Friday 26 July 2013

पर्यावरण जागरुकता में मीडिया की भूमिका



जब भी मीडिया के रोल की बात की जाती है तो तीन प्रमुख बिंदुओं पर चर्चा की जाती है। सूचना देना, शिक्षा देना और मनोरंजन करना। ( to inform, to educate and to entertain ) साफ है कि लोगों सही सूचना देकर जागरूक बनाना और नए नए रिसर्च और ज्ञान से लोगों को शिक्षित करना ही मीडिया का प्रमुख कार्य है। पत्रकार informed people होता है। वह उन लोगों तक सूचनाएं पहुंचाता है जिनके पास तक जानकारी नहीं होती। इसके लिए वह अलग अलग तरह के मीडिया का इस्तेमाल करता है चाहे सबसे पुराना प्रिंट मीडिया हो, बाद में आया आडियो और विजुअल मीडिया हो या फिर सबसे नया न्यू मीडिया हो।

हमारे सामने बड़े खतरे
हर पीढ़ी अगली पीढ़ी को विरासत में काफी कुछ देकर जाती है। इस विरासत में होता है ज्ञानविज्ञानधन और प्राकृतिक संसाधन यानी natural resources लेकिन आजकल हम लोग जिस तेजी से संसाधनों का दोहन कर रहे हैं बड़ा सवाल है कि अगली पीढ़ी को क्या देकर जाएंगे।
पर्यावरण जागरूकता में मीडिया की भूमिका
प्राकृतिक संसाधनों का दोहन कर रहे हैं बड़ा सवाल है कि हम आने वाली पीढ़ी को क्या देकर जाएंगे। बड़े खतरे हैं आने वाली पीढ़ी के पास हो सकता है पीने लिए पानी न होखाने के लिए अनाज कम पड़ जाएसांस लेने के लिए हवा भी न हो। जैसे जैसे धरती पर आबादी का बोझ बढ़ता जा रहा हैहवापानीजमीन की उपलब्धता कम होती जा रही है। प्रकृति से मिलने वाले हर तरह के संसाधनों का तेजी से दोहन जारी है। दुनिया संकट से जूझ रही है। पहाड़ लगातार पिघल रहे हैं। जंगल काटे जा रहे हैं। नदियों में पानी घट रहा है। खेतों को पर्याप्त पानी नहीं नहीं मिल रहा है। हर साल हजारों लोग पानी के अभाव में दम तोड़ रहे हैं। जिस गति से डीजल और पेट्रोल का इस्तेमाल हो रहा है आने वाली पीढी को वाहनों के तेल भी नहीं मिलेगा। ऐसे तमाम खतरों के प्रति लोगों को जागरूक करने में मीडिया की बड़ी भूमिका हो सकती है। लोगों को लगातार जागरूक कर हम एक सुंदर दुनिया बना सकते हैं।
CRISIS WE ARE FACING 
CLEAN AIR to take breaths
WATER - FOR DRINKING, FOR IRRIGATION
OIL – FOR TRANSPORTATION
FOOD – PRODUCTION OF GRAIN IS LIMITED
जागरूकता अभियान
समाज पत्रकारों अब नए शब्द में कहें तो मीडिया वालों की ओर बड़े सम्मान भरी नजर से देखता है। उनसे सवाल भी पूछता और समाधान की उम्मीद भी रखता है। अलग मीडिया के लिए काम करने वाले पत्रकार अपनी कलम से और अपनी आवाज से हर किसी से सवाल पूछते हैंसाथ ही हर किसी के कामकाज पर उंगली भी उठाते हैं। इसे वे अपने प्रोफेशन का धर्म मानते हैं। लेकिन जब आप दूसरों के चाल चरित्र और चेहरे पर सवाल खड़े करते हो तो आपसे भी उम्मीद की जाती है। न सिर्फ साफ सुथरे चरित्र की उम्मीद का जीता है बल्कि समाज को बेहतर बनाने में आपकी भागीदारी की भी उम्मीद की जाती है। एक अच्छे मीडिया कर्मी का काम सिर्फ सवाल खड़े करने का ही नहीं बल्कि सवालों का समाधान ढूंढने में भी उसकी भूमिका होनी चाहिए।
आज जर्नलिस्ट खुद को मीडिया प्रोफेशनल कहता है। वह अच्छी खासी फीस देकर पढाई करता है। पढ़ाई के बाद अच्छे वेतन वाली नौकरी की भी उम्मीद करता है। लेकिन प्रोफेशनल होने के साथ ये बहुत जरूरी है कि हम अपने प्रोफेशन के साथ नैतिकता ( Ethics )  और मूल्य  ( Values )  का भी ख्याल रखें। जैसे एक डाक्टर फीस लेकर इलाज करता है लेकिन मरीज की जान बचाना उसके प्रोफेशन का पुनीत कर्तव्य माना जाता है। एक वकील से सच का साथ देने की उम्मीद की जाती है लेकिन एक पत्रकार से उम्मीद बहुत ज्यादा होती हैं। मीडिया से जुड़ा व्यक्ति न सिर्फ समाज के अलग अलग तबकों की बुराइयों पर ऊंगली उठाता है उन्हें दूर करने के लिए लगातार लोगों को जागरूक करता है बल्कि वह लगातार एक सुंदर समाज और सुंदर दुनिया ( JUST WORLD ) रचने की कोशिश में लगा रहता है।

JOURNALIST FOR JUST WORLD
-    ALWAYS TRY TO CREATE AWARENESS AMONGST PEOPLE WITH YOUR WRITINGS.

-    WHILE WORKING IN PRINT MEDIA SELECT POSITIVE NEWS FOR PUBLICATION

-    WHILE WORKING IN TV OR RADIO GIVE SPACE TO ENVIRONMENT RELATED NEWS, RESEARCH. 

-    NOT ONLY JOURNALIST TRY TO BE ACTIVIST TO SAVE EARTH

-    USE POWER OF SOCIAL MEDIA TO CREATE AWARENSS

घर से करें शुरुआत - अब सवाल उठता है कि पत्रकार कैसे अपनी भूमिका तय करे। धरती को बचाने में और लोगों के सामने नजीर खड़े करने में पत्रकारों की कई तरह से भूमिका हो सकती है। पहली भूमिका तो व्यक्तिगत ( Individual )  तौर पर होगी। यानी घर से निकलने और घर वापस आने तक बिजली बचानेग्लोबल वार्मिंग से खतरों से आगाह करने और हरियाली को बचाने रखने की कोशिश में लगे रहना।
अंधकार क्यों धिक्कारें अच्छा हो कि एक दीपक  जलाएं.
यानी शुरूआत खुद से करनी होगी। आज पत्रकारिता में स्पेशलाइजेशन का दौर है। हर पत्रकार किसी न किसी विषय में ज्यादा जानकारी रखता है। कोई राजनीतिकोई अपराधकोई खेलकोई बिजनेसकोई फिल्म टीवी का जानकार है। पर्यावरण भी बहुत बड़ा विषय हो सकता है। इस क्षेत्र में कम पत्रकार हैं। मैं सुंदर लाल बहुगुणाअनुपम मिश्र और भारत डोगरा जैसे कुछ नाम ले सकता हूं। अभी इस कड़ी और भी नए नाम जोड़े जा सकते हैं।

प्रिंट मीडिया में भूमिका - आप अखबारों में लेख लिखकर लोगों को जागरूक बना सकते हैं। अगर लेख नहीं छपता हो तो वेब पोर्टल बना सकते हैं। छोटे छोटे पर्चे निकाल सकते हैं। अपने मुहल्ले में छोटे छोटे सेमिनार और गोष्ठियां करवा सकते हैं। जागरूकता रैली और हरियाली लाने के अभियान से जुड़े दूसरे कई तरह के आयोजनों के अगुवा या फिर हिस्सेदार बन सकते हैं।

जब आप किसी प्रिंट मीडिया में नौकरी कर रहे होते हैं तब आप खबरों के चयन में पर्यावरण से जुडी खबरों के प्रमुखता दे सकते हैं। हालांकि खबरों के डिस्प्ले में संपादक और मैनैजमेंट हावी होता है। वह तय करता है कि हमें पूनम पांडे की एक हाट तस्वीर छापनी है या फिर किसी जागरूकता रैली की तस्वीर। लेकिन एक पत्रकार के नाते आप इतना जरूर कर सकते हैं कि लोगों को जागरूक करने वाली सही संदेश देने वाली खबरों को डस्टबिन में नहीं जाने दें। जब आप फैसला लेने की स्थिति में आएं तो ऐसी खबरों को खास तवज्जों दें जिनसे हजारों लाखों लोगों की जिंदगी के सरोकार जुड़े हुए हैं....
किसी शायर ने कहा है कि – तुम शौक से मनाओ जश्ने बहार यारों...इस रोशनी में लेकिन में कुछ घर जल रहे हैं... पेज पत्रकारिता के दौर में भी हम दुनिया को बचाए रखने वाली खबरों के लिए जगह बना सकते हैं।

टीवी में भूमिका - जब आप टीवी के लिए खबरों को चयन कर रहे होते है तब भी ऐसी मजबूरियां आती हैं। बॉस बोलेगा बिकाउ खबरें चाहिए...बेशक ऐसी खबरें चलेंगी लेकिन दिन भर चलने वाली खबरों में कुछ अच्छी खबरों के लिए भी जगह खूब निकाली जा सकती है। दुनिया के कोने कोने से कई ऐसी खबरें आती हैं जो धरती पर मंडरा रहे खतरे से जुडी होती है।
 नए मीडिया में भूमिका 
आप खुद को एक पत्रकार के रूप में  ही नहीं बल्कि उससे कुछ आगे बढ़कर देखें। आजादी के आंदोलन के समय पत्रकारों के सामने चुनौती थी देश को आजाद कराने की। तब पत्रकारिता एक मिशन थी। आज पत्रकारों के सामने देश चुनौती नहीं है। पूरी दुनिया ही चुनौती है। चुनौती है इस धरती को बचाए रखने की। जिससे कि आने वाले दिनों में पैदा होने वाले हमारा बच्चाभाईबहनखुली हवा में सांस ले सके।
जरूरत है कि आप जर्नलिस्ट के साथ एक्टिविस्ट हों। कुछ नए उदाहरण हमारे समाने हैं कई पत्रकार कई सालों की सक्रिय पत्रकारिता के बाद अन्ना हजारे या बाबा रामदेव के आंदोलन के साथ जुड़ गए हैं। आप ब्लागर बनकरफेसबुक जैसी सोशल नेटवर्किंग साइट्स का सहारा लेकर भी SOCIAL CAUSE के लिए CAMPAIGN चला सकते हैं।
 SOME EFFORTS BY MEDIA

-    ROLE OF PRINT MEDIA– SAVE WATER CAMPAIGN BY DAINIK BHASKAR
-    ROLE OF TV MEDIA - NDTV Toyota Green campaign

-    NATION WIDE CHETNA YATRA BY CABLE OPRETORS ASSOCIATION

-    ROLE OF NEW MEDIA - WATER PORTAL TO SAVE WATER AND OTHER WEBSITES INFROMING PEOPLE ABOUT CRISIS
अब हम बात करेंगे कुछ ऐसे अभियानों को जो अलग अलग मीडिया ने पर्यावरण को बचाने के लिए चलाए हैं। सबसे पहले बात करते हैं प्रिंट मीडिया की। वैसे तो अखबारों में अच्छी और बुरी खबरें छपती रहती हैं। लेकिन गर्मी आने के साथ ही हिंदुस्तान के अलग अलग राज्यों में पानी की भारी कमी हो जाती है। दिल्ली से कुछ सौ किलोमीटर दूर चंबल में जाकर देखिए। कई साल वहां दर्जनों लोग प्यास से तड़प कर मर चुके हैं। लेकिन जहां पानी है वहां लोग जमकर पानी बर्बाद करते हैं।
प्रिंट मीडिया - दैनिक भास्कर का अभियान
देश के सबसे बड़ा अखबार समूह दैनिक भास्कर पिछले कई सालों से पानी बचाओ ( SAVE WATER ) अभियान चला रहा है। इसके लिए अखबार के पहले पन्ने और अंदर के पन्नों पर पानी के संकट पानी बचाने के तरीकों से जुड़ी खबरें खास तौर पर छापी जाती हैं। लेकिन अखबार सिर्फ इतना ही नहीं करता। अपनी सामाजिक जिम्मेवारी को समझते हुए देश के अलग अलग राज्यों के सैकड़ो शहरों में जागरूकता रैलियांस्कूलों कालेजों में पानी बचाओ अभियान चलाता है। जल संरक्षण पर छोटी छोटी पुस्तकें प्रकाशित करता है। पानी बचाने के लेकर कविताओं के माध्यम से मार्मिक अपील की जाती है।
भास्कर समूह के जल बचाओ  कल बचाओ अभियान में सामाजिक संगठनोंकम्युनिटी रेडियो स्टेशन की सहायता ली जा रही है। पूरे अभियान में इस बात को प्रमुखता से रखा गया है कि अगर आज हमने पानी नहीं बचाया तो तीसरा विश्वयुद्ध पानी के लिए ही लड़ा जाएगा।
सूखी होली का संकल्प - इस साल दैनिक भास्कर समूह ने देश में भर में लोगों रंग भरी होली की जगह सूखी होली खेलने की आह्वान किया। सूखी होली यानी सिर्फ गुलाल से होली। कई शहरों में बड़ी संख्या में छात्र छात्राओं ने सूखी होली यानी तिलक होली खेलने का संकल्प लिया।

डाउन टू अर्थ ( DOWN TO EARTH )
सेंटर फार साइंस एंड एनवारनमेंट कई सालों से एक पाक्षिक पत्रिका निकालता है डाउन टू अर्थ। पत्रिका के हर अंक में पर्यावरण से जुड़े मुद्दों पर शोधपरक लेख और जागरूकता अभियानों की खबरें होती हैं।

कम्यूनिटी रोडियो का अभियान
हरियाणा के सिरसा का एक उदाहरण लेते हैं। सिरसा के सामुदयिक रेडियो स्टेशन 90.4 एफएम पर कार्यक्रम हैलो सिरसा के माध्यम से कई सालों से जल बचाओ अभियान चलाया जा रहा । सुरेंद्र कुमार ‘‘जल बचाओं अभियान‘‘ से पिछले 11 सालों जुड़े हुए है। जल संरक्षण के लिए वे कई शहरों में जाकर छात्रों को जागरूक करते हैं।
कुछ सच्चाइयां – ( SOME FACTS )
-    धरती पर 71 फीसदी पानी है लेकिन पीने लायक सिर्फ एक फीसदी।
-    अगर सरकार किसी व्यक्ति को एक लीटर साफ जल उपलब्ध करवाती है तो उस पर रूपए खर्चा आता है।
देश के 33 फीसदी हिस्से में जंगल होने चाहिएं लेकिन आज मात्र 20 फीसदी ही जंगल बचे हैं।
टीवी मीडिया  - एनडीटीवी का अभियान
अप्रैल 2008 में देश के प्रमुख टीवी चैनल समूह एनडीटीवी ने शुरू किया एक अनूठ अभियान। एनडीटीवी टोयोटा ग्रीन अभियान में लगातार 24 घंटे का कार्यक्रम चलाया गया। इसमें नामी गिरामी हस्तियों ने हिस्सा लिया। लोगों को पर्यावरण के मुद्दों के बारे में जागरूक करने की एक कोशिश थी। अभियान के साथ थे नोबेल पुरस्कार विजेता डॉ. आर.के. पचौरीतब पर्यावरण मंत्री जयराम रमेश और कई फिल्मी सितारे भी। 
चैनल के के ग्रीनएथान अभियान के माध्यम से सौर उर्जा से गांवों के जगमग करने की कोशिश की गई। पहले साल के अभियान से 56 गांवों तो दूसरे साल के अभियान से 115 गांवों में सौर उर्जा से रातों को उजाला किया गया।

केबल आपरेटर एसोसिएशन का सार्थक प्रयास
देश में केबल टीवी का बड़ा नेटवर्क है। आज मोबाइल फोनटीवीकंप्यूटर के माध्यम से भी बड़ी मात्रा में इलेक्ट्रानिक कचरा निकल रहा हैजो लोगों के लिए बड़ा हानिकारक है। लेकिन इन सबके के बीच केबल टीवी आपरेटरों का एक बड़ा संगठन हर साल राष्ट्रीय स्तर पर चेतना यात्रा निकालता है। देश भर के केबल आपरेटरों के संगठन को एक साथ जोड़ने की कोशिश के साथ ही चेतना यात्रा के अभियान में हर शहर में लगाए जाते हैं पौधे। EVERY STEP IS A GREEN STEP इस लक्ष्य के साथ देश के चेतना यात्रा देश के हर राज्य में पांच हजार किलोमीटर से ज्यादा का सफर तय कर चुकी है।  

न्यू मीडिया की भूमिका 
जंगलजमीनपानीहवा के बचाने में सिर्फ टीवी रेडियो की ही बल्कि न्यू मीडिया की भी भूमिका हो सकती है। कई संगठन इसका बखूबी इस्तेमाल भी कर रहे हैं। वेबसाइटस पर वाटर पोर्टल चलाया जा रहा है।
http://hindi.indiawaterportal.org/  वेबसाइट पर  जाएं। यहां आपके पानी बचाने से जुड़ी हर कंपेन के बारे में विस्तार से जानकारी मिलेगी। पानी बचाने से जुड़े कई नए शोधदेश भर के अखबारों मे छपने वाली खबरों की क्लिपिंग यहां मौजूद है। ये पोर्टल पानी बचाने को लेकर चलाए जा रहे हर तरह के प्रयासों की एक खिड़की है। ग्लोबल वार्मिंग के खतरों से आगाह करने के लिए जानकारी परक शोध देखने के लिए आप www.ffifts.org साइट पर जा सकते है। ये साइट दुनिया की कई दर्जन भाषाओं में जानकारी उपलब्ध कराती है। वहीं मीडिया स्टडीज से जुड़े छात्र अब पर्यावरण पर अपने कंपेन को आगे बढाने के लिए सोशल नेटवर्किंग साइट्स का सहारा ले सकते हैं और उस पर अपनी पसंद का समूह बना सकते हैं। अपने विचार लोगों तक शेयर कर सकते हैं। लेकिन इस पहले आइए कर लेते हैं एक और बात।
प्रिंट मीडिया बनाम डिजिटल मीडिया-
अभी तक ट्रेडिशनल मीडिया पर इको फ्रेंडली नही होने के आरोप लगते रहे हैं। कहा जाता है कि तीन हजार ए साइज के पेपर का उत्पादन करने के लिए एक पेड़ काट देना पड़ता है। दुनिया के कई बड़े अखबार वेब मीडिया और डिजिटल संस्करणों के सामने घुटने टेक रहे हैं। भविष्य में लोग अखबार अपने टैबलेट पीसी पर पढ़ लेंगे किताबें ई बुक्स का शक्ल लेती जा रही हैं। कुछ दिन पहले एंसाइक्लोपिडिया ब्रिटेनिका ने अपना प्रकाशन बंद करने की  घोषणा कर दी है। यानी हर साल इसका प्रिंट संस्करण अब नहीं छपेगा। क्योंकि अब ज्यादातर लोग संदर्भ के लिए गूगल या दूसरे सर्च इंजनों का सहारा ले रहे हैं। लेकिन क्या डिजिटल मीडिया इको फ्रेंडली है।
जवाब मिलेगा नहीं। डिजिटल मीडिया भी कटघरे में खड़ा है। बडी मात्रा में बिजली बर्बाद करने का आरोप है। कार्बन उत्सर्जन का इमीशन का आरोप है। साथ ही बडी मात्रा में इ कचरा फैलाने का भी आरोप है।

पर्यावरण पर बुरा प्रभाव केवल औद्योगिक और यातायात प्रदूषण से ही नहीं पड़ रहाबल्कि इंटरनेट में इस्तेमाल होने वाली अनावश्यक बिजली के कारण कुछ बुरे असर देखने को मिल रहे हैं। दुनिया भर में बैठे नेट सर्फर्स एक कमांड पर मनचाही सूचना पाना चाहते हैंलेकिन उस प्रोसेस में सर्वरों को कितनी मशक्कत करनी पड़ती हैक्या आपको पता है...
हार्वर्ड विश्वविद्यालय के भौतिक विज्ञानी डॉ़ एलेक्स विजनर-ग्रॉस का शोध -
गूगल पर दो बार खोज करने से लगभग उतनी ही कार्बन डाई ऑक्साइड पैदा होती है जितनी कि एक कप चाय उबालने में। यानी 15 ग्राम कार्बन डाई ऑक्साइड।
हालांकि गूगल ने सफाई दी और कहा 0.2 ग्राम कार्बन का ईमीशन होता है। जब हम कांप्लेक्स सर्च करते हैं तो एक ग्राम से लेकर दस ग्राम के कार्बन ईमीशन होता है।
जर्मन इंटरनेट कंपनी स्ट्राटो ने 2007 में गूगल के डेटा सेंटरोंसर्वरों और खोज अनुरोधों की गणना कर बताया था कि एक गूगल सर्च पर खर्च होने वाली बिजली से 11 वाट का सीएफएल बल्ब एक घंटे तक जल सकता है। इसका मतलब हुआ है कि आप और हम जब एकाध घंटे इंटरनेट का इस्तेमाल करके उठते हैं तब तक हम ग्लोबल वार्मिंग को बढ़ा रहे होते हैंहालांकि हमें इसका जरा भी अहसास नहीं होता। यू-ट्यूब के भारी-भरकम वीडियो और बड़े पैमाने पर डाउनलोड किए जा रहे म्यूजिक वीडियो से सभी पर्यावरण को सीधा नुकसान हो रहा है।
बड़े बड़े डाटा सेंटर और सर्वर दिन-रात दुनिया भर के नेट-सर्फरों की फरमाइशें पूरी कर रहे हैं। यूजर और वेब होस्टिंग के डेटा सेंटर में लगे हजारों सर्वर और इनके माइक्रो प्रोसेसर बड़ी मात्रा में बिजली की खपत करते हैं और उनसे ग्लोबल वार्मि बढ़ रही है। इस गर्मी को दबाने के लिए बड़ी संख्या में एअर कंडीशनर लगाए जातेहैं। ये डेटा सेंटरों का ठंडा रखते हैंलेकिन बाहर बड़ी मात्रा में गर्म गैसें भेजते हैं। इनमें इस्तेमाल होने वाली बिजली के उत्पादन में कोयलागैस का प्रयोग होता है जो दुबारा ग्लोबल वार्मिंग को बढ़ाता है।
कैलीफॉर्निया की लारेंस बर्कले नेशनल लैब के आंकडे के मुताबिक सिर्फ अमेरिका के डेटा सेंटरों में सन 2006 में लगभग 61 अरब किलोवाट बिजली खर्च हुई थी। इतनी बिजली से पूरे इंग्लैंड को दो महीने तक रोशन रखा जा सकता है। तो पूरी दुनिया के डेटा सेंटर कितनी ऊर्जा पी रहे होंगेउनके साथ-साथ इन कंपनियों के रिसर्च एंड डेवलपमेंट सेंटर और अब क्लाउड कंप्यूटिंग के सर्वरों को भी जोड़कर देखिए। कहते हैं कि गूगल के अपने हेड क्वार्टर यानी गूगल कॉम्प्लैक्स में ही कैलीफोर्निया के 3,333 घरों के बराबर बिजली खर्च होती है।
यूं ग्लोबल वार्मिंग में हमारी हिस्सेदारी उसी समय शुरू हो जाती है जब हम अपना कंप्यूटर ऑन करते हैं। कंप्यूटर चालू होने पर लगभग 175 वाट बिजली की खपत होती है। उसके बाद हमारे निजी कंप्यूटर नेटवर्कब्रॉडबैंड नेटवर्कविभिन्न देशों के इंटरनेट गेटवे और अंत में संबंधित वेबसाइट के सर्वर तक सब में बिजली की खपत हो रही है।
एक सामान्य वेबसाइट को देखने में हम अलग अलग स्तरों पर प्रति सैकंड लगभग बीस मिलीग्राम कार्बन डाई ऑक्साइड को जन्म  देते हैं। अगर वेबसाइट में वीडियोसंगीतएनीमेशन आदि हैं तो यही आंकड़ा 300 मिलीग्राम प्रति सैकंड तक हो सकता है।     - डॉ़ विजनर ग्रॉस

सैकंड लाइफ’ जैसी वर्चुअल रियलिटी गेम वेबसाइट में अगर आप मौजूद है तो उससे सालाना 1752 किलोवाट घंटे बिजली खर्च हो रही है।
निकोलस कार ( बिग स्विच’ के लेखक)
यानी जिस तेजी से इंटरनेट की क्षमता और कनेक्टेड’ लोगों की संख्या बढ़ रही हैउसी अनुपात से पर्यावरण पर बोझ बढ़ता चला जाता है।
ग्रीन इंटरनेट की जरूरत 
हालांकि आईटी कंपनियां कार्बन न्यूट्रल’ बनने कोशिश में लगी हैं। यानी कार्बन डाई ऑक्साइड से हुए नुकसान की भरपाई के लिए ग्रीन’ डेटा सेंटरों के विकास की परियोजना शुरू की है। ज्यादा बिजली फूंकने वाले कंप्यूटरों को बदला जा रहा है। नेटवर्किंग कंपनियां इको फ्रेंडली डेटा सेंटर बनाने में लगी हैं।
वक्त के साथ चलिए ( CONCLUSION )
इंटरनेट लंबे समय तक हमारा साथ निभाए इसके लिए जरूरी है कि प्रकृति के साथ उसका तालमेल बन रहे । इस कोशिश में हर व्यक्ति को हाथ बंटाना होगा। तो क्या हमें कंप्यूटर का इस्तेमाल बंद कर देना चाहिए। नहीं हमें जरूरत है इस बारे में जागरूक होने की। 
अगर 20 मिनट से ज्यादा वक्त के लिए कंप्यूटर का इस्तेमाल नहीं करना हो तो मॉनिटर बंद कर दें।
रंगबिरंगे स्क्रीन सेवर से बिजली की बचत नहीं होतीबल्कि कई मौकों पर तो खपत बढ़ जाती है।
हमें देखना होगा कि कंप्यूटर और इंटरनेट गैर जरूरी इस्तेमाल न हो। सिर्फ अपनी बिजली और इंटरनेट बिल बचाने के लिए ही नहीं बल्कि दुनिया को पर्यावरण के खतरे से बचाने को लिहाज से कंप्यूटर का जरूरत भर ही इस्तेमाल होना चाहिए।

-   विद्युत प्रकाश मौर्य  
Contact - vidyutp@gmail.com


( This Paper Presented in National seminar at Tecnia institute of advance studies ( IP Uni.) Delhi on  23 March 2012)

Wednesday 17 July 2013

रसोई गैस का विकल्प

रसोई गैस की कीमतें आसमान छू रही हैं। फिलहाल ये 400 रूपये प्रति सिलेंडर से ज्यादा हो गई हैं। वहीं सरकार और सब्सिडी घटाने की योजना रखती है। माना जा रहा है कि एक गैस सिलेंडर की कीमत 800 रूपये पहुंच सकती है। वहीं सरकार आम लोगों को साल में कुछ निश्चित सिलेंडर ही रियायती मूल्य पर देने की योजना लाने वाली है। अगर ये योजना लागू हो जाती है तो एक घरेलू उपभोक्ता को सिर्फ चार सिलेंडर ही रियायती दरों पर मिला करेंगे। उसके बाद बाद के सिलेंडर के लिए बाजार दर यानी 800 रूपये तक देना पड़ सकता है। ऐसे में ये जरूरी हो गया है कि रसोई गैस के दूसरे विकल्पों के बारे में गंभीरता से सोचा जाए। अब कई गांवों तक गैस कनेक्शन पहुंचा दिया गया है। लेकिन गैस पर खत्म होने वाली सब्सिडी का असर सभी जगहों पर पड़ेगा।

 रसोई गैस की किल्लत से निपटने के लिए गुजरात के कच्छ जिले के गंगापर गांव के लोगों ने अनूठा इंतजाम किया है। इस गांव में गोबर गैस प्लांट की स्थापना की गई है। ये प्लांट गांव के 60 घरों के लोगों को महज 20 रूपये मासिक मासिक पर चार घंटे गैस की सप्लाई दे रही है। गैस की सप्लाई का समय सुबह 10 से 12 बजे और शाम 7 से नौ बजे तक रखा गया है। गोबर गैस प्लांट की स्थापना में 25 लाख रूपये खर्च आया है जिसमें मिनिस्ट्री और नेचुरल रिसोर्सेज ने 90 फीसदी सब्सिडी दी है। ये गैस प्लांट शहर के पीएनजी से मिलता जुलता है। गांव के हर घर को पाइप से गैस की सप्लाई की जा रही है। गांव में बने इस गैस प्लांट से गांव के कई लोगों को रोजगार भी मिल सका है। अमूमन हर गांव में इतने पशु होते हैं जिससे कि गोबर गैस प्लांट की स्थापना की जा सकती है। गुजरात के भुज जिले के इस गांव के माडल को अब दूसरे गांव भी अपना सकते हैं।

वैसे तो गोबर गैस प्लांट लगाने का प्रोजेट बहुत पुराना है। लेकिन गांव में वही लोग अपना स्वतंत्र गोबर गैस प्लांट लगा पाते हैं जिनके पास जानवरों की संख्या 4-6 से ज्यादा हो। लेकिन गांव में कम्यूनिटी गोबर गैस प्लांट लगाने के इस प्रोजेक्ट से पूरे गांव लोगों को फायदा होगा। गुजरात के इस प्रोजेक्ट को देश के उन तमाम गांवों में लागू किया जा सकता है जहां भी लोगों के पास पशु संपदा है। वैसे गांव जहां 50 से अधिक घर हैं ऐसे प्लांट बड़े आराम से लगाए जा सकते हैं। ऐसे प्लांट लगाए जाने से गांव के लोगों लकड़ी और गोबर के उपलों से चलने वाले चूल्हे से छुटकारा मिल सकता है। साथ ही धुआं रहित रसोई घर में गृहणियां अपनी मनमाफिक खाना बना सकती हैं। गांव में बड़ी संख्या में महिलाएं लकड़ी और उपले पर खाना बनाने के कारण सांस की बीमारियों का शिकार होती हैं उन्हें भी गोबर गैस के चुल्हे के कारण ऐसी बीमारियों से निजात मिल सकती है। साथ ही गांव के लोगों को शहर के गैस सप्लाई की तरह खाना बनाने का एक सस्ता विकल्प मिल सकेगा। जरूरत है तो बस इस प्रोजेक्ट का प्रचार प्रसार करने की।

-   -------- विद्युत प्रकाश मौर्य