Monday 26 March 2018

दास बाबू का जूता ( कहानी )

हर किसी की अपनी अपनी किस्मत होती है, लेकिन भला जूते की...जूते की भी कोई किस्मत होती है। जूते तो पांव में रौंदे जाने के लिए ही होते हैं, चाहे वे अमीर के पांव में हों या फिर गरीब के पांव में। लेकिन नहीं जनाब जूतों की भी अपनी किस्मत होती है। हमें याद आता है दास बाबू का जूता। जो कई सालों तक अपनी किस्मत पर रश्क फरमाता रहा।

वैसे तो एक जूता मेरे पास भी था जो अपनी अच्छी किस्मत लिखवा कर लाया था। वह हमें ज्यादा सुख नहीं दे सका पर खुद अच्छा खासा सुख भोग कर रुखसत हुआ। वह जूता मुझे अपनी शादी में ससुराल से मिला था। ससुर जी ने खुद एक जाने माने ब्रांड का जूता स्टोर से जाकर दिलवाया था। कीमत होगी कुछ तीन हजार रुपये। अब इतना महंगा जूता था सो हम भी उसे बड़े जतन से पहनते थे। शादी के बाद खास खास मौकों पर उसे निकालते थे। दिल में हसरत थी कि शादी का जूता है सो बीवी की तरह ये भी लंबा साथ निभाए। इसलिए जस की तस धर दीनी चदरिया की तर्ज पर हम भी अपने प्यारे जूते को खास मौकों पर पहनते फिर उसे बड़े जतन से पालिश करके रख देते थे।

दो साल में कुल जमा छह सात बार जूते को पहना होगा, एक दिन जब जते को निकाला तो उसका सोल ( पेंदी) क्रेक (टूट) कर गया था। बड़ा दुख हुआ जूते का हश्र देखकर। हम जूते के साथ पहुंचे उस कंपनी के शोरूम में। सारा वाकया सुनकर शोरुम वाले ने समझाया हमारी कंपनी अपने महंगे जूतों में खास किस्म का सोल ( पेंदा ) लगाती है। आपको इस जूते को लगातार पहनना चाहिए था जिससे जूता सांस ले पाता। अब आपने जूते को ज्यादातर समय पैक करके रखा तो उसका अंत ऐसा ही होना था। मुझे बड़ा दुख हुआ अपने ससुराली जूते का ये अंजाम देखकर। खैर कहानी भटक गई थी मैं आपको सुनाने चला था दास बाबू के जूते की कहानी...और कहां अपने जूते की बात सुनाने लगा।


दास बाबू के जूते के बारे में जानने से पहले थोड़ा सा दास बाबू के पृष्ठभूमि के बारे में जान लेना जरूरी है। दास बाबू बिहार के एक बाढ़ प्रभावित जिले के गांव से आते थे। बचपन उनका गरीबी में गुजरा था। स्कूली शिक्षा में  दसवीं क्लास तक तो चप्पल भी नहीं पहनी थी। कालेज पहुंचे तो हवाई चप्पल पहनना शुरू किया। पढ़ाई में होशियार थे। लेकिन घर की खराब माली हालत के बीच बड़ी मुश्किल से बीए पास किया। किस्मत ने साथ दिया बैंक में मैनेजर की नौकरी लग गई। वैसे तो आफिसर हो गए थे लेकिन रहन सहन में कोई बदलाव नहीं आया था। कुल जमा दो शर्ट और दो पैंट बनवा रखी थी। एक लेदर का चप्पल पहन कर दफ्तर जाते थे। दफ्तर से आने के बाद लूंगी और बनियान में आ जाते। रात का खाना खुद बनाकर खाते। खाना बनाने से पहले चावल चुनकर उसकी सफाई करते। इस दौरान बीबीसी पर खबरें सुनते और देश दुनिया के हालात से खुद को बाखबर रखते।

एक दिन उनके सहकर्मियों ने सलाह दी। दास बाबू अब आप अधिकारी हो गए हैं सो इन चप्पलों में दफ्तर आना शोभा नहीं देता। सो आप एक जोड़ी जूता खरीद लिजिए। दास बाबू ने टका सा जवाब दिया- इंसान की फितरत उसके जूतों, कपड़ों से नहीं उसकी दिमाग से होती है। जवाब तो दे दिया लेकिन जूतों वाली बात कहीं न कहीं दास बाबू के दिमाग में बैठ गई। अगले दिन से वे अपने सहकर्मियों के जूतों पर नजर रखने लगे। उन्होंने पाया कि उनके जूनियर किरानी टाईप के लोग भी चमचमाते जूते में दफ्तर आते हैं। सो एक दिन वे अपने सहकर्मी के साथ बाजार गए तो जूता खरीदने को तय कर लिया। तब के लोकप्रिय ब्रांड बाटा के शोरूम में गए। वहां से बाटा का सम्मानित जूतों का माडल यानी एंबेस्डर जूतों की एक जोड़ी खरीद ही लिया। शोरूम के मैनेजर ने कैशमेमो के साथ गत्ते के डिब्बे में जूता लाकर उन्हें सौंप दिया।

अपना जूता लेकर दास बाबू उस दिन जब घर को लौटे तब रिक्शा पर बैठने के बाद अपने सहकर्मी को दुनिया के तमाम जूतों के ब्रांड के बारे में बताने लगे जिनके जूते भारत में तब नहीं मिलते। कहने का मतलब कि उनको जूतों की तमाम कंपनियों के नाम मालूम थे। अब वे हक से जूतों की अच्छाई बुराई के बारे में चर्चा कर सकते थे, क्योंकि एंबेस्डर खरीदकर वे इलीट क्लब में शामिल हो गए थे।
घर आकर दास बाबू ने अपने जूते के पैकेट को अपने रैक पर किताबों के ऊपर रख दिया। जूते का डिब्बा कुछ इस तरह रखा था कि बाटा एंबेस्डर कमरे में आने वालों को पहली नजर में ही दिखाई दे जाता था। लेकिन यह क्या अगले दिन दास बाबू अपनी पुरानी चप्पल में ही दफ्तर गए। शाम को दफ्तर से लौटने पर मुझसे रहा नहीं गया, हमने पूछ ही डाला जूता खरीद लिया तो उसे पहन कर क्यों नहीं गए। दास बाबू बोले अब जूता ले लिया इसका मतलब ये तो नहीं कि इसे आज ही पहन लिया जाए। कुछ दिन गुजर गए। एक दिन दफ्तर में चेयरमैन के साथ सभी अधिकारियों की बैठक थी। हमलोगों ने सलाह दी- चाचा जी आज तो आप जूता धारण कर ही लिजिए। उस दिन दास बाबू की इच्छा हुई की नए जूते का उद्घाटन कर ही डालें। पर एक मुश्किल आ गई। जूता खरीद लिया था पर उसका मोजा नहीं खरीदा था। सो दास बाबू बैठक में चप्पल में ही चल पड़े या यूं कहिए की जाना पड़ा।

शाम को दास बाबू जूते से मैचिंग का मोजा, जूते साफ करने वाला ब्रश, पालिश व क्रीम भी लेकर आ गए। हालांकि अगले दिन भी उन्होंने जूते को धारण नहीं किया। उन्होंने कहा कि कोई खास मौका आएगा उस दिन जूता पहनूंगा। दास बाबू हर शनिवार को अपने गांव चले जाते थे। वे सोमवार को वापस लौटते थे। हर सोमवार को वापस लौटने पर अपने जूते को डिब्बे से निकालते। बड़ी हशरत से उसे देखते थे। उसे ब्रश से चमका कर फिर डिब्बे में पैक कर देते।

एक दिन दास बाबू का चेयरमैन के साथ दौरा लगा। दियारा क्षेत्र में जाना था जांच पड़ताल के लिए। मैंने सलाह दी चेयरमैन के साथ जा रहे हैं तो जूते पहन कर जाएं। गांव में लोग देखेंगे दो अफसर आए हैं। लेकिन दास बाबू को मेरी सलाह रूचिकर नहीं लगी। उन्होंने तर्क दिया- गांव में जीप से उतरकर पैदल घूमना होगा। क्या ये अकलमंदी होगी कि इतने महंगे जूते को गांव की धूल में खराब किया जाए। मुझे उनके साथ सहमत होना पड़ा। जूते का मुहुर्त नहीं हो सका।

मुझे याद आया गांव में कीचड़ पंकीले रास्ते होते हैं तो गांव के लोग इससे अपने जूतों की संभाल करते हैं। मेरे गांव के कंजूस दादा जी जब किसी रिश्तेदारी में जाते थे, तब अपनी पनही को गमछे में बांध कर नंगे पांव जाते थे। जब रिश्तेदारी के गांव की सीमा में पहुंच जाते थे तब जूते तो गमछे से निकाल कर पांव साफ करके पहन लेते थे। गांव के तमाम लोगों को सालों भर जूते चप्पल पहनने की आदत नहीं होती। खैर लौटते हैं दास बाबू के पास।

बैंक एक सहयोगी की शादी थी। उसने दास बाबू को भी बारात में चलने के लिए आमंत्रित किया। मैंने सलाह शादी में जा रहे हैं नए जूते पहन लिजिए।लेकिन दास बाबू ने कहा नहीं शादी में भीड़ भाड़ होती है। लोग एक दूसरे का पांव कुचल देते हैं। मेरे नए जूते का कबाड़ा हो सकता है। फिर शादियों में जूते चुराने का भी रिवाज है। इसलिए अच्छा यही होगा कि मैं अपने पुराने चप्पलों में ही शादी में जाऊं। उनका तर्क सोलह आने सही था। फिर जूते की किस्मत नहीं खुली। शादियों के मौसम के बाद बरसात का मौसम आ गया। इन चार महीने जूते पहनना दास बाबू की नजर में अक्लमंदी बिल्कुल नहीं थी। न जाने कब बारिश में फंस जाएं महंगे लेदर के जूते का सत्यानाश हो जाए।

फिर मौसम बदला। बैंक के चेयरमैन का तबादला हो गए। नए चेयरमैन आ रहे थे। स्वागत समारोह व विदाई पार्टी का आयोजन साथ साथ था। अब दास बाबू को भी पार्टी में जाना था। जूते खरीदे छह महीने से ज्यादा हो चुके थे। मैंने सलाह दी ये पार्टी आपके जूते पहनकर जाने के लिए ठीक रहेगी। दास बाबू को सलाह जंच गई। शुभ मुहुर्त आ चुका था। दास बाबू दिन में दफ्तर तो चप्पल में ही गए। शाम को पार्टी में जाने से पहले दास बाबू अपने कमरे में आए बड़े जतन से जूते को पहना। नए जूते को पहनकर चलने में दास बाबू को मानो से कुछ परेशानी हो रही थी। वे खुद को असहज महसूस कर रहे थे। तीन घंटे की पार्टी में वे बार बार नीचे झुक कर अपने जूते को निहार रहे थे। कई बार तीरछी नजर से अपने जूते को देख लेते थे। पार्टी में कई लोगों उनकी पर्सनलिटी की तारीफ की। 

दास बाबू को लगा कि इसमें जरूर मेरे जूतों का भी कुछ योगदान है। पार्टी से लौटे तो अपने नए जूतों के साथ सहज हो चुके थे। देर रात अपने कमरे में पहुंचने के बाद बड़े जतन से अपने जूतों को उन्होंने उतारा। उसकी सफाई की और फिर से डिब्बे में पैक कर दिया। अगले दिन से दास बाबू फिर अपनी पुरानी चप्पल में ही दफ्तर जाने लगे। मुझे याद आता है कि अगले एक साल में उन्होंने अपने प्यारे जूते को दो बार और पहना होगा। दरअसल में इतने मंहगे जूते को पहन कर जिस दिन जाते उन्हें लगता मानो वे अपने जूतों का शोषण कर रहे हों। जूते का डिब्बा अभी भी किताबों की रैक पर सबसे ऊपर सुशोभित हो रहा था। हमलोगों ने कई बार कहा जूते डिब्बे को सबसे नीचे रखें, लेकिन वे नहीं माने। उनका जूता प्रेम किताबों पत्र पत्रिकाओं से उपर था।

उत्तर कथा-
कहानी में लोग अक्सर जानना चाहते हैं फिर क्या हुआ। तो लिजिए साहब आते हैं क्लाइमेक्स पर। दो साल गुजर गए थे। दास बाबू ने जूता कुल जमा तीन बार ही पहना था। होली की छुट्टियां आईं। तीन दिनों के लिए दास बाबू और हम सब लोग अपना कमरा बंद करके अपने अपने घर चले गए। इन छुट्टियों में कोई छोटा-मोटा चोर हमारे कमरे का ताला तोड़कर दाखिल हुआ। उसने पूरा कमरा छान मारा। उसे चुराने लायक कोई वस्तु नहीं मिली। चोर बड़ा दुखी हुआ। उसने सारे डिब्बे खोल कर देखना शुरू किया। उसने जूते वाला डिब्बा देखा। बिल्कुल नए चमचमाते जूते। चोर ने फटाफट उन जूतों को अपने पांव में धारण किया। हां उसने अपनी चप्पलों को इस डिब्बे में स्थापित कर दिया। और रफ्फूचक्कर। होली की छुट्टी के बाद दास बाबू लौटे। सारी खबर मिली। दास बाबू शोकग्रस्त हो गए। मन ही मन उन्होंने तय कर लिया था अब फिर कभी जूते नहीं खरीदेंगें। दास बाबू जूता अब किस हाल में है ये इस कहानीकार को भी नहीं मालूम।
-    विद्युत प्रकाश मौर्य
( 2013 )      


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