Monday 4 February 2013

हिंदी प्रकाशन के शलाका पुरूष कृष्णचंद्र बेरी और मैं

अपने कक्ष में कृष्ण चंद्र बेरी - 1996 ( फोटो-विद्युत) 
किसी के जीवन में उसका पहला काम पहला अनुबंध (एसाइनमेंट) बहुत महत्व रखता है। मेरा परिचय हिंदी प्रकाशन जगत के शलाका पुरुष कृष्ण चंद्र बेरी से होना एक संयोग था। तब मैं काशी हिंदू विश्वविद्यालय में एमए की पढ़ाई के साथ पत्रकारिता में फ्रीलांसिंग कर रह रहा था। दीप जगत के फीचर प्रभारी जीतेंद्र मुग्ध ने एक विषय दिया महंगी होती पुस्तकों के लिए जिम्मेवार कौन...इस पर प्रमुख प्रकाशकों से बातें करके फीचर तैयार करो। मैं विश्वविद्लाय प्रकाशन के पुरूषोत्तम दास मोदी, चौखंबा विद्या भवन के स्वामी और हिंदी प्रचारक संस्थान के निदेशक श्री कृष्णचंद्र बेरी से इसी क्रम में जून 1994 में मिला। 
बेरी जी की आदत थी हर नए व्यक्ति को भी उत्साहित करने की। सो उन्होंने विषय पर अपने विचार देने के साथ मुझे उत्साहित भी किया था। 

जब यह लेख प्रकाशित हो गया तब उसे दिखाने के बहाने मैं एक बार फिर बीएचयू से 9 किलोमीटर अपनी साइकिल चलाता हुआ पिशाचमोचन में हिंदी प्रचारक संस्थान के दफ्तर पहुंचा। मुझे देखते ही बेरी जी आह्लादित स्वर में बोले मैं इंटरव्यू पढ़ लिया है। तुमने जैसा मैंने कहा था वैसा ही हूबहू उतार दिया है। बात आगे बढ़ी, वे बातों बातों में अतीत में चले गए। वे कुछ भावुक हुए और कहा, मैं अपने कुछ पुराने संस्मरण लिपिबद्ध कराना चाहता हूं। तुम कुछ दिन बाद मुझे मिलो। बात आई गई हो गई। लेकिन उन्होंने थोड़े दिन बाद संदेश देकर मुझे बुलवाया। उनका प्रस्ताव था कि मैं अपनी आत्मकथा लिखवाना चाहता हूं। तुम इस काम को लिप्यांतरकार के तौर करो। उन्होंने जुबानी वादा किया पुस्तक में तुम्हारा नाम रूपांतरकार के तौर पर जाएगा। मेरे लिए पत्रकार बनने से पहले ये किसी काम का सुंदर प्रस्ताव लगा। अस्वीकार करने का कोई कारण नहीं था।
 एक दिन उनकी जीवनी प्रकाशकनामा पर काम शुरू हो गया। बेरी जी की उम्र 80 साल हो चुकी थी। बोलने में मुश्किल होती थी। लिख नहीं पाते थे। लिहाजा रोज मैं उनके घर और लाइब्रेरी में पुरानी फाइलों पुस्तकों से उनके जीवन के बारे में शोध करता। हर सुबह सात से आठ बजे एक घंटा वे अपने पुराने अनुभव सुनाते। मैं प्रश्नावली के साथ भी तैयार रहता। ये सब कुछ मैं अपने डिक्टाफोन में रिकार्ड करता। हर रोज एक कैसेट। फिर दोपहर में उसकी स्क्रीप्ट तैयार करता। इसके बाद अगले दिन के लिए फिर शोध और तैयारी। रहना खाना पीना सब बेरी जी के आवास में उनके परिवार के सदस्यों के साथ ही। उनके रसोई घर से बनकर आने वाली हिंग की खूशबु वाली थी का स्वाद नहीं भूलता। बेरी जी कभी कभी काम से खुश होने पर रसगुल्ले जरूर मंगाकर खिलाते थे। कभी लगातार कभी कुछ दिनों के ब्रेक के साथ काम जारी रहा। लगभग एक साल में 450 पृष्ठों की पुस्तक प्रकाशकनामा का मसौदा तैयार हो गया।

पुस्तक के संपादन का काम मैंने आईआईएमसी की छुट्टियों के दौरान और उसके बाद कुबेर टाइम्स में नौकरी मिल जाने के बाद भी छुट्टियों के दौरान वाराणसी जाकर पूरा किया। इस दौरान मैं बेरी जी के आवास में उनके सानिध्य में ही रहता था। पुस्तक प्रकाशकनामा 2001 में प्रकाशित हुई। इसे 2002 में भारत सरकार की ओर से भारतेंदु हरिश्चंद्र पुरस्कार भी मिला। 

-    - विद्युत प्रकाश मौर्य