Wednesday 13 February 2008

कोई इनको भी तो कंडक्ट सीखाओ


जब आप बस में चढते हैं तो आपका पहला सामाना बस के कंडक्टर से होता है। यह बहुत बड़ा सवाल है कि वह कंडक्टर आपके साथ कैसा व्यवहार करता है। खास कर जब दिल्ली में किसी प्राइवेबट बस में चढते हैं तो आप कंडक्टर का व्यवहार नहीं भूला सकते है। अगर कोई दिल्लीवासी हो तो उसे यह बताने की जरूरत नहीं है कि दिल्ली की बसों में कंडक्टर का व्यवहार कैसा होता है, क्योंकि दिल्लीवाले तो उन्हें सालों से झेलते आ रहे हैं। मतलब की वे इसके आदी हो चुके हैं। पर कोई आदमी पहली बार दिल्ली में आता हो और किसी प्राइवेट बस में बैठ जाता हो तो वह कंडक्टर के व्यवहार को देखकर जरूर कई तरह की बातें सोच सकता है।

 अब यह बताने की जरूरत नहीं है कि कंडक्टर का व्यवहार कैसा होता है। अगर हम कंडक्टर के शाब्दिक अर्थ पर जाएँ तो यह शब्द ही कंडक्ट करने से बना है। यानी कंडक्टर के लिए व्यवहार ही सबसे बड़ी जरूरत है। पर दिल्ली के निजी बस के कंडक्टरों का व्यवहार से दूर दूर तक कोई वास्ता नहीं है। उन्हें दरअसल इसकी कभी ट्रेनिंग भी नहीं दी गई। इसके उल्ट सरकारी डीटीसी बसों के कंडक्टरों का व्यवहार आम लोगों के साथ अच्छा होता है।अगर आप दिल्ली की किसी ब्लू लाइन बस में घंटे दो घंटे का सफर करें और कंडक्टर का उतरने चढ़ने वाले लोगों के साथ संवाद पर गौर फऱमाएं तो बेहतर समझ सकते हैं कि वह लोगों के साथ कैसे पेश आता है। टिकट खरीदने के लिए लोगों को बुरी तरह के से चिल्लाकर कहना, लोगों को अंदर चलने और उतरने चढने के लिए हल्ला मचाना इसके साथ ही छोटी-छोटी बातों को लेकर यात्रियों के साथ बकझक करना...यह सब किसी के लिए भी बड़े बुरे अनुभव हो सकते हैं। अगर हम पूरी दुनिया की या भारत की भी बात करें तो हर जगह पब्लिक डिलिंग करने वालों लोगों को इस बात की खास तौर पर ट्रेनिंग दी जाती है कि वे लोगों के साथ कैसा व्यवहार करें। इसके लिए कई संस्थानों में समय समय पर वर्कशाप लगाए जाते हैं और रिफ्रेशर कोर्स भी कराए जाते हैं। 


आप किसी दफ्तर में प्रवेश करते हैं तो वहां बैठा रिसेप्सनिस्ट आपके साथ मुस्कराकर बातें करता है और आपके साथ अच्छा व्यवहार करता है।निश्चित तौर पर कहीं भी अच्छा व्यवहार जहां किसी को भी शुकुन प्रदान करता है तो बुरे व्यहार से खीज होती है...तनाव होता है...जब लिफ्ट में चढते हैं लिफ्ट वाला, या रोज रोज टकराने वाले तमाम पेशेवर लोग आपके साथ मधुरवाणी में पेश आते हैं। देश के कई अन्य महानगरों में चले जाएं तो वहां के बस कंडक्टरों का व्यवहार भी आमतौर पर ठीक होता है। आंध्र प्रदेश की राजधानी हैदराबाद में तो बसों में महिला कंडक्टरों की नियुक्ति कर दी गई है। वहां महिला कंडक्टर जहां अपना काम पूरी तत्परता से करती हैं वहीं वे लोगों के साथ अच्छा व्यवहार भी करती हैं। वैसे भी आप आमतौर पर महिलाओं से गाली गलौज वाली जुबान की उम्मीद नहीं कर सकते हैं। पर दिल्ली के बस कंडक्टर तो बात बात में गाली-गलौच पर उतारू हो जाते हैं। इसलिए जरूरत इस बात की है भले ही कंडक्टर प्राइवेट बसों में काम करते रहे हैं पर उन्हें बस में बहाल करने से पहले लोगों के साथ व्यवहार करने के तौर तरीकों की अनिवार्य तौर पर ट्रेनिंग दी जाए। जिस तरह ड्राइवर बनने के लिए प्रशक्षिण और उसके बाद लाइसेंस लेना जरूरी किया गया है। उसी तरह से कंडक्टर का भी प्रशिक्षण और प्रमाण पत्र होना चाहिए।


 हो सकता है इससे दिल्ली का कंडक्टरों का व्यवहार पूरी तरह नहीं बदल पाए पर बसों होने वाले हो हल्ला और तनाव में कमी जरूर आएगी। अभी दिल्ली के भीड़ भरी किसी निजी बस में सफर करना एक बुरे सपने जैसा ही है। दिल्ली की निम्न मध्यमवर्गीय जनता इसको सालों साल से झेलने की आदी हो गई है, इसलिए उसे कोई सुधार की उम्मीद नजर नहीं आती। हाल के सालो में कंडक्टरों के लिए वर्दी और उनके नाम का बैच लगाना जरूरी कर दिया गया है। पर बात इतने से बनने वाली नहीं है, जब तक उन्हें सही तरीके से व्यवहार करना नहीं सीखाया गया तो हम 2010 के लिए जिस दिल्ली को तैयार कर रहे हैं उसमें कहीं न कहीं बट्टा लगा हुआ रह ही जाएगा।
--  विद्युत प्रकाश मौर्य

Monday 4 February 2008

युवाओं के प्रेरणास्रोत सुब्बाराव


सबके प्यारे...भाईलाखों युवा उन्हें प्यार से भाई जी कहते हैं। उनका असली नाम है एस एन सुब्बराव। उनका जन्म 7 फरवरी 1929 को कर्नाटक के बेंगलूर शहर में हुआ। उनके पुरखे तमिलनाडु में सेलम से आए थे। इसलिए उनका पूरा नाम सेलम नानजुदैया सुब्बराव है। सुब्बराव एक ऐसे गांधीवादी सामाजिक कार्यकर्ता हैं जिन्होंने गांधीवाद को अपने जीवन में पूर्णता से अपनाया है। पर उनका सारा जीवन खास तौर पर नौजवानों को राष्ट्रीयता, भारतीय संस्कृति, सर्वधर्म समभाव और सामाजिक उत्तरदायित्वों की ओर जोड़ने में बीता है। वे सही मायने में एक मोटिवेटर हैं। उनकी आवाज में जादू है। शास्त्रीय संगीत में सिद्ध हैं। कई भाषाओं में प्रेरक गीत गाते हैं। उनकी चेहरे में एक आभा मंडल है। जो एक बार मिलता है उनका हो जाता है। उन्हें कभी भूल नहीं पाता। कई पीढ़ियों के लाखों लोगों ने उनसे प्रेरणा ली है।

सारा भारत अपना घर - सुब्बराव जी का कोई स्थायी निवास नहीं है। सालों भर वे घूमते रहते हैं। देश के कोने कोने में राष्ट्रीय एकता व सांप्रदायिक सद्भावना के शिविर। शिवर नहीं तो किसी न किसी कार्यक्रम में मुख्य अतिथि। देश के हर बड़े छोटे शहर में युवा उन्हें जानते हैं। जहां से गुजरना हो पहले पोस्टकार्ड लिख देते हैं। लोग उनका स्वागत करते हैं। वे अपने युवा साथियों के घर में ठहरते हैं। कभी होटल या गेस्ट हाउस में नहीं। दिल्ली बंगलोर नहीं उनके लिए देश के लाखों युवाओं का घर अपने घर जैसा है।


हाफ पैंट व बुशर्टलंबे समय से खादी का हाफ पैंट और बुशर्ट ही उनका पहनावा है। हमनेउनको उत्तरकाशी में दिसबंर की ठंड में भी देखा है जब एक पूरी बाजी की ऊनी शर्ट पहनी, पर उतनी ठंड में भी हाफ पैंट में रहे। यह उनकी आत्मशक्ति है। सालों भर दुनिया के कई देशों में यात्रा करते हुए भी उनका यही पहनावा होता है। कई लोग उनके व्यक्तित्व व सादगी से उनके पास खींचे चले आते हैं उनका परिचय पूछते हैं।चंबल का संतसुब्बराव जी की भूमिका चंबल घाटी में डाकूओं के आत्मसमर्पण कराने में रही है। उन्होंने डाकुओं से कई बार जंगल में जाकर मुलाकात की। अपने प्रिय भजन आया हूं दरबार में तेरे... गायक डाकुओं का दिल जीता।

 उनके द्वारा स्थापित महात्मा गांधी सेवा आश्रम जौरा, मुरैना (मप्र) में ही  जय प्रकाश नारायण के समक्ष माधो सिंह, मोहर सिंह सहित कई सौ डाकुओं ने आत्मसमर्पण किया था। सुब्बराव जी का आश्रम इन डाकुओं के परिजनों को रोजगार देने के लिए कई दशक से खादी और ग्रामोद्योग से जुड़ी परियोजनाएं चला रहा है। चबंल घाटी के कई गांवों में सुब्बराव जी की ओर दर्जनों शिविर लगाए गए जिसमें देश भर युवाओं ने आकर काम किया और समाज सेवा की प्रेरणा ली।पूरे देश में युवा शिविर-सुब्बराव जी द्वारा संचालित संस्था राष्ट्रीय युवा योजना अब तक देश के कोने कोने में 200 से अधिक राष्ट्रीय एकता शिविर लगा चुकी है। कश्मीर से कन्याकुमारी तक, लक्षद्वीप, पोर्ट ब्लेयर, शिलांग, सिलचर से लेकर मुंबई तक। आतंकवाद के दौर में पंजाब में और नक्सलवाद से ग्रसित बिहार में भी। कैंप से युवा संदेश लेकर जाते हैं । देश के विभिन्न राज्यों के लोगों के साथ सद्भावनापूर्ण व्यवहार करने का, दोस्ती का और सेवा का। हजारों युवाओं की जीवनचर्या इन कैंपों ने बदल दी है। कई पूर्णकालिक समाजसेवक बन जाते हैं जो कई जीवन किसी भी क्षेत्र में रहकर सेवा का संकल्प लेते हैं।कैंप ही जीवन है जीवन ही कैंप-भाई जी के लिए पूरा जीवन ही एक कैंप की तरह है। तभी उन्होंने विवाह नहीं किया। कोई स्थायी घर नहीं बनाया। बहुत कम संशाधनों में उनका गुजारा चलता है। दो खादी के झोले और एक टाइपराइटर। यही उनका घर है। 78 वर्ष की उम्र में भी अक्सर देश के कोने-कोने में अकेले रेलगाड़ी में सफर करते हैं। रेलगाड़ी में बैठकर भी चिट्टियां लिखते रहते हैं। अगले दो महीने में हर दिन का कार्यक्रम तय होता है। एक कैंप खत्म होने के बाद दूसरे कैंप की तैयारी। सुब्बराव जी को केवड़िया गुजरात में 25 हजार नौजवानों का तो बंगलोर में 1200 नौजवानों का शिविर लगाने का अनुभव है।

पोस्टकार्ड की ताकत- सालों से पोस्टकार्ड लिखना उनकी आदत है। टेलीफोन ई-मेल के दौर में भी उनका अधिकांश संचार पोस्टकार्ड पर चलता है। पूर्व रेल मंत्री सीके जाफरशरीफ कहते हैं कि सुब्बराव जी एक पोस्टकार्ड लिख देंगे तो नौजवान बोरिया बिस्तर लेकर कैंप में पहुंच जाते हैं। यह सच भी है। उनके आह्वान पर उत्तरकाशी भूकंप राहत शिविर, साक्षरता शिविर और दंगों के बाद लगने वाले सद्भावना शिविर में देश भर से युवा पहुंचे हैं।विदेशों में गांधीवाद का प्रसार-हर साल के कुछ महीने सुब्बराव जी विदेश में होते हैं। वहां भी कैंप लगाते हैं, खासकर अप्रवासी भारतीय परिवारों के युवाओं के बीच। इस क्रम में वे हर साल अमेरिका, जर्मनी, जापान, स्वीटजरलैंड जैसे देशों की यात्राएं करते हैं।

पुरस्कार सम्मान से दूर- सुब्बराव जी पुरस्कार सम्मान से दूर रहने वाले व्यक्ति हैं। उन्होंने पद्म पुरस्कारों के लिए बड़ी सदाशयता से ना कर दी। उन्हें जिंदाबाद किए जाने से सख्त विरोध है। वे कहते हैं जो जिंदा है उसका क्या जिंदाबाद। हालांकि समय समय पर उन्हें कई पुरस्कारों से नावाजा गया है। सांप्रदायिक सौहार्द के लिए उन्हें राजीव गांधी सद्भावना अवार्ड से नवाजा जा चुका है।

-विद्युत प्रकाश मौर्य         ईमेल -vidyutp@gmail.com