Friday 31 October 2008

हम क्षमाशील बनें..

कुछ महीने मजदूरी करने के बाद वह अपने घर के लिए चला था। अपने परिवार के साथ दीवाली मनाने की इच्छा थी उसकी। मुंबई की लोकल ट्रेन में वह खिड़की वाली सीट पर बैठा था। मराठी भाइयों के कहने पर उसने खिड़की वाली सीट छोड़ भी दी थी। पर फिर भी उससे लोगों ने पूछा कहीं तुम मराठी मानुष तो नहीं हो। उसका दोष सिर्फ इतना ही था कि वह मराठी मानुष नहीं था। लोगों ने उसे पीटना शुरू कर दिया। उसकी जान चली गई। वह अपने बच्चों के संग दिवाली की लड़ियां नहीं सजा सका। उसकी पत्नी दीपमाला थी। वह दीपमाला सजा कर उसका इंतजार करती रही। पर न तो दिवाली पर वह आया न उसकी लाश आई। उसके पेट में एक और शिशु पल रहा है। वह अपने पापा से कभी नहीं मिल पाएगा।

महाराष्ट्र सरकार के गृह मंत्री कहते हैं कि गोली का जवाब गोली होना चाहिए। तो कुछ मित्रों ने तर्क किया है कि हमले का जवाब भी हमला होना चाहिए। मैं मानता हूं ऐसा नहीं होना चाहिए। हमें क्षमाशील बनना चाहिए। हम देश के किसी गृह युद्ध की ओर नहीं ले जाना चाहते। पर हमारे मराठी भाइयों को भी थोड़ा सहिष्णु बनना चाहिए।

Sunday 26 October 2008

एक पाती राज भैय्या के नाम

वाह राज करो राज....वाह राज भइया...करो राज...आखिर यही तो राजनीति है...अंग्रेज कह गए थे..फूट डालो और राज करो..भले अंग्रेज नहीं रहे...लेकिन तुमने उसका सही मतलब समझ लिया है। पहले हम हिंदुस्तानी हुआ करते थे पर तुम मराठी मानुष की बात करते हो। बड़ी अच्छी बात है। महाराष्ट्र तुम्हारा है। मराठी लोग भी तुम्हारे हैं। पर देश के कोने कोने में रहने वाले बाकी मराठी भाई बहन भी तो तुम्हारे ही होने चाहिए। 

सुना है कि देश की राजधानी दिल्ली में भी तीन लाख मराठी भाई रहते हैं। वे भी तो मराठी मानुष हैं। वे सभी हमें अच्छे लगते हैं। उनसे हमें कोई वैर भाव नहीं है। देश के सभी राज्यों तक मराठी भाई बहन कारोबार करने और नौकरी करने पहुंचते हैं। वे सभी मराठी मानुष हैं। राज भैय्या आपको उन सबके सेहत की चिंता करनी चाहिए। वे भी आपके भाई बहन हैं। अगर आप राजा हैं तो आपकी प्रजा हैं। आपको उनके सुरक्षा की चिंता होनी चाहिए। भला बिहारियों का क्या है। उन्हें बिहार में नौकरी नहीं मिलती तो गुजरात चले जाते हैं, मुंबई चले जाते हैं, पंजाब चले जाते हैं। सभी जगह जाकर पसीना बहाते हैं चंद रूपये कमाते हैं। लौट कर तो चाहतें अपने देश आना पर क्या करें आ नहीं पाते हैं। कैसे आएं भला। बिना बिहारियों के पंजाब की खेती बंजर पड़ जाएगी। गुजरात की कपड़ा मिले बंद हो जाएंगी। मुंबई में चलने वाले उद्योग धंधे बंद हो जाएंगे। टैक्सियां खड़ी हो जाएंगी। शहर की सफाई नहीं हो सकेगी। मुंबई में बास आने लगेगी। बिहारी चाहते तो हैं बिहार में ही रहना। साग रोटी खाना पर परदेश नहीं जाना। पर क्या करें उन्हें मुंबई के फुटपाथ पंजाब के खेत और गुजरात के मिल बार बार बुलाते हैं। 
मजबूर लाचार बिहारी पूरे देश को अपना घर समझकर चले जाते हैं। भावनाओं में बह कर चले जाते हैं। वे मराठी मानुष को अपना बड़ा भाई समझ कर चले जाते हैं। तुम कहते हो तो अब नहीं जाएंगे। बुलाओगे तो भी नहीं जाएंगे, लेकिन तुम कैसे रहोगे...आखिर तुम्हारे केस मुकदमे कौन लड़ेगा। तुम्हारे बिल्डिंगें बनाने के लिए ईंट कौन उठाएगा। तुम्हारी गय्या की दूध कौन निकालेगा। राज भैय्या कौनो परेशानी शिकवा शिकायत हो तो खुल के कहो। अगर महाराष्ट्र में चुनाव लड़े के मुद्दा नाही मिलत हौ तो बिहार में आके लड़ जा। बिहार वाले आपको संसद में भेज देंगे। जार्ज फर्नांडिश को कई बार भेजा है, आपको भी भेज देंगे। ये बिहार दिल के बहुत बड़े हैं। अपमान जल्दी भूल भी जाते हैं और जल्दी माफ भी कर देते हैं....
- vidyutp@gmail.com 

Thursday 23 October 2008

जो बिहार में हुआ वह भी ठीक नहीं ...

जो मुंबई में हुआ वह ठीक नहीं था लेकिन 22 अक्टूबर को जो बिहार में हुआ क्या वह ठीक था। राज ठाकरे के लोगों ने बेस्ट की बसों को नुकसान पहुंचाया। कल्याण की सड़कों पर जमकर आगजनी की। सार्वजनिक संपत्ति को नुकसान पहुंचाया। वह सब ठीक नहीं था। महाराष्ट्र सरकार ऐसे लोगों से जुर्माना वसूलने का कानून बनाने जा रही है। निश्चय ही यह अच्छा कानून होगा। पर बिहार में गुस्साई भीड़ ने बाढ़ रेलवे स्टेशन पर जिस तरह एक्सप्रेस ट्रेन की एसी कोच को आग के हवाले कर दिया, उसकी भरपाई कौन करेगा। ट्रेन की एक बोगी कितने की आती है...इसका अंदाजा सबको है।

 आजकल एक बस ही 20  से 25 लाख में आती है। ट्रेन की एक वातानुकूलित बोगी को आग के हवाले करने का मतलब है करोड़ों का नुकसान। कई नौकरियां जिंदगी भर की बचत में भी एक ट्रेन की बोगी नहीं खरीद सकती हैं। फिर ऐसी आगजनी क्यों। विरोध करने के लिए गांधीवादी तरीका ठीक है। 

अगर विरोध ही करना हो तो धरना प्रदर्शन और नारेबाजी से भी बात कही जा सकती है। जिस रेलवे में नौकरी करना चाहते हो, उसी की प्रोपर्टी को आग के हवाले करते हो। शर्म आनी चाहिए। जो राज ठाकरे के लोग मुंबई में कर रहे हैं वहीं हम पूरे देश में करना शुरू कर दें, फिर देश का क्या होगा।
- vidyutp@gmail.com 

Thursday 16 October 2008

बाजारवाद के बीच अर्थ खोते त्योहार

-राष्ट्रपति कलाम का का मानना है कि उपहार जहर के समान होते हैं। इनके लेनदेन के पीछे कोई न कोई उद्देश्य छिपा होता है।

तमाम उपभोक्ता कंपनियों की नजर सभी त्योहारों को अपने तरीके से कैश कराने पर है। ऐसे में बाजारवाद के बीच त्योहार अपना अर्थ खोते जा रहे हैं। तमाम हिंदू त्योहारों के बीच बाजार ने अपनी पैठ गहराई से बना ली है। जैसे रक्षा बंधन पर भाई बहन को क्या गिफ्ट दे इस बारे में आपको सलाह देने के लिए तमाम कंपनियों के पैकेज उपलब्ध हैं। रिश्तों में इस बाजार के घुस आने से रिश्ते अपना वास्तिवक अर्थ खोते जा रहे हैं। जिससे कई जगह रिश्तों की गरमाहट को उपहारों की कीमतों से मापा जाने लगा है। सुधीर की बहन सुमन ने इस बार अपने भाई से कहा कि तुम इस रक्षा बंधन में मुझे अमुक ब्रांड का मोबाइल फोन ही गिफ्ट करना। अब भाई का बजट उसके अनुकूल नहीं था पर उसे कहीं न कहीं से इंतजाम करके वह सब कुछ देना ही पड़ा। इसी तरह डिंपी के भांजों ने अपने अपने मामा से कहा कि इस दिवाली पर आप हमें वाशिंग मशीन और वीडियो गेम गिफ्ट कर ही दो।

उपहार का भले ही मतलब होता है कि जो अपनी मरजी और श्रद्धा से दिया जाए पर कई रिश्तों में लोग खुलकर उपहार मांगने लगे हैं। कई लोग दिल खोलकर उपहार देते हैं तो कई लोगों को मजबूरी में ही सही देना पड़ता है। इस उपहार संस्कृति का प्रभाव रिश्तों पर भी पड़ता है। दिपावली को तो अब उपहार देने लेने का ही त्योहार बना दिया गया है। सभी बिजनेस क्लाएंट अपने ग्राहकों को खुश करने के लिए उपहार देते हैं। यह कारपोरेट गिफ्ट का कारोबार तो करोड़ों में चलता है। पर रिश्तेदारी नातेदारी में भी ड्राइफ्रूट के डिब्बों से लेकर मिठाइयां और महंगे उपहारों का कारोबार खूब चलता है। मध्यम वर्गीय परिवारों को भी ढेरों उपहार खरीदने पड़ते हैं। कुछ लोग इस दौरान अक्लमंदी से उपहारों को एक दूसरे के यहां शिफ्ट करते हैं। जैसे ही दिवाली नजदीक आती है उपहारों के लेनदेन की तैयारी शुरू हो जाती है। लोग योजना बनाने लगते हैं। फलां ने मुझे पिछले साल क्या उपहार दिया था। इस बार उसको उसकी कीमत से बड़ा उपहार जवाब में देना है। कई बार यह उपहार नहीं बल्कि आपके गाल पर एक जवाबी तमाचा होता है।
उपहारों को लेकर हाल में राष्ट्रपति एपीजे अब्दुल कलाम का संस्मरण याद करने योग्य है। उन्होंने बताया कि एक बार उन्हें किसी ने उपहार दिया तो कलाम के पिता ने उसे उपहार वापस कर आने को कहा। उनके पिता ने समझाया कि ये उपहार जहर के समान है। यह रिश्वत से भी बुरा है। वास्तव में जब आपको कोई उपहार देता है तो उसके पीछे उसका कोई न कोई स्वार्थ छिपा होता है। इसलिए हमें उपहारों को जहां तक हो सके नकारना ही चाहिए। अगर हम वर्तमान संदर्भ में भी राष्ट्रपति कलाम के इस संस्मरण से कोई प्रेरणा ले सकें तो बड़ी अच्छी बात होगी। अगर हम इस उपहार संस्कृति से उपर उठ कर सोचें और व्यवहार करें तभी हम भारतीय संस्कृति के इन त्योहारों का सही अर्थ को समझ पाएंगे और उसके अनुरूप आचरण करके त्योहार के महत्व को बचाए रख सकेंगे। साथ ही हर त्योहार के पीछे छूपे मर्म को समझ सकेंगे। वर्ना आने वाले पीढ़ी तो इन त्योहारों को लेनदेन के व्यापार के रुप में ही समझा करेगी।
- विद्युत प्रकाश मौर्य

Friday 3 October 2008

तो ये महादेव कुशवाहा का सज्जनपुर है....

बहुत दिनों बाद एक ऐसी अच्छी फिल्म देखने में आई है जिसमें कामेडी भी है और गांव की समस्याओं को बड़ी खबूसुरती से उभारा गया है। जी हां हम बात कर रहे हैं श्याम बेनेगल की फिल्म वेलकम टू सज्जनपुर की।
बालीवुड में बनने वाली अमूमन हर फिल्म की कहानी में महानगर का परिवेश होता है, अगर गांव होता है तो सिर्फ नाममात्र का। अब गंगा जमुना और नया दौर जैसी फिल्में कहां बनती हैं। पर श्याम बेनेगल ने एक अनोखी कोशिश की है जिसमें उन्हें शानदार सफलता मिली है। सज्जनपुर एक ऐसा गांव है जहां साक्षरता की रोशनी अभी तक नहीं पहुंची है। ऐसे में फिल्म का हीरो महादेव कुशवाहा ( श्रेयश तलपड़े) जो गांव का पढ़ा लिखा इन्सान है, जिसे बीए पास करने के बाद भी नौकरी नहीं मिल पाई है, गांव के लोगों की चिट्ठियां लिखकर अपनी रोजी रोटी चलाता है। पर महादेव कुशवाहा के साथ इस फिल्म में गांव की जो राजनीति और भावनात्मक रिश्तों का ताना-बाना बुनने की कोशिश की गई है, वह हकीकत के काफी करीब है। पर फिल्म की पटकथा इतनी दमदार है जो कहीं भी दर्शकों को बोर नहीं करती है। कहानी अपनी गति से भागती है, और ढेर सारे अच्छे संदेश छोड़ जाती है। भले ही फिल्म हकीकत का आइना दिखाती है, पर फिल्म का अंत निराशाजनक नहीं है। फिल्म की पटकथा अशोक मिश्रा ने लिखी है।
कहानी का परिवेश मध्य प्रदेश के सतना जिले का एक काल्पनिक गांव है। सज्जनपुर के पात्र भोजपुरी ओर बघेली जबान बोलते हैं जो वास्तविकता के काफी करीब है। कहानी के गुण्डा पात्र हकीकत के करीब हैं, तो अमृता राव कुम्हार कन्या की भूमिका में खूब जंचती है। फिल्म में संपेरा और हिजड़ा चरित्र समाज के उन वर्गों का प्रतिनिधित्व करते हैं जिन्हें हम गाहे-बगाहे भूलाने की कोशिश करते हैं। भोजपुरी फिल्मों के स्टार रवि किशन भी फिल्म में हंसोड़ भूमिका में हैं, लेकिन उनका अंत दुखद होता है। फिल्म की पूरी शूटिंग रामोजी फिल्म सिटी, हैदराबाद में रिकार्ड तीस दिनों में की गई है। लिहाजा वेलकम टू सज्जनपुर एक कम बजट की फिल्म है, जिसने सफलता का स्वाद चखा है। फिल्म ने ये सिद्ध कर दिखाया है कि अगर पटकथा दमदार हो तो लो बजट की फिल्में भी सफल हो सकती हैं। साथ ही फिल्म को हिट करने के लिए मुंबईया लटके-झटके होना जरूरी नहीं है।
भारत की 70 फीसदी आत्मा आज भी गांवों में बसती है, हम उन गांवों की सही तस्वीर को सही ढंग से परदे पर दिखाकर भी अच्छी कहानी का तानाबाना बुन सकते हैं, और इस तरह के मशाला को भी कामर्शियल तौर पर हिट बनाकर दिखा सकते हैं। अशोक मिश्रा जो इस फिल्म के पटकथा लेखक हैं उनका प्रयास साधुवाद देने लायक है। साथ ही फिल्म के निर्देशक श्याम बेनेगल जो भारतीय सिनेमा जगत का एक बडा नाम है, उनसे उम्मीद की जा सकती है, वे गंभीर समस्याओं पर भी ऐसी फिल्म बना सकते हैं जो सिनेमा घरों में भीड़ को खींच पाने में सक्षम हो। अभी तक श्याम बेनेगल को समांतर सिनेमा का बादशाह समझा जाता था। वे अंकुर, मंथन, सरदारी बेगम और जुबैदा जैसी गंभीर फिल्मों के लिए जाने जाते थे। फिल्म का नाम पहले महादेव का सज्जनपुर रखा गया था, पर बाद में फिल्म के नायक श्रेयश तलपड़े के सलाह पर ही इसका नाम वेलकम टू सज्जनपुर रखा गया है। फिल्म की कहानी एक उपन्यास की तरह है। इसमें प्रख्यात उपन्यासकार और कथाकार मुंशी प्रेमचंद की कहानियों और उपन्यासों जैसी गहराई है। पर वेलकम टू सज्जनपुर ऐसी शानदार फिल्म बन गई है जो गांव की कहानी दिखाकर भी महानगरों के मल्टीप्लेक्स में दर्शकों को खींच पाने में कामयाब रही है।
-विद्युत प्रकाश मौर्य