Tuesday 19 March 2013

हिंदी की उपेक्षा क्यों

नई दिल्ली स्थित भारतीय जन संचार संस्थान का प्रवेश द्वार जहां विराजती हैं मां सरस्वती। 

देश में पत्रकारिता प्रशिक्षण के लिए श्रेष्ठ संस्थान माने जाने वाले भारतीय जन संचार संस्थान नए सत्र में प्रवेश के लिए विज्ञापन जारी कर दिए हैं। कभी सिर्फ दिल्ली से शुरू हुए आईआईएमसी की अब देश भर में कई शाखाएं खुल चुकी हैं जहां पूर्णकालिक पाठ्यक्रम संचालित किए जा रहे हैं। उत्तर में जम्मू,  महाराष्ट्र में अमरावती, ओडिसा में ढेंकानाल, केरल में कोट्टायम पूर्वोत्तर के मिजोरम में आईजोल में आईआईएमसी की शाखाएं खुल चुकी हैं। इन सभी शाखाओं में अंग्रेजी पत्रकारिता का पाठ्यक्रम है, पर हिंदी का पाठ्यक्रम सिर्फ दिल्ली में ही है। देश के सबसे बड़े संस्थान में राष्ट्रभाषा का सम्मान पाने वाली हिंदी के साथ भेदभाव की स्थिति दिखाई देती है। सवाल है कि आखिर अन्य शाखाओं में हिंदी पत्रकारिता के पाठ्यक्रम में क्यों नहीं संचालित किए जा रहे हैं।


जम्मू की बात करें तो वहां हिंदी का माहौल है। चार बड़े हिंदी के समाचार पत्र वहां से प्रकाशित होते हैं। महाराष्ट्र में राष्ट्रभाषा प्रचार समिति सक्रिय है। इसी राज्य में अंतराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय की स्थापना हुई है। नागपुर, मुंबई, पुणे से हिंदी के समाचार पत्र प्रकाशित होते हैं। लेकिन अमरावती आईआईएमसी में हिंदी का पाठ्यक्रम नहीं है। अब चलें ढेंकानाल। वहां अंग्रेजी और उड़िया पत्रकारिता पढ़ाई जाती है पर हिंदी नहीं। ओडिशा में हिंदी का कोई विरोध नहीं हैं। स्थानीय स्तर पर ढेंकानाल में रोजगार की संभावनाएं नहीं है। यहां से पाठ्यक्रम उतीर्ण करने वाले छात्रों को हिंदी प्रदेशों में नौकरी के लिए जाना पड़ता है। केरल की बात करें तो वहां हिंदी का कोई विरोध नहीं है। केरल में दक्षिण भारतीय हिंदी प्रचार सभा से बड़ी संख्या में हर साल लोग हिंदी सीखते हैं लेकिन पाठ्यक्रम स्तर पर आईआईएमसी कोट्टायम में भी हिंदी का पाठ्यक्रम नहीं है। उत्तर पूर्वी राज्यों में भी स्कूल स्तर पर छात्रों को हिंदी पढाई जाती है। पर आईआईएमसी आइजोल भी हिंदी से अछूता है।
अब आईआईएमसी में नामांकन की इच्छा रखने वाले छात्रों की बात करें तो हर साल बड़ी संख्या में हिंदी पट्टी के छात्र प्रवेश परीक्षा में हिस्सा लेते हैं। हजारों छात्रों में से महज 62 छात्रों को ही मौका मिल पाता है जबकि अंग्रेजी पाठ्यक्रम में कुल 184 सीटें हैं। अगर पढ़ाई के बाद नौकरी की संभावनाओं की बात करें तो हिंदी पत्रकारिता में नौकरी की संभावनाएं अंग्रेजी से कहीं ज्यादा है। अगर 25 साल के हिंदी पत्रकारिता पाठ्क्रम की बात करें तो टीवी, प्रिंट, शोध, शिक्षण आदि माध्यमों में हिंदी पाठ्यक्रम के छात्रों ने परचम लहराया है।
फिर विज्ञापन पर आते हैं। 15 मार्च को समाचार पत्रों में प्रकाशित विज्ञापन में बताया गया है कि दिल्ली को छोड़कर सभी आईआईएमसी में छात्रों के लिए अच्छी सुविधाओं से युक्त छात्रावास उपलब्ध है। पर हिंदी के छात्रों के लिए दिल्ली में भी छात्रावास की सुविधा नहीं है। यहां सिर्फ छात्राओं के लिए सीमित संख्या में आवासीय सुविधा है।  

अब कुछ सवाल हैं-

-    आखिर देश के सबसे बड़े पत्रकारिता प्रशिक्षण संस्थान  में हिंदी के साथ ये भेदभाव क्यों...

-    हिंदी पत्रकारिता के छात्रों के लिए पिछले 25 साल में छात्रवास के इंतजाम क्यों नहीं किया जा सका है...

-    आखिर जम्मू, अमरावती, ढेंकानाल में हिंदी पत्रकारिता का पाठ्यक्रम क्यों नहीं शुरू किया जा सका है। 

Saturday 2 March 2013

ये दरिद्रनारायण का बजट है...

खाद्य सुरक्षा के लिए 10 हजार करोड़ का इंतजाम है 2013-14 के बजट में 

हर साल बजट पेश होता है। केंद्र सरकार से इस बजट से हर वर्ग को उम्मीद होती है। अमीर चाहता है उसे रियायत मिले, गरीब भी चाहता है उसे रियायत मिले। मध्यम वर्ग को लगता है महंगाई दूर करने की कोई जुगत वित्तमंत्री पेश कर दें। जिसे बजट सुनकर निराशा होती है वह इसमें ढेर सारी कमियां निकालना शुरू करता है। कई साल से बजट सुन रहा हूं। शायद ही किसी साल यह सुनने में आया हो कि हर वर्ग ने बजट को सराहा हो।
आखिर हम उम्मीद क्यों रखते हैं। क्या बजट सरकार लोगों को राहत देने के लिए पेश करती है। या फिर अपना एक साल का हिसाब किताब आगे बढ़ाने के लिए। 28 फरवरी की रात आजतक चैनल पर एक बजट लांज बना था। वहां अलग-अलग वर्गों के खास तौर अमीर लोग जमा थे जो काफी पीकर चिदंबरम के खिलाफ अपनी उबकाइयां निकाल रहे थे। किसी को बजट पसंद नहीं आया था। प्रसिद्ध पत्रकार पुण्य प्रसून वाजपेयी भी अमीरों के सरमाएदार की तरह बातें कर रहे थे।

 इस बार के बजट में चिदंबरम ने अमीरों से लिया और गरीबों को ज्यादा देने की कोशिश की है। ये बात अमीरों को हजम नहीं हो रही थी। भला एसयूवी महंगा हो गया, सुपरबाइक, एसी रेस्टोरेंट में खाना पीना महंगा हुआ, 50 लाख से ज्यादा वाले घर महंगे हुए तो अमीरों को थोड़ा दर्द तो होना ही था। लेकिन दरिद्रनारायण के लिए फूड सिक्योरिटी का इंतजाम किया, बेरोजगारों की सुध ली, युवाओं महिलाओं की सुध ली तो भला क्या गलत किया। भले ही इसे चुनावी बजट कहा जा रहा हो लेकिन इसमें पसमांदा लोगों खबर लेने की कोशिश की गई तो खाते पीते लोगों के पेट में दर्द तो होना ही था। लेकिन हम क्या करें हमारी फितरत है हम थोड़े में खुश होना नहीं जानते, हमें हमेशा थोड़े और की उम्मीद रहती है। 

विद्युत प्रकाश मौर्य ( 01 मार्च 2013 )