Saturday 22 January 2011

एके हंगल साहब का दर्द

फिल्मों के लोकप्रिय अभिनेता एके हंगल बीमार हैं। वे 95साल के हैं। उनका दर्द है कि वे तंगहाल हैं। उनको मदद की जरुरत है लेकिन फिल्म इंडस्ट्री के लोग उनकी मदद नहीं कर रहे हैं। हंगल ने 200 फिल्मों में चरित्र अभिनेता के तौर पर काम किया। अमिताभ बच्चन, अशोक कुमार से लेकर सभी बड़े सितारों के साथ काम किया।

वे इप्टा से जुडे थियेटर आर्टिस्ट रहे। जाहिर 95 साल की उम्र में उन्होंने कई पीढ़ियों को देखा है। लेकिन ये फिल्म इंडस्ट्री का पुराना दस्तूर है, पुराने लोगों को नई पीढ़ी तो दूर उनके साथ के लोग भी भूल जाते हैं। इसलिए हर स्टार कलाकार को अपना बुढापा संरक्षित रखने के लिए धन संचय करना चाहिए। विपत्ती काल के लिए धन संचय करना चाहिए। हंगल साहब ने 200 फिल्मों में काम किया, भले ही लोग लोग उन्हें याद रखते हों लेकिन उन्होंने अपना बुढापा सुरक्षित रखने के लिए धन नहीं जमा किय़ा। 

एके हंगल तो चरित्र अभिनेता रहे। कई नामचीन अभिनेता अभिनेत्री भी बुढापे में एकाकी जीवन जीने को मजबूर हैं। किसी जमाने के सुपर स्टार रहे राजेश खन्ना के साथ आज उनका परिवार नहीं है। पुराने जमाने के सितारे विश्वजीत एक बार मुंबई की सड़कों पर निकले तो किसी ने उन्हें पहचाना नहीं। कई बड़े कलाकार जीवित हैं लेकिन वे सक्रिय नहीं है, फिल्मी पार्टियों में नकली चेहरा लगाकर नहीं घूमते तो कोई उन्हें नहीं जानता। अच्छा तो यही हो कि फिल्मी सितारों को बुढ़ापे में खैरात मांगने की नौबत नहीं आए। आम तौर पर सितारे अपने हिट फिल्मों के दौर में ग्लैमर ओढ़ कर जीते हैं लेकिन जब कई सालतक फिल्में नहीं मिलती तब जीवन मुश्किल हो जाता है। शाहखर्ची जारी रहती है लेकिन आमदनी का स्रोत नहीं होता। इसलिए सितारों को भी कालकुलेटेड जिंदगी जीनी चाहिए। किसी जमाने की लोकप्रिय कलाकार जोहरा सहगल 98 साल की हो गई हैं।

 दिल्ली में अपनी ओडिसी डांसर बेटी किरण सहगल के साथ रहती हैं। कभी कभी अपने विश्व बैंक काम करने वाले बेटे के पास भी उड़ कर चली जाती हैं। पिछले 13 सालों से मैं उनके परिवार के संपर्क में रहकर जानता हूं, कि वे बिंदास जिंदगी जीती हैं। अब हंगल साहब से साहनुभूति दिखाने फिल्मी कलाकार और संस्थाएं आईं हैं लेकिन ये दौर किसी के जीवन में न ही आए तो कितना अच्छा हो...  ( 26 अगस्त 2012 को एके हंगल का निधन हो गया ) 
- विद्युत प्रकाश मौर्य


Friday 14 January 2011

मल्टीप्लेक्स में छाई वीरानगी

कई सालों बाद एक बार फिर दिल्ली के किसी मॉल में जाकर फिल्म देखने की सोची । अपने नन्हे बेटे को हॉलीवुड की लोकप्रिय फिल्म गुलिवर ट्रेवेल्स दिखाना चाहता था। सो मैं पहुंच गया पीवीआर के थ्री स्क्रीन मल्टीप्लेक्स में। जैसे ही मैंने फिल्म के लिए दो टिकटों की मांग की, काउंटर पर बैठी बाला ने आग्रह किया है कि आप थोड़ी देर इंतजार करें...हो सकता है शो नहीं चल पाए। मैंने पूछा क्यों....दरअसल अभी तक इस शो के लिए एक भी टिकट नहीं बिका है। 

काउंटर गर्ल ने बताया कि कमसे कम छह टिकटें बिकने पर ही हम शो शुरू कर पाएंगे। खैर मैंने शापिंग मॉल की तीसरी मंजिल पर बने मल्टीप्लेक्स के आसपास के रेस्टोरेंट में चहलकदमी शुरू कर दी। फिल्म शुरू होने से पांच मिनट पहले फिर काउंटर पर पहुंचा। अब मुझे खुशी हुई फिल्म शुरू होगी। टिकट लेकर अंदर जाने पर पता चला कि फिल्म देखने वाले हम कुल चार लोग थे। फिल्म शुरू होने पर दो लोग और पहुंचे। यानी कुल छह लोगों ने मिलकर फिल्म देखी।

दिल्ली के कई बड़े मॉल में खुले सिनेमाघरों का यही हाल है। यहां दर्शक नहीं जुटते। टिकट दरें बहुत ऊंची हैं। सौ से दौ सौ रूपये तक...सिनेमाघर ज्यादा बन गए हैं। दर्शक कम हैं...जो फिल्म ज्यादा नहीं चलती है। कुछ हफ्ते बाद ही उसका असली डीवीडी आ जाता है बाजार में..वह भी बिल्कुल सस्ते में...ऐसे में आखिर महंगी फिल्में लोग देखें भी कैसे...छोटे शहरों के सिंगल स्क्रीन सिनेमाघर में भी कभी शो कैंसिल होने की बात नहीं सुनी। अगर कैंसिल हो तो दर्शक हंगामा कर दें। लेकिन मल्टीप्लेक्स में अक्सर शो कैंसिल हो रहे हैं।

आप घर तैयार होकर फिल्म देखने जाएं और हो सकता है कि आपकी पसंद की फिल्म का शो ही नहीं हो। ऐसे हालत तब हैं जबकि आज टिकट बुक करने के लिए टेली बुकिंग और 24 घंटे ऑनलाइन बुकिंग का भी विकल्प मौजूद है।
 

- विद्युत प्रकाश मौर्य  


Monday 3 January 2011

यादें अतुल माहेश्वरी जी की...

मैं अपने जालंधर के दिन याद करता हूं तो अतुल माहेश्वरी याद आते हैं। नवंबर 1999 में हमने अमर उजाला में योगदान किया था। अमर उजाला के पंजाब संस्करण की लांचिंग के दौरान अतुल माहेश्वरी जी संपादकीय विभाग के लोगों के साथ कई बैठकें लीं। इस दौरान उनकी दूर दृष्टि पत्रकारीय कौशल और एक सह्रजय मालिक का रूप देखने को मिला। ये सहज भरोसा करना मुश्किल है कि 55 साल की उम्र में एक बड़ा संपादक और बड़े समाचार पत्र समूह का मालिक इस दुनिया को अलविदा कह गया। 

कहा जाता है कि हिंदी पट्टी के पत्रकारों को अच्छा वेतन, कार्य स्थल पर सम्मान देने की परंपरा अतुल माहेश्वरी ने शुरू की, जिसके लिए हजारों पत्रकार जिन्होंने अमर उजाला के अलग अलग संस्करणों में कार्य किया, हमेशा ऋणी रहेंगे। न सिर्फ एक अखबार के मालिक बल्कि अतुल माहेश्वरी की खबरों की समझ भी काफी अच्छी थी। वे अपने अखबार के सभी पन्नों की हर छोटी बड़ी खबर देख लिया करते थे।

मीटिंग, सभा समारोह में स्टाफ के साथ ऐसे घुले मिले होते थे जिसमें मालिक नौकर जैसा कोई भेदभाव नहीं दिखाई देता था। जूनियर स्टाफ भी अपनी समस्याओं को लेकर उनसे बड़ी आसानी से मिल सकता था। वे लोगों की समस्याएं सुनते थे और हर संभव मदद और निदान भी करते थे। सैकड़ों पत्रकारों के पास उनकी सह्रदयता के हजारों किस्से हो सकते हैं। मुझे अमर उजाला की दो बैठकें याद आती हैं जब उन्होंने अखबार की बेहतरी के लिए सबको खुलकर सुझाव देने को कहा। सबके सुझावों को उन्होंने गंभीरता से सुना। अमर उजाला में एक जूनियर पत्रकार भी पूरा सम्मान पाता है। समाचार पत्र समूह ये सुंदर परंपरा अतुल माहेश्वरी जैसे मालिकों की बदौलत ही आ सकी है। 
( फोटो- सौजन्य- हिमाचल आनलाइन- ब्लॉग )