Friday 10 November 2017

क्या भारत में समाचार पत्रों का भविष्य खतरे में है...

प्रस्तावना - पिछले कुछ सालों से दुनिया भर में अलग अलग मंचों से ये चिंता उठ रही है कि समाचार पत्रों का भविष्य खतरे में है। क्या सचमुच एक दिन अखबार खत्म हो जाएंगे। ये खतरा खास तौर पर बदलती तकनीक से है। भय है कि ट्विटर और फेसबुक पर पल पल अपडेट होती खबरेंवेबसाइटों पर लगातार बरस रही ताजा खबरें अखबारों को पूरी तरह बासी कर देंगी। साल 2016 के फरवरी में ब्रिटेन के प्रसिद्ध अखबार इंडिपेंटेंडट ने अपना प्रिंट संस्करण बंद कर दिया तब दुनिया भर के मीडिया कर्मियों के बीच ये चिंता खास तौर पर बढ़ी की आने वाले दौर में दूसरे देशों में भी ऐसे ही हालात देखने को मिल सकते हैं।
ये डर पत्रकारोंमीडिया घरानों से लेकर लगातार मीडिया पर पैनी नजर रखने वाले लोगों में है। पर क्या सचमुच अखबार खतरे में हैं। कई और खतरे की बात की जा रही है। क्या प्रिंट मीडिया में काम करने वाले पत्रकारों की नौकरी खत्म हो जाएगी। पर इन सवालों का उत्तर इतना नकारात्मक नहीं है जितना की डर बताया जा रहा है।
विकसित देशों के अखबार खतरे में
दुनिया के कई देशों में वेब मीडिया, मोबाइल प्लेटफार्म पर इंटरनेट की उपलब्धता के बाद समाचार पत्रों यानी मुद्रित माध्यम पर खतरे की बात की जा रही है तो भारत में भी इस पर चर्चा लाजिमी है। फरवरी 2016 में ब्रिटेन के अखबार इंडिपेंडेंट के प्रबंधन ने ऐलान कर दिया कि मार्च 2016 के बाद उसके अखबार के प्रिंट एडिशन बंद हो जाएंगे। अखबार अब सिर्फ ऑनलाइन ही प्रकाशित हुआ करेगा। 26 मार्च 2016 को अखबार का आखिरी मुद्रित संस्करण लोगों के हाथ में आया। इसके साथ ही 150 से ज्यादा समाचार पत्र कर्मियों को अपनी नौकरियों से हाथ धोना पड़ा।
इंडिपेंडेंट अखबार का आखिरी संस्करण। 
इससे पहले हार्वाड पोलिटिक्स में छह दिसंबर 2014 को प्रकाशित एक आलेख में कहा गया कि ये न्यूज इंडस्ट्री खराब दशक से गुजर रही है। दुनिया के विकसित देशों में प्रिंट मीडिया के पाठक लगातार कम हो रहे हैं। कई जगह अखबारों के संस्करण बंद हो रहे हैं। इस चुनौती का सामना करने के लिए ज्यादातर अखबार अपने अंदर बदलाव ला रहे हैं। पाठकों की रुचि बनाए रखने के लिए खबरों का आकार छोटा किया जा रहा है। लोगों प्रतिक्रियाएं जोड़ी जा रही हैं। साथ ही सोशल मीडिया को अखबारों में जगह दी जा रही है।
क्या वाकई हम सब कुछ 140 अक्षर या इससे कम में कह देने के दौर में आ गए हैं और समाचार और विचार का पेश करने के स्वर्णिम दौर का समापन की ओर है। पर यह एक सही मूल्यांकन नहीं होगा। अखबार को तकनीक से चुनौती मिल रही है। यह एक संक्रमण का दौर जरूर है। पर आखिर कौन सा दौर संक्रमण का नहीं था। हर दौर में कुछ बदलाव परिलक्षित होते हैं। इस बदलाव के दौर में ही नए तरीके अपनाकर पाठकों को खुद से जोड़े रखना अखबारों के सामने चुनौती जरूर है।
अखबारों ने अपना रंग रुप बदला - कांपैक्ट अखबारों का दौर
कई विदेशी अखबारों ने गिरते सरकुलेशन से मुकाबला करने के लिए अखबारों के आकार को थोड़ा छोटा किया। नये आकार के अखबार के आकार को कांपैक्ट नाम दिया गया। गंभीर अखबार जो पहले बड़े आकार में निकलते थेउन्हें ही छोटे आकार में निकाल कर कांपैक्ट पेपर कहा गया जिन बड़े अखबारों का सरकुलेशन गिर रहा थानई पीढ़ी के पाठक नहीं मिल रहे थेअचानक कांपैक्ट बनते ही उनकी स्थिति बदल गई। प्रसार संख्या बढ़ने लगी नए पाठक (जो टीवी-इंटरनेट की दुनिया से जुड़ रहे थे) इन कांपैक्ट अखबारों से जुड़ने लगे इन कांपैक्ट अखबारों में डिजाइनिंग और विजुअल पार्ट के महत्व को काफी रेखांकित किया गया।
विकसित देशों में अखबारों का राजस्व घटा
चूंकि अखबारों की आमदनी विज्ञापन और बिक्री से आती है। साल 2013 में अखबारों की आय में 2.6 फीसदी की कमी दर्ज की गई। इसका परिणाम हुआ कि द न्यू यार्क टाइम्सद वाल स्ट्रीट जरनल यूएसए टूडे जैसे अखबारों ने उस साल घाटा उठाया। इन समाचार पत्रों ने अपने न्यूज रूम में नौकरियां कम कीं। कई ऊंचे वेतन पाने वाले पत्रकारों की भी नौकरियां चली गईं। हालांकि इसके ठीक पहले साल 2006 से 2012 के बीच अमेरिका में ही देखें तो वर्किंग जर्नलिस्टों की संख्या में 17 हजार का इजाफा हुआ। मतलब नौकरियां बढ़ रही थीं। पर 2013 के बाद प्रिंट मीडिया के राजस्व में विकसित देशों में कमी दर्ज की जाने लगी।
अब हम भारत की बात करें तो यहां प्रिंट मीडिया के हालात भी नकारात्मक नहीं है। साल 2013-15 के दौरान ही देखें तो यहां प्रिंट मीडिया अच्छा ग्रोथ (विकास) देखा गया। जहां प्रकाशनों की संख्या में इजाफा हुआ वहीं समाचार पत्रों की प्रसार संख्या में भी इजाफा हुआ। भले ही पश्चिम के देशों में प्रसार संख्या में गिरावट आई हो पर भारत में ऐसा नहीं हुआ। पश्चिम के देशों में डिजिटल मीडिया के तेज विकास का असर अखबारों पर पड़ा। पर भारत जैसे विकासशील देश में लगातार बढ़ रही साक्षरता और बढ़ती आबादी के कारण अखबार अभी खतरे में नहीं हैं।

अखबारों के प्रसार में इजाफा  - साल 2017 की ताजा रिपोर्ट की भी बात करें तो मई 2017 में जारी एबीसी के आंकड़ों में भारतीय प्रिंट मीडिया को लगातार बढ़ता हुआ दिखाया गया है। हां इस बात के संकेत जरूर दिए गए हैं आगे प्रिंट मीडिया का विकास दूसरे मीडिया के तुलना में धीमा हो सकता है। आठ मई 2017 को जारी एबीसी की रिपोर्ट के मुताबिक पिछले दस सालों में भारत में अखबारों की प्रसार संख्या में 2.37 करोड़ का इजाफा हुआ है।


भारत में अखबारों के राजस्व में इजाफा
साल 2017 में भारत में जिसे क्षेत्रीय अखबार माना जाता है उनका सरकुलेशन और राजस्व में वृद्धि की दर 8 से 10 फीसदी रही है। वहीं उनके छपाई लागात में कोई खास बदलाव नहीं आया है क्योंकि वैश्विक स्तर पर न्यूज प्रिंट की कीमतें इस साल नहीं बढ़ी हैं। अखबार के प्रोडक्शन की कुल लागात में न्यूज प्रिंट की भागीदारी 40 फीसदी रहती है। जिस तरह से भारत की आर्थिक विकास की दर सतत बढ़ रही है फिलहाल अखबारों को विज्ञापन से मिलने वाले राजस्व में भी बढ़ोत्तरी होने का अनुमान है। इंडिया स्पेंड्स की एक रिपोर्ट के मुताबिक विज्ञापन से मिलने वाले राजस्व में ई कामर्स की बड़ी भागादारी होगी। 
ऑनलाइन उत्पादों की बिक्री करने वाली वेबसाइटें अखबारों को बड़े विज्ञापन दे रही हैं। एसोचेम की रिपोर्ट के मुताबिक भारत में ई कामर्स सेक्टर में साल 2016 में 65 फीसदी का उछाल देखा गया है। इसका सीधा असर अखबारों की बेहतर सेहत पर पड़ रहा है।

2006 - 2016 के बीच प्रिंट मीडिया का विस्तार
उत्तर क्षेत्र  7.83%
दक्षिण क्षेत्र 4.95%
पश्चिम क्षेत्र  2.81%
पूर्वी क्षेत्र 2.63%
कुल (राष्ट्रीय स्तर पर )  4.87%

भाषायी स्तर पर प्रसार में बढ़ोत्तरी ( 2006 से 2016 के बीच )
हिंदी  8.76%
तेलगू  8.28%
कन्नड 6.40%
तमिल  5.51%
मलयालम 4.11%
अंग्रेजी 2.87%
पंजाबी  1.53%
मराठी  1.50%
बांग्ला  1.49%
( स्रोत – आडिट ब्यूरो ऑफ सरकुलेशन, मई 2017 )



अंतरराष्ट्रीय स्तर पर प्रिंट मीडिया में ह्रास या वृद्धि  
--------------------------------------------------------------------------------
देश           2013                       2014                       2015
---------------------------------------------------------------------------------
ऑस्ट्रेलिया         2,281 (-10%)         2,008 (-12%)         1,879 (-6%)
फ्रांस                 6,537 (-4%)            6,324 (-3%)            6,163 (-3%)
जर्मनी                 17,242 (-4%)                16,307 (-5%)         15,786 (-3%)
जापान               46,999 (-2%)         45,363 (-3%)         44,247 (-2%)
ब्रिटेन                  9,852 (-8%)           9,820 (0%)             8,626 (-12%)
अमेरिका    40,712 (-6%)                40,420 (-1%)         39,527 (-2%)
भारत                224,338 (14%)             264,290 (18%)              296,303 (12%)
( स्रोत - WAN-IFRA WPT 2016 )



भारत में अखबारों की प्रसार संख्या लगातार बढ़ रही है...
भले ही दुनिया कुछ विकसित देशों में अखबार मर रहे हैं। भारत में अभी अखबार औसत आठ फीसदी की गति से बढ़ रहे हैं। भारत में प्रिंट मीडिया इंडस्ट्री अभी 30 हजार करोड़ की है। अगले तीन साल तक इसमें 8 फीसदी की औसत गति से विकास का अनुमान है। पर ये विकास अंग्रेजी अखबारों में नहीं बल्कि हिंदी और क्षेत्रीय भाषा के दूसरे अखबारों का हो रहा है। इंडिया रेटिंग एंड रिसर्च का अनुमान है कि क्षेत्रीय भाषाओं के अखबार 2017 मे 10 से 12 फीसदी की गति से बढ़ेंगे। क्षेत्रीय अखबारों के विकास ये दर अंग्रेजी प्रिंट मीडिया की तुलना में अधिक है। 14 मार्च 2017 को जारी एक रिपोर्ट में कहा गया कि एक दिन क्षेत्रीय भाषाओं के अखबार अंग्रेजी अखबारों को पीछे छोड़ देंगे। इसका कारण है कि देश की 1 अरब 30 करोड़ आबादी में सिर्फ 10 फीसदी लोग ही अंग्रेजी बोल या समझ पाते हैं। यह कहा जा रहा है कि भारत के क्षेत्रीय भाषाओं में अभी विकास की अपार संभावनाएं हैं। इसलिए वहां क्षेत्रीय अखबारों के लिए बड़ा बाजार भी है। इसके आगे बात करें तो अभी भारत में साक्षरता की दर में लगातार इजाफा हो रहा है। अभी हम सौ फीसदी साक्षरता दर तक नहीं पहुंच पाएं। इसलिए जिस गति से साक्षरता दर बढ़ रही है। अखबारों के प्रसार संख्या में भी लगातार इजाफा हो रहा है। साल 2011 के जनगणना में ग्रामीण आबादी में साक्षरता की दर 46 फीसदी से बढ़कर 69 फीसदी पर जा पहुंची है। अभी जो 31 फीसदी लोग निरक्षर हैं वे भी भविष्य में पढ़ेंगे लिखेंगे तो अखबार बाचेंगेइसलिए अभी अगले कुछ दशक तक हिंदी और क्षेत्रीय प्रिंट मीडिया पर कोई खतरा नजर नहीं आ रहा है। इसलिए क्षेत्रीय भाषा के पत्रकारों को भी ज्यादा चिंता करने की जरूरत नहीं है।       

क्या समाचार पत्रों का डिजिटल होना गलत है...
दुनिया भर में कई वरिष्ठ पत्रकारों ने इस बात पर भी खूब चर्चा की है कि क्या संपादकीय सामग्री को वेबसाइट पर अपलोड कर देना सही कदम है। अगर हम खबरलेखफीचर को वेबसाइट पर डाल देते हैं तो पाठकों को फ्री में कंटेट परोसने जैसा है। अमेरिका के प्रसिद्ध मीडिया कमेंटेटेटर जैक शेफर इसे अपने लेख में इसे एक पागलपन करार देते हैं।उनका मानना है कि एक लेख लिखने में एक रिपोर्ट तैयार करने में सैकड़ो डॉलर का खर्च आता है। फिर इसे मुफ्त में परोसने का क्या तुक है। प्रिंट को आनलाइन से चुनौती पूरी दुनिया में मिल रही है। अगर हम सब कुछ मुफ्त में वेबसाइट पर अपलोड कर देते हैं तो हमें पाठक कहां से मिलेंगे और राजस्व कहां से आएगा। 
शेफर ने टेक्सास विश्विवद्यालय के दो अध्ययनों का हवाला देकर एक रियलिटी चेक किया। उनके मुताबिक अमेरिका के कई अखबारों ने अपने डिजिटल प्लेटफार्म पर सामग्री परोस देने के कारण अपने परंपरागत प्रिंट मीडिया के पाठक खो दिए। आज पूरी दुनिया में ये नारा लगाया जा रहा है डिजिटल फर्स्टपर इस डिजिटल फर्स्ट ने कई अमेरिकी अखबारों को काफी घाटा पहुंचाया है।
पर अमेरिका के 51 अखबारों के ऑनलाइन रिडरशिप के अध्ययन में यह पाया गया कि साल 2011 से 2015 के बीच इनमें से आधे वेबसाइटों ने भी अपने पाठक खोए हैं। दूसरे अध्ययन में यह भी माना गया है कि ऑनलाइन संस्करण को पढ़ने के बावजूद लोगों ने अखबार के प्रिंट संस्करण को पढ़ना नहीं छोड़ा है। 
अगर राजस्व के लिहाज से देखा जाए तो भी दुनिया भर के अखबार अब अपने प्रिंट संस्करण के साथ ही आनलाइन संस्करण से भी राजस्व प्राप्त करने की कोशिश में लग गए हैं। कई अखबारों के आनलाइन राजस्व में अच्छा खासा इजाफा भी हो रहा है।  साल 2010 से 2014 के बीच अमेरिकी अखबारों के राजस्व में 3 बिलियन डालर से इजाफा होकर 3.5 बिलियन हो गया है। हालांकि प्रिंट मीडिया के राजस्व से तुलना करें तो यह इजाफा बहुत उत्साहजनक नहीं है। अमेरिका मीडिया में अभी अखबारों के कुल राजस्व में प्रिंट संस्करणोंसे आने वाला राजस्व 82 फीसदी है जबकि आनलाइन से आने वाला राजस्व 18 फीसदी है।
साल 2013 में आई अपनी पुस्तक – ट्राएल एंड एरर में एच आइरिस चाई लिखती हैं -  समाचार पत्रों के आनलाइन संस्करणों को पढना पूर्ण संतोष नहीं दे पाता है। ये मुद्रित संस्करण की तुलना में गुणवत्ता के लिहाज से नहीं ठहर पाते। पाठक अब भी मुद्रित संस्करण को पढ़ना चाहता है। 
अपने मुद्रित संस्करण को उपयोगी और बाजार में मांग में बना रहने लायक बनाए रखने के लिए प्रकाशक भी कई तरह की रणनीति पर काम कर रहे हैं। कई अखबार अपने एक्सक्लूसिव रिपोर्ट अपनी वेबसाइट पर नहीं डालते। उसे प्रिंट संस्करण सुबह में बाजार में पाठकों के बीच पहुंच जाने के बाद ही वेबसाइट पर अपलोड करते हैं। वहीं कई बार ऐसा भी किया जाता है कि संक्षिप्त रिपोर्ट को वेबसाइट पर डाला जाता है और विस्तार से रिपोर्ट को मुद्रित संस्करण में प्रकाशित किया जाता है। 

प्रिंट मीडिया के सामने कैसी चुनौतियां
बदलाव के लिए तैयार रहें  ऐसा नहीं है कि प्रिंट मीडिया में नौकरियां खत्म हो रही हैं। पर अब काम काज के तौर तरीकों में बदलाव हो रहा है। ऐसे लोगों की तलाश की जा रही है जिन्हें लिखने और संपादन के अलावा सोशल मीडिया का इस्तेमाल करना भी आता हो।
तमाम अखबार अपने कंटेट को पेश करने के तौर तरीके में बदलाव ला रहे हैं। अब वे खास तौर पर नई पीढ़ी को ध्यान में रखते हुए सामग्री परोस रहे हैं। दुनिया के तमाम बड़े अखबारों ने अपने संवाददाताओं को सलाह दी है कि वे पहले की तुलना में अपनी खबरों को छोटा करें। वे शब्दों में 50 फीसदी तक कटौती करें। साथ ही संवाददाताओं से ये अपेक्षा की जा रही है कि वे ऐसी खबरों की प्राथमिकता दें जो सोशल मीडिया पर भी हिट हो सकता हो। खबरों के पेश करने के तरीके में बदलाव पर जोर दिया जा रहा है।   
खोजपूर्ण रिपोर्ट की आज भी मांग
कई समाचार पत्र संगठन अपने पत्रकारों को यह कह कर भयभीत करने में लगे हैं कि पत्रकारिता का भविष्य अब अंधेरे में है। भले ही कई अखबार छोटी छोटी रिपोर्ट लिखने के लिए अपने पत्रकारों से कह रहे हों पर सच्चाई है कि पाठकों में गहराई से रिपोर्टिंग और खोजपरक खबरें पढ़ने की अभिलिप्सा पहले की तरह बनी हुई है। पर चुनौती अब इस तरह की है कि आपको अपने रिपोर्ट लिखने के मामले में इनोवेटिव होना पड़ेगा तभी आप इस तकनीक से मिल रही चुनौती की दुनिया में खुद को खड़ा रख पाएंगे। अलग अलग तरह के पाठकों की अलग अलग मांग होती हैपर खोजपूर्ण रिपोर्ट की मांग बनी हुई है।
अगर ऑनलाइन रिडिंग की भी बात करें तो यह देखा गया है कि लोग टैबलेट और लैपटाप पर भी लंबी रिपोर्ट को पढ़ते हैं। हालांकि मोबाइल के मामले में लोगों को छोटी-छोटी खबरें और रिपोर्ट पढने में सुविधा होती है।

लेआउट डिजाइन के स्तर पर बदलाव लाना होगा
दुनिया के सबसे समाचार पत्र डिजाइनर माने जाने वाले मारियो गर्सिया का मानना है कि युवा पाठकों को जोड़ने और घटती प्रसार संख्या को रोकने में विजुअल चेंज (ले आउट) की बड़ी भूमिका है। समाज में हो रहे नये बदलावों के अनुरूप अखबार में बदलाव नहीं होंगेतो अखबारों के लिए संकट होगा। दक्षिण भारत के तीन महत्वपूर्ण अखबारों द हिंदूदक्कन क्रानिकल और दक्कन हेरल्ड ने ले आउट और विजुअल एक्सलेंस (मोहक प्रस्तुति) में पश्चिमी अखबारों के तर्ज पर खुद को काफी समृद्ध बनाया है। इसे वहां के पाठकों ने काफी पसंद भी किया है।

यह सही है कि प्रिंट मीडिया में डिजिटल मीडिया तेजी से अपनी जड़ें जमा रहा है। हर समाचार पत्र को अपनी वेबसाइट भी बनानी पड़ी है और उसे 24 घंटे अपडेट करते रहना चुनौती बन गई है। अब समाचार पत्र अपने स्वरूप और कामकाज में व्यापक परिवर्तन लाना पड़ रहा है। समाचार पत्र के दफ्तर मेंभी 24 घंटे सक्रिय रहने वाले न्यूज रूम का निर्माण करना पड़ रहा है। अखबारों को  भविष्य में डिजिटल अवतार के बिना बाजार में बने रहने की उम्मीद छोड़ना पड़ेगा। अब लगभग हर छोटे बड़े समाचार पत्र के लिए अब एक डिजिटल अवतार बदलते वक्त की जरूरत बन गया है।

बदलती तकनीक अपनाने के लिए तैयार रहें
आज के दौर में पत्रकारों से बदलती तकनीक को अपनाने के लिए तैयार रहना होगा। आज प्रिंट मीडिया का पत्रकार सोशल मीडिया से विमुख होकर काम नहीं कर सकता। जब 2008 के आसपास भात में फेसबुक लोकप्रिय होने लगा तो पत्रकारों ने इसका मजाक उड़ाया। पर धीरे धीरे तमाम वरिष्ठ और गंभीर पत्रकारों को भी इस पर अपना प्रोफाइल और पेज बनाने की जरूर महसूस होने लगी। ठीक इसी तरह ट्विटर की लोकप्रिय बढ़ने के बाद तमाम मीडिया कर्मियों ने इस पर अपना प्रोफाइल बनाना और ट्वीट करना शुरू कर दिया। यह समय की जरूरत हैइससे आप दूर नहीं रख सकते। हिंदी समाचार पत्र हिन्दुस्तान के प्रधान संपादक शशि शेखर कहते हैं कि हर प्रिंट का पत्रकार को सोशल प्रोफाइल होना आवश्यक है। अगर वह इस मंच पर सक्रिय नहीं है तो आउटडेटेड हो जाएगा। आप अपने विचार सोशल मीडिया पर साझा करें साथ ही अपनी खबरों को इस मंच पर प्रोमोट करें यह समय की जरूरत बन गया। मुझे खुशी होती है कि हमारे भारतीय जन संचार संस्थान के हिंदी पत्रकारिता विभाग के विभागाध्यक्ष रहे डॉक्टर रामजीलाल जांगिड भी 78 साल की उम्र में सोशल मीडिया पर सक्रिय हो चुके हैं। साठ को पार कर चुके कई पत्रकार भले ही अपने संस्थानों से रिटायर हो गए हों पर इस मंच पर सक्रिय हैं।
हर अखबार का सोशल मीडिया एकाउंट
ज्यादातर हिंदी समाचार पत्रों ने सोशल मीडिया पर अपना एकाउंट बना लिया है। पहले सभी अखबारों ने अपनी वेबसाइट बनाई। पर वे यहीं पर नहीं रुके। इधर दो सालों मे देखा गया कि उन्होंने फेसबुक और ट्विटर पर भी अपना खाता सक्रिय किया है। वे अपने अखबार की प्रमुख खबरों को फेसबुक ट्विटर पर साझा करने लगे हैं। इन पेज को फालो करने वाले लोग इन्हे आगे री-ट्वीट करने लगे हैं। हमें यह समझना पड़ेगा कि सोशल मीडिया परंपरागत प्रिंट मीडिया का दुश्मन नहीं है। यह आपकी खबरोंपेज या आपके प्रोडक्ट को ज्यादा प्रचारित करने में सहायक हो सकता है।
हालांकि कई पत्रकार इस बात से चिंतित दिखाई दे रहे हैं कि यही मीडिया आने वाले दौर में कहीं हमारे लिए खतरा न बन जाए। या हमें कहीं खत्म न कर दे। पर इस भविष्य के खतरे की चिंता में हम सोशल मीडिया से दूरी बनाकर नहीं रख सकते।
 निराशा की बात नहीं, आइए आगे बढ़ते हैं...
समय बदल रहा है तो अखबारों को भी यह स्वीकार करना पड़ेगा कि कामकाज के जो तरीके वे पहले अपना रहे थे उसमें भी बदलाव लाना पड़ेगा। हो सकता है इनमें से कुछ तरीके बिल्कुल बेकार हो चुके हों। नवोन्मेष की बात करें तो यह समाचार पत्र उद्योग में बदलाव ला सकता है। इसके साथ ही कारोबार करने के तरीके बदलने होंगेनई तकनीक को अपनाना होगा। निश्चित तौर पर आने वाले दशक में काम करने के तौर तरीके में बदलाव लाना होगा तभी अखबार बचे रह सकेंगे।
यह पत्र दिनांक 07 नवंबर 2017 को दिल्ली विश्वविद्यालय, दिल्ली के दौलतराम कॉलेज में भारतीय जनसंचार संघ और संस्कृत विभाग, दौलतराम कॉलेज की ओर से आयोजित राष्ट्रीय संगोष्ठी (विषय – मीडिया के सामने चुनौतियां) में पढ़ा गया।
Reference –
http://www.thehoot.org/media-watch/media-business/growth-trends-in-the-indian-print-media-10083
अखबारों के बदलते रंग रुपहरिवंशप्रभात खबर , 12 अप्रैल 2016
 https://qz.com/643982/the-future-of-indias-newspapers-lies-in-the-hinterlands
5. Report of Assocham on E-commerce 
7. http://harvardpolitics.com/covers/future-print-newspapers-struggle-survive-age-technology/

8. वाशिंगटन पोस्ट की बिक्री से प्रिंट मीडिया को संकेत - http://hindi.webdunia.com/article/current-affairs_1.htm

9. Report of India Ratings and Research (a credit ratings agency and a unit of Fitch Ratings)

10. Book - Trial and Error: U.S. Newspapers' Digital Struggles toward Inferiority (Media Markets Monographs) 2013 – H. Iris Chyi

13. https://www.timesofmalta.com/articles/view/20160326/world/last-print-run-for-the-independent-as-paper-moves-online.606858

          About writer
-         Vidyut Prakash Maurya
-        M.A. (History) BHU – 1995 , PG Diploma in Journalism from IIMC, New Delhi (1996). Master in Mass Communication  ( GJU), UGC NET in Mass Communication. Active in Print, TV media, Teaching since 1996. A travel blogger and researcher.
-         Contact – vidyutp@gmail.com  



Wednesday 8 November 2017

सच बोलेगा तो सिर चढ़कर बोलेगा

वरिष्ठ साहित्यकार और पत्रकारिता पर कई पुस्तकें लिखने वाले जगदीश्वर चतुर्वेदी ने कहा कि हम सच को थोड़ी देर छिपा सकते हैं पर सत्य कभी पराजित नहीं हो सकता। पर सच जब भी बोलेगा सिर चढ़ कर बोलेगा।ये विचार मंगलवार 7 नवंबर को दिल्ली विश्वविद्यालय के दौलतराम कालेज में आयोजित सेमिनार में रखे। सेमिनार का आयोजन  वरिष्ठ पत्रकार डॉक्टर रामजीलाल जांगिड के मार्गदर्शन में भारतीय जनसंचार संघ और दौलत राम कालेज के संस्कृत विभाग की ओर से किया गया था।
राष्ट्रीय सेमिनार – मीडिया के समक्ष चुनौतियां

प्रोफेसर चतुर्वेदी ने मोनिका लेविंस्की-बिल क्लिंटन प्रकरण और विकिलिक्स का उदाहरण दिया। पर हमें पत्रकारिता की सीमा को समझना पड़ेगा। उन्होंने कहा कि इंटरनेट बुरा नहीं है। इसने कई तरह के खुलासों को मंच प्रदान किया है।  
टीवी के वरिष्ठ पत्रकार शेष नारायण सिंह ने कहा कि पत्रकारिता के सामने चुनौतियां हर कालखंड में रही हैं। हमें पत्रकारों से बहुत उम्मीद पालने से पहले उनके कामकाज की सीमाओं को भी समझना पड़ेगा। जो लोग मीडिया की कार्यशैली को नहीं जानते हैं उनके लिए मीडिया पर उंगली उठा देना, सवाल खड़े करना आसान होता है। प्रोफेसर चतुर्वेदी ने कहा कि वे खास तौर पर इस संगोष्ठी में हिस्सा लेने और डाक्टर जांगिड से मिलने दिल्ली आया हूं।  

मीडिया से क्रांति की उम्मीद क्यों रखते हैं – सुधांशु रंजन
आखिर हम मीडिया से क्रांति कर देने की उम्मीद क्यों रखते हैं। मीडिया का मूल का काम खबरें देना है। अगर क्रांति होगी तो मीडिया इसकी भी खबर देगा। हालांकि कई बड़े मामलों में मीडिया की पहले से ही तेजी से न्याय मिला है। प्रियदर्शनी मट्टू जैसे कई उदाहरण दिए जा सकते हैं। पर पुलिस, अदालत या एक सरकारी अधिकारी की तरह एक मीडियाकर्मी के पास कोई ताकत नहीं होती। ये विचार टीवी के वरिष्ठ पत्रकार सुधांशु रंजन ने व्यक्त किए। 
रंजन ने कहा कि 1789 के बाद एंडमंड बर्क ने मीडिया को फोर्थ एस्टेट कहा था पर उसका तात्पर्य संसद की गैलरी में बैठे पत्रकार दीर्घा से था जिससे मुखातिब होकर नेता लोग अपनी बात रखते थे। पर वास्तव में एक मीडिया कर्मी के पास कोई संवैधानिक ताकत नहीं होती।

दिल्ली विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग के अध्यक्ष रह चुके प्रोफेसर हरिमोहन शर्मा ने मीडिया संस्थानों में पत्रकारिता शिक्षण पर अपने विचार रखते हुए कहा कि जरूरी है कि पत्रकारिता की शिक्षा देने के लिए पत्रकारों की सेवाएं ही ली जाएं। साथ ही उन्होंने पत्रकारिता वर्ग में जरूरी उपकरणों की उपलब्धता की बात रखी।
इंद्रप्रस्थ विश्वविद्यालय में पत्रकारिता के प्रोफेसर चंद्रकांत प्रसाद सिंह ने कहा कि अच्छा शिक्षक वही है जो छात्रों को विचारधारा के दायरे से उपर उठकर शिक्षा दे। उन्हें ज्ञान के साथ प्रेरणा भी दे। उन्होंने एक शिक्षक के तौर पर डाक्टर जांगिड के अपने छात्रों को अभिप्रेरित करने के तरीके को अनूठे ढंग से याद किया।
डॉक्टर जांगिड का अनूठा जन्म दिन - यह संयोग है कि सात नवंबर कई दशकों तक हिंदी पत्रकारिता के शिक्षक रहे डाक्टर रामजीलाल जांगिड का 78वां जन्मदिन था। इस मौके पर उन्होंने आयोजित सेमिनार में अपने कई पूर्व छात्रों को सम्मानित किया। संगोष्ठी को डॉक्टर देवेश किशोर, वरिष्ठ पत्रकार प्रदीप माथुर, पूर्व आईएएस और गांधीवादी समाजसेवक डॉक्टर कमल टावरी ने भी संबोधित किया।
हमें अपनी भाषा पर गर्व हो - डॉक्टर जांगिड
इस मौके पर डॉक्टर जांगिड ने कहा कि 1947 में अंग्रेजों के भारत से जाते ही अंग्रेजी को अलविदा कह देना चाहिए था। हिंदी समेत भारत की दूसरी भाषाओं से गहरा लगाव है। कई भाषाओं के छात्रों को पढ़ा चुका हूं, पाठ्यक्रम तैयार किए हैं, पर चाहता हूं को हम आप सब अपनी भाषा पर न सिर्फ गर्व करें उसमें ज्यादा से ज्यादा काम भी करें। हमें हिंदी की ताकत पर गर्व करना चाहिए। यह सच है कि भारत में हिंदी नहीं जानने वाला देश का प्रधानमंत्री नहीं बन सकता। 

सेमिनार में वरिष्ठ पत्रकार अरविंद मोहन, इग्नू के ओम प्रकाश देवल, शत्रुघ्न सैनी,  दौलतराम कालेज की प्राचार्य डॉक्टर सविता राय, प्रो. राम बख्श, जामिया मीलिया इस्लामिया के संस्कृत विभाग के अध्यक्ष प्रो. गिरिश पंत, साध्वी प्रज्ञा भारती, वरिष्ठ पत्रकार अपर्णा द्विवेदी, वरिष्ठ पत्रकार रविंद्र साधू  भी मौजूद रहे। दौलतराम कालेज के संस्कृत विभाग की छात्राओं ने सेमिनार के बेहतरीन आयोजन में स्वयंसेविका के रूप में बड़े ही अनुशासन से दिन भर सक्रियता निभाई।
संगोष्ठी में मीडिया और उसके समक्ष चुनौतियों पर कई शोध पत्र पढ़े गए। माखनलाल चतुर्वेदी पत्रकारिता विश्वविद्यालय के प्रो. लाल बहादुर ओझा ने टीवी मीडिया के सामने चुनौतियों पर अपने विचार रखे। 
अतिथियों को उपहार में औषधीय पौधे
दौलतराम कालेज में 7 नवंबर को आयोजित राष्ट्रीय संगोष्ठी में आए सभी मेहमानों को उपहार में छोटे छोटे गमलों में औषधीय पौधे प्रदान किए गए। इन गमलों में इलायची, कचनार, मनीप्लांट समेत कई किस्म के पौधे थे। कालेज ने चीनीमिट्टी के गमलों का निर्माण कराया है जिस पर कालेज का लोगो बना है। इस उपहार योजना के पीछे कालेज की प्रिंसिपल डाक्टर सविता राय की दृष्टि है। यह पर्यारण संरक्षण के क्षेत्र में किया गया ऐसा कार्य है जिससे दूसरे आयोजकों को भी प्रेरणा लेने की जरूरत है।  
- विद्युत प्रकाश मौर्य  - vidyutp@gmail.com


 The following personalities were also honoured by Dr. Ramjeelal Jangid  for making valuable contribution in various fields. Prof. (Dr) Devesh Kishore- ‘Life time Achievements Award’ for 45 years of teaching and research in journalism and mass communication, Prof. (Dr.) Hari Mohan Sharma- ‘Samarpit Hindi Sevi Sammaan for working as Co-ordinator (2007-13) of PG Hindi Journalism Diploma Course in the South Campus of Delhi University, Prof. (Dr.) Prem Chand Patanjali- ‘Hindi Sevi Sammaan’ for starting the first and the only three years Degree Course in Hindi Journalism in Delhi University’s Bhim Rao Ambedkar College designed by me in 1994. It is now available in four College of D.U. Prof (Dr.) Jagdeeshwar Chaturvedi of Calcutta University- ‘Samarpit Hindi Sevi Sammaan’ for making Hindi rich by writing several Hindi books on journalism. Prof. (Dr.) Manju Gupta (C.C.S. University, Meerut)- ‘Sankalpvaan Shikshikaa Sammaan’ for spreading the message of ‘Innovation in Education’ in Asia. Prof. (Dr.) Savita Roy- ‘Sankalpvaan Shikshikaa Sammaan’ for making Daulat Ram College as an important centre for women education.
Prof. (Dr.) Aparna Dwivedi- ‘Urjaavaan Yuvaa Pratibhaa Sammaan’ for her valuable contribution in the field of TV Reporting and communication training. Shri Rampal Sharma- ‘Urjaavaan Vyaktitva Sammaan’ for opening two public schools in two backward areas of East Delhi.
Sadhvi Pragya Bharti (Divya Jyoti Jagriti Sansthan) for awakening, inspiring and transforming young minds all over India- ‘Sankalpvaan Naari Sammaan’.
Dr. Jyoti Sachdeva- Founder, ‘DENTO HUB’, GG Block, Vikaspuri, New Delhi- ‘Best Dental Clinic’ devoted to the dental treatment of the less privileged section of the society and Shri Jasmer Singh, Rohtak (Haryana)- ‘Paryavaran Hitaishee Sammaan’
-----