Wednesday 31 December 2008

गुजर गया एक साल और...

एक और साल गुजर गया...गुजरे हुए साल के टेलीविजन स्क्रीन पर नजर डालें तो समाचार चैनलों पर दो खबरें छाई रहीं, आरूषि मर्डर केस और मुंबई आतंकी हमले की लाइव कवरेज। भारत में 24 घंटे लाइव समाचार चैनलों का इतिहास अब एक दशक से ज्यादा का समय तय कर चुका है। इस एक दशक में परिपक्वता तो आई है लेकिन ये परिपक्वता किस तरह की है, इसके बारे में सोचना जरूरी है। क्या भारत के समाचार चैनल जिम्मेवार चौथे खंबे की भूमिका निभा रहे हैं।


अगर हम आरूषि मर्डर केस की बात करें तो तमाम टीवी चैनल जिनके दफ्तर नोएडा या दिल्ली में हैं उन्हें दिल पर हाथ रखकर पूछना चाहिए कि क्या आरूषि मर्डर केस जैसी घटना जबलपुर या रांची में हुई होती तो वे घटना को उतनी ही कवरेज देते। सच्चाई तो यही थी कि चैनल दफ्तर के पास एक क्राइम की खबर मिली थी, सबकों अपने अपने तरीके से कयास लगाने का पूरा मौका मिला। केस का इतना मीडिया ट्रायल हुआ जो इससे पहले बहुत कम केस में हुआ होगा। देश के नामचीन चैनलों ने मिलकर आरूषि और उसके परिवार को इतना बदनाम किया कि सदियों तक आत्मालोचना करने के बाद भी आरूषि की आत्मा उन्हें कभी माफ नहीं कर पाएगी।
सवाल यह है कि किसी भी टीवी चैनल को किसी परिवार की इज्जत को सरेबाजार उछालने का हक किसने दिया है। जाने माने संचारक ने कहा था कि मैसेज से ज्यादा जरूरी है मसाज। तो जनाब समाचार चैनल किसी एक खबर को इतनी बार इतने तरीके से मसाज करते हैं कि वह हर किसी के जेहन में किसी दु:स्पन की तरह अंकित हो जाता है। मैं अपने तीन साल के नन्हें पुत्र को उत्तर देने में खुद को असमर्थ पाता हूं जब वह समाचार चैनल देखकर कई तरह की जिज्ञासाएं ज्ञापित करता है। तब मेरा पत्रकारीय कौशल जवाब दे जाता है। सवाल एक नन्हीं सी जान का ही नहीं है। सवाल इस बात का है कि हम नई पीढ़ी को क्या उत्तर देंगे।


अब बात मुंबई धमाकों के लाइव कवरेज की। जिस चैनल के पास जितनी उन्नत तकनीक थी उस हिसाब से आंतकी के सफाया अभियान का जीवंत प्रसारण दिखाने की कोशिश की। लेकिन बाद में पता चला कि इसका हमें भारी घाटा उठाना पड़ा। आतंकी टीवी चैनलों की मदद से सब कुछ आनलाइन समझने की कोशिश कर रहे थे। लेकिन हम देश को तीन दिन तक क्या दिखा रहे थे। टीवी के सुधी दर्शकों ने अपने अपने तरीके से खबर को देखा होगा, लेकिन एक बार फिर अपने तीन साल नन्हे बेटे के शब्दों की ओर आना चाहूंगा।


मेरा बेटा जो धीरे धीरे दुनिया को समझने की कोशिश कर रहा है, अक्सर कहा करता था कि पापा मैं बड़ा होकर पुलिस वाला बनना चाहता हूं। उसकी नजर में पुलिस वाले बहादुर होते हैं। पर 59 घंटे आतंकी सफाए की लाइव कवरेज देखने के बाद मेरे बेटे मानस पटल जो कुछ समझने की कोशिश की उसके मुताबकि अब वह पुलिस बनने का इरादा त्याग रहा है, उसने कहा कि पापा अब मैं पुलिस नहीं बनूंगा. अब तो मैं आतंकवादी बनना चाहता हूं। हां आतंकवादी इसलिए कि वे पुलिस वालों से भी ज्यादा बहादुर होते हैं। आतंकवादी पुलिस वालों को मार डालते हैं। ....ये था 59 घंटे टीवी चैनलों की लाइव कवरेज का असर। मैं अपने बेटे को एक बार फिर कुछ समझा पाने में खुद को असमर्थ पा रहा हूं।


जाहिर सी बात है कि टीवी चैनल खबरों को मांजने को लेकर अभी शैशवावस्था की में है। हम खबर को ढोल पीटकर दिखाना चाहते हैं। कोई अगर हमारे चैनल पर ठहरना नहीं चाहता है तो हम हर वो हथकंडे अपनाना चाहते हैं जिससे कि कोई रिमोट का बटन बदल कर किसी और चैनल की ओर स्वीच न करे। हालांकि सारे चैनलों के वरिष्ट पत्रकार दावा तो इसी बात का करते हैं कि वे जिम्मेवार पत्रकारिता ही कर रहे हैं लेकिन इस तथाकथित जिम्मेवार पत्रकारिता का लाखों करोड़ो लोगों पर कैसा असर हो रहा है....
तुम शौक से मनाओ जश्ने बहार यारों
इस रोशनी मे लेकिन कुछ घर जल रहे हैं...

हमें वाकयी दिल पर हाथ रखकर सोचना चाहिए कि हम जो कुछ करने जा रहे हैं उसका समाज पर क्या असर पडेगा। जब मीडिया के उपर कोर्ट की या सूचना प्रसारण मंत्रालय की चाबुक पड़ती है तब तब याद आता है कि हमें संभल जाना चाहिए। लेकिन हम अगर पहले से ही सब कुछ समझते रहें तो क्या बुराई है। सबसे पहले समाचार चैनलों ने प्राइम टाइम में अपराध दिखा दिखा कर टीआरपी गेन करने की कोशिश की थी। अब अपराध का बुखार उतर चुका है तो समाचार चैनल ज्यादातर समय अब मनोरंजन और मशाला परोस कर टीआरपी को अपने पक्ष में रोक कर रखना चाहते हैं। धर्म को बेचने का खेल भी अब फुस्स हो चुका है।
वैसे इतना तो तय है कि आने वाले सालों में फिर से खबरों की वापसी होगी। खबर के नाम पर आतंक, भय जैसा हाइप क्रिएट करने का दौर निश्चित तौर पर खत्म हो जाएगा। लेकिन वो सुबह भारतीय टीवी चैनल के इतिहास में शायद देर से आएगी, लेकिन आएगी जरूर....
- -विद्युत प्रकाश मौर्य

Friday 19 December 2008

इनकी ईमानदारी का स्वागत करें

चांद मोहम्मद यानी चंद्रमोहन ने ऐसा कौन सा अपदाध कर दिया है कि उनके साथ अपराधी जैसा व्यवहार किया जा रहा है। उन्होने अनुराधा वालिया उर्फ फिजां से शादी रचाई है। हमें चंद्रमोहन के साहस और इमानदारी की तारीफ करनी चाहिए कि उन्होंने इस रिश्ते को एक नाम दिया है। एक पत्नी के साथ अठारह साल तक निभाने के बाद उन्होंने दूसरी शादी कर ली है। दूसरी शादी करने से पूर्व अपने पत्नी और बच्चों को उन्होंने भरोसे में लिया था।
उन्होंने शादी के लिए धर्म परिवर्तन किया ये अलग से चर्चा का मुद्दा हो सकता है। लेकिन कई साल तक राजनीतिक जीवन जीने वाले कालका से विधायक और हरियाणा के पूर्व उप मुख्यमंत्री रहे चंद्रमोहन ने सब कुछ सार्वजनिक करके रिश्तों में और सार्वजनिक जीवन में जो इमानदारी का परिचय दिया है उसका स्वागत किया जाना चाहिए। अगर हम पहले राजनीति की ही बात करें तो हर दशक में ऐसे दर्जनों नेता रहे हैं जिन्होंने दो दो शादियां की है।
दर्जनों लोगों ने हिंदू रहते हुए दो दो शादियां कर रखी हैं और इन शादियों पर पर्दा डालने की भी कोशिश की है।
भारतीय जनता पार्टी, लोकजनशक्ति पार्टी, राष्ठ्रीय जनता दल में कई ऐसे सीनियर लीडर हैं जिनकी दो शादियां है। भले ही हिंदू विवाह दो शादियों को गैरकानूनी मानता हो पर ये नेता एक से अधिक पत्नियों के साथ निभा रहे हैं।
अगर राजनीतिक की बात की जाए तो सभी जानते हैं कि राजनेताओं का महिला प्रेम कितना बदनाम रहा है। बड़े बड़े राजनेताओं पर रसिया होने के कैसे कैसे आरोप लगते रहे हैं। कहा जाता है कि किसी पिछड़े इलाके का बदसूरत दिखने वाला नेता जब सांसद बनकर दिल्ली आता है तो कई बार वह गोरी चमड़ी के ग्लैमर में आकर दूसरी शादी रचा लेता है। महिलाओं से रिश्ते को लेकर पंडित जवाहर लाल नेहरू एनडी तिवारी और न जाने और कितने नेताओं
के बारे में किस्से गढ़े जाते हैं। सिर्फ उत्तर भारत ही नहीं बल्कि दक्षिण भारत के राजनेता भी एक से अधिक शादी करने में पीछे नहीं रहे। अगर फिल्म इंडस्ट्री की बात की जाए तो वह ऐसे रिश्तों के लिए बदनाम है। हालीवुड की तरह भले ही एक ही जीवन में यहां कई शादियां और तलाक नहीं होते पर दो शादियों के वहां भी कई उदाहरण है। धर्मेंद्र से लेकर बोनी
कपूर तक लोगों ने दो शादियां कर रखी हैं। दक्षिण भारत के फिल्म निर्माताओं में तो दो शादियां आम बात है। चेन्नई में तो कहा जाता है कि निर्माताओं की दूसरी बीवीयों की अलग से कालोनी भी बनी हुई है। वैसे यह हमेशा से चर्चा का विषय रहा है कि एक आदमी जीवन में एक ही से निभाए या कई रिश्ते बनाए।
राजनेता, साहित्यकार, लेखक, कलाकार और फिल्मकार जैसे लोगों के जीवन में कई रिश्तों का आना आम बात होती है। कई लोग कई शादियां करते हैं तो कई लोग ऐसे रिश्तों को कोई नाम नहीं देते। साहित्य जगत में राहुल सांकृत्यायन के बार में कहा जाता है कि उनकी कुल 108 प्रेमिकाएं थीं जिनमें से सात या आठ से तो उन्होंने विधिवत विवाह भी किया था। सचिदानंद हीरानंद वात्स्यान अज्ञेय जैसे कई और नाम भी साहित्य जगत में हैं।
पत्नी के प्रति ईमानदारी न दिखाने पर रिश्तों में आए बिखराव की तो हजारों कहानियां हो सकती हैं। ऐसे में अगर कोई राजनेता अपने परिवार को विश्वास में लेने के बाद दूसरी शादी रचाता हो तो इसको किस तरह से गलत ठहराया जा सकता है। चंद्रमोहन और अनुराधा वालिया के बारे में बात की जाए तो दोनों ही विद्वान हैं और समाज में महत्वपूर्ण दायित्वों का निर्वहन करते आ रहे हैं। अगर ये लोग चाहते तो इस रिश्ते कोई ना दिए बगैर
भी लंबे समय तक रिश्ता रख सकते थे। पर इन लोगों ने ऐसा नहीं किया वे जनता के सामने आए। उन्होंने मुहब्बत में तख्तोताज को ठुकरा दिया है। अपने अपने पद के साथ जुड़े हुए ग्लैमर की कोई परवाह नहीं की है। वे वैसे लोगों से हजार गुना अच्छे हैं जो किसी को धोखा देते हैं, चोरी करते हैं, जेब काटते हैं, चुपके चुपके गला रेत देते हैं। उन्होंने तो बस प्यार किया है। प्यार यानी ना उम्र की सीमा हो ना जन्म का हो बंधन....अगर प्यार होना
ही है तो यह किसी भी उम्र में हो सकता है।ऐसे जोड़े की इमानदारी से यह उम्मीद की जाती है कि वह राजनीतिक जीवन में सूचिता का निर्वहन करेगा, इसलिए ऐसे लोगों से पद नहीं छिनना चाहिए। अगर दूसरी शादी करने पर किसी को पद से हटाने की बात की
जाती हो तो बहुत से केंद्रीय मंत्री, राज्यों के मंत्री और सांसद विधायकों को भी अपना पद छोड़ना चाहिए....( राम विलास पासवान, लालमुनि चौबे और रमई राम जैसे लोगों से क्षमा मांगते हुए ) इसलिए मेरा ख्याल है कि चांद मोहम्मद को हरियाणा का उप मुख्यमंत्री पद सम्मान के साथ वापस मिलना चाहिए। कालका की जनता तो उम्मीद है कि उन्हें माफ कर देगी। क्योंकि वे कालका के अच्छे विधायक रहे हैं।

-विद्युत प्रकाश मौर्य

Saturday 15 November 2008

बिहार में भोजपुरी फिल्म सिटी

कुछ फिल्मी सितारे और बिहार की सरकार इन दिनों बिहार में एक फिल्म सिटी बनाने को लेकर उद्यत हैं। वाकई यह बहुत अच्छी बात होगी अगर बिहार में कोई फिल्म इंडस्ट्री बन जाती है तो। फिल्में देखने का क्रेज बिहार में भी खूब है। खास तौर पर भोजपुरी फिल्में। लेकिन भोजपुरी फिल्में बनती मुंबई में हैं। आजकल भोजपुरी फिल्मों का सालाना टर्न ओवर 200 करोड़ को पार कर गया है। ऐसे में भोजपुरी फिल्मों से हजारों लोगों को रोजगार मिल रहा है। 

मजे की बात यह है कि भोजपुरी फिल्मों को आउटडोर लोकशन में शूटिंग बड़े पैमाने पर बिहार और यूपी में होती है। पर पोस्ट प्रोडक्शन का सारा काम मुंबई में जाकर होता है। जाहिर सी बात है कि इसमें हमारे मराठी भाइयों को भी भोजपुरी फिल्मों के कारण रोजगार मिलता है। लेकिन इन सबसे अलग हटकर बिहार में एक भोजपुरी फिल्म सिटी बननी ही चाहिए। क्यों .....क्योंकि तेलगू फिल्में हैदराबाद में बनती हैं। वहां कई स्टेट आफ द आर्ट स्टूडियो हैं। तमिल फिल्में चेन्नई में बनती हैं। बांग्ला फिल्में कोलकाता में बनती हैं। तो भला भोजपुरी फिल्में पटना में क्यों नहीं बननी चाहिए। इससे फिल्म से जुड़े लोगों को अपनी सेवाएं देने में आसानी होगी।

किसी संघर्ष करने वाले गायक संगीतकार या गीतकार को भागकर मुंबई जाना और वहां स्ट्रगल नहीं करना पडेगा। उसको बक्सर से पटना ही तो जाना होगा। निश्चय ही यह अच्छी बात होगी।

फिल्म स्टार मनोज तिवारी ने इस मामले में पहल की है। उनकी पहल पर बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार आगे आए हैं। पब्लिक प्राइवेट पार्टनरशिप पर एक फिल्मसिटी बनाने की बात हो रही है। बिहार सरकार इसके लिए 200 एकड़ जमीन देने की बात कर रही है। यह बड़ा सुखद संकेत है। अगर पटना राजगीर रोड पर फिल्म सिटी बनती है तो बड़ी अच्छी बात होगी । शूटिंग के आउटडोर लोकेशन के लिए राजगीर बड़ी मुफीद जगह हो सकती है। राजगीर में जानी मेरा नाम जैसी लोकप्रिय फिल्मों की शूटिंग हो चुकी है।

अगर बिहार में पोस्ट प्रोडक्शन का स्टूडियो होगा तो और फिल्म बनाने वालों को मौका मिलेगा। म्यूजिक वीडियो टीवी सीरियल की शूटिंग करने वालों को भी दिल्ली मुंबई का रूख नहीं करना पड़ेगा। मुझे तो लगता है कि भविष्य में बिहार में एक नहीं बल्कि कई स्टूडियो बनने चाहिए, और इतने स्तरीय स्टूडियो की मुंबई वाले भी अपना पोस्ट प्रोडक्सन का काम कराने के लिए बिहार का रूख करें। बिहार में फिल्मों के लिए तकनीकी टैलेंट की कमी नहीं है। बस उन्हें एक मौका देने की जरूरत है। अब मनोज तिवारी और भोजपुरी फिल्मों में अभय सिन्हा जैसे बड़े निर्माता इस क्षेत्र में आगे आ रहे हैं तो आगाज तो हो ही चुका है कुछ शुभ कार्यों के लिए....तो अंजाम भी अच्छा ही होना चाहिए.....
- विद्युत प्रकाश मौर्य

Wednesday 5 November 2008

बेटे ने सुनाई कहानी - राजा और रानी

मैं रात को सोते समय रोज अपने तीन साल के बेटे को एक कहानी सुनाता हूं....कल रात मेरे बेटे ने कहा कि पापा कहानी सुनाओ..मैंने कहा- बेटे आज मूड नहीं है सोने दो..बेटा बोला ठीक है पापा आज मैं आपको कहानी सुनाता हूं.... अब मेरे तीन साल के बेटे ने जो कहानी सुनाई वो आप भी सुनें...

एक राजा था...उसके घर में अचानक बिजली चली गई...राजा को डर लगने लगा....तभी बिजली आ गई....तो राजा ने देखा उसके सामने रानी थी...

अच्छी कहानी थी न पापा...................
( अनादि अनत ) 

Friday 31 October 2008

हम क्षमाशील बनें..

कुछ महीने मजदूरी करने के बाद वह अपने घर के लिए चला था। अपने परिवार के साथ दीवाली मनाने की इच्छा थी उसकी। मुंबई की लोकल ट्रेन में वह खिड़की वाली सीट पर बैठा था। मराठी भाइयों के कहने पर उसने खिड़की वाली सीट छोड़ भी दी थी। पर फिर भी उससे लोगों ने पूछा कहीं तुम मराठी मानुष तो नहीं हो। उसका दोष सिर्फ इतना ही था कि वह मराठी मानुष नहीं था। लोगों ने उसे पीटना शुरू कर दिया। उसकी जान चली गई। वह अपने बच्चों के संग दिवाली की लड़ियां नहीं सजा सका। उसकी पत्नी दीपमाला थी। वह दीपमाला सजा कर उसका इंतजार करती रही। पर न तो दिवाली पर वह आया न उसकी लाश आई। उसके पेट में एक और शिशु पल रहा है। वह अपने पापा से कभी नहीं मिल पाएगा।

महाराष्ट्र सरकार के गृह मंत्री कहते हैं कि गोली का जवाब गोली होना चाहिए। तो कुछ मित्रों ने तर्क किया है कि हमले का जवाब भी हमला होना चाहिए। मैं मानता हूं ऐसा नहीं होना चाहिए। हमें क्षमाशील बनना चाहिए। हम देश के किसी गृह युद्ध की ओर नहीं ले जाना चाहते। पर हमारे मराठी भाइयों को भी थोड़ा सहिष्णु बनना चाहिए।

Sunday 26 October 2008

एक पाती राज भैय्या के नाम

वाह राज करो राज....वाह राज भइया...करो राज...आखिर यही तो राजनीति है...अंग्रेज कह गए थे..फूट डालो और राज करो..भले अंग्रेज नहीं रहे...लेकिन तुमने उसका सही मतलब समझ लिया है। पहले हम हिंदुस्तानी हुआ करते थे पर तुम मराठी मानुष की बात करते हो। बड़ी अच्छी बात है। महाराष्ट्र तुम्हारा है। मराठी लोग भी तुम्हारे हैं। पर देश के कोने कोने में रहने वाले बाकी मराठी भाई बहन भी तो तुम्हारे ही होने चाहिए। 

सुना है कि देश की राजधानी दिल्ली में भी तीन लाख मराठी भाई रहते हैं। वे भी तो मराठी मानुष हैं। वे सभी हमें अच्छे लगते हैं। उनसे हमें कोई वैर भाव नहीं है। देश के सभी राज्यों तक मराठी भाई बहन कारोबार करने और नौकरी करने पहुंचते हैं। वे सभी मराठी मानुष हैं। राज भैय्या आपको उन सबके सेहत की चिंता करनी चाहिए। वे भी आपके भाई बहन हैं। अगर आप राजा हैं तो आपकी प्रजा हैं। आपको उनके सुरक्षा की चिंता होनी चाहिए। भला बिहारियों का क्या है। उन्हें बिहार में नौकरी नहीं मिलती तो गुजरात चले जाते हैं, मुंबई चले जाते हैं, पंजाब चले जाते हैं। सभी जगह जाकर पसीना बहाते हैं चंद रूपये कमाते हैं। लौट कर तो चाहतें अपने देश आना पर क्या करें आ नहीं पाते हैं। कैसे आएं भला। बिना बिहारियों के पंजाब की खेती बंजर पड़ जाएगी। गुजरात की कपड़ा मिले बंद हो जाएंगी। मुंबई में चलने वाले उद्योग धंधे बंद हो जाएंगे। टैक्सियां खड़ी हो जाएंगी। शहर की सफाई नहीं हो सकेगी। मुंबई में बास आने लगेगी। बिहारी चाहते तो हैं बिहार में ही रहना। साग रोटी खाना पर परदेश नहीं जाना। पर क्या करें उन्हें मुंबई के फुटपाथ पंजाब के खेत और गुजरात के मिल बार बार बुलाते हैं। 
मजबूर लाचार बिहारी पूरे देश को अपना घर समझकर चले जाते हैं। भावनाओं में बह कर चले जाते हैं। वे मराठी मानुष को अपना बड़ा भाई समझ कर चले जाते हैं। तुम कहते हो तो अब नहीं जाएंगे। बुलाओगे तो भी नहीं जाएंगे, लेकिन तुम कैसे रहोगे...आखिर तुम्हारे केस मुकदमे कौन लड़ेगा। तुम्हारे बिल्डिंगें बनाने के लिए ईंट कौन उठाएगा। तुम्हारी गय्या की दूध कौन निकालेगा। राज भैय्या कौनो परेशानी शिकवा शिकायत हो तो खुल के कहो। अगर महाराष्ट्र में चुनाव लड़े के मुद्दा नाही मिलत हौ तो बिहार में आके लड़ जा। बिहार वाले आपको संसद में भेज देंगे। जार्ज फर्नांडिश को कई बार भेजा है, आपको भी भेज देंगे। ये बिहार दिल के बहुत बड़े हैं। अपमान जल्दी भूल भी जाते हैं और जल्दी माफ भी कर देते हैं....
- vidyutp@gmail.com 

Thursday 23 October 2008

जो बिहार में हुआ वह भी ठीक नहीं ...

जो मुंबई में हुआ वह ठीक नहीं था लेकिन 22 अक्टूबर को जो बिहार में हुआ क्या वह ठीक था। राज ठाकरे के लोगों ने बेस्ट की बसों को नुकसान पहुंचाया। कल्याण की सड़कों पर जमकर आगजनी की। सार्वजनिक संपत्ति को नुकसान पहुंचाया। वह सब ठीक नहीं था। महाराष्ट्र सरकार ऐसे लोगों से जुर्माना वसूलने का कानून बनाने जा रही है। निश्चय ही यह अच्छा कानून होगा। पर बिहार में गुस्साई भीड़ ने बाढ़ रेलवे स्टेशन पर जिस तरह एक्सप्रेस ट्रेन की एसी कोच को आग के हवाले कर दिया, उसकी भरपाई कौन करेगा। ट्रेन की एक बोगी कितने की आती है...इसका अंदाजा सबको है।

 आजकल एक बस ही 20  से 25 लाख में आती है। ट्रेन की एक वातानुकूलित बोगी को आग के हवाले करने का मतलब है करोड़ों का नुकसान। कई नौकरियां जिंदगी भर की बचत में भी एक ट्रेन की बोगी नहीं खरीद सकती हैं। फिर ऐसी आगजनी क्यों। विरोध करने के लिए गांधीवादी तरीका ठीक है। 

अगर विरोध ही करना हो तो धरना प्रदर्शन और नारेबाजी से भी बात कही जा सकती है। जिस रेलवे में नौकरी करना चाहते हो, उसी की प्रोपर्टी को आग के हवाले करते हो। शर्म आनी चाहिए। जो राज ठाकरे के लोग मुंबई में कर रहे हैं वहीं हम पूरे देश में करना शुरू कर दें, फिर देश का क्या होगा।
- vidyutp@gmail.com 

Thursday 16 October 2008

बाजारवाद के बीच अर्थ खोते त्योहार

-राष्ट्रपति कलाम का का मानना है कि उपहार जहर के समान होते हैं। इनके लेनदेन के पीछे कोई न कोई उद्देश्य छिपा होता है।

तमाम उपभोक्ता कंपनियों की नजर सभी त्योहारों को अपने तरीके से कैश कराने पर है। ऐसे में बाजारवाद के बीच त्योहार अपना अर्थ खोते जा रहे हैं। तमाम हिंदू त्योहारों के बीच बाजार ने अपनी पैठ गहराई से बना ली है। जैसे रक्षा बंधन पर भाई बहन को क्या गिफ्ट दे इस बारे में आपको सलाह देने के लिए तमाम कंपनियों के पैकेज उपलब्ध हैं। रिश्तों में इस बाजार के घुस आने से रिश्ते अपना वास्तिवक अर्थ खोते जा रहे हैं। जिससे कई जगह रिश्तों की गरमाहट को उपहारों की कीमतों से मापा जाने लगा है। सुधीर की बहन सुमन ने इस बार अपने भाई से कहा कि तुम इस रक्षा बंधन में मुझे अमुक ब्रांड का मोबाइल फोन ही गिफ्ट करना। अब भाई का बजट उसके अनुकूल नहीं था पर उसे कहीं न कहीं से इंतजाम करके वह सब कुछ देना ही पड़ा। इसी तरह डिंपी के भांजों ने अपने अपने मामा से कहा कि इस दिवाली पर आप हमें वाशिंग मशीन और वीडियो गेम गिफ्ट कर ही दो।

उपहार का भले ही मतलब होता है कि जो अपनी मरजी और श्रद्धा से दिया जाए पर कई रिश्तों में लोग खुलकर उपहार मांगने लगे हैं। कई लोग दिल खोलकर उपहार देते हैं तो कई लोगों को मजबूरी में ही सही देना पड़ता है। इस उपहार संस्कृति का प्रभाव रिश्तों पर भी पड़ता है। दिपावली को तो अब उपहार देने लेने का ही त्योहार बना दिया गया है। सभी बिजनेस क्लाएंट अपने ग्राहकों को खुश करने के लिए उपहार देते हैं। यह कारपोरेट गिफ्ट का कारोबार तो करोड़ों में चलता है। पर रिश्तेदारी नातेदारी में भी ड्राइफ्रूट के डिब्बों से लेकर मिठाइयां और महंगे उपहारों का कारोबार खूब चलता है। मध्यम वर्गीय परिवारों को भी ढेरों उपहार खरीदने पड़ते हैं। कुछ लोग इस दौरान अक्लमंदी से उपहारों को एक दूसरे के यहां शिफ्ट करते हैं। जैसे ही दिवाली नजदीक आती है उपहारों के लेनदेन की तैयारी शुरू हो जाती है। लोग योजना बनाने लगते हैं। फलां ने मुझे पिछले साल क्या उपहार दिया था। इस बार उसको उसकी कीमत से बड़ा उपहार जवाब में देना है। कई बार यह उपहार नहीं बल्कि आपके गाल पर एक जवाबी तमाचा होता है।
उपहारों को लेकर हाल में राष्ट्रपति एपीजे अब्दुल कलाम का संस्मरण याद करने योग्य है। उन्होंने बताया कि एक बार उन्हें किसी ने उपहार दिया तो कलाम के पिता ने उसे उपहार वापस कर आने को कहा। उनके पिता ने समझाया कि ये उपहार जहर के समान है। यह रिश्वत से भी बुरा है। वास्तव में जब आपको कोई उपहार देता है तो उसके पीछे उसका कोई न कोई स्वार्थ छिपा होता है। इसलिए हमें उपहारों को जहां तक हो सके नकारना ही चाहिए। अगर हम वर्तमान संदर्भ में भी राष्ट्रपति कलाम के इस संस्मरण से कोई प्रेरणा ले सकें तो बड़ी अच्छी बात होगी। अगर हम इस उपहार संस्कृति से उपर उठ कर सोचें और व्यवहार करें तभी हम भारतीय संस्कृति के इन त्योहारों का सही अर्थ को समझ पाएंगे और उसके अनुरूप आचरण करके त्योहार के महत्व को बचाए रख सकेंगे। साथ ही हर त्योहार के पीछे छूपे मर्म को समझ सकेंगे। वर्ना आने वाले पीढ़ी तो इन त्योहारों को लेनदेन के व्यापार के रुप में ही समझा करेगी।
- विद्युत प्रकाश मौर्य

Friday 3 October 2008

तो ये महादेव कुशवाहा का सज्जनपुर है....

बहुत दिनों बाद एक ऐसी अच्छी फिल्म देखने में आई है जिसमें कामेडी भी है और गांव की समस्याओं को बड़ी खबूसुरती से उभारा गया है। जी हां हम बात कर रहे हैं श्याम बेनेगल की फिल्म वेलकम टू सज्जनपुर की।
बालीवुड में बनने वाली अमूमन हर फिल्म की कहानी में महानगर का परिवेश होता है, अगर गांव होता है तो सिर्फ नाममात्र का। अब गंगा जमुना और नया दौर जैसी फिल्में कहां बनती हैं। पर श्याम बेनेगल ने एक अनोखी कोशिश की है जिसमें उन्हें शानदार सफलता मिली है। सज्जनपुर एक ऐसा गांव है जहां साक्षरता की रोशनी अभी तक नहीं पहुंची है। ऐसे में फिल्म का हीरो महादेव कुशवाहा ( श्रेयश तलपड़े) जो गांव का पढ़ा लिखा इन्सान है, जिसे बीए पास करने के बाद भी नौकरी नहीं मिल पाई है, गांव के लोगों की चिट्ठियां लिखकर अपनी रोजी रोटी चलाता है। पर महादेव कुशवाहा के साथ इस फिल्म में गांव की जो राजनीति और भावनात्मक रिश्तों का ताना-बाना बुनने की कोशिश की गई है, वह हकीकत के काफी करीब है। पर फिल्म की पटकथा इतनी दमदार है जो कहीं भी दर्शकों को बोर नहीं करती है। कहानी अपनी गति से भागती है, और ढेर सारे अच्छे संदेश छोड़ जाती है। भले ही फिल्म हकीकत का आइना दिखाती है, पर फिल्म का अंत निराशाजनक नहीं है। फिल्म की पटकथा अशोक मिश्रा ने लिखी है।
कहानी का परिवेश मध्य प्रदेश के सतना जिले का एक काल्पनिक गांव है। सज्जनपुर के पात्र भोजपुरी ओर बघेली जबान बोलते हैं जो वास्तविकता के काफी करीब है। कहानी के गुण्डा पात्र हकीकत के करीब हैं, तो अमृता राव कुम्हार कन्या की भूमिका में खूब जंचती है। फिल्म में संपेरा और हिजड़ा चरित्र समाज के उन वर्गों का प्रतिनिधित्व करते हैं जिन्हें हम गाहे-बगाहे भूलाने की कोशिश करते हैं। भोजपुरी फिल्मों के स्टार रवि किशन भी फिल्म में हंसोड़ भूमिका में हैं, लेकिन उनका अंत दुखद होता है। फिल्म की पूरी शूटिंग रामोजी फिल्म सिटी, हैदराबाद में रिकार्ड तीस दिनों में की गई है। लिहाजा वेलकम टू सज्जनपुर एक कम बजट की फिल्म है, जिसने सफलता का स्वाद चखा है। फिल्म ने ये सिद्ध कर दिखाया है कि अगर पटकथा दमदार हो तो लो बजट की फिल्में भी सफल हो सकती हैं। साथ ही फिल्म को हिट करने के लिए मुंबईया लटके-झटके होना जरूरी नहीं है।
भारत की 70 फीसदी आत्मा आज भी गांवों में बसती है, हम उन गांवों की सही तस्वीर को सही ढंग से परदे पर दिखाकर भी अच्छी कहानी का तानाबाना बुन सकते हैं, और इस तरह के मशाला को भी कामर्शियल तौर पर हिट बनाकर दिखा सकते हैं। अशोक मिश्रा जो इस फिल्म के पटकथा लेखक हैं उनका प्रयास साधुवाद देने लायक है। साथ ही फिल्म के निर्देशक श्याम बेनेगल जो भारतीय सिनेमा जगत का एक बडा नाम है, उनसे उम्मीद की जा सकती है, वे गंभीर समस्याओं पर भी ऐसी फिल्म बना सकते हैं जो सिनेमा घरों में भीड़ को खींच पाने में सक्षम हो। अभी तक श्याम बेनेगल को समांतर सिनेमा का बादशाह समझा जाता था। वे अंकुर, मंथन, सरदारी बेगम और जुबैदा जैसी गंभीर फिल्मों के लिए जाने जाते थे। फिल्म का नाम पहले महादेव का सज्जनपुर रखा गया था, पर बाद में फिल्म के नायक श्रेयश तलपड़े के सलाह पर ही इसका नाम वेलकम टू सज्जनपुर रखा गया है। फिल्म की कहानी एक उपन्यास की तरह है। इसमें प्रख्यात उपन्यासकार और कथाकार मुंशी प्रेमचंद की कहानियों और उपन्यासों जैसी गहराई है। पर वेलकम टू सज्जनपुर ऐसी शानदार फिल्म बन गई है जो गांव की कहानी दिखाकर भी महानगरों के मल्टीप्लेक्स में दर्शकों को खींच पाने में कामयाब रही है।
-विद्युत प्रकाश मौर्य


Sunday 28 September 2008

महेंद्र कपूर- ए दुनिया तू याद रखना.....


महेंद्र कपूर नहीं रहे, क्या वे सचमुच नहीं रहे। भला एक गायक की भी कभी मौत होती है, वह तो अपने स्वर से पूरा दुनिया को आवाज दे जाता है। भले उसका शरीर जीवित नहीं होता, लेकिन उसकी आवाज तो फिजाओं में हमेशा गूंजती रहती है। आज वारिस सुनाए कहानी...ए दुनिया तू याद रखना....जी हां..महेंद्र कपूर को भी हम नहीं भूला सकते।

कुछ लोग महेंद्र कपूर को देशभक्ति गीतों को स्वर देने वाला मानते हैं। मेरे देश की धरती सोना उगले....के लिए उन्हें राष्ट्रीय पुरस्कार मिला था। उन्होंने है प्रीत जहां की रीत सदा...जैसे गीत गाए।


....लेकिन मुझे महेंद्र कपूर का एक साक्षात्कार करने का मौका मिला था। दिल्ली के पार्क होटल में। वे अपने बेटे रोहन कपूर के टीवी शो के प्रोमोशन के दौरान आ थे। पिछले दो दशक से वे यूं तो हिंदी फिल्मों में बहुत कम गा रहे थे। पर बात 1997 की है, वे अपने बेटे रोहन कपूर का एक शो आवाज की दुनिया के प्रोमोशन सिलसिले में आए थे। शो के हीरो रोहन थे, इसलिए मुझे महेंद्र कपूर से बातें करने का मौका मिल गया सो तफ्शील से बातें की। लगभग एक घंटे। तब मीडिया में नवागंतुक पत्रकार था। मेरे लिए महेंद्र कपूर का साक्षात्कार करना एक बड़ा अनुभव था। लिहाजा मैंने बहुत सी बातें उनसे पूछ डालीं।
रोमांटिक गीत ज्यादा गाए - महेंद्र कपूर ने बताया था कि बार बार लोग कहते हैं कि मैंने देशभक्ति गीत ज्यादा गाए हैं, पर मेरे रोमांटिक गीतों की लिस्ट ज्यादा लंबी है।


...हुश्न चला है इश्क से मिलने गजब की बदली छाई....

आधा है चंद्रमा रात आधी रह न जाए तेरी मेरी बात आधी


नीले गगन के तले धऱती का प्यार फले


तेरे प्यार का आसरा चाहता हूं वफा कर रहा हूं वफा चाहता हूं (धूल का फूल)


किसी पत्थर की मूरत से....


मेरा प्यार वो है....( ये रात फिर ना आएगी)


तेरे प्यार की तमन्ना....


तुम अगर साथ देने का वादा करो मैं यूं हीं मस्त नगमें....

ऐसे न जाने कितने गीत हैं जो प्यार करने वाले लोगों की जुबां पर हमेशा थिरकते रहते हैं। पर महेंद्र कपूर को इस बात का भी कत्तई मलाल नहीं था कि उन्हें लोग देशभक्ति गीतों के चीतेरे के रूप में जाने।
म्यूजिक कंप्टिसन की देन थे...हिंदी फिल्म इंडस्ट्री को गायक महेंद्र कपूर एक म्यूजिक कंप्टीशन की देन थे। जैसे आज के दौर में श्रेया घोषाल या सुनिधि चौहान। उस दौर में टीवी नहीं था। ऐसे म्यूजिक कंप्टिशन बहुत कम होते थे। पर महेंद्र कपूर को मोहम्मद रफी जैसे लोगों ने बहुत प्रोमोट किया था।

महेंद्र कपूर - 9 जनवरी 1934- 27 सितंबर 2008

सबस बडी बात कि महेंद्र कपूर को पर शुरूआती दौर में भी किसी गायक की नकल का आरोप नहीं लगा जैसा कि रफी साहब और मुकेश पर कुंदनलाल सहगल की नकल का आरोप लगता है। पर महेंद्र कपूर उसी पंजाब से आए थे जिस पंजाब ने हमें कुंदन लाल सहगल और मोहम्मद रफी जैसे सूरमा दिए।
महेंद्र कपूर का खानदानी बिजनेस था जरी के काम का जिससे वे गायकी के साथ आजीवन जुड़े रहे।
जब फिल्मों में तेज बीट वाले गीत आने लगे तब महेंद्र कपूर अत्याधिक चयनशील हो गए थे। उन्होंने बीआर चोपड़ा की सुपर हिट फिल्म निकाह के गीतों को स्वर दिया जिसके लिए उन्हें खूब याद किया जाता है। ....अभी अलविदा न कहो दोस्तों न जाने फिर कहां मुलाकात होगी....बीते हुए लम्हों की कसक साथ तो होगी। ख्वाबों में ही हो चाहे मुलाकात तो होगी....

भोजपुरी फिल्मों में भी गीत गाए...
हिंदी पंजाबी के अलावा महेंद्र कपूर ने भोजपुरी फिल्मों के लिए भी खूब गीत गाए...भोजपुरी की सुपर डुपर हिट फिल्म बिदेशिया में उनका गीत...हंसी हंसी पनवा खिववले बेइमनवा....एक विरह का गीत था...जिसको भोजपुरी संगीत के सुधी श्रोता कभी नहीं भूल पाएंगे। जब इंटरव्यू के दौरान मैंने महेंद्र कपूर से भोजपुरी गानों के बारे में पूछा तो उन्होंने यही गीत मुझे गुनगुना कर सुनाया था।

पटना से था लगाव - महेंद्र कपूर को पटना शहर से खास लगाव था। वे दुर्गा पूजा के आसपास होने वाले संगीत समारोहों में कई बार पटना जाकर मंच पर गा चुके थे। वहां के श्रोताओं की वे खूब तारीफ करते थे। फिल्मकार बीआर चोपड़ा की तो खास पसंद थे महेंद्र कपूर। उनकी कई फिल्मों में स्वर तो दिया ही था....टीवी पर जब महाभारत धारावाहिक बना तो उसका टाइटिल गीत....जी हां....सीख हम बीते युगों से नए युग का करें स्वागत....जी हां महेंद्र कपूर साहब नया युग आपको हमेशा याद रखेगा। कभी नहीं भूलेगा।

महेंद्र कपूर - 
जन्म -     09 जनवरी 1934, अमृतसर
निधन -  27 सितंबर 2008, मुंबई। 

- विद्युत प्रकाश मौर्य- Email - vidyutp@gmail.com 

Tuesday 9 September 2008

समझदार ग्राहक बनिए.. तोल मोल कर खरीदें

कभी भी बड़े शापिंग माल्स में जाकर आंखें मूद कर खरीददारी नहीं करें। उनके द्वारा सस्ते में बेचे जाने के दावों की अच्छी तरह जांच परख कर लें। अगर तीन चार बड़े शापिंग माल्स, हाइपर मार्केट के सामनों की कीमतों का तुलनात्मक अध्ययन करें तो कई बार आप सामान की कीमतों में अंतर पाएंगे। इसलिए अगर आप आंख मूंद कर एक ही माल्स से सामान लगातार खरीद रहे हैं तो इसमें कभी कभी चेक भी करें। इससे आप ठगे जाने से बच सकेंगे। 

 आप यह कत्तई मानकर नहीं चलें कि आप जिस सुपर बाजार से सामान खरीद रहे हैं वह सबसे सस्ता सामान बेच रहा है। कई बार ये शाप कुछ बड़े शापों के कीमतों का तुलनात्मक अध्ययन करता हुआ विज्ञापन भी जारी करते हैं। जिसमें ये दावा करते हैं कि वे सबसे सस्ते में सामान बेच रहे हैं पर इसकी हकीकत कुछ और ही होती है...

अक्सर शापिंग माल में कुछ खास सामानों की कीमतें तो कम कर दी जाती हैं और उनका बढ़ा चढ़ाकर विज्ञापन किया जाता है कि हम ही सबसे सस्ते में सब कुछ बेच रहे हैं, पर इसी माल में बाकी सब सामान अधिक दाम पर बेचा जाचा है। ग्राहक चीनी, नमक जैसे कुछ सामानों को सस्ते में खऱीदकर समझता है कि वह सस्ते में सब कुछ खरीद रहा है। पर आपको असलियत का पता नहीं होता है। यही शापिंग माल आपसे दूसरे प्रोडक्ट पर मोटी राशि वसूल रहा होता है। दरअसल कुछ सामानों की कीमतें ग्राहकों को अपनी ओर आकर्षित करने के लिए की जाती है। पर ग्राहक कुछ सामानों की कीमतें देखकर धोखे में आ जाता है। 

इसलिए एक जागरूक ग्राहक होने के नाते आपको अलग अलग शापिंग माल के कीमतों में हमेशा तुलना करके देखते रहना चाहिए कि कहीं आप ठगे तो नहीं जा रहे हैं। जब आप किसी शापिंग माल से खरीददारी करें तो सामानों की लिस्ट के साथ घर पर मिलान करके देखें की रेट लिस्ट में आपको सामान को एमआरपी से कितने कम में दिया गया है, या फिर आपसे एमआरपी ही वसूली जा रही है। अगर आपसे अधिकतर उत्पादों पर एमआरपी ही वसूली जा रही है तो आपको कोई लाभ नहीं हो रहा है। क्योंकि एमआरपी पर तो अधिकतर दुकानदार ही सामान बेचते हैं। क्या है एमआरपी- अब आप ये भी समझ लिजिए की एमआरपी क्या है। एमआरपी यानी मैक्सिम रिटेल प्राइस। किसी वस्तु का वह मूल्य है जो किसी भी रिटेलर के लिए बेचने का अधितम मूल्य निर्धारित है। इसमें वैट भी शामिल होता है। 

कोई दुकानदार इससे ज्यादा राशि पर तो कोई सामन बेच ही नहीं सकता। हां इससे कम में वह चाहे तो बेच सकता है। प्रतिस्पर्धा के दौर में दुकानदार एमआरपी से कम मूल्य पर भी सामान बेच सकते हैं। इसके लिए सरकार की ओर से कोई रोक नहीं है। ऐसे में आप यह जांच जरूर करें कि दुकानदार एमआरपी से कितने कम मूल्य में आपको सामान दे रहा है।

ऐसे में एक जागरूक ग्राहक के नाते आप हमेशा बड़े बड़े शापिंग माल्स से खरीददारी का भी तुलनात्मक अध्ययन करते रहें। इससे आप हर महीने सैकड़ो रुपये ठगे जाने से बच सकेंगे। कई बार शापिंग माल में कोई राशि जितने में मिल रही होती है उससे ज्यादा सस्ते में बाजार में अन्य रिटेल की दुकान में भी मिल जाती है। इसलिए कभी भी आंखें बंद करके खरीददारी नहीं करें।
- विद्युत प्रकाश मौर्य
(CONSUMER, MARKET, SHOPPING ) 

Friday 29 August 2008

बिना स्टाफ के होंगे बैंक...

जी हां हो सकता है आप अगली बार जब आप अपने बैंक जाएं तो वहां चौकीदार के अलावा आपको कोभी भी नहीं मिले और आप अपने सारे काम निपटा कर बड़ी आसानी से बाहर आ जाएं। दुनिया के तमाम बड़े बैंक इस व्यवस्था की ओर बढ़ रहे हैं जब बैंक बिना स्टाफ के होंगे। अभी यह काम एक श्रेणी तक लागू हो गया है। जैसे आप एटीएम से पैसे निकाल लेते हैं, जमा करा भी देते हैं, अपना मिनी स्टेटमेंट, स्टाप पेमेंट, चेकबुक के लिए आग्रह जैसे काम आप बैंक से करवा लेते हैं। 

एटीएम ने बैंकों का काम काफी हद तक आसान तो किया है, इससे स्टाफ पर निर्भरता कम हुई है। पर अब बैंक इससे आगे की भी सोच रहे हैं। देश का सबसे बड़ा बैंक स्टेट बैंक आफ इंडिया अब इस ओर काम कर रहा है कि न सिर्फ मिनी स्टेटमेंट बल्कि पासबुक अपडेट करने का भी काम बैंक एटीएम में ही हो जाए। इससे बैंक के स्टाफ पर और भी बोझ कम हो जाएगा। साथ ही लोगों को सुविधा भी हो जाएगी। बैंक हर काम को एक बिजनेस की तरह देखती है इसलिए वह टेक्नलॉजी का लाभ लेने में बाकी विभागों से आगे रहती है। जैसे बैंक अपना मकान बनाने के बजाए किराये के दफ्तर में शाखा खोलने को प्राथमिकता देती है। क्योंकि जितनी पूंजी से वह मकान बनाएगी उससे वह बिजनेस करना बेहतर समझती है। 

ठीक इसी तरह अगर बैंक का एक स्टाफ जितने ग्राहकों को एक दिन में निपटाता है उसकी तुलना में एटीएम ज्यादा लोगों को निपटा देता है। साथ ही एटीएम से 24 घंटे काम कराए जा सकते हैं। इसलिए अब सभी बैंक एटीएम के ज्यादा से ज्यादा उपयोग को प्राथमिकता दे रहे हैं। पर अब बैंक एटीएम तक ही नहीं रूकना चाहते हैं बल्कि आफिस आटोमेशन पर भी ध्यान दे रहे हैं। भारत में एक्सिस बैंक ने कई शाखाओं में चेक जमा करने और उसके लिए रसीद प्राप्त करने के लिए ओटोमटिक मशीनें लगा दी है। इससे भी एक स्टाफ की बचत हो रही है। 

अब कई बैंक नए तरह का मिनी एटीएम लेकर आने वाले हैं। यह मशीन जहां रूपये को गिन सकेगी वहीं नकली और कटे-फटे नोटों को पहचान कर अलग कर सकेगी। कई बैंक बायोमेट्रिक एटीएम भी लगाने लगे हैं। ऐसे एटीएम आपकी उंगली के निशान से सही ग्राहक की पहचान कर सकेंगे। सही ग्राहक के पहचान के बाद मशीन आगे का काम शुरू कर देगी। 

आगे ऐसी मशीनें भी आने वाली हैं जो सिर्फ नकदी नहीं बल्कि सिक्के भी जमा कर सकेगी। नए तरह की ये एटीएम मशीने आकार में छोटी हैं जो जगह की बचत करती हैं, साथ ही बैंक का काम भी आसान करती हैं। खाली समय में ये एटीएम मशीनें विज्ञापन भी जारी करती हैं। यानी इनका स्क्रीन किसी एडवरटाइजमेंट कियोस्क की तरह काम करता रहता है। 

बैंक मकानो के बढ़ते किराये और स्टाफ के बढ़ते वेतनमान के कारण टेक्नोलॉजी को अपना कर अपना खर्च करने की जुगत लगाने में लगे हुए हैं। एक ग्राहक के बहुत सारे काम मशीन से हो जाते हैं तो ग्राहक काफी खुश रहता है क्योंकि इससे समय की बचत होती है। बैंकों ने इस नई व्यवस्था को लॉबी बैंकिंग का नाम दिया है। भारत का सर्वोच्च बैंक रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया भी चाहता है कि ग्राहकों की सुविधा बढ़ाने के लिए सभी बैंक टेक्नोलॉजी को ज्यादा से ज्यादा अपनाएं। 
- vidyutp@gmail.com 

Saturday 16 August 2008

कैसी होगी टीवी दुनिया ....

आज हम जिस संक्रमण के जिस मुहाने पर खड़े हैं उसमें यह सोचना बड़ा रोचक है कि आने वाले दौर में टीवी की दुनिया कैसी होगी। दस साल बाद केबल आपरेटर होंगे, डीटीएच होगा या फिर आईपीटीवी का सम्राज्या होगा। कुछ साल पहले ऐसा सोचा जा रहा था केबल आपरेटरों के नेटवर्क को खत्म करना आसान नहीं होगा। पर धीरे धीरे बाजार में डीटीएच का हिस्सेदारी अब बढ़ रही है। काफी लोग केबल टीवी का कनेक्शन कटवा कर डाईरेक्ट टू होम पर शिफ्ट हो रहे हैं। पर अब डीटीएच का भी मजबूत विकल्प बनकर आया है आईपीटीवी।

अगर आपने आईपीटीवी ले लिया तो समझो कि एक ही तार के कनेक्सन में आप टेलीफोन की सुविधा का लाभ भी उठा रहे हैं तो उसी लाइन पर टेलीविजन के सिग्लन भी आ रहे हैं और उसी लाईन पर इंटरनेट सर्फिंग के लिए ब्राड बैंड भी आपको मिल रहा है तो भला इससे अच्छी बात क्या हो सकती है। आईपीटीवी के लोकप्रिय होने के साथ ही लैंडलाइन फोन के दिन भी फिर से फिरने वाले हैं। बीच के दौर में लोग लैंडलाइन फोन कटवाकर सीडीएमए या फिर मोबाइल फोन ले रहे थे पर अब लोग ऐसा नहीं करेंगे। एमटीएनएल के बाद बीएसएनएल भी देश भर में अपने उपभोक्ताओं को आईपीटीवी देने की तकनीक पर काम कर रहा है।

वहीं पूरे देश में सबसे बड़ा आप्टिकल फाइबर केबल का नेटवर्क बिछा चुकी रिलायंस भी आईपीटीवी लेकर आने वाली है। ऐसे में हो सकता है कि आने वाले दिनों में आईपीटीवी केबल या डीटीएच की तुलना में टीवी देखने का सबसे सस्ता विकल्प हो। अब डीटीएच में फोन और इंटरनेट सर्फिंग जैसी सुविधा तो नहीं जोड़ी जा सकती है, पर टेलीफोन लाइन के साथ सब कुछ जो़ड़ा जाना संभव होगा। ऐसी हालत संभव है कि फोन के किराया के बराबर शुल्क में आपको इंटरनेट और टीवी जैसी सुविधाएं भी मिल जाएं। आईपीटीवी के बाजार में भी ज्यादा प्लेयर के आ जाने पर सस्ते में तीनों सुविधाएं देने की जंग छिड़ेगी। जैसे देश के कई इलाके में तीन तीन लैंडलाइन फोन सेवा प्रदाता हैं वे भी एक ही तार पर सभी सुविधाएं देना चाहेंगे। ऐसे में आपके घर में आने वाले अलग अलग तरह के तारों के जाल से भी आपको निजात मिल सकेगी। हम कह सकते हैं कि एंटीना के बाद केबल टीवी का दौर आया उसके बाद का दौर डीटीएच का था पर अब आने वाला दौर आईपीटीवी का और वेबकास्टिंग का होगा। 

अगर इंटरनेट का अनलिमिटेड इस्तेमाल सस्ता हो जाएगा तो लोग सीधे वेबकास्टिंग के जरिये भी टीवी चैनल देख सकेंगे। इसमें हर टीवी चैनल का एक खास यूआरएल पता होता है। जैसे आप कोई साइट खोलते हैं उसी तरह सीधे साइट पर लाइव टीवी देख सकते हैं। अभी भी देश के दर्जनों चैनल वेबकास्टिंग पर सीधे उपलब्ध हैं। इंटरनेट के सस्ता और लोकप्रिय होने पर वेबकास्टिंग की विधा भी लोकप्रिय होगी। यानी दस साल बाद केबल आपरेटर और डीटीएच भी बीते जमाने की बात हो सकते हैं। टीवी देखने वालों को यह चिंता बिल्कुल नहीं होगी कि उनका अमुक प्रोग्राम छूट गया। कोई भी व्यक्ति अपना पसंदीदा कार्यक्रम जब चाहे देख सकेगा, उसे रिकार्ड कर सकेगा। सीडी या डीवीडी प्लेयर की जरूरत नहीं होगी,जब जो फिल्म देखने की इच्छा हो आप डिमांड करके मंगवा सकेंगे।

-विद्युत प्रकाश मौर्य 

Monday 11 August 2008

आईपी टीवी का दौर ....

अब अगर आप टीवी पर दर्जनों चैनल देखना चाहते हैं तो केबल आपरेटर पर आश्रित रहने की कोई जरूरत नहीं है। आज आपके पास डीटीएच जैसा विकल्प मौजूद है। पर सबसे ताजा विकल्प है आईपीटीवी का। डीटीएच के आने बाद उपभोक्ताओं को केबल टीवी का एक विकल्प मिला है। पर अब आईपीटीवी और वेबकास्टिंग जैसे विकल्प भी मौजूद हैं। याद किजिए वह दिन जब देश में सिर्फ दूरदर्शन था तो आपके पास एंटीना लगाकर टीवी देखने का विकल्प था। उसके लिए भी कई बार कमजोर सिग्नल वाले इलाके में बूस्टर लगाना पड़ता था। 

बाद में शहरी क्षेत्र के लोगों को केबल टीवी देखने का विकल्प मिला। केबल टीवी में पे चैनलों का दौर आया। आज केबल टीवी आपरेटर उपभोक्ताओं को सौ से ज्यादा चैनल भी उपलब्ध करा रहे हैं। पर केबल टीवी के साथ कई समस्याएं हैं। इसमें चयन का विकल्प उपभोक्ता के पास नहीं है। वहीं डीटीएच यानी डायरेक्ट टू होम में कई तरह के विकल्प हैं। आप यहां अलग अलग तरह के चैनलों का पैकेज चुन सकते हैं। साथ इंटरैक्टिव चैनल और मूवी आन डिमांड जैसी सुविधाओं का भी लाभ उठा सकते हैं। डीटीएच के आने के बाद केबल आपरेटरों की बाजार में मोनोपोली कम हो गई है। यहां तक की कई इलाके में तो केबल वाले अपना मासिक शुल्क भी कम करने लगे हैं।

 आज भारतीय बाजार में डीटीएच के रुप में भी कई विकल्प मौजूद हैं। पहला तो दूरदर्शन का फ्री में उपलब्ध डीटीएच है। इसमें अभी 35 चैनल हैं। पर डीडी के डीटीएच पर जल्द ही चैनलों की संख्या बढ़ने वाली है। इसके बाद जी नेटवर्क का डिश टीवी और स्टार और टाटा समूह का टाटा स्काई भी बाजार में उपलब्ध है। अब डीटीएच के बाजार में रिलायंस समूह का बिग डीटीएच भी उतर चुका है। 

डीटीएच में कई विकल्प होने के कारण अब इसके सेट टाप बाक्स की कीमतों में भी काफी गिरावट आ रही है। जहां एक हजार से ढाई हजार में डीटीएच का कनेक्शन मिल रहा है तो कुछ कंपनियां फ्री में भी डीटीएच देने का दावा कर रही हैं। पर अब भारतीय बाजार में डीटीएच को भी मात देने के लिए आईपीटीवी भी उतर चुका है। दिल्ली मुंबई में एमटीएनएल ने एक निजी कंपनी के साथ मिलकर आईपीटीवी की सेवाएं लांच कर दी हैं। इसका सेटटाप बाक्स और रिमोट कंट्रोल एक हजार रुपये के रिफंडेबल सिक्योरिटी पर दिया जा रहा है। मात्र दो सौ रुपये के मासिक रेंट पर आईपीटीवी में सौ से ज्यादा टीवी चैनल तो हैं ही, यह डीटीएच की तुलना में ज्यादा इंटरैक्टिव भी है। मसलन आप आईपीटीवी में कोई भी वो कार्यक्रम बुलाकर देख सकते हैं। किसी प्रोग्राम का मूल प्रसारण समय शाम के सात बजे है तो उसे रात के एक बजे भी देखा जा सकता है। किसी प्रोग्राम को फास्ट फारवार्ड या रिवाइंड भी किया जा सकता है। इसमें मूवी आन डिमांड और इंटरैक्टिव टीवी जैसी तमाम सुविधाएं मौजूद हैं। 

जो लोग एमटीएनल के टेलीफोन धारी हैं वे आईपीटीवी आसानी से लगवा सकते हैं, जिनके पास लैंडलाइन फोन नहीं है वे भी बिना किसी अतिरिक्त भुगतान के आईपीटीवी का कनेक्शन ले सकते हैं। आईपीटीवी के आने के बाद लैंडलाइन फोन की उपादेयता एक बार फिर से बढ़ गई है। अब आपको अपने लैंडलाइन फोन पर भी फोन, टेलीविजन देखने का सुख और इंटरनेट सर्फिंग का मजा मिल सकता है। जाहिर है कि ये तीनों सुविधाएं अगर सस्ते में मिलें तो अलग अलग कनेक्शन रखने की क्या जरूरत होगी।
-विद्युत प्रकाश मौर्य

Wednesday 6 August 2008

सावधान रहें क्रेडिट कार्ड के फ्राड से

किसी ने सच ही कहा है कि क्रेडिट कार्ड जहरीली नागिन की तरह है। जी हां अगर आप क्रेडिट कार्ड के यूजर हैं तो उसके ट्रांजेक्शन को लेकर सावधान रहें। नहीं तो हो सकता है कि आपको बड़ी चपत लग जाए। खास कर किसी भी मर्चेंट प्वाइंट पर जहां आप कार्ड से भुगतान करते हैं अपने कार्ड की सुरक्षा को लेकर सावधान रहें। आजकल क्रेडिट
कार्ड के दुरूपयोग के बहुत से केस आ रहे हैं।



हो सकता है कि अगले महीने जो आपके कार्ड का बिल आए उसमें उन ट्रांजेक्शन का भी विवरण हो जो खरीददारियां आपने की ही नहीं हों। ऐसे में बिल देखकर आपके होश फाख्ता हो सकते हैं। जी हां क्रेडिट कार्ड का इस्तेमाल करने वालों के साथ ऐसा खूब हो रहा है।इसलिए अपने क्रेडिट कार्ड के इस्तेमाल के समय कई तरह की सावधानियां बरतें

-- हमेशा कार्ड को अपनी आंखों के सामने स्वैप करवाएं। नहीं तो हो सकता है कि आपका कार्ड दो बार स्वैप किया जाए और बाद में ट्रांजेक्शन स्लिप पर आपके मिलते जुलते हस्ताक्षर करके बिल बना दिया जाए।

- कार्ड स्वैप करते समय इस बात का ख्याल रखें कि कोई आपके कार्ड का पूरा नंबर आपका हस्ताक्षर करने का तरीका और कार्ड के पीछे छपा आपका सीवीपी नंबर नहीं नोट कर रहा हो। - अगर कोई आपके कार्ड का पूरा 16 अंकों का नंबर और आपका सीवीपी नंबर जो तीन अंकों का होता है और कार्ड के पीछे छपा होता है जान लेता है तो आपके कार्ड से आनलाइन कुछ भी खरीददारी कर सकता है और इसका बिल बाद में आपके कार्ड पर आ जाएगा।

-कार्ड की सुरक्षा के लिए कार्ड के पीछे छपा सीवीपी नंबर मिटा दें या उसके ऊपर स्टीकर लगा दें।

- अगर आप आन लाइन परचेजिंग या पेमेंट करते हैं तो हमेशा अपने घर के निजी सिस्टम से करें और कार्ड का सीवीपी नंबर कहीं और लिख कर रखें या याद रखें।

- हर महीने अपने कार्ड के एकाउंट स्टेटमेंट की सूक्ष्मता से जांच करें अगर कोई गलत स्टेटमेंट आया हो तो तुरंत बैंक को शिकायत करें।

-अपने बैंक से हर खरीददारी का मोबाइल एलर्ट जारी करने को कहें इससे कोई फ्राड परचेजिंग होने पर आपको मोबाइल पर तुरंत सूचना मिल जाएगी।

-अगर आपको लगता है कि आपके कार्ड से कोई फ्राड तरीके से खरीददारी कर रहा है या आपके कार्ड की सूचनाएं किसी ने चुरा ली हैं तो तुरंत बैंक बाई फोन को फोन करके अपने कार्ड को बंद कराएं।

- अपने कार्ड का नंबर और अपने बैंक बाई फोन का फोन नंबर हमेशा अपने साथ रखें।
-कोशिश करें कि किसी साइबर कैफे या पब्लिक टर्मिनल से कभी आनलाइन पेमेंट नहीं करें।

-अगर आपके कार्ड से कोई गलत ट्रांजेक्शन हुआ है तो समय रहते बैंक को शिकायत करें नहीं तो बाद में बैंक इस पर कोई कार्रवाई करने से मना कर देगा। आम तौर पर गलत ट्रांजेक्शन होने पर बिल आने के 30 से 60 दिन के अंदर ही शिकायत की जानी चाहिए। बाद में बैंक शिकायत सुनने से मना कर देते हैं।

- विद्युत प्रकाश मौर्य 

Thursday 17 July 2008

कहीं खो गया है उनका बचपन

आजकल एकल परिवारों की संख्या अधिक हो रही है। ऐसे में बच्चे दादा-दादी की कहानियों से अछुते रह जाते हैं। इस माहौल में आखिर बच्चा करे तो क्या करे। हर थोड़ी देर पर बच्चा पूछता है मम्मा अब मैं क्या करुं। इसमें बच्चे की भी क्या गलती है। वह नन्ही सी जान बोर जो हो जाता है। कोई भी खिलौना उसे ज्यादा देर तक इंगेज नहीं रख पाता। अब माता पिता की यह समस्या है कि अब कितने पैसे खर्च करें। हर हफ्ते तो हम नया खिलौना नही खरीद सकतें। हम बच्चें को क्वालिटी टाइम भी नहीं दे पा रहें हैं। जिससे बच्चे उदास और चिड़चिड़े रहने लगे हैं। ऐसे में कार्टून चैनलों ने बच्चों की जिज्ञासा को शांत किया है। बच्चे कार्टून देखने में घंटों व्यस्त तो जरूर हो जाते हैं, किन्तु कार्टून चैनल बच्चों के विचारणीय क्षमता को कुंद भी कर रहे हैं।

कार्टून देखते देखते बच्चे आभासी दुनिया में जीने लगते हैं। कई बार काल्पनिक पात्रों को जीने में बच्चे खुद को नुकसान पहुंचा लेते हैं। तीन साल का वंश कहता है कि मैं एक्शन कामेन बन गया हूं, अब तुम मुझसे लड़ाई करो। इस क्रम में वह पलंग से तो कभी कुर्सी से छलांग लगाता है। और यही नहीं वह घंटो कार्टून देखने की जिद करता है।
घर में बच्चों की समस्याओं से उबरने के लिए कई माता पिता अपने बच्चें को जल्दी प्ले-वे में डाल देते हैं। पर कोई जरुरी नहीं है कि आपका बच्चा प्ले वे में जाकर खुश ही हो। हो सकता है कि वह और तनाव में आ जाए। वहां बच्चे को खेलने वाले साथी तो मिल जाते हैं। कई बच्चे वहां जाकर खुश भी रहते है पर कई और ज्यादा तनाव में आ जाते हैं। उन्हें कई कठिनाईयों का सामना करना परता है जैसे सुबह जल्दी उठना, कभी पैंट में पौटी हो जाने से बच्चों का चिढाना इत्यादि। इस क्रम में उन्हें कई तरह के शारीरिक तथा मानसिक यातनाएं सहनी पड़ती है। कई बार डिप्रेशन के शिकार हो जाते है। बच्चें इतने तनाव में आ जाते है कि बोलना तक छोड़ देते हैं। इसलिए बहुत जरुरी है कि बच्चे को समय देना। उसके साथ खेलना उसकी बातों को सुनना, उसकी समस्याओं को सुलझाना।


यदि आप उसे प्ले वे में डालना ही चाहते हैं तो उसके लिए उसे पहले तैयार करें। उसे बताएं कि उसे कुछ समय के लिए अपने माता पिता से दूर रहना पड़ सकता है। वहां बहुत बच्चें होंगे जिनके साथ आप खेल सकते हो। वहां एक टीचर भी होंगी जो आपको नई-नई बातें बताएंगी। नए-नए गेम सिखाएंगी। कुछ इस तरह से आप अपने बच्चे को तैयार कर सकते हैं कि आपका बच्चा खुशी-खुशी उस संस्थान को जाए। अगर बात फिर भी बनती नजर नहीं आ रही तो आप बाल रोग विशेषज्ञ की सलाह ले सकते हैं। याद रखें अपने नौनिहाल को कच्ची उम्र में पूरा समय दें , क्योंकि उसका बचपन लौटकर फिर नहीं आएगा।


-माधवी रंजना, madhavi.ranjana@gmail.com

Thursday 3 July 2008

पोस्टकार्ड की ताकत

कई दोस्त यह लिख रहे हैं कि यह फोन, फैक्स, ईमेल और वीडियो कान्फ्रेंसिंग का जमाना है। अब लोगों को चिट्ठियां लिखना छोड़ दिया है। लिखते भी हैं तो कूरियर करते हैं। पर मुझे लगता है कि अभी पोस्टकार्ड की ताकत कायम है। भले ही ईमेल तेजी के लोकप्रिय हो रहा हो, पर क्या अभी ईमेल देश की एक बड़ी आबादी तक पहुंच गया है। अगर देश में 65 फीसदी लोग साक्षर हो गए हैं तो इमेल कितने लोगों तक पहुंच गया है। जाहिर अभी आमलोगों में ईमेल इतना लोकप्रिय नहीं हुआ है। कई जगह एक्सेसेब्लिटी नहीं है। पर इतना जरूर है कि अब बायोडाटा भेजने और कई तरह की अन्य जरूरी जानकारियां भेजने के लिए लोग ईमेल का इस्तेमाल कर रहे हैं। पर ईमेल के इस दौर में भी पोस्टकार्ड की मह्ता अभी भी कायम है। देश के 70 फीसदी आबादी गांवों रहती है, उनके पास संदेश भेजने के लिए पोस्टकार्ड ही जरिया है। ये जरूर है कि काफी गांवों में अब लोगों के पास मोबाइल फोन हो गए हैं। ऐसी सूरत में अब फोन करके और एसएमएस करके काम चल जाता है। पर फोन और एसएमएस के बाद भी चिट्ठियां लिखने का महत्व कम नहीं हुआ है। हां, यह जरूर है कि फोन और एसएमएस ने पोस्ट आफिस के टेलीग्राम सिस्टम को बीते जमाने की चीज बना दिया है।
पर जब आप किसी को पोस्ट कार्ड लिखते हैं तो आपकी हस्तलिपी में जे लेख्य प्रभाव होता है वह फोन फैक्स या एसएमएस में गौण हो जाता है। हस्तलिपी के साथ व्यक्ति का व्यक्तित्व भी जाता है। तमाम लोगों ने अपने रिस्तेदारों और नातेदारों की चिट्ठियां अपने पास संभाल कर रखी होती हैं। कई लोगों के पास जाने माने साहित्यकारों और समाजसेवियों के पत्र हैं। ये पत्र कई बार इतिहास बन जाते हैं। मैं महान गांधीवादी और समाजसेवी एसएन सुब्बाराव के संग एक दशक से ज्यादा समय से जुड़ा हूं। उनके हाथ से लिखे कई पोस्टकार्ड मेरे पास हैं। समाजसेवी और पर्यावरणविद सुंदरलाल बहुगुणा का पत्र मेरे पास है। हिंदी प्रचारक संस्थान के निदेशक कृष्णचंद्र बेरी सबको नियमित पत्र लिखा करते थे। मैंने पूर्व सांसद और साहित्यकार बालकवि बैरागी को देखा है कि वे खूब पत्र लिखते हैं। हर पत्र का जवाब देते हैं। इसी तरह सासंद और साहित्यकार डा. शंकर दयाल सिंह भी हर पत्र का जवाब दिया करते थे। कई पुराने चिट्ठी लिखाड़ अब ईमेल का इस्तेमाल करने लगे हैं। पर उन्होंने पत्र लिखना नहीं छोड़ा है। मैंने मनोहर श्याम जोशी का एक लेख पढ़ कर उन्हें पत्र लिखा तो उनका जवाब आया।
कहने का लब्बोलुआब यह है कि हमें पत्र लिखने की आदत को बीते जमाने की बात नहीं मान लेना चाहिए। जो लोग अच्छे ईमेल यूजर हो गए हैं, उन्हें भी पत्र लिखना जारी रखना चाहिए। क्या पता आपके लिखे कुछ पत्र आगे इतिहास का हिस्सा बन जाएं। आप यकीन मानिए कि ईमेल और एसएमएस के दौर में भी पोस्टकार्ड ने अपनी ताकत खोई नहीं है। 50 या फिर 25 पैसे में आप पोस्टकार्ड से वहां भी संदेश भेज सकते हैं जहां अभी ईमेल या एसएमएस की पहुंच नहीं है। भारतीय डाकविभाग द्वारा जारी मेघदूत पोस्टकार्ड तो 25 पैसे में ही उपलब्ध है।
-विद्युत प्रकाश मौर्य
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Saturday 28 June 2008

बैंक में जीरो बैलेंस एकाउंट खोलिए

अभी तक जीरो बैलेंस एकाउंट सिर्फ वेतन भोगी लोगों को ही खोलने की सुविधा मिल पाती थी। पर अब कई बैंक समान्य लोगों के लिए भी जीरो बैलेंस एकाउंट लेकर आ गए हैं। यूनियन बैंक आफ इंडिया ने कई शहरों में कैंप लगाकर आम आदमी का जीरो बैलेंस एकाउंट खोलना शुरू किया है, तो हाल में भारत में कदम रखने वाले ब्रिटेन के बड़े बैंक बार्कलेज ने भी लोगों का जीरो बैलेंस एकाउंट खोलना शुरु किया है।
क्या है जीरो बैलेंस खाता
जीरो बैलेंस एकाउंट का मतलब है कि आपको अपने बचत खाते में कोई न्यूनतम रकम रखने की आवश्यकता नहीं है। आप चाहें तो अपने खाते का पूरा पैसा भी किसी समय निकाल सकते हैं। आमतौर पर सरकारी बैंक चेक बुक और एटीएम की सुविधा वाले खाते में एक हजार रुपये मासिक बैलेंस हमेशा मेनटेन करने को कहते हैं। शहरी क्षेत्र में न्यूनतम एक हजार तो देहाती क्षेत्र के लिए यह राशि पांच सौ रुपये है। अगर आप न्यूनतम बैलेंस नहीं मेनटेन करते हैं तो आपके खाते पर पेनाल्टी लगाया जाता है। जैसे एसबीआई ( स्टेट बैंक आफ इंडिया) ऐसे खातों से 65 रुपये की कटौती करता है।

नए ग्राहकों को लुभाने के लिए
अब बैंक नए खातेदारों को लुभाने के लिए जीरो बैलेंस की सुविधा दे रहे हैं। जाहिर है इसके लिए एक हजार रुपये का न्यूनतम बैलेंस खाते में हमेशा रखना जरूरी नहीं है। इससे समाज के नीचले तबके के लोग भी बैंकिंग की सुविधा का पूरा लाभ उठा सकते हैं। कुछ सरकारी बैंको ने चयनित शिक्षण संस्थानों के छात्रों को भी जीरो बैलेंस एकाउंट की सुविधा दे रखी है। ऐसी सुविधा देने का उद्देश्य बैंक से आने वाली पीढ़ी को जोड़ना है। अच्छे संस्थानों में पढ़ने वाले छात्र बाद में आर्थिक रुप से सक्षम होने पर बैंक के लिए अच्छे ग्राहक हो सकते हैं। जैसे पंजाब नेशनल बैंक ने कई संस्थानों में छात्रों के लिए प्रोमोशनल जीरो बैलेंस खाते की सुविधा दे रखी है।
निजी बैंकों की नीति

अगर निजी बैंकों की बात की जाए तो अधिकांश बैंक अपने यहां खाता चलाने वालों के लिए 10 से 15 हजार रुपये का औसत तिमाही बैलेंस मेनटेन करने की शर्त रखते हैं। ऐसे खाते में आप चाहें तो बीच में कभी भी जीरो बैलेंस रख सकते हैं। पर यह ध्यान रखना जरूरी होता है कि तीन महीने का औसत बैलेंस बैंक द्वारा निर्धारित राशि के बराबर जरूर है। ऐसा नहीं होने पर निजी क्षेत्र के बैंक पेनाल्टी के तौर पर बड़ी राशि की कटौती करते हैं। लेकिन निजी क्षेत्र के बैंक विभिन्न संस्थानों में कार्यरत वेतन भोगी लोगों के लिए जिनका सेलरी एकाउंट उनके बैंक में है उनके लिए जीरो बैलेंस की सुविधा प्रदान करते हैं। पर अब निजी बैंक भी आम लोगों के लिए जीरो बैलेंस एकाउंट लेकर आए हैं। जैसे ब्रिटेन के सबसे बड़े बैंकों में एक बार्कलेज ने भारत में अपने ग्राहकों के लिए जीरो बैलेंस खाता पेश किया है। पर बैंक ऐसे खाते पर 750 रुपये सालाना सेवा शुल्क के रुप में वसूलेगा। हालांकि बैंक इसके एवज में फ्री में ड्राफ्ट बनवाने और घर बैठे पैसा जमा करवाने जैसी कई सुविधाएं अपने ग्राहकों को प्रदान कर रहा है। बैंक ने अपने खाता धारकों के लिए किसी भी बैंक का एटीएम फ्री में इस्तेमाल करने की सुविधा भी प्रदान की है। उम्मीद है कि धीरे-धीरे बाकी बैंक भी अपने ग्राहकों को लुभाने के लिए जीरो बैलेंस एकाउंट की सुविधा दे सकते हैं।
-विद्युत प्रकाश मौर्य
Email --- vidyutp@gmail.com

Thursday 19 June 2008

भोजपुरी फिल्मों के गीतकार उमाकांत वर्मा

डा. उमाकांत वर्मा हमारे हाजीपुर शहर में रहते थे। या यूं कहें कि मैं उनके मुहल्ले में रहता था। वे हाजीपुर के राजनारायण कालेज में हिंदी के प्राध्यापक थे। मूल रुप से सारण ( छपरा) जिले के रहने वाले थे। भोजपुरी उनके रग रग में रची बसी थी। 

हालांकि वे हिंदी के गंभीर साहित्यकार थे पर उन्होंने कई लोकप्रिय भोजपुरी फिल्मों के गाने लिखे। उन्हीं में से एक फिल्म थी बाजे शहनाई हमार अंगना। इस फिल्म के कई गीत डा.उमाकांत वर्मा जी ने लिखे थे। उनमें से एक लोकप्रिय गीत था- चना गेहूं के खेतवा तनी कुसुमी बोअइह हो बारी सजन ( आरती मुखर्जी और सुरेश वाडेकर के स्वर में) इसी फिल्म में अंगिया उठेला थोड़े थोड़...भिजेंला अंगिया हमार हाय गरमी से जैसे गीत भी उन्होंने लिखे। इस फिल्म का म्यूजिक एचएमवी ( अब सारेगामा) ने जारी किया था। एक और भोजपुरी फिल्म घर मंदिर के गाने भी उन्होंने लिखे। बाद में उन्होंने कुछ लोकप्रिय गीत भी निर्माताओं की मांग पर लिखे। जिनमें पिया की प्यारी फिल्म का गीत - आईल तूफान मेल गड़िया हो साढ़े तीन बजे रतिया भी शामिल था।

डा. उमाकांत वर्मा के लिखे गीतों को महेंद्र कपूर, आशा भोंसले और दिलराज कौर जैसे लोगों ने स्वर दिया। भोजपुरी फिल्मों में गीत लिखने के क्रम में वे बिहार के छोटे से शहर हाजीपुर से मुंबई जाया करते थे। इस दौरान आशा भोंसले समेत मुंबई फिल्म इंडस्ट्री के कई महान हस्तियों ने उन्हें मुंबई में ही बस जाने को कहा। मुंबई में बसकर स्थायी तौर पर फिल्मों में गीत लिखने के लिए। पर उन्होंने अपना शहर हाजीपुर कभी नहीं छोड़ा। कालेज से अवकाश लेने के बाद भी हाजीपुर के ही होकर रह गए। 


एक निजी मुलाकात में उमाकांत वर्मा ने जी बताया था कि पांच बेटियों की जिम्मेवारी थी इसलिए मुंबई को स्थायी तौर पर निवास नहीं बना सका। उन्होंने कई और भोजपुरी फिल्मों के लिए गीत लिखे जो फिल्में बन नहीं सकीं।

कई भोजपुरी फिल्मों के निर्माण के गवाह रहे डा. उमाकांत वर्मा जी। वे भोजपुरी फिल्मों ऐसे गीतकारों में से थे जो साहित्य की दुनिया से आए थे। इसलिए उनके लिखे भोजपुरी फिल्मों के गीतों में भी साहित्यिक गहराई साफ नजर आती थी। एक बार राजनेता यशवंत सिन्हा जो भोजपुरी गीतों के शौकीन हैं को कोई अपनी पसं का भोजपुरी गीत गुनगुनाने का आग्रह किया गया तो उन्होंने वही गीत सुनाया- चना गेहूं के खेतवा...तनी कुसुमी बोइह ए बारी सजन.....


डा. उमाकांत वर्मा जब वे साहित्य की चर्चा करते थे तो जैनेंद्र कुमार की कहानियों के पात्रों की मनःस्थियों की चर्चा करते थे, अज्ञेय की बातें करते थे। उनके निजी संग्रह में देश के कई बड़े साहित्यकारों की खतो किताबत देखी जा सकती थी। डा. उमाकांत वर्मा ने जीवन में बहुत उतार चढ़ाव देखे, निराशाएं देखीं, पर वे हर मिलने वाले व्यक्ति को बहुत उत्साहित करते थे। यह परंपरा वे जब तक जीवित रहे चलती रही।

 नए पत्रकार हों या नए साहित्यकार या फिर सामाजिक कार्यकर्ता सभी उनके पास पहुंचकर प्रेरणा लेते थे। विचार चर्चा के लिए वे सदैव उपलब्ध रहते थे। एक साक्षात्कार के दौरान उन्होंने एक लाइन सुनाई थी- सुख संग दुख चले काहे हारे मनवा.......

कभी किसी नवसिखुआ पत्रकार या साहित्यकार को उन्होंने निराश नहीं किया। उनके सभी बच्चों ने ( जो अब बहुत बड़े हो चुके हैं) जिस क्षेत्र में जैसा कैरियर बनाना चाहा उन्हें पूरी छूट दी। डा. उमाकांत वर्मा के एक ही बेटे हैं जो मुंबई फिल्म इंडस्ट्री के जाने पहचाने पत्रकार और भोजपुरी फिल्मों और टीवी धारावाहिकों के पटकथा लेखक हैं। उनका नाम है आलोक रंजन। आजकल वे मुंबई में रहते हैं।
-विद्युत प्रकाश मौर्य

(UMAKANT VERMA, BHOJPURI FILMS, ) 

Tuesday 3 June 2008

कहीं कहीं से हर चेहरा तुम जैसा लगता है...


कहीं कहीं से हर चेहरा तुम जैसा लगता है ।
तुमको भूल न पाएंगे हम ऐसा लगता है।



ऐसा भी इक रंग है जो करता है बातें भी
जो भी उसको पहन ले अपना सा लगता है।



तुम क्या बिछड़े हम भूल गए हम अदाबे मुहब्बत,
जो भी मिलता है कुछ देर ही अपना लगता है।


अब भी हमसे मिलते हैं फूल यूं चमेली के ,
जैसे इनसे अपना सा कोई रिश्ता लगता है।


और तो सब ठीक है लेकिन कभी कभी यू हीं
चलता फिरता शहर अचानक तन्हा लगता है।
-निदा फाजली

Friday 9 May 2008

यादें - पानीपत की बात


पानीपत को इतिहास में तीन बड़ी लड़ाइयों के लिए जाना जाता है। तब मैं दैनिक जागरण के लुधियाना संस्करण में कार्यरत था जब मुझे पानीपत में काम करने का मौका मिला। दिल्ली के पास और एक ऐतिहासिक स्थल इसलिए मैंने हां कर दी। यहां मेरे एक पुराने वकील दोस्त हैं जसबीर राठी। हमने एक साथ एमएमसी का पत्रचार पाठ्यक्रम किया था गुरू जांभेश्वर यूनिवर्सिटी, हिसार से। सो पानीपत आने पर मैं दस दिन अपने पुराने दोस्त जसबीर राठी के घर में ही रहा। पानीपत के ऐतिहासिक सलारजंग गेट पास है उनका घर।
हालांकि पानीपत शहर कहीं से खूबसूरत नहीं हैं। पर कई यादें पानीपत के साथ जुड़ी हैं। तीन ऐतिहासिक लड़ाईयों के अलावा भी पानीपत में कई ऐसी चीजें हैं जो शहर की पहचान है। यहां बू अली शाह कलंदर की दरगाह है जो हिंदुओं और मुसलमानों के लिए समान रूप से श्रद्धा का केंद्र है। मैं यहां हर हप्ते जाता था। दरगाह पर पर बैठ कर कव्वाली सुनते हुए मन को बड़ी शांति मिलती है। कलंदर शाह की दरगाह 700 साल पुरानी है। पर इसी दरगाह में पानीपत के एक और अजीम शायर भी सो रहे हैं। उनकी दरगाह के उपर उनका सबसे लोकप्रिय शेर लिखा है....
है यही इबादत और यही दीनों-इमां
कि काम आए दुनिया में इंसा के इंसा

हाली की एक और गजल का शेर
हक वफा का हम जो जताने लगे
आप कुछ कह के मुस्कुराने लगे।

क्या आपको याद है इस शायर का नाम.....इस शायर का नाम है- ख्वाजा अल्ताफ हसन हाली....( 1837-1914) हाली की शायरी से तो वे सभी लोग वाकिफ होंगे जो उर्दू शायरी में रूचि रखते हैं। पर क्या आपको पता है कि हाली ख्वाजा अहमद अब्बास के दादा थे.... शायर हाली मिर्जा गालिब के शिष्य थे और गालिब की परंपरा के आखिरी शायर। हाली ने गालिब की आत्मकथा भी लिखी है। हाली का ज्यादर वक्त कलंदर शाह की दरगाह के आसपास बीतता था और उनके इंतकाल के बाद वहीं उनकी मजार भी बनी। जाहिर है कि हाली के वंशज होने के कारण पानीपत मशहूर शायर और फिल्मकार ख्वाजा अहमद अब्बास का शहर भी है। वही ख्वाजा अहमद अब्बास जिन्होंने सात हिंदुस्तानी में अमिताभ बच्चन को पहली बार ब्रेक दिया था। हालांकि अब पानीपत शहर को हाली और ख्वाजा अहमद अब्बास की कम ही याद आती है। एक जून 1987 को अंतिम सांस लेने से पहले ख्वाजा अहमद अब्बास पानीपत आया करते थे। ख्वाजा अहमद अब्बास एक पत्रकार, कहानी लेखक, निर्माता निर्देशक सबकुछ थे। राजकपूर की फिल्म बाबी की स्टोरी स्क्रीन प्ले उन्होंने लिखी। उनकी लिखी कहानी हीना भी थी। भारत पाक सीमा की कहानी पर बनी यह फिल्म आरके की यह फिल्म उनकी मृत्यु के बाद ( हीना, 1991) रीलिज हुई।
आजादी से पहले पानीपत मूल रूप से मुसलमानों का शहर था। यहां घर घर में करघे चलते थे। बेडशीट, चादर आदि बुनाई का काम तेजी से होता था। हमारे एक दोस्त एडवोकेट राम मोहन सैनी बताते हैं कि पानीपत शहर तीन म के लिए जाना जाता था। मलाई, मच्छर और मुसलमान। अब न मुसलमान हैं न मलाई पर मच्छर जरूर हैं। अब पानीपत हैंडलूम के शहर के रूप में जाना जाता है। बेडशीट, चादर, तौलिया, सस्ती दरियां और कंबल के निर्माण का बहुत बड़ा केंद्र है। पूरे देश और विदेशों में भी बड़ी संख्या में इन उत्पादों की पानीपत से सप्लाई है। वैसे अगर सडक से पानीपत जाएं तो आपको यहां के पंचरंगा अचार के बारे में भी काफी कुछ देखने के मिल जाएगा। मेन जीटी रोड पर सबसे ज्यादा पंचरंगा अचार की ही दुकाने हैं।



पेश है अलताफ हसन हाली की एक और प्रसिद्ध गजल...


हक वफा का

हक वफा का जब हम जताने लगे
आप कुछ कह के मुस्कुराने लगे


हमको जीना पड़ेगा फुरकत में
वो अगर हिम्मत आजमाने लगे

डर है मेरी जुबां न खुल जाए
अब वो बातें बहुत बनाने लगे

जान बचाती नजर नहीं आती
गैर उल्फत बहुत जताने लगे

तुमको करना पड़ेगा उज्र-ए-वफा
हम अगर दर्दे दिल सुनाने लगे

बहुत मुश्किल है शेवा –ए - तसलीम
हम भी आखिर जी चुराने लगे

वक्त ए रुखसत था शख्त हाली पर
हम भी बैठे थे जब वो जाने लगे



- अल्ताफ हसन हाली
-vidyutp@gmail.com

Wednesday 7 May 2008

कौन देगा गरीबों को कर्ज

क्या आप जानते हैं कि अभी बहुत से ऐसे रोजगार हैं जो 100 से 1000 रुपए की जमा पूंजी से आरंभ किए जाते हैं। भारत जैसे विकासशील देश में बड़ी संख्या में ऐसे लोग हैं जो इतनी छोटी सी पूंजी से रोजगार कर अपना जीवन यापन करते हैं। गली में घूमघूम कर सब्जी बेचने वाले, अंडे बेचने वाले, फल बेचने वाले, छोले कुलचे बेचने वाले। इन सबका कारोबार थोड़ी सी पूंजी में ही चलता है।


साइकिल पर चलती है दुकानः कई ऐसे बिजनेस हैं जो एक साइकिल पर ही चलते हैं। जैसे दूध बेचने वाले, गली मे घूम-घूम कर सामान ठीक करने वाले, आइसक्रीम बेचने वाले आदि। कई ऐसे कारोबार ठेल पर या तिपहिया वाहन पर चलते हैं। इसमें थोड़ी सी पूंजी की आवश्यकता होती है। पर यह छोटी सी पूंजी भी उन्हें कर्ज में लेनी पड़ती है। पर उन्हें नहीं पता होता है कि यह छोटा सा कर्ज भी वह कहां से लें। कोई भी बैंक इतनी छोटी सी राशि कर्ज में नहीं देता। फिर बैंक से कर्ज लेने के लिए एक लंबी प्रक्रिया से गुजरना पड़ता है। सबसे बड़ी बात की साधनहीन लोगों को पास गिरवी रखने के लिए भी कुछ नहीं होता जिससे कि वे बैंक से कर्ज ले सकें।
साहूकारों का द्वारा शोषण - देश के कोने कोने में छोटी पूंजी कर्ज लेकर रोजगार करने वाले लोग साहूकारो के शोषण के शिकार हैं। साहूकार इन्हें जहां मोटी ब्याज दरों पर ऋण देते वहीं वसूली में दिक्कत आने पर उन्हें गुंडों से पिटवाते भी हैं। ऐसे लोगों के लिए बैंक जाकर कर्ज लेना मुश्किल है। साहूकर निजी जानपहचान पर बिना गारंटी के कर्ज दे देता है। पर बैंक को हर कर्ज के लिए जमानतदार चाहिए होता है।

ग्रामीण बैंकों की अवधारणा फेल - छोटे कर्ज देने के लिए इंदिरा गांधी द्वारा शुरू किए गए ग्रामीण बैंकों की अवधारणा अब बदल चुकी है। अब वे सभी व्यवसायिक बैंको की तरह ही बड़े कर्ज देने लगे हैं। लिहाजा अब वहां साधनहीन और थोड़ी सी पूंजी लेकर रोजगार करने वालों के लिए गुंजाइश कम ही बची हुई है। अब ग्रामीण बैंको मर्ज कर व्यवसायिक बैंकों की तरह ही बनाया जा रहा है।

स्वसहायता समूह की अवधारणा - कम पूंजी से रोजगार करने वाले छोटे लोगों को सहायता पहुंचाने के लिए ही स्व सहायता समूह की अवधारणा शुरू की गई है। स्व सहायता समूह (सेल्फ हेल्प ग्रूप की अवधारण के जनक बांग्लादेश के अर्थशास्त्री मोहम्मद युनूस हैं। उन्होंने रोज सुबह मार्निंग वाक के दौरान एक बूढ़ी महिला को देखा जो साहूकार से कर्ज लेकर अंडे बेचती थी। साहूकार उसे छोटी सी राशि कर्ज में देने के एवज बहुत ज्यादा ब्याज लेता था। ऐसे लोगों को मदद करने के लिए स्वसहायता समूह का जन्म हुआ। इसमें एक तरह का कारोबार करने वाले 10 या उससे ज्यादा लोग एक समूह बनाते हैं। वे रोज अपनी कमाई में से कुछ राशि कामन पुल में डालते हैं। यह राशि मिल कर बड़ी हो जाती है। इससे राशि से समूह के सदस्यों को किसी भी तरह की जरूरत पड़ने पर कर्ज दिया जाता है साथ ही ऐसे समूहों को बैंक रजिस्टर करते हैं। इन समूहों को बैंक भी अपनी ओर से कर्ज देते हैं। देश के कई हिस्सों में इस तरह के समूह लोकप्रिय हो रहे हैं।

माइक्रोफाइनेंस की अवधारणा- ऐसे साधनहीन लोग जिन्हें कोई बैंक कर्ज नहीं देता उन्हें कर्ज देने के लिए माइक्रोफाइनेंस की अवधारण का जन्म हुआ है। इस तरह का कर्ज आमतौर पर बिना किसी गारंटी के दिया जाता है। कर्ज की राशि 500 रुपए से लेकर 2000 के बीच हो सकती है। पात्र का चयन करके उसे तुरंत ही कर्ज मुहैय्या करा दिया जाता है।
-विद्युत प्रकाश vidyutp@gmail.com