक वैल्यू एडेड सर्विस होगी जिसके लिए आपको अलग से भुगतान करना होगा। आईपीटीवी पर दिखाए जाने वाले चैनलों की प्रसारण क्वालिटी भी डिजिटल है यानी केबल टीवी से बेहतर।

वाजिब दाम पर फिलहाल आईपीटीवी की सुविधा उपभोक्ताओं को वाजिब दाम पर ही उपलब्ध कराई जा रही है। दिल्ली में एमटीएनल ने इसके लिए 135 रुपए मासिक शुल्क रखा है जबकि मुंबई में इससे कुछ ज्यादा है। डिश टीवी और टाटा स्काई डीटीएच की सेवाएं भी 180 और 200 रुपए मासिक की शुल्क पर उपलब्ध हैं। 

एमटीएनएल आईपीटीवी पर फिलहाल 24 टीवी चैनलों के सिग्नल उपलब्ध करा रही है। पर जल्द ही वह 100 से अधिक चैनल उपलब्ध कराएगी। यानी जो लोग एमटीएनएल का ब्राडबैंड कनेक्शन का इस्तेमाल कर रहे हैं उन्हें अलग से डीटीएच के लिए इन्वेस्ट करने की कोई जरूरत नहीं है। एमटीएनएल ने यह सेवा दिल्ली व मुंबई में निजी कंपनियों की सहायता से आरंभ कि है जो उसे तकनीकी सहायता उपलब्ध करा रहे हैं। एमटीएनल उपभोक्ताताओं के बीच आईपीटीवी की मार्केटिंग कर रही है व बिल वसूली की जिम्मेवारी निभा रही है। हो सकता है दूसरे बेसिक फोन आपरेटर भी आने वाले दिनों में यह सुविधा उपलब्ध कराएं। 
 - विद्युत प्रकाश मौर्य


Saturday 2 April 2011

डीडी डायरेक्ट प्लस में नए चैनल


डीडी डाइरेक्ट प्लस के लिए हाल में हुई पहली ई नीलामी में इस प्लेटफार्म पर 22 नए चैनलों को जगह मिली है। इसके साथ ही 20 अगस्त से डीडी डाइरेक्ट प्लस पर 80 चैनल देखे जा सकेंगे। पहली ई नीलामी से दूरदर्शन को 46 करोड़ रूपये की आमदनी हुई है। वहीं कई नए क्षेत्रीय, मनोरंजन और मूवी चैनल भी डीडी के डीटीएच पर जुड़ने जा रहे हैं।

दूरदर्शन की डीटीएच गांवों और कस्बों में निजी आपरेटरों के तुलना में ज्यादा लोकप्रिय है लेकिन अब डीडी डाइरेक्ट प्लस और भी लोकप्रिय हो सकता है। कारण है इसके बुके में नए टीवी चैनलों का आना। ताजा नीलामी के बाद डीडी के डीटीएच प्लेटफार्म पर कई और चैनल शामिल होने जा रहे हैं। इससे दूरदर्शन के डीटीएच पर उपलब्ध फ्री चैनलों की संख्या 100 को पार कर जाएगी। 


फिलहाल देशभर में सात डीटीएच आपरेटर हैं। इनमें छह आपरेटर प्राइवेट हैं। जो उपभोक्ताओं से हर महीने टीवी देखने के एवज में 150 रूपये से लेकर 400 रूपये मासिक तक शुल्क वसूलते हैं। लेकिन दूरदर्शन का डाइरेक्ट प्लस इन सबसे से अलहदा है, इसमें कोई शुल्क नहीं देना पड़ता। बस एक बार इंस्टाल करने का खर्च है। आमतौर पर डीडी डाइरेक्ट प्लस की सेट टाप बाक्स और एंटीना 1500 रूपये में मिल जाता है। 100 रूपये खर्चे में इसे मैकेनिक इंस्टाल कर देता है। दूरदर्शन का ये डीटीएच वैसे लोगों के बीच लोकप्रिय है जो हर महीने शुल्क नहीं देना चाहते या वैसे लोग जिनकी मनोरंजन पर जेब खर्च करने की क्षमता ज्यादा नहीं है। खास तौर पर कस्बे और गांव में डीडी डाइरेक्ट प्लस लोकप्रिय है। जब डीडी डाइरेक्ट लांच हुआ था तब इसमें 33 चैनल उपलब्ध थे। इसके साथ ही इस पर रेडियो के 12 चैनल भी सुने जा सकते थे। इन 33 चैनलों में दूरदर्शन के ही 18 चैनल थे। तब हालांकि डीडी के डाइरेक्ट प्लस को धीमी लोकप्रियता मिली। लेकिन धीरे धीरे सस्ता और निशुल्क होने कारण इसकी लोकप्रियता में अपने आप इजाफा होता गया। शुरूआत में निजी प्रसारकों ने डीडी डाइरेक्ट प्लस के प्लेटफार्म पर जाने में ज्यादा रूचि नहीं दिखाई थी। लेकिन तकनीकी विस्तार होने पर इसमें बाद में कुछ और चैनल जोड़े गए। दूसरे विस्तार के बाद डीडी डाइरेक्ट पर 58 चैनल उपलब्ध थे। लेकिन तब तक तमाम छोटे बड़े निजी चैनलों में डीडी डाइरेक्ट पर जाने के लिए होड़ लग गई। लेकिन तमाम चैनल लाइन में लगे रहे जगह मिल सकी कुछ ही चैनलों को। अब निजी प्रसारकों को समझ में आ गया है कि ज्यादा लोगों तक पहुंचने के लिए डीडी डाइरेक्ट अच्छा जरिया है।

लेकिन अब इंडियन स्पेश रिसर्स आर्गनाइजेशन यानी इसरो के एडवांस सेटेलाइट जीसेट 8 के प्रक्षेपण के बाद डीडी डाइरेक्ट प्लस के विस्तार की संभावना में इजाफा हो गया है। अब डीडी डाइरेक्ट पर 200 चैनलों के लिए जगह है। ये सेटेलाइट 24 केयू बैंड ट्रांसपोंडर्स से लैस है। जाहिर है जब खाली जगह पर निजी टीवी चैनलो को जगह देने के लिए सरकार ने जब बोली लगाई तो बडी संख्या में निजी प्रसारकों ने हिस्सा लिया। दूरदर्शन इन चैनलों से साल भर की कैरेज फीस वसूलेगा। इसके बदले में ये चैनल देश भर के लोगों को फ्री में उपलब्ध होंगे। 

देश में चैनलों की बढ़ती संख्या के बीच चैनलों में मारी मारी इस बात को लेकर है कि वे कैसे ज्यादा बड़ी आबादी तक पहुंचे। अभी तमाम ऐसे चैनल ब्राडकास्ट हो रहे हैं जिन्हे कोई देखता तक नहीं। हर शहर के केबल आपरेटरों को चैनल दिखाने के लिए हर महीने मोटी राशि अघोषित तौर पर देनी पड़ती है। इसमें मिड्ल क्लास चैनल पिछड़ जाते हैं। ऐसे में देश की एक बड़ी आबादी  तक पहुंचने के लिए डीडी डाइरेक्ट प्लस अच्छा जरिया हो सकता है। लेकिन इस पूरी कवायद में दर्शक तो फायदे में रहेगा क्योंकि उसे तो मुफ्त में 200 चैनल देखने को मिलने वाले हैं। ऐसे में उसके सामने ढेर सारे विकल्प मौजूद होंगे बिना कोई मासिक शुल्क दिए हुए ही।
    
 -विद्युत प्रकाश मौर्य