Saturday 31 March 2018

स्वतंत्रता आंदोलन और भोजपुरी में जन संचार

Mass communication through Bhojpuri Folk songs in Indian Freedom Movemnet 
-   VIDYUT P MAURYA


प्रस्तावना
भोजपुरी बिहार और पूर्वी उत्तर प्रदेश के जिलों में बोली जाने वाली बहुत ही प्राचीन लोकभाषा है। पर भोजपुरी बोलने वाले सिर्फ यूपी बिहार तक सीमित नहीं हैंबल्कि झारखंडछत्तीसगढ़कोलकातादिल्ली मुंबईपूर्वोत्तर के राज्यों में भी बड़ी संख्या भोजपुरी भाषी रहते हैं। ब्रिटिश काल में भोजपुरी भाषी जब एग्रीमेंट के तहत मजदूर बनाकर मारीशससुरीनाम जैसे देशों में गए तो वहां अपनी भाषा की चादर साथ लेकर गए। आज दुनिया में भोजपुरी बोलने समझने वालों की संख्या 22 करोड़ से ज्यादा है।


सुप्रसिद्ध भाषाशास्त्री डाक्टर जार्ज  ग्रियर्सन ने अपनी पुस्तक लिंग्वस्टिक सर्वे आफ इंडिया  में भोजपुरी को लेकर कुछ  विचार व्यक्त किए हैं। उनके कथन का हिन्दी रूपान्तरण यह है कि भोजपुरी उस शक्तिशालीस्फूर्तिपूर्ण और उत्साही जाति की व्यावहारिक भाषा हैजो परिस्थिति और समय के अनुकूल अपने को बनाने के लिए सदैव प्रस्तुत रहती है। एक ऐसी भाषा जिसका प्रभाव हिन्दुस्तान के हर भाग पर पडा है। हिन्दुस्तान में सभ्यता फैलाने का श्रेय बंगालियों और भोजपुरियों को ही प्राप्त है। इस काम में बंगालियों ने अपनी कलम से प्रयास किया और भोजपुरियों ने अपनी लाठी से। हालांकि भोजपुरियों के लिए यहां जो लाठी का प्रयोग हुआ है वह उनके आत्म-विश्वास का प्रतीक है। यह लाठी अन्याय और असत्य के प्रति उनके असहिष्णु स्वभाव और प्रबल प्रतिकार का भी प्रतीक है।

1857 का सिपाही विद्रोह और भोजपुरी भाषा -
लोक परंपराओं और लोक गीतों में वर्ष 1857 के पहले से ही अंग्रेजों के खिलाफ साहित्य लिखा और गाया जाने लगा था। यह देखा गया है कि इन गीतों में अंग्रेजों को काफी जालिमबेईमान और नाइंसाफ बताया जाता था। हम देखते हैं कि उस दौर में उर्दू के अलावा लोकभाषाएं जैसे भोजपुरी और मगही में भी अंग्रेजी राज के जुल्म पर बहुत कुछ लिखा और कहा गया। इसमें दो तरह की धाराएं दिखाई देती हैं। काफी कुछ साहित्य लिखा हुआ मिलता है तो काफी कुछ लोक परंपरा में गीतों में ही मिलता है। इनमें से काफी लोकगीत कभी लिखित रूप में सामने नहीं आए बल्कि लोग इसे गाया करते थे। यह गायकी में ही एक पीढ़ी से दूसरी पीढी तक आगे बढ़ता रहा। इससे पता चलता है कि लोकगायक उस दौर में भी कितना जागरूक थे। ब्रिटिश राज के खिलाफ विद्रोह को सुर देने वाली अवधीभोजपुरी और मगही में तो बहुत-सी कविताएं हैं। 1857 के विद्रोह के नायकों में से एक बाबू कुंवर सिंह के बारे में भोजपुरी और मगही में बहुत कुछ कहा गया है।
सन सत्तावन के गदर की कहानी जिस तरह बुंदेले हरबोलों ने गाईअवध के भाटों ने गाईजोगियों ने सारंगी के धुन के साथ गाई तो भोजपुरी क्षेत्र के कवि और गीतकारों ने भी क्रांति गीतों को सुर दिया।

ब्रिटिश राज के खिलाफ पहले और सबसे बड़े संगठित विद्रोह जिसे सिपाही विद्रोह कहा गया हैउसका एक केंद्र बिहार का भोजपुर क्षेत्र भी था। यहां 80 साल के बाबू कुअंर सिंह ने ब्रिटिश राज के खिलाफ विद्रोह का बिगुल फूंका। उस दौर में समाचार पत्र नहीं थे। वह फेसबुकट्विटरह्वाटसएप का युग नहीं था। तो उस दौर में जन संचार में भोजपुरी गीतों ने बड़ी भूमिका निभाई। उत्तर बिहार और दक्षिण बिहार के तमाम जिलों में लोकगायकों ने बाबू कुअंर सिंह की वीरगाथा में लोकगीतों की रचना की। इन गीतों की जनचेतना के प्रसार और जन संचार में बड़ी भूमिका रही। भोजपुरी क्षेत्र के गांवों में लोक परंपरा में वीर कुअंर सिंह और उनके भाई अमर सिंह की बहादुरी के किस्से गाने के परंपरा आज भी चली आ रही है। 
भोजपुरी लोकगीतों की बात करें तो इनमें प्रथम स्वतंत्रता संग्रामचारण साहित्य और राष्ट्रीय चेतना के विप्लवी रूप  स्वर बहुत ही विशिष्टता से देखने सुनने को मिलते हैं। 1857 के आसपास के भोजपुरी रचनाओं को देखा जाए तो उनमें राष्ट्रीय चेतना के सुर साफ तौर पर दिखाई देने लगते हैं। कुंअर विजयमल भोजपुरी का बहुत ही प्रसिद्ध गाथा काव्य है। इसका समय सोरठी बृजभार के बाद का है। डॉक्टर ग्रियर्सन ने इसका प्रकाशन एशियाटिक सोसाइटी ऑफ बंगाल में करवाया था।
इसकी कुछ पंक्तियां देखें-
रामा बोली उठे देवी दुरगवा हो ना..
कुँअर इहे हवे मानिक पलटनिया हो ना..
रामा घोड़वा नचावे कुंअर मैदनवा हो ना...
हालांकि इन पंक्तियों के लेखक का नाम नहीं मिलता है। पर इसमें 1857 के विद्रोह के नायक वीर कुंअर सिंह की वीरता का बखान है।
वीर कुंअर सिंह के समकालीन भोजपुरी कवि तोफा राय ने अपनी रचना कुंअर पचासा में उनकी वीरता का बखान किया। तोफा राय उत्तर बिहार के सारण जिले के हथुआ राज के राज कवि थे।
उनकी पंक्तियां देखें
देवता देखे लागल जोगनी भखे लगलि
गोरन के रक्त लाल पीके पेट भरल लू
ऊपर आकाश गरजेनीचे बीर कुंअर गरजे,
गोर फिरंग संग पावस होली खेलल नू।
इसी तरह 1839 में जन्में भोजपुरी कवि नर्मदेश्वर प्रसाद ईश की कविताओं में उस समय के स्वतंत्रता संघर्ष का सुंदर चित्रण मिलता है। नर्मदेश्वर प्रसाद शाहाबाद के निवासी थे और वीर कुंअर सिंह के भाई लगते थे।
 देसी अउर विदेशी के फरक कह राखल नाही
अपने मे लड़ लड़ के विदेशी के जितौले बा...
गोरा सिख सेना ले निडर जे चढ़ल आवे
घर के विभिखन भेद घरवे नू बतवले बा।

कुंअर सिंह और उनके भाई अमर सिंह के बीच देशभक्ति जगाने वाले संवाद की चर्चा एक और गीत में मिलती है- इस गीत रचयिता का भी नाम नहीं पता पर यह भोजपुरी के गायन परंपरा में है-
लिखि लिखि पतिया भेजे कुंअर सिहं
सुनि ल अमर सिंह भाई हो रामा।
चमवा के टोंटवां दांत से चलवाता
छत्री के धरम नसावे हो रामा।
पंक्तियां भोजपुरी चैता शैली में है। इसमें कुंअर सिंह अपने भाई अमर सिंह को पत्र लिख कर संदेश दे रहे हैं। कारतूस में चमड़े के इस्तेमाल की बात कही जा रही है। संदेश है कि अंगरेज छत्रिय का धर्म भ्रष्ट कर रहे हैं।
इसी तरह एक गीत में कुंअर सिंह और अमर सिंह की वीरता का बखान नजर आता है।
पहली लड़इया कुंअर सिंह जीते
दूसरी अमर सिंह भाई हो रामा।
तीसरी लड़इया सिपाही सब जीते
लाट उठे घबराई हो रामा।
बाबू कुंअर सिंह की वीर गाथा की पंक्तियां भोजपुरी समाज में आज भी गांवों में गाई जाती है। ये गीत लोगों में आज भी उत्साह का संचार करते हैं।
भोजपुरी लोकगीत में गांधीजी
महात्मा गांधी और उनके द्वारा संचालित स्वतंत्रता-संग्राम आंदोलन का प्रभाव भोजपुरी क्षेत्र में देश के अन्य भागों की अपेक्षा अधिक रहाक्योंकि इस आंदोलन का प्रारम्भ गांधीजी ने स्वयं सन् 1917 में चम्पारण से किया था। हमें कई भोजपुरी गीतों में निलहा आंदोलन और गांधीजी का जिक्र मिलता है।
उत्तर बिहार के चंपारण निवासी शिवशरण पाठक की सन 1900 में रचित गीत में नील की खेती और ब्रिटिश जुल्म का चित्रण मिलता है। यह गीत बापू के चंपारण आने से पहले का है। 
राम नाम भइल भोर गांव लिलहा के भइले
चंवर दहे सब धानगोएडे लील बोइले...
भई भैल आमील के राजप्रजा सब भइले दुखी
मिल जुल लुटे गांव गुमस्ताहो पटवारी सुखी।
इस गीत की रचना के 17 साल बाद महात्मा गांधी का चंपारण क्षेत्र में आगमन होता है। इसके साथ ही चंपारण में चल रहे तीन कठिया प्रथा और नील की खेती के खिलाफ एक आंदोलन खड़ा होता है।
गोपाल शास्त्री बिहार में सारण जिले के संस्कृत के विद्वान थे। वे सन 1932 में उत्तर प्रदेश कांग्रेस के अध्यक्ष भी चुने गए थे। वे असहयोग आंदोलन के  अगुआ थे। शास्त्रीजी द्वारा रचित लोकगीत न केवल बहुत लोकप्रिय हुएबल्कि उनका प्रचार भी काफी हुआ। अपने गीतों से वे अंग्रेज़ों की नज़र पर चढ़ गए और उनका सारा साहित्य जब्त कर लिया गया। उनके राष्ट्रीय गीत की एक बानगी देखिए -
उठु उठु भारतवासी अबहु ते चेत करू,
सुतले में लुटलसि देश रे विदेशिया।
जननी - जनम भूमि जान से अधिक जानि,
जनमेले राम अरुं कृष्ण रे विदेशिया।

इसी तरह सरदार हरिहर सिंह अपने गीतों से आम जनता को जगाने का काम करते प्रतीत होते हैं।
चलु भैया चलु आज सभे जन जन हिली मिली..
सूतल जे भारत के भाई के जगाई जा।
गांधी अइसन जोगी भइया जेहल में परल बाटे
मिली जुली चलु आज गांधी के छोड़ाई जा।
ये वही सरदार हरिहर सिंह हैं जो आजादी के बाद राजनीति में आए और 1969 में बिहार के मुख्यमंत्री भी बने।
गांधी जी की पहल पर सन 1926 में गुवाहाटी कांग्रेस अधिवेशन में कांग्रेस के सदस्यों के लिए खादी वस्त्र पहनने का प्रस्ताव पारित किया गया। खादी- भावना जन-जन तक पहुंच गई। तो इसका यशगान लोक-कंठ से भी फूट पड़ा। खादी-गान संबंधी इस गीत से इसका अनुमान लगाया जा सकता है -
खद्दर की धोती पहिरेखद्दर के कुरता पहिरे,
आवे के बेरि गाँधी बाबा अवरु राजेन्द्र बाबू सीटिया बजवले
उठि गइले सब सुराजीसुराजी झंडा हाथ में।।
हालांकि 1926 में रचित इस लोकगीत के रचनाकार का नाम नहीं मिलता है पर इस लोकगीत के से यह स्पष्ट है कि भोजपुरी जनमानस ने गांधी-दर्शन को स्वतंत्रता- आंदोलन के परिप्रेक्ष्य में पूरी तरह आत्मसात कर लिया था। (5)
इसी तरह बापू के चरखा चलाने पर भी भोजपुरी में कई गीत रचे गए। इन गीतों के माध्यम से स्वदेशी का संदेश गांव-गांव में पहुंच रहा था।
देसवा के लाज रहि है चरखा से,
गांधीजी के मान सनेसवा
पिया जनि जा हो विदेसवा।।

भोजपुरी भाषा के माध्यम से स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान ब्रिटिश राज के खिलाफ सुर देने वाले भोजपुरी कवियों की सूची यहीं खत्म नहीं होती। शाहाबादबलियाछपरा के 20 से ज्यादा कवि हैं जिन्होंने अपनी कलम ब्रिटिश राज के खिलाफ चलाई और गीतों के माध्यम से जन जागरण का काम किया।
रचना काल के लिहाज से भोजपुरी साहित्य सृजन को पांच हिस्सों में बांटा गया है। दुर्गा शंकर प्रसाद सिंह ने अपनी पुस्तक भोजपुरी के कवि और काव्य कालखंड का विभाजन पेश किया है। उन्होंने साल 1900 से 1950 को भोजपुरी काव्य का आधुनिक काल माना गया है। इस काल में भी स्वतंत्रता संग्राम युगीन रचनाएं देखने को मिलती हैं।


भोजपुरी के महान कवि रघुवीर नारायण और बटोहिया 
भोजपुरी में अगर हम क्रांति गीतों की चर्चा करें तो भला रघुवीर नारायण को कैसे भूल सकते हैं। 30 अक्टूबर 1884 को जन्में इस महान हिन्दी साहित्यकार तथा भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के सेनानी ने जिस गीत की रचना की उसे भोजपुरी में वंदे मातरम जैसा सम्मान मिला। उनके द्वारा रचित 'बटोहियानामक भोजपुरी राष्ट्रीय गीत को आचार्य शिवपूजन सहाय ने भोजपुरी का वंदे मातरम का।  जन-जागरण गीत की तरह गाया जाने वाला यह गीत पूर्वी लोकधुन में लिखा गाया है। साल 1911 में उन्होंने इस गीत की रचना डॉक्टर राजेंद्र प्रसाद की सलाह पर की थी। इसका रचना काल हमारे राष्ट्रगान जन गन मन अधिनायक...( 1912 ) से एक वर्ष पहले का है।
थोड़ी बात रघुवीर नारायण की करें तो....रघुवीर नारायण का जन्म बिहार के सारण जिले के दहियावां गांव में हुआ था। उनके पिताजी का नाम जगदेव नारायण था। उनकी स्कूली शिक्षा जिला विद्यालयछपरा में हुई। उन्होने पटना कॉलेज से प्रतिष्ठा के साथ स्नातक किया। शुरुआत में वे अंग्रेजी में लिखते थेपर बाद में अपनी मातृभाषा में लिखा। 1940 के बाद उन्होंने पूर्ण संन्यासी जीवन जिया। उनका निधन 1 जनवरी 1955 को हुआ।
इतिहासकर सर यदुनाथ सरकार ने रघुवीर नारायण को एक खत में लिखा- - I can not think of you without remembering your BATOHIYA .
रघुवीर नारायण जी की कविता बटोहिया के बारे में राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर ने अपने एक लेख बिहार की साहित्यिक प्रगति में लिखा - बाबू रघुवीर नारायण बिहार में राष्ट्रीयता के आदिचारण और जागरण के अग्रदूत थे। पूर्वी भारत के ह्रदय में राष्ट्रीयता कि जो भावना मचल रही थी वह पहले पहल उन्ही के बटोहिया’ नामक गीत में फूटी और इस तरह फूटी कि एक उसी गीत ने उन्हें अमर कवियों कि श्रेणी में पंहुचा दिया।
सिर्फ बिहार या भारत ही नहींमारीशसत्रिनिदादफिजीगुयाना इत्यादि जगहों तकजहां भी भोजपुरी जानी जाई जाती हैवहां इसकी लोकप्रियता थी। 1970 तक 10वीं और 11वीं बिहार टेक्स्ट बुक के हिंदी काव्य की पुस्तक के आवरण पर यह गीत प्रकाशित हुआ करता था।
इसकी प्रथम चार पंक्तियां देखें 
सुंदर सुभूमि भैया भारत के देसवा से
मोरे प्राण बसे हिम-खोह रे बटोहिया
एक द्वार घेरे रामा हिम-कोतवलवा से
तीन द्वार सिंधु घहरावे रे बटोहिया
वैसे बटोहिया को समग्र रूप से सुनें तो इसमें जिस तरह के राष्ट्रीय गौरव का चित्रण हुआ है वह इसके समकालीन दूसरी भाषा के राष्ट्रीय गीतों में नहीं दिखाई देता है।
इसी दौर के एक और कवि बाबू प्रसिद्ध नारायण सिंह भी क्रांति गीतों को वीर रस में सुर देते हैं 
लुटा दिहलन परान जे मिटा दिहलन सान जे
चढ़ा के सीस देश के बना दीहलन मान जे

गौहर जान और भोजपुरी कजरी में क्रांति के सुर -
भोजपुरी की बहुत ही प्रसिद्ध कजरी है – मिर्जापुर कइल गुलजार होकचौड़ी गली सुन कइला बलमू । इस कजरी की रचयिता बनारस और कोलकाता की जानी मानी तवायफ गौहर जान थीं। गौहर जान के बारे में कहा जाता है कि वे क्रांतिकारियों की मदद भी करती थीं। उनके चाहने वालों की फेहरिस्त में बड़े बड़े रईस लोग थे। इन्ही में से एक के विरह में उन्होंने कचौड़ी गली सून कइल बलमू लिखा था। पर इस विरह गीत में ब्रिटिश सरकार की कारस्तानियां झलकती हैं। इसकी आगे की पंक्तियां बताती हैं....एहि मिर्जापुरवा से उड़ल जहजवापिया चले गइले रंगून हो कचौडी गली सून कइला बलमू । इसमें पिया के रंगून जाने का जिक्र आता है। तब क्रांतिकारियों को सजा के तौर पर रंगून भेजा जाता था।
नवाब वाजिद अली शाह की दरबारी नृत्यांगना मलिका जान और आर्मेनियाई पिता विलियम की 1873 में जन्मी संतान गौहर की फनकारीविद्वता और अदाओं ने संगीत प्रेमियों में दीवानगी पैदा की थी। उन्हें देश की पहली ग्लैमरस गायिका कहा जाता है। वह पहली ऐसी गायिका थींजिनके गीतों के रिकॉर्ड्स बने थे। 1902 से 1920 के बीच द ग्रामोफोन कंपनी ऑफ इंडिया ने गौहर के हिन्दुस्तानीबांग्लागुजरातीमराठीतमिलअरबीफारसीपश्तोअंग्रेजी और फ्रेंच गीतों के छह सौ डिस्क निकाले थे।
राहुल सांकृत्यायन और भोजपुरी नाटक-गीत
स्वतंत्रता पूर्व भारत में हिंदी के महान लेखक राहुल सांकृत्यायन का कार्य क्षेत्र भी भोजपुरी क्षेत्र में रहा। बिहार के छपरा और आसपास के इलाकों में उन्होंने किसानों के बीच में काफी सक्रियता से काम किया। उनकी कई पुस्तकों में छपरा के उनके किसान आंदोलन की चर्चा मिलती है। पर इस दौरान राहुल जी ने भोजपुरी की ताकत को पहचाना और कुछ पुस्तकों की रचना उन्होने भोजपुरी में की।  महापंडित राहुल सांकृत्यायन ने आठ भोजपुरी नाटकों-की रचना की। यहां उन्होंने लेखक का नाम राहुल बाबा दिया। इनमें जोंकनईकी दुनियाजपनिया राछस,  ढुनमुन नेतादेस रक्षकजरमनवा के हार प्रमुख हैं। उनके लिखा भोजपुरी नाटक मैहरारुन के दुरदसा तत्कालीन समाज को संदेश देने के लिए था। नाटक महिलाओं की सामाजिक स्थिति पर प्रकाश डालता है। उनके ये नाटक संग्रह दो हिस्सों में 1942 और 1944 में प्रकाशित हुए थे। जोंक नाटक में उन्होंने एक भोजपुरी गीत लिखा था जो किसानों के जमींदारों के शोषण की बात रखता है-
हे फिकिरिया मरलस जान।
सांझ बिहान के खरची नइखेमेहरी मारै तान।।
अन्न बिना मोर लड़का रोवैका करिहैं भगवान।।
करजा काढि काढि खेती कइलीखेतवै सूखल धान।।
बैल बेंचि जिमदरवा के देनी सहुआ कहे बेईमान।।
भले ही क्रांति गीत नहीं हैपर ब्रिटिशकालीन भोजपुरी समाज की दुर्दशा बयां करता है।
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भारत में ब्रिटिश राज के आगमन काल के साथ ही हिंदी पट्टी में खडी बोली का उदय हो रहा था। पर यह बात बहुत मजबूती के साथ कही जा सकती है कि वह 1857 का गदर के आसपास का कालखंड हो या फिर चंपारण आंदोलन के बाद भारतीय राजनीति का गांधी युग होभोजपुरी लोकगीतों ने तत्कालीन समाज में जन चेतना जागृत करने में जन संचार के अवयव के रूप में बड़ी भूमिका निभाई।


संदर्भ 
1.   पुस्तक छवि और छाप – सुनील कुमार पाठक  - पृष्ठ- 55  61-62, ग्रंथ अकादमी,दरियागंज, 2015
2.   हिंदी हिंदी दैनिक, 6 अप्रैल 2017, संपादकीय पृष्ठध्रुव गुप्ता का लेखगौहर जान।
3.   बीबीसी हिंदी,मृणाल पांडे का लेख- गौहरजान- 18 अप्रैल 2016
4.   पुस्तक -भोजपुरी के कवि और काव्य- दुर्गा शंकर प्रसाद सिंह –( पृष्ठ-32 )
5.   भोजपुरी लोकगीतों मे गांधी दर्शन – डाक्टर राजेश्वरी शांडिल्य - http://www.hindi.mkgandhi.org/gmarg/chap27.htm  गाँधी और गाँधी-मार्गसंपादक : डॉ. सुशीला गुप्ता (2006)
6.   बीबीसी पर शमसुर रहमान फ़ारूक़ी उपाध्यक्षकाउंसिल फ़ॉर प्रमोशन ऑफ़ लैंग्वेजhttp://www.bbc.com/hindi/regionalnews/story/2007/05/printable/070508_spl_1857_farooqui.shtml
7.   पुस्तक - जंगनामा – विद्या विंदु सिंहपृष्ठ – 58 प्रकाशक – ज्ञानगंगादिल्ली।
8.   http://www.bidesia.co.in/bhojpuri-poetry.php?subaction=showfull&id=1299428059&archive=&start_from=&ucat=5&
9.   http://www.patnabeats.com/ek-kavita-bihar-se-batohiya/
10.  पुस्तक तीन नाटकपांच नाटक – राहुल सांकृत्यायन – 1942, 1944 

( This paper was Presented at National Seminar on Regional Languages at Govt college, Talbehat, Lalitpur UP held on 24-25 Feb 2018 ) 

लेखक संपर्क -
-विद्युत प्रकाश मौर्य , Vidyut P Maurya
ईमेल – vidyutp@gmail.com  Mobile - 9711815500

Monday 26 March 2018

दास बाबू का जूता ( कहानी )

हर किसी की अपनी अपनी किस्मत होती है, लेकिन भला जूते की...जूते की भी कोई किस्मत होती है। जूते तो पांव में रौंदे जाने के लिए ही होते हैं, चाहे वे अमीर के पांव में हों या फिर गरीब के पांव में। लेकिन नहीं जनाब जूतों की भी अपनी किस्मत होती है। हमें याद आता है दास बाबू का जूता। जो कई सालों तक अपनी किस्मत पर रश्क फरमाता रहा।

वैसे तो एक जूता मेरे पास भी था जो अपनी अच्छी किस्मत लिखवा कर लाया था। वह हमें ज्यादा सुख नहीं दे सका पर खुद अच्छा खासा सुख भोग कर रुखसत हुआ। वह जूता मुझे अपनी शादी में ससुराल से मिला था। ससुर जी ने खुद एक जाने माने ब्रांड का जूता स्टोर से जाकर दिलवाया था। कीमत होगी कुछ तीन हजार रुपये। अब इतना महंगा जूता था सो हम भी उसे बड़े जतन से पहनते थे। शादी के बाद खास खास मौकों पर उसे निकालते थे। दिल में हसरत थी कि शादी का जूता है सो बीवी की तरह ये भी लंबा साथ निभाए। इसलिए जस की तस धर दीनी चदरिया की तर्ज पर हम भी अपने प्यारे जूते को खास मौकों पर पहनते फिर उसे बड़े जतन से पालिश करके रख देते थे।

दो साल में कुल जमा छह सात बार जूते को पहना होगा, एक दिन जब जते को निकाला तो उसका सोल ( पेंदी) क्रेक (टूट) कर गया था। बड़ा दुख हुआ जूते का हश्र देखकर। हम जूते के साथ पहुंचे उस कंपनी के शोरूम में। सारा वाकया सुनकर शोरुम वाले ने समझाया हमारी कंपनी अपने महंगे जूतों में खास किस्म का सोल ( पेंदा ) लगाती है। आपको इस जूते को लगातार पहनना चाहिए था जिससे जूता सांस ले पाता। अब आपने जूते को ज्यादातर समय पैक करके रखा तो उसका अंत ऐसा ही होना था। मुझे बड़ा दुख हुआ अपने ससुराली जूते का ये अंजाम देखकर। खैर कहानी भटक गई थी मैं आपको सुनाने चला था दास बाबू के जूते की कहानी...और कहां अपने जूते की बात सुनाने लगा।


दास बाबू के जूते के बारे में जानने से पहले थोड़ा सा दास बाबू के पृष्ठभूमि के बारे में जान लेना जरूरी है। दास बाबू बिहार के एक बाढ़ प्रभावित जिले के गांव से आते थे। बचपन उनका गरीबी में गुजरा था। स्कूली शिक्षा में  दसवीं क्लास तक तो चप्पल भी नहीं पहनी थी। कालेज पहुंचे तो हवाई चप्पल पहनना शुरू किया। पढ़ाई में होशियार थे। लेकिन घर की खराब माली हालत के बीच बड़ी मुश्किल से बीए पास किया। किस्मत ने साथ दिया बैंक में मैनेजर की नौकरी लग गई। वैसे तो आफिसर हो गए थे लेकिन रहन सहन में कोई बदलाव नहीं आया था। कुल जमा दो शर्ट और दो पैंट बनवा रखी थी। एक लेदर का चप्पल पहन कर दफ्तर जाते थे। दफ्तर से आने के बाद लूंगी और बनियान में आ जाते। रात का खाना खुद बनाकर खाते। खाना बनाने से पहले चावल चुनकर उसकी सफाई करते। इस दौरान बीबीसी पर खबरें सुनते और देश दुनिया के हालात से खुद को बाखबर रखते।

एक दिन उनके सहकर्मियों ने सलाह दी। दास बाबू अब आप अधिकारी हो गए हैं सो इन चप्पलों में दफ्तर आना शोभा नहीं देता। सो आप एक जोड़ी जूता खरीद लिजिए। दास बाबू ने टका सा जवाब दिया- इंसान की फितरत उसके जूतों, कपड़ों से नहीं उसकी दिमाग से होती है। जवाब तो दे दिया लेकिन जूतों वाली बात कहीं न कहीं दास बाबू के दिमाग में बैठ गई। अगले दिन से वे अपने सहकर्मियों के जूतों पर नजर रखने लगे। उन्होंने पाया कि उनके जूनियर किरानी टाईप के लोग भी चमचमाते जूते में दफ्तर आते हैं। सो एक दिन वे अपने सहकर्मी के साथ बाजार गए तो जूता खरीदने को तय कर लिया। तब के लोकप्रिय ब्रांड बाटा के शोरूम में गए। वहां से बाटा का सम्मानित जूतों का माडल यानी एंबेस्डर जूतों की एक जोड़ी खरीद ही लिया। शोरूम के मैनेजर ने कैशमेमो के साथ गत्ते के डिब्बे में जूता लाकर उन्हें सौंप दिया।

अपना जूता लेकर दास बाबू उस दिन जब घर को लौटे तब रिक्शा पर बैठने के बाद अपने सहकर्मी को दुनिया के तमाम जूतों के ब्रांड के बारे में बताने लगे जिनके जूते भारत में तब नहीं मिलते। कहने का मतलब कि उनको जूतों की तमाम कंपनियों के नाम मालूम थे। अब वे हक से जूतों की अच्छाई बुराई के बारे में चर्चा कर सकते थे, क्योंकि एंबेस्डर खरीदकर वे इलीट क्लब में शामिल हो गए थे।
घर आकर दास बाबू ने अपने जूते के पैकेट को अपने रैक पर किताबों के ऊपर रख दिया। जूते का डिब्बा कुछ इस तरह रखा था कि बाटा एंबेस्डर कमरे में आने वालों को पहली नजर में ही दिखाई दे जाता था। लेकिन यह क्या अगले दिन दास बाबू अपनी पुरानी चप्पल में ही दफ्तर गए। शाम को दफ्तर से लौटने पर मुझसे रहा नहीं गया, हमने पूछ ही डाला जूता खरीद लिया तो उसे पहन कर क्यों नहीं गए। दास बाबू बोले अब जूता ले लिया इसका मतलब ये तो नहीं कि इसे आज ही पहन लिया जाए। कुछ दिन गुजर गए। एक दिन दफ्तर में चेयरमैन के साथ सभी अधिकारियों की बैठक थी। हमलोगों ने सलाह दी- चाचा जी आज तो आप जूता धारण कर ही लिजिए। उस दिन दास बाबू की इच्छा हुई की नए जूते का उद्घाटन कर ही डालें। पर एक मुश्किल आ गई। जूता खरीद लिया था पर उसका मोजा नहीं खरीदा था। सो दास बाबू बैठक में चप्पल में ही चल पड़े या यूं कहिए की जाना पड़ा।

शाम को दास बाबू जूते से मैचिंग का मोजा, जूते साफ करने वाला ब्रश, पालिश व क्रीम भी लेकर आ गए। हालांकि अगले दिन भी उन्होंने जूते को धारण नहीं किया। उन्होंने कहा कि कोई खास मौका आएगा उस दिन जूता पहनूंगा। दास बाबू हर शनिवार को अपने गांव चले जाते थे। वे सोमवार को वापस लौटते थे। हर सोमवार को वापस लौटने पर अपने जूते को डिब्बे से निकालते। बड़ी हशरत से उसे देखते थे। उसे ब्रश से चमका कर फिर डिब्बे में पैक कर देते।

एक दिन दास बाबू का चेयरमैन के साथ दौरा लगा। दियारा क्षेत्र में जाना था जांच पड़ताल के लिए। मैंने सलाह दी चेयरमैन के साथ जा रहे हैं तो जूते पहन कर जाएं। गांव में लोग देखेंगे दो अफसर आए हैं। लेकिन दास बाबू को मेरी सलाह रूचिकर नहीं लगी। उन्होंने तर्क दिया- गांव में जीप से उतरकर पैदल घूमना होगा। क्या ये अकलमंदी होगी कि इतने महंगे जूते को गांव की धूल में खराब किया जाए। मुझे उनके साथ सहमत होना पड़ा। जूते का मुहुर्त नहीं हो सका।

मुझे याद आया गांव में कीचड़ पंकीले रास्ते होते हैं तो गांव के लोग इससे अपने जूतों की संभाल करते हैं। मेरे गांव के कंजूस दादा जी जब किसी रिश्तेदारी में जाते थे, तब अपनी पनही को गमछे में बांध कर नंगे पांव जाते थे। जब रिश्तेदारी के गांव की सीमा में पहुंच जाते थे तब जूते तो गमछे से निकाल कर पांव साफ करके पहन लेते थे। गांव के तमाम लोगों को सालों भर जूते चप्पल पहनने की आदत नहीं होती। खैर लौटते हैं दास बाबू के पास।

बैंक एक सहयोगी की शादी थी। उसने दास बाबू को भी बारात में चलने के लिए आमंत्रित किया। मैंने सलाह शादी में जा रहे हैं नए जूते पहन लिजिए।लेकिन दास बाबू ने कहा नहीं शादी में भीड़ भाड़ होती है। लोग एक दूसरे का पांव कुचल देते हैं। मेरे नए जूते का कबाड़ा हो सकता है। फिर शादियों में जूते चुराने का भी रिवाज है। इसलिए अच्छा यही होगा कि मैं अपने पुराने चप्पलों में ही शादी में जाऊं। उनका तर्क सोलह आने सही था। फिर जूते की किस्मत नहीं खुली। शादियों के मौसम के बाद बरसात का मौसम आ गया। इन चार महीने जूते पहनना दास बाबू की नजर में अक्लमंदी बिल्कुल नहीं थी। न जाने कब बारिश में फंस जाएं महंगे लेदर के जूते का सत्यानाश हो जाए।

फिर मौसम बदला। बैंक के चेयरमैन का तबादला हो गए। नए चेयरमैन आ रहे थे। स्वागत समारोह व विदाई पार्टी का आयोजन साथ साथ था। अब दास बाबू को भी पार्टी में जाना था। जूते खरीदे छह महीने से ज्यादा हो चुके थे। मैंने सलाह दी ये पार्टी आपके जूते पहनकर जाने के लिए ठीक रहेगी। दास बाबू को सलाह जंच गई। शुभ मुहुर्त आ चुका था। दास बाबू दिन में दफ्तर तो चप्पल में ही गए। शाम को पार्टी में जाने से पहले दास बाबू अपने कमरे में आए बड़े जतन से जूते को पहना। नए जूते को पहनकर चलने में दास बाबू को मानो से कुछ परेशानी हो रही थी। वे खुद को असहज महसूस कर रहे थे। तीन घंटे की पार्टी में वे बार बार नीचे झुक कर अपने जूते को निहार रहे थे। कई बार तीरछी नजर से अपने जूते को देख लेते थे। पार्टी में कई लोगों उनकी पर्सनलिटी की तारीफ की। 

दास बाबू को लगा कि इसमें जरूर मेरे जूतों का भी कुछ योगदान है। पार्टी से लौटे तो अपने नए जूतों के साथ सहज हो चुके थे। देर रात अपने कमरे में पहुंचने के बाद बड़े जतन से अपने जूतों को उन्होंने उतारा। उसकी सफाई की और फिर से डिब्बे में पैक कर दिया। अगले दिन से दास बाबू फिर अपनी पुरानी चप्पल में ही दफ्तर जाने लगे। मुझे याद आता है कि अगले एक साल में उन्होंने अपने प्यारे जूते को दो बार और पहना होगा। दरअसल में इतने मंहगे जूते को पहन कर जिस दिन जाते उन्हें लगता मानो वे अपने जूतों का शोषण कर रहे हों। जूते का डिब्बा अभी भी किताबों की रैक पर सबसे ऊपर सुशोभित हो रहा था। हमलोगों ने कई बार कहा जूते डिब्बे को सबसे नीचे रखें, लेकिन वे नहीं माने। उनका जूता प्रेम किताबों पत्र पत्रिकाओं से उपर था।

उत्तर कथा-
कहानी में लोग अक्सर जानना चाहते हैं फिर क्या हुआ। तो लिजिए साहब आते हैं क्लाइमेक्स पर। दो साल गुजर गए थे। दास बाबू ने जूता कुल जमा तीन बार ही पहना था। होली की छुट्टियां आईं। तीन दिनों के लिए दास बाबू और हम सब लोग अपना कमरा बंद करके अपने अपने घर चले गए। इन छुट्टियों में कोई छोटा-मोटा चोर हमारे कमरे का ताला तोड़कर दाखिल हुआ। उसने पूरा कमरा छान मारा। उसे चुराने लायक कोई वस्तु नहीं मिली। चोर बड़ा दुखी हुआ। उसने सारे डिब्बे खोल कर देखना शुरू किया। उसने जूते वाला डिब्बा देखा। बिल्कुल नए चमचमाते जूते। चोर ने फटाफट उन जूतों को अपने पांव में धारण किया। हां उसने अपनी चप्पलों को इस डिब्बे में स्थापित कर दिया। और रफ्फूचक्कर। होली की छुट्टी के बाद दास बाबू लौटे। सारी खबर मिली। दास बाबू शोकग्रस्त हो गए। मन ही मन उन्होंने तय कर लिया था अब फिर कभी जूते नहीं खरीदेंगें। दास बाबू जूता अब किस हाल में है ये इस कहानीकार को भी नहीं मालूम।
-    विद्युत प्रकाश मौर्य
( 2013 )      


Wednesday 14 March 2018

ब्रह्मांड के रहस्यों से पर्दा उठाने वाला वैज्ञानिक

1965 में शादी के वक्त ( फोटो - द विंटाज न्यूज)
स्टीफन हॉकिंग को आधुनिक युग के बड़े वैज्ञानिक थे। उन्हें खासतौर पर ब्रह्मांड के रहस्यों पर से पर्दा उठाने के लिए जाना जाता है। हॉकिंग ने अपनी थ्योरी ऑफ एवरीथिंग में बताया था कि ब्रह्मांड का निर्माण स्पष्ट रूप से परिभाषित सिद्धांतों के आधार पर हुआ है। उन्होने ईश्वर के अस्तित्व को साफ तौर पर नकारा था। बिग बैंग थ्योरी और ब्लैसक होल पर उनके खोज ने सबको चकित कर दिया था। मशहूर भौतिक विज्ञानी और कॉस्मोलॉजिस्ट ने अपना जीवन ब्रह्मांड के रहस्यों  का पता लगाने के लिए समर्पित कर दिया था। स्टी फेंस ने विज्ञान को ही अपनी नियति माना और वैज्ञानिक सोच पर आधारित कई ऐसी बातें सामने रखीं, जिनसे ब्रह्मांड की समझ में बदलाव लाने वाला क्रांतिकारी मोड़ आए।

स्टीफन तार्किक दिमाग वाले व्यक्तियों थे और उन्हों ने सृष्टि  की रचना में कभी भगवान की मौजूदगी को नहीं माना। वह अपने दिमाग को भी एक कंप्यूटर ही मानते थे। उनका कहना था कि जिस दिन इसके पुर्जे खराब हो जाएंगे, उस दिन मैं भी नहीं रहूंगा। वह पुर्नजन्म में भी कोई सच्चाई नहीं मानते थे।

मजेदार बात है कि स्टीफन कॉलेज में गणित पढ़ना चाहते थे। उनके पिता ने उन्हें मेडिकल की पढ़ाई करने की सलाह दी थी। कॉलेज में गणित विषय उपलब्ध नहीं था, ऐसे में उन्होंने भौतिकी को चुना। तीन साल बाद उन्हें नेचुरल साइंस में फर्स्ट क्लास ऑनर्स डिग्री मिली। वह 1973 का साल था जब 21 साल के स्टीकफन हॉकिंग ऑक्सफोर्ड से भौतिकी में प्रथम श्रेणी से डिग्री लेने के बाद कॉस्मोलॉजी में पोस्टग्रेजुएट रिसर्च करने के लिए कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय चले गए। उसके बाद कैंब्रिज उनका स्थायी ठिकाना बन गया।

ब्लैक होल के बारे में
हॉकिंग ने बताया था कि ब्लैक होल का आकार सिर्फ बढ़ सकता है, ये कभी भी घटता नहीं है। ब्लैक होल के पास जाने वाली कोई भी चीज उससे बच नहीं सकती और उसमें समा जाती है और इससे ब्लैक होल का भार बढ़ता ही जाएगा। ब्लैक होल का भार ही उसका आकार निर्धारित करता है जिसे उसके केंद्र की त्रिज्या से नापा जाता है। ये केंद्र (घटना क्षितिज) ही वह बिंदू होता है जिससे कुछ भी नहीं बच सकता। इसकी सीमा किसी फूलते हुए गुब्बारे की तरह बढ़ती रहती है। हॉकिंग ने आगे बढ़कर बताया था कि ब्लैक होल को छोटे ब्लैक होल में विभाजित नहीं किया जा सकता। उन्होंने कहा था कि दो ब्लैक होल के टकराने पर भी ऐसा नहीं होगा। हॉकिंग ने ही मिनी ब्लैक होल का सिद्धांत भी दिया था।

खुद को नास्तिक बताया
स्टीफन हॉकिंग ने कहा था कि भगवान का अस्तित्व नहीं है और मैं 'नास्तिक' हूं। साल 2014 में स्टीफन ने एक साक्षात्कार में कहा था कि सेंट अल्बंस स्कूल में एक स्कूल के लड़के के रूप में उन्होंने ईसाई धर्म के बारे में अपने सहपाठियों के साथ तर्क किया और कॉलेज के दिनों में भी वह एक प्रसिद्ध नास्तिक थे। उनकी पहली पत्नी जेन ईसाई धर्म पर पक्का विश्वास करने वाली महिला थी।मगर, उन दोनों के बीच भी कभी धार्मिक मामलों को लेकर एक मत नहीं रहे थे। दुनिया के महान वैज्ञानिकों में शुमार स्टीफन हॉकिंग ने संसार के सृजन में ईश्वंर की भूमिका को लेकर भी एक अलग तरह का सिद्धांत दिया।

दुनिया को बनाने वाला कोई भगवान नहीं ( हॉकिंग की जुबानी ) 
मेरा मानना है कि कोई भगवान नहीं है। किसी ने भी हमारे ब्रह्मांड नहीं बनाया है और कोई भी हमारे भाग्य को निर्देशन नहीं करता है। यह दुनिया भौतिकी के नियमों के मुताबिक अस्तित्व में आई है। ब्रह्मांड की रचना को एक स्वतः स्फूर्त घटना है। जिस बड़े धमाके यानी बिग बैंग के बाद धरती और अन्य ग्रहों का जन्म हुआ वह वैज्ञानिक दृष्टि से अवश्यंभावी था। ब्रह्मांड एक भव्य डिजाइन है, लेकिन इसका भगवान से कोई लेना देना नहीं है।

अगर हमारे सौर मंडल जैसे दूसरे सौर मंडल मौजूद हैं तो यह तर्क गले नहीं उतरता कि ईश्वर ने मनुष्य के रहने के लिए पृथ्वी और उसके सौर मंडल की रचना की होगी। ब्रह्मांड में गुरुत्वाकर्षण जैसी शक्ति है इसलिए वह नई रचनाएं कर सकता है उसके लिए उसे ईश्वर जैसी किसी शक्ति की सहायता की आवश्यकता नहीं है। हम एक बहुत ही औसत तारे के एक छोटे ग्रह पर बसे बंदरों की उन्नत नस्ल हैं। मगर, हम ब्रह्मांड को समझ सकते हैं। यह बात हमें बहुत खास बना देती है। धर्म और विज्ञान के बीच एक बुनियादी अंतर है। धर्म जहां आस्था और विश्वास पर टिका है, वहीं विज्ञान ऑब्जर्वेशन (अवलोकन) और रीजन (कारण) कारण पर चलता है। विज्ञान जीत जाएगा क्योंकि यह काम करता है। हम सभी जो चाहें, उस पर विश्वास करने के लिए स्वतंत्र हैं।
अगर ईश्वर के बारे में कोई पक्का सिद्धांत बन सके तो वह विज्ञान की सबसे बड़ी कामयाबी होगी,तब हमारे पास ईश्वर के दिमाग को समझने का बच जाएगा। मैं हमेशा से ही सृष्टि की रचना पर हैरान रहा हूं। समय और अंतरिक्ष हमेशा के लिए रहस्य बने रह सकते हैं, लेकिन इससे मेरी कोशिशें नहीं रुकी हैं।

मानव को दूसरा घर खोजने की दी थी सलाह

स्टीफेन हॉकिंग ने कहा था कि इस धरती की उम्र ज्यादा नहीं बची है। अगर मानव प्रजाति को बचाना है तो अगले कुछ सौ सालों में हमें पृथ्वी से अलग किसी दूसरे ग्रह पर अपना घर तलाशने की शुरुआत कर देनी होगी। उन्होंने एक थ्योरी की माध्यम से इस बात की संभावना जाहिर की थी कि आने वाले कुछ सौ या हजार सालों में पृथ्वी पर क्लाइमेट चेंज,  महामारी,  जनसंख्या वृद्धि या एस्टेरॉयड के टकराने जैसा कोई बड़ा हादसा हो सकता है। अगर हम ब्रह्मांड में दूसरा घर तलाश लेंगे तो ही मानव प्रजाति को बचाया जा सकता है।

द थ्योरी ऑफ एवरीथिंग समेत कई बेस्ट सेलर किताबें लिखीं

1974 में ब्लैक होल्स पर असाधारण तौर पर शोध करके उसकी थ्योरी में नया मोड़ देने वाले स्टीफन हॉकिंग द ग्रैंड डिजाइन,  यूनिवर्स इन नट शेल,  माई ब्रीफ हिस्ट्री,  द थ्योरी ऑफ एवरीथिंग जैसी पुस्तकें लिखीं। इन पुस्तकों ने उनकी वैज्ञानिक समझ और चिंतन को दुनिया के सामने रखा। 1988में उन्हें सबसे ज्यादा चर्चा मिली थी, जब उनकी पहली पुस्तक 'ए ब्रीफ हिस्ट्री ऑफ टाइम: फ्रॉम द बिग बैंग टू ब्लैक होल्स' प्रकाशित होकर बाजार में आई। इसके बाद कॉस्मोलॉजी पर आई उनकी पुस्तक की 1 करोड़ से ज्यादा प्रतियां बिक गईं। इसे दुनिया भर में विज्ञान से जुड़ी सबसे ज्यादा बिकने वाली पुस्तक माना जाता है।

2014 में स्टीफन के जीवन पर फिल्म आई 

दुनिया के सबसे प्रसिद्ध भौतिकीविद और ब्रह्मांड विज्ञानी पर 2014 में थ्योरी ऑफ एवरीथिंग नामक फिल्म भी बन चुकी है। इस फिल्मा में स्टी1फन का किरदार एडी रेडमेने ने निभाया था। इसके लिए उन्होंसने उस साल बेस्ट  एक्ट र का ऑस्कएर पुरस्कार भी जीता। निर्देशक जेम्स मार्श ने निर्देशन में बनी इस फिल्म को 87वें एकेडमी अवॉर्ड्स में कुल पांच नोमिनेशन मिले थे। अभिनेत्री फेलिसिटी जोन्स नेफिल्म में उनकी पार्टनर की भूमिका निभाई थी।

फिल्म में निजी जिंदगी समाने आई

स्टीफन हॉकिंग ने 1965 मे जेन से शादी की थी। फिल्म थ्योरी ऑफ एवरीथिंग से स्टी5फन की निजी जिंदगी और इसकी हलचल लोगों के सामने आई थी। और साथ ही इस बात का खुलासा भी हुआ था कि उनकी पत्नी जेन के साथ बेहद प्याकर भरा रिश्ताउ कैसे वक्तस के साथ कड़वाहट में बदल गया। पहली पत्नी जेन ने फिल्म‍ की रिलीज के बाद एक साक्षात्कार में कहा था कि बीमारी के बावजूद मैं उनसे पहले जैसा प्यार करती थी। लेकिन एक दिन आया जब स्टीफन और मुझे अलग होना पड़ा। कई बार वो अपना पूरा हफ्ता अपनी कुर्सी पर बिता देते थे। वो कई बार मुझे और हमारे बच्चों को देखते भी नहीं थे। अपनी हालत के बारे में बताते नहीं थे। रिसर्च के बाद वो एक हस्ती बन चुके थे। मुझे इस बात से जलन नहीं थी, लेकिन इस वजह से हमारे रिश्तों में परेशानी आने लगी थी।

1995 में दूसरी शादी की
1995 में पहली पत्नी जेन से अलग होने के बाद स्टीफन ने अपनी नर्स एलेन मेसन से शादी कर ली।2006 में इन दोनों का भी तलाक हो गया। हॉकिंग की बेटी लूसी ने एलेन पर केस किया था वो हॉकिंग के साथ अमानवीय व्यवहार कर रही थीं। लेकिन 2004 में इस केस की जांच पूरी हुई और एलेन इस मुकदमे से बरी हो गईं। 

आइंस्टीन के जन्मदिन के दिन दुनिया छोड़ी
आइंस्टीन और हॉकिंग में कई समानताएं देखी जाती हैं। अल्बर्ट आइंस्टीन के बाद दुनिया केस्टीफन हॉकिंग को दुनिया का सबसे महान सैद्धांतिक भौतिकीविद माना जाता है। पर यह संयोग ही कहा जाएगा कि स्टीफन हॉकिंग की निधन का दिन और आइंस्टीन की जन्म का दिन एक ही यानी 14 मार्च है।

हॉकिंग का भारत का यादगार दौरा

साल 2001 में स्टीफन हॉकिंग ने भारत का यादगार दौरा किया था। यह उनका पहला भारत दौरा था, जो उनके लिए बेहद यादगार रहा था। कुल 16 दिन की भारत यात्रा पर आए स्टीफन हॉकिंग ने दिल्ली  और मुंबई का दौरा करने के साथ ही तत्कालीन राष्ट्रपति केआर नारायणन से भी मुलाकात की थी। उन्होंने कुतुब मीनार और जंतर-मंतर भी देखा था। इस दौरान वे दिल्ली के संसद मार्ग स्थित जंतर-मंतर को देखने भी पहुंचे थे। तब जंतर मंतर के गाइड प्रेम दास ने उन्हें जंतर मंतर जो कि वेधशाला है उसके बारे में जानकारी दी थी।

हॉकिंग जब भारत आए थे तो उन्होंने कहा था कि भारतीय गणित और फिजिक्स में काफी अच्छे होते हैं। उन्होंने मुंबई स्थित टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ फंडामेंटल रिसर्च में अंतरराष्ट्रीय फिजिक्स सेमिनार को भी संबोधित किया था। स्ट्रिंग 2001 कॉन्फ्रेंस के दौरान उन्हें प्रथम सरोजिनी दामोदरन फैलोशिप से भी सम्मानित किया गया था। उन्होंने भारत में ओबरॉय टावर्स होटल में अपना 59वां जन्मदिन भी मनाया था।

दुर्लभ बीमारी के साथ 55 साल जीवित रहे...

स्टीफन हॉकिंग ने शारीरिक अक्षमताओं को पीछे छोड़ते हु्ए यह साबित किया था कि अगर इच्छा शक्ति हो तो इंसान कुछ भी कर सकता है।  8 जनवरी, 1942 को इंग्लैंड को ऑक्सफोर्ड में दूसरे विश्व युद्ध के दौरान जन्मे स्टीफन अपने जीवन के  55 साल तक मोटर न्यूरॉन नामक दुर्लभ बीमारी से पीड़ित रहे।  घुड़सवारी और नौका चलाने के शौकीन स्टीलफन  1963 में पहली बार हॉकिंग को मोटर न्यूरॉन बीमारी का पता चला। तब डॉक्टरों ने कहा था कि उनके जीवन के सिर्फ दो साल बचे हैं। आमतौर पर इस बीमारी से ग्रस्त मरीज 3 से 10 साल तक ही जी पाते हैं, लेकिन हॉकिंग ने इस लाइलाज बीमारी के साथ भी 55 साल तक जीवित रहे। स्टीफन हॉकिंग ह्वीलचेयर के जरिए हीचलफिर पाते थे। इस बीमारी के साथ इतने लंबे अरसे तक जीवित रहने वाले वे पहले शख्स थे। वह बोल और सुन नहीं पाते थे और मशीनों की मदद से उन्होंयने इतने साल तक विज्ञान में शोध जारी रखा। 

इस बीमारी में दिमाग का मांसपेसियों पर नियंत्रण खत्म हो जाता है। रीढ़ की हड्‌डी की नसें काम करना बंद कर देती हैं। इसमें शरीर की नसों पर लगातार हमला होता है और शरीर के अंग धीरे-धीरे काम करना बंद कर देते हैं और व्यक्ति चल-फिर पाने की स्थिति में भी नहीं रह जाता है। मोटर न्यूरॉन नर्व सेल होती है जो मांसपेसियों को इलेक्ट्रिकल सिग्नल भेजती है, जिससे हमारे शरीर का संचालन होता है। आमतौर पर यह बीमारी 40 साल के बाद के लोगों को होती है लेकिन कई बार कम उम्र के लोगों को भी हो जाती है।

पुरस्कार और सम्मान
12  मानद डिग्रियां और अमेरिका का सबसे उच्च नागरिक सम्मान प्राप्त हुआ।
1978 - अल्बर्ट आइंस्टीन पुरस्कार
1988 - वॉल्फ प्राइज
1989 - प्रिंस ऑफ ऑस्टुरियस अवाडर्स
2006 - कोप्ले मेडल
2009 - प्रेसिडेंशियल मेडल ऑफ फ्रीडम
2012 - विशिष्ट मूलभूत भौतिकी पुरस्कार।

डेटलाइन स्टीफन हॉकिंग
    1942 में 8 जनवरी को स्टीफन हॉकिंग का ब्रिटेन में जन्म हुआ।
    1959 में हॉकिंग ने ऑक्सफ़ोर्ड यूनिवर्सिटी में स्नातक की पढ़ाई शुरू की
    1965 में 'प्रॉपर्टीज ऑफ एक्सपैंडिंग यूनिवर्सेज' विषय पर अपनी पीएचडी पूरी की थी।
    1970 में एक शोधपत्र प्रकाशित कराया जिसमें दर्शाया कि ब्रह्मांड ब्लैक होल के केंद्र से ही शुरूहुआ होगा।
    1973 में कॉस्मोलॉजी में पोस्टग्रेजुएट रिसर्च करने के लिए कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय चले गए।
    1988 उनकी पुस्तक 'ए ब्रीफ हिस्ट्री ऑफ टाइम: फ्रॉम द बिग बैंग टू ब्लैक होल्स' प्रकाशित हुई।
    2014 में जब हॉकिंग फेसबुक पर पहली बार आए । उन्होंने लिखा - मैं इस यात्रा को आपके साथ बांटने के लिए उत्सुक हूं।
-    कथन -
मुझे सबसे ज्यादा खुशी इस बात की है कि मैंने ब्रह्माण्ड को समझने में अपनी भूमिका निभाई। इसके रहस्य लोगों के खोले और इस पर किए गए शोध में अपना योगदान दे पाया। मुझे गर्व होता है जब लोगों की भीड़ मेरे काम को जानना चाहती है।
-    स्टीफन हॉकिंग