Monday 31 August 2020

भारतीय संस्कृति में लॉकडाउन की पुरानी परंपरा

आज हम भले ही कोराना महामारी के भय से लॉकडाउन में जीने को मजबूर हुए हैं पर भारतीय संस्कृति में लॉकडाउन की पुरानी परंपरा रही है। पर ये लॉकडाउन किसी डर के कारण नहीं थी। बल्कि सेहत और सामाजिकता को ध्यान में रखकर बनाई गई है।

साल में दो बार नवरात्र आते हैं। इस दौरान फलहार पर रहने की परंपरा है। यानी पके हुए अनाज नहीं खाना। सुना है कि अपने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी तो इस दौरान सिर्फ नींबू पानी पर रहते हैं। ये अलग बात  कि शहरों में पैसे वाले घरों की महिलाएं इस दौरान कुट्टू का आटा, सेंधा नमक और फल फूल इतना ज्यादा उदरस्थ कर लेती हैं कि नौ दिन में उनका वजन बढ़ जाता है। पर नवरात्र में उपवास शरीर के इम्युन सिस्टम को बढ़ाने और शरीर से जहरीले तत्व को बाहर निकालने के लिए हैं।

पितृ पक्ष – हर साल आश्विन मास में 15 दिनों का पितृ पक्ष आता है। इस दौरान लोग अपने पुरखों को याद करते हैं। कोई भी नया और शुभ कार्य करने से बचते हैं। ये एक तरह का लॉकडाउन ही है। इसमें घर में रहना, आराम करना प्रमुख अभ्यास है।

सावन के चार माह चातुर्मास – सावन शुरू होते ही चार माह देवता सो जाते हैं। बारिश के दिनों में वैसे भी लंबी यात्राएं या कई तरह के नए कार्यों में दिक्कत आती है। इसलिए ये भी एक तरह का ब्रेक है। तमाम जैन मुनि चातुर्मास के समय एक जगह टिक कर रहते हैं।

एकदशी का व्रत – हर माह में दो बार एकादशी का व्रत करने की परंपरा है। इस दौरान लोग उपवास करते हैं। यह भी शरीर को आराम देने की ही एक प्रक्रिया है।

थारू समाज का बरना उत्सव -  बिहार के चंपारण जिले में एक जनजाति है थारू। थारू समाज के लोग हर साल बरना का उत्सव मनाते हैं। यह तीन दिनों का पूर्ण लॉकडाउन होता है। इस दौरान कोई अपने गांव घर से बाहर नहीं जाता। न तो कोई दूसरे गांव से आता है। थारू समाज मानता है कि ऐसा करने से पेड़ पौधों और प्रकृति को नुकसान होगा। सदियों से थारू समाज यह उत्सव मनाता आ रहा है।
रमजान का महीना – इस्लाम में हर साल रमजान का महीना आता है। इसमें हर रोज उपवास किया जाता है। यह इबादत और संयम का महीना है। हमें इन सारी परंपराओं से सीखने की जरूरत है। और बहुत तेज भागने के बजाय थोड़ा हौले-हौले चलने की जरूत है। प्रकृति के साथ समन्वय बनाकर।
-         -  विद्युत प्रकाश मौर्य – vidyutp@gmail.com

Tuesday 25 August 2020

कोलाज में ढला प्रेम और दर्शन का तानाबाना

अमर उजाला जालंधर में रिपोर्टिग के दौरान प्रकाशित एक रिपोर्ट साझा कर रहा हूं। तब कलाकार पंकज सचदेवा ने अपने कोलाज की प्रदर्शनी केआरएम डीएवी कॉलेज नकोदर ( जालंधर) में लगाई थी। तब पंकज सचदेवा पंजाब के तरनतारन शहर में रहते थे। बाद में वे अमृतसर में रहने लगे। आजकल उनकी पेंटिंग अंतरराष्ट्रीय बाजारों में ऊंचे दामों पर बिकती है।
अमर उजाला में 16 नवंबर 2000 को प्रकाशित। ( जालंधर संस्करण ) 
जब मैंने ये रिपोर्ट फाइल की तो तब हमारे उप समाचार संपादक शिव कुमार विवेक जी ने रिपोर्ट पढ़ी और मुझे फोन करके कहा कि इसकी भाषा थोड़ी क्लिष्ट है। अखबार के हिसाब से आसान नहीं है। मैंने आग्रह किया इसकी भाषा को ऐसे ही रहने दिया जाए, क्योंकि कलाकार के सृजन को अभिव्यक्त करने के लिए मैंने बेहतर शब्दों का इस्तेमाल करने की कोशिश की है। फिर रिपोर्ट बिल्कुल वैसी ही छपी जैसा मैंने लिखा था। एक माह महीने बाद पंकज सचदेव से जालंधर के हरिवल्लभ संगीत सम्मेलन में मुलाकात हुई। वे रिपोर्ट की प्रति संभाल कर रखे हुए थे। मेरी लेखनी की उन्होंने तारीफ की। मेरे लिए यह बड़ी खुशी की बात थी। कुछ महीने बाद तरनतारन जाने पर उनसे मिलना हुआ। वे तरनतारन के एक सम्ममानित परिवार से आते थे। 
कोलाज बनाने में उनकी रुचि बचपन के दिनों से ही थी। स्कूली जीवन में उनका मन उच्च आध्यात्मिक विचारों की ओर भागता था। इसको उन्होंने कागज पर उकेरा। पंकज पहले कोलाज बनाते थे बाद में आगे बढ़कर पेंटिंग बनाने लगे। तरनतारन छोड़कर अमृतसर में रहने लगे। कई साल बाद 2020 में उनसे दुबारा संपर्क हुआ, तो पता चला कि वे दिल्ली में शिफ्ट हो गए हैं। आजकल उनकी पेंटिंग कई ऑनलाइन वेबसाइट पर बिक्री के लिए उपलब्ध हैं। 
vidyutp@gmail.com 

Thursday 20 August 2020

फिल्म पत्रकारिता को अधिक महत्व नहीं दिया जा रहा - संपत लाल पुरोहित

( 1947 में प्रकाशित उपन्यास धरती के देवता में प्रकाशित तस्वीर)
हिंदी फिल्मों के मशहूर पत्रकार संपत लाल पुरोहित से ये साक्षात्कार 1996 में लिया गया था। ये साक्षात्कार भारतीय जन संचार संस्थान की पत्रिका संचार माध्यम के जनवरी मार्च 1997 अंक में प्रकाशित हुआ। बुजुर्ग होने पर पुरोहित जी का स्वास्थ्य ज्यादा ठीक नहीं रहता था। वे ज्यादा देर तक बोल नहीं पाते थे। इसलिए यह साक्षात्कार उनके दरियागंज स्थित आवास में दो बैठकों में पूरा हुआ। अपने आखिरी दिनों में वे 7 बटा 21 दरियागंज में एक विशाल भवन के आंगन वाले कमरे में किराये पर रहते थे। पुरोहित जी सन 1998 में चल बसे, पर उनकी यादें शेष हैं। 


पत्रकारिता की विभिन्न विधाओं में फिल्म पत्रकारिता का महत्वपूर्ण स्थान है। फिल्म पत्रकारिता को पत्रकारिता के क्षेत्र में कभी उतनी गंभीरता से नहीं लिया गया जितना लिया जाना चाहिए था, जबकि फिल्मों का समाज पर व्यापक प्रभाव होता है। ऐसा मानना है कई दशकों तक फिल्म पत्रकारिता कर चुके विख्यात हिंदी पत्रकार संपत लाल पुरोहित का। संपत लाल पुरोहित फिल्म पत्रकारिता के क्षेत्र में एक सम्मानित नाम है। आजादी से चार पहले 1943 में फिल्म पत्रकारिता से जुड़े श्री पुरोहित लगभग चार दशक तक अपनी फिल्म पत्रिका युग छाया का संपादन करते रहे।
( फोटो सौजन्य - दीपक दुआ ) 
इसके बाद वे लंबे समय तक देश के प्रमुख हिंदी समाचार पत्रों में फिल्म पर कॉलम लिखते रहे। इनमें नवभारत टाइम्स, सांध्य टाइम्स, जनसत्ता, हिन्दुस्तान, अमर उजाला, कुबेर टाइम्स जैसे अखबार प्रमुख हैं। वे फिल्मी दुनिया पत्रिका के लिए लेखन करते रहे। वे मिस्टर संपत और फिल्म ज्ञानी नाम से कुछ पत्रिकाओं मे पाठकों के फिल्मी सवालों जवाब भी देते रहे।
जीवन के 75 वसंत देख चुकने के बाद भी संपत लाल पुरोहित फिल्म पर लेखन में सतत सक्रिय रहे। प्रस्तुत है संपत लाल पुरोहित से उनकी फिल्म पत्रकारिता पर एक बातचीत।

आपका बचपन कैसा था, कहां किन परिस्थितियों में गुजरा...
मैं मध्य प्रदेश धार एस्टेट के एक गांव में पैदा हुआ था। धार अब जिला बन चुका है। मेरा बचपन अमोदिया ग्राम ( रतलाम के पास ) में गुजरा। मेरा जन्म 1 जून 1922 को हुआ था। मुझे याद आता है कि प्राथमिक विद्यालय जाने के लिए मुझे प्रतिदिन तीन मिल पैदल चलना पड़ता था। जब मैं बहुत छोटा सा था तभी पिताजी का देहांत हो गया। माता जी का भी देहांत हो गया जब मैं तीसरी कक्षा में पढ़ रहा था। भाई बहनों में मैं अकेला था। तो मेरी पैत्रिक जमीन की देखभाल मेरे मामाजी करने लगे। उन्होंने ही मेरा पालन पोषण भी किया। चौथी कक्षा की परीक्षा में मैं 11-12 विद्यालयों की संयुक्त परीक्षा में पहले नंबर पर आया।
उसके बाद आगे की पढ़ाई के लिए मैं बदनावर चला गया। यह धार जिले का छोटा सा कस्बा है। वहीं से मैंने मिड्ल पास किया। मेरी नियमित पढ़ाई इंटरमिडिएट यानी 12वीं तक ही हुई। उसके बाद मैंने प्रभाकर की परीक्षा स्वंतत्र रूप से उत्तीर्ण की।

बचपन में क्या बनने की सोचते थे...
मुझे बचपन में गाने और बजाने का खूब शौक था। गांव में छोटी जाति के लोगों की गाने बजाने की मंडली होती थी, उसमें जाकर मैं शामिल हो जाता था। नौटंकी देखने में मैं सबसे आगे बैठता था। एक बार हमारे यहां अमर सिंह राठौर की नौटंकी आई। इसमें मैंने हाड़ी रानी का रोल किया। मेरी माता जी को यह बहुत पुरा लगा।  इसके बाद गाने बजाने का साथ छूट गया।

फिल्मों से लगाव कब हुआ...
मैट्रिक का इम्तहान देने के बाद जब मैं इंदौर गया तब पहली बार बोलती फिल्म कंगन देखी। इसमें अशोक कुमार और लीला चिटनिस थे। उससे पहले पहली बार बदनावर में ही चंद्रहास नामक मूक फिल्म देखी थी।

वह कौन सी घटना थी जिससे आपका जीवन बदल गया...
बदनाव में मैं एक डॉक्टर साहब के पास रहता था। एक दिन उनके पास एक सज्जन बैठे थे। उनका नाम था रामचंद्र द्विवेदी उर्फ कवि प्रदीप। उसी समय नित्यानंद जी महाराज हरिद्वार में प्रणव मंदिर बनवा रहे थे। इस मंदिर के उद्यापन समारोह में हमलोग भाग लेने कवि प्रदीप के साथ चले गए। दरअसल वहां समारोह में बड़ी संख्या में पंडितों की आवश्यकता थी। मैं भी पंडित के रूप में इस समारोह में शामिल हुआ। इस समारोह में शामिल होन के लिए हम जिस ट्रेन से हरिद्वार जा रहे थे, उसमें कवि प्रदीप मथुरा में हमारे साथ चढ़े। हरिद्वार में कवि प्रदीप रोज रात में नित्यानंद जी महाराज के दरबार में कविता पढ़ते थे। कवि प्रदीप के साथ एक माह हरिद्वार में रहने का मेरा अनुभव काफी प्रेरक रहा। उसके बाद मैं बदनावर लौट आया।

लेखन के प्रति कैसे झुकाव हुआ...
जो मैंने पहली बोलती फिल्म कंगन देखी थी उसमें कवि प्रदीप ने ही गीत लिखे थे। उसके बाद फिल्मों से मेरा झुकाव बढ़ता गया। इसी दौरान मैंने कविताएं और कहानियां भी लिखनी शुरू कर दीं। उन दिनो मुंबई से दो फिल्म पत्रिकाएं आती थीं। एक गुजराती की मौजमजा हुआ करती थी। मैं इनका नियमित पाठक बन गया। इंदौर हिंदी साहित्य सम्मेलन की पत्रिका निकलती थी। इसके संपादक कालिका प्रसाद कुसुमाकर दीक्षित थे। साल 1938 में वीणा पत्रिका में मेरी पहली कविता प्रकाशित हुई।

फिल्म पत्रकारिता की तरफ झुकाव कैसे हुआ...
बदनावर में रहते हुए दिल्ली से प्रकाशित प्रथम फिल्म पत्रिका चित्रपट का नियमित पाठक बन गया। इस दौरान मेरे ऊपर फिल्मों का काफी प्रभाव बढ़ गया था। मैं रंग बिरंगे कपड़े पहनकर फिल्म सितारों की नकल किया करता था। फिल्म स्टार मजहर खान धार के रहने वाले थे। उन्होंने पड़ोसी फिल्म में काफी अच्छी भूमिका निभाई थी। एक बार उनके धार आने पर मैं उनसे जाकर मिला। मैंने बताया कि मैं चित्रपट में नियमित लिखता हूं और आपका साक्षात्कार लेना चाहता हूं। वे इंटरव्यू देने को तैयार हो गए। इस प्रकार मेरा पहला फिल्मी साक्षात्कार सन 1938 में चित्रपट में प्रकाशित हुआ। तब मेरी सिर्फ 16 साल की थी। इस प्रकार मेरी फिल्म पत्रकारिता की शुरुआत हुई। इससे पहले मैंने प्रेमचंद का सारा साहित्य पढ़ डाला था। कवि गोष्ठियों में हिस्सा लेने लगा था।

उन किन लोगों का नाम लेना चाहेंगे जो आपके लेखक पत्रकार निर्माण में सहायक रहे...
इसमें मैं कवि प्रदीप पहला नाम लेना चाहूंगा। उनके सानिध्य में रहकर काफी कुछ सीखने को मिला। प्रेमचंद साहित्य का मैंने काफी अध्ययन किया था, इसलिए उनकी लेखनी से प्रभावित रहा। धार में रहते हुए मैं कांग्रेस सेवा दल का सक्रिय सदस्य बन गया था। सेवा दल में काम करते हुए उसकी समाजसेवा से जुड़ी गतिविधियों से भी प्रेरणा मिली।

आपका धार से दिल्ली कैसे आना हुआ ...
लंबे समय से मैं दिल्ली से प्रकाशित चित्रपट पत्रिका के लिए लिख रहा था। एक दिन चित्रपट पत्रिका की ओर से एक तार मिला की आप दिल्ली आ जाएं। लिखा था, आपको हम संपादकीय विभाग में बहाल करना चाहते हैं। 1933 से प्रकाशित हो रही इस पत्रिका को ऋषभ चरण जैन ने निकाला था। यह देश की सम्मानित फिल्म पत्रिका थी। बस मैंने दिल्ली का टिकट खरीदा और ट्रेन में सवार होकर पहुंच गया देश की राजधानी में। दिल्ली में लंबे समय तक मैं 1092 सतघरा, धर्मपुरा मुहल्ले में रहा।

आज मीडिया जगत फिल्म पत्रकारिता को जितना महत्व दिया जा रहा है वह पर्याप्त है या फिर और स्थान मिलना चाहिए...
इस समय भी या इससे पहले भी फिल्म पत्रकारिता को कभी ज्यादा महत्व नहीं मिला। फिल्म पत्रकारिता में बहुत से लोग ऐसे हैं जो अपने विषय का गहरा ज्ञान नहीं रखते। परंतु लिखते जा रहे हैं। ऐसे लोगों ने फिल्म पत्रकारिता को बड़ा अहित पहुंचाया है।
अगर आप फिल्म समीक्षक हैं तो आपको कैमरा मूवमेंट, लाइट, लोकेशन जैसी तकनीकी समझ भी होनी चाहिए। कहानी पक्ष का ज्ञान होना चाहिए। फिल्म देखते समय उन बातों को उजागर करना जरूरी है जो निर्देशक और कलाकार के दिमाग में नहीं आई हो।

फिल्मों की अच्छी समीक्षा कैसी होनी चाहिए...
अच्छी समीक्षा के लिए निष्पक्ष दृष्टिकोण का होना आवश्यक है। निर्माता निर्देशक कलाकार सबके प्रति आपकी दृष्टि साफ होनी चाहिए। कथाकार, संवाद लेखक, गीतकार आदि के विषय में भी निष्पक्ष भाव होना चाहिए। ऐसा नहीं होना चाहिए कि फलां प्रोड्यूसर या आर्टिस्ट मेरा दोस्त है तो उसके लिए अच्छा नहीं लिखा तो वह नाराज हो जाएगा।
रामानंद सागर से मेरी अच्छी दोस्ती रही. पर मैंने कभी उनके लिए आशक्त होकर समीक्षा नहीं लिखी। सबसे महत्वपूर्ण है कि फिल्म की कहानी का देश और समाज पर क्या प्रभाव पड़ता है, यह बताना जरूरी है।

फिल्म पत्रकारिता आजकल जन संपर्क (पीआर) बनकर रह गई है। इस पर आपके क्या विचार हैं...
मैं इस विचार से काफी हद तक सहमत हूं। आज जन संपर्क अधिकार प्रकार के लोग फिल्मी पत्रकारों पर हावी होने की स्थिति में हैं। पत्रकारों के पास अपने स्रोत नहीं है। वे इस मामले में पीआरओ पर आश्रित हैं। जब आप पीआरओ से सुविधाएं प्राप्त करेंगे तो वह आपसे अपेक्षा रखेगा कि आप वैसा ही लिखो जैसा कि वह चाहता है।

फिल्म पत्रकारिता में गॉसिप का क्या महत्व है...
बिना आग के धुआं नही होता। और बिना धुआं के भी आग का आभास हो जाता है। चीजें होती हैं, और अखबारों में आती हैं। उसका प्रोफेशन से संबंध नहीं होता। जैसे उसका उससे रोमांस चल रहा है। दोनों साथ देखे गए हैं। कुछ बातें होती हैं। कुछ बातें पत्रकारों द्वारा गढ़ ली जाती हैं। अतः फिल्मी पत्रिकाओं में काफी कुछ गॉसिप प्रकाशित होता रहता है। चूंकि आम आदमी को अपने हीरो के व्यक्तिगत जीवन के बारे में भी जानने की इच्छा रहती है। इसलिए यह सब कुछ मजे लेकर पढ़ा जाता है।
कई बार कलाकार खुद दूसरे कलाकार पर इस तरह के आरोप लगाते हैं। इन सब चीजों को सरासर गप नहीं कहा जा सकता। जब दुर्गा खोटे और मुबारक साथ-साथ रहते और घूमते थे तो उनके बारे में लोगों ने खूब लिखा। परंतु तील का ताड़ बना लिया जाना भी उचित नहीं कहा जा सकता।

अब तक के जीवन में जो कार्य किए  हैं उनमें से कौन सा ऐसा कार्य है जिसे करके आपको सर्वाधिक संतोष हुआ है..
चित्रपट के संपादकीय टीम से अलग होकर मैंने अपनी फिल्म पत्रिका युग छाया निकाली। वह 1947 का साल था, जब देश आजाद हुआ था। यह पत्रिका 1980 तक प्रकाशित होती रही। इसमें बड़े-बड़े फिल्मी कलाकारों के इंटरव्यू प्रकाशित होते थे। वे फिल्मी सितारे दिल्ली आते थे तो मुझसे मिलने आते थे। फिल्म स्टार धर्मेंद्र ने तो मेरे लिए दिल्ली में पार्टी का आयोजन कर मुझे सम्मानित भी किया था। मैंने पूरे जीवन में जो कार्य किए हैं उसे पाठक भी और फिल्म पत्रकार भी महत्व प्रदान करते हैं। यही सबसे बड़ा सुख है।

इतनी लंबी साधना में कभी आपका जी उबा है...
जी तो कभी नहीं उबा। कुछ दुख की घड़ियां आईं पर जिंदगी अपनी रफ्तार से चलती रही। हां, कभी-कभी वित्तीय संकट जरूर आया, जिससे थोड़ी घबराहट हुई, लेकिन फिर सब ठीक होता गया। 

फिल्म पत्रकारिता से जुड़े कुछ यादगार संस्मरण साझा करना चाहेंगे...
राजेंद्र कुमार और रामानंद सागर से मेरी बड़ी अच्छी दोस्ती थी। जब राजेंद्र कुमार ने लव स्टोरी फिल्म बनानी शुरू की तो अपनी पूरी टीम के साथ बेटे कुमार गौरव को लेकर हमारे पास आए। राजेंद्र कुमार ने बेटे का परिचय कराते हुए कहा, ये संपत लाल पुरोहित जी हैं, मेरे स्टार होने में इनका बड़ा योगदान है। तुम इनके पांव छुओ। परंतु आजकल के लड़के पांव कहां छू पाते हैं।

एक और वाकया। जब राज कपूर की बॉबी रीलिज हुई तो कई दिल्ली के पत्रकारों ने बॉबी की अच्छी समीक्षा नहीं लिखी। इससे बॉबी के सह निर्माता रहे शशि कपूर गुस्सा था। दिल्ली की एक प्रेस कान्फ्रेंस में शशि कपूर साहब बाहें चढाते हुए बोले, किस किस ने हमारी बॉबी के खिलाफ लिखा है... हमलोग अवाक थे। अचानक हम बोल पड़े हमने भी कोई चूड़ियां नहीं पहन रखी है... इस बीच राजकपूर साहब आ गए और मामला शांत हुआ।

कभी फिल्मों के लिए लिखा...
फिल्मों के लिए तो कभी नहीं लिखा। परंतु मैंने कई उपन्यास जरूर लिखे थे। जो कई दशक पूर्व प्रकाशित हुए थे। वे थे – धरती के देवता, मजहब और ईमान, ऊपर नीचे, मालवा की माटी, भ्रष्टाचार और दो कदम आगे। इन सब उपन्यासों को मैंने अपने प्रकाशन से ही छापा था। अंधी उपासना नामक उपन्यास एक अन्य प्रकाशन ने छापी थी।

हिंदी फिल्मों के इतिहास  में आप सबसे अच्छा शो मैन किसे मानते हैं...
अभिनेता मोतीलाल राजवंश 
शो मैन के तौर पर निर्विवाद रूप से मैं राज कपूर का ही नाम लूंगा। हां अच्छे निर्देशकों की बात करें तो महबूब और शांताराम के नाम लूंगा। महबूब खान की 1942 में आई फिल्म रोटी को मैं बेहतरीन फिल्मों में गिनता हूं। फिल्म कहानी पूंजीवाद पर गहरी चोट करती है। इस फिल्म में चंद्रमोहन, शेख मुख्तार और सितारा, अख्तरीबाई फैजाबादी की प्रमुख भूमिकाएं थीं। 

आपकी नजर में सबसे अच्छे अभिनेता कौन हैं...
आप अच्छे एक्टर की बात करें तो मोतीलाल का नाम लूंगा। मेरी नजर में तो मोतीलाल अकेले ऐसे एक्टर हुए जिन्होंने भारत में स्वतंत्र और स्वाभाविक अभिनय किया। ( अभिनेता मोतीलाल  राजवंश का जन्म 1910 में शिमला में हुआ था , उनका निधन 1965 में हुआ )  दिलीप कुमार ने भी मोतीलाल की नकल की। आगे दिलीप कुमार की नकल अमिताभ बच्चन ने की। अभिनेत्रियों में सरदार अख्तर जबरदस्त थीं। अभिनेत्री सरदार अख्तर का जन्म 1915 में लाहौर में हुआ था। उन्होंने निर्माता महबूब खान से विवाह किया था। उनका निधन 1984 में अमेरिका में हुआ। )  वहीं धार्मिक पिक्चरों की बात करें तो इनमें शोभना समर्थ अच्छी थीं।

सरदार अख्तर अभिनेत्री 
फिल्मों और फिल्म पत्रकारिता का भविष्य कैसा लगता है...
देखिए फिल्मोंका भविष्य फिल्मकारों के हाथ में है। और फिल्म पत्रकारिता का भविष्य फिल्म पत्रकारों के हाथ में है। वही उसको बना सकते हैं। वही बिगाड़ सकते हैं। फिल्म पत्रकार ही इसके लिए जिम्मेवार हैं कि वे ऐसा लिखें जो समाज के लिए अभिप्रेरक हो। 

अब जब इलेक्ट्रानिक मीडिया का प्रसार हुआ है फिल्म पत्रकार के सामने चुनौतियां बढ़ी हैं। फिल्म पत्रकारिता में ईमानदारी की बहुत जरूरत है। नए पत्रकारों को चाहिए कि वे खूब अध्ययन करें और काफी सोच समझकर लिखें। फिल्म निर्माता और पत्रकार दोनों को अंतररात्मा की आवाज सुननी चाहिए।

-----           ( संचार माध्यम के जनवरी मार्च 1997 अंक में प्रकाशित, भारतीय जन संचार संस्थान, नई दिल्ली का प्रकाशन 

पोस्ट स्क्रिट - कुछ लोग दावा करते हैं कि संपत लाल पुरोहित के उपन्यास - दो कदम आगे की कहानी पर हिंदी फिल्म एक फूल दो माली (1969) बनी थी। यह फिल्म सुपर हिट हुई थी। हालांकि इस फिल्म की कास्टिंग में कहानी में मुस्ताक जलाली का नाम दिया गया है। पर पुरोहित जी ने मुझसे बातचीत में एक फूल दो माली को लेकर कोई दावा नहीं किया था। 

जब मैंने 1996 में कुबेर टाइम्स हिंदी दैनिक में फिल्म, टीवी मनोरंजन के पन्नों  पर नौकरी शुरू की तब दिल्ली में तीन वयोवृद्ध फिल्म पत्रकार थे जो कभी भी मिलते थे। वे थे - बच्चन श्रीवास्तव, ब्रजेश्वर मदान और संपतलाल पुरोहित। पुरोहित जी का कालम हमारे अखबार में हर हफ्ते छपता था। यह कालम लेने हमारे दफ्तर का एक चपरासी हर हफ्ते जाया करता था। एक बार वह चपरासी छुट्टी पर था। दफ्तर में पुरोहित जी का फोन आया कॉलम ले जाने के लिए। मैंने फोन उठाया, मैंने कहा, कोई बात नहीं संदेशवाहक नहीं है मैं खुद आ रहा हूं। मैं पहुंच गया दरियागंज के उनके आवास में। लेख प्राप्त करने के बाद पुरोहित जी से थोड़ी बातचीत हुई। उसके बाद चपरासी की ड्यूटी खत्म। हर हफ्ते पुरोहित जी के पास कॉलम लेने मैं खुद जाने लगा। इसके कई फायदे हुए। हर हफ्ते में पुरोहित जी के पास आधे घंटे बैठता। बहुत सारी फिल्म जगत की जानकारियां उनसे मिलतीं। उनके अलबम में फिल्मी पार्टियों की पुरानी तस्वीरें देखता। उनका नेपाली सहायक मुझे चाय के साथ सैंडविच पेश किया करता। 

वैसे पुरोहित जी के जीवन में और कई गम थे। बुढ़ापे में अकेले रहते थे। उनके दो बेटों का निधन हो चुका था। बेटी और दामाद थे जो उनसे कभी कभी मिलने आते थे। आखिरी दिनों में प्रेस कान्फ्रेंस में जाना उन्होंने छोड़ दिया था। पर प्रेस शो में फिल्में देखने जाया करते थे। हमने होटल ब्राडवे में फिल्म अभिनय का प्रशिक्षण देने वाली आशा चंद्रा की प्रेस कान्फ्रेंस आयोजित की थी। उसमें मेरे विशेष आग्रह पर पुरोहित जी पहुंचे थे। सात बटा 21 का वह कमरा किराये का था। उस पर भी मकान मालिक से मुकदमा चल रहा था। पर जब तक जीेये पूरी जिंदादिली से रहे। 
- विद्युत प्रकाश मौर्य - vidyutp@gmail.com
 ( SAMPAT LAL PUROHIT, FILM JOURNALIST, DARIYAGANJ, YUGCHAYA MAGZINE, CHITRAPAT MAGZINE ) 

Monday 10 August 2020

बिहार की पत्रकारिता के भीष्म पितामह- रामजी मिश्र मनोहर

भूमिका - सन 1995 में जब मैं भारतीय जन संचार संस्थान, नई दिल्ली में हिंदी पत्रकारिता का छात्र बना तो वहां एक अतिथि व्याख्यान में बनारस के प्रसिद्ध पत्रकार डॉक्टर लक्ष्मीशंकर व्यास का आगमन हुआ। हमारे पाठ्यक्रम निदेशक डॉक्टर रामजीलाल जांगिड उनका परिचय कराते हुए कहा कि देश में दो ही ऐसे पत्रकार हैं जिनके पास हिंदी पत्रकारिता के इतिहास पर पुस्तकों और पत्र पत्रिकाओं का विशाल संग्रह है। एक हैं बनारस के लक्ष्मीशंकर व्यास और दूसरे हैं पटना के रामजी मिश्र मनोहर। तब मेरा परिवार पटना के बगल में हाजीपुर में रहता था। तो दुर्गापूजा की छुट्टियों में हाजीपुर जाने पर मेरी रामजी मिश्र मनोहर जी से मिलने की और उनका साक्षात्कार लेने की इच्छा बलवती हो उठी। पटना के अपने परिचित पत्रकार डॉक्टर राधाकृष्ण सिंह से मैंने उनका फोन नंबर पता किया। फोन पर श्री रामजी मिश्र मनोहर से वार्ता हुई। उनकी वाणी में ओज था। 

मैंने बताया कि छात्र हूं हिंदी पत्रकारिता का। आपसे मिलने का आकांक्षी हूं। आपका पुस्तकालय भी देखना चाहता हूं। उन्होने बड़ी आत्मीयता से उत्तर दिया। फिर पटना मेरे फ्लैट में आइए। कल सुबह दस बजे। वैसे तो मैं पटना सिटी के मंगल तालाब में रहता हूं। पर मेरा पुस्तकालय राजेंद्र नगर के फ्लैट में है। वहीं मिलते हैं। मैंने पता नोट किया।
अगले दिन सुबह दस बजे से पहले उनके फ्लैट के दरवाजे पर पहुंच कर घंटी बजाई। एक महिला ने दरवाजा खोला। वे रामजी मिश्र मनोहर जी के बेटे नवीन मिश्र की पत्नी थीं। दरअसल इस फ्लैट में नवीन जी रहते थे। थोड़ी देर में रामजी मिश्र मनोहर जी पहुंचे। वे पटना सिटी से राजेंद्रनगर लोकल ट्रेन से चलकर आए थे। ये उनकी सादगी थी। कई दशक तक पटना की पत्रकारिता के सिरमौर पत्रकार रहे रामजी मिश्र मनोहर जी हमेशा सार्वजनिक परिवहन से ही चलते थे।

उनके आने से पहले मैं चाय पी चुका था। तुरंत उन्होंने एक विजिटर बुक निकाला पहले उसमें मेरा परिचय लिखवाया। फिर मुझसे मेरी जाति पूछी। मुझे थोड़ा झटका लगा। फिर भी मैंने बताया – कुशवाहा ( कोईरी) पिछड़ी जाति से आता हूं। उन्होंने कहा , आप इसे अन्यथा न लें। मेरे जाति पूछने का अभिप्राय है कि आजकल जेएनयू में कास्ट कांसनेस पर भी काफी शोध हो रहे हैं। हमारे पास जेएनयू के कई छात्र इस विषय पर शोध करने आ चुके हैं। मेरे संग्रह में 1914 से 1920 के बीच आपकी जाति के लोगों द्वारा निकाली गई पत्रिकाओं का भी संग्रह है। यही नहीं दूसरी कई जातियों के पत्र पत्रिकाओं का भी संग्रह है। आप कभी समय निकाल कर उन्हें देख सकते हैं।

रामजी मिश्र मनोहर जी का पुश्तैनी घर बिहार की राजधानी पटना के पुराने शहर पटना सिटी का मंगल तालाब इलाके में था। इसमें एक सड़क का नाम डॉक्टर विशेश्वर दत्त मिश्र पथ है। डॉक्टर विशेश्वर दत्त मिश्र पटना के सम्मानित व्यक्ति थे। उनके पुत्र हुए रामजी मिश्र मनोहर। उनके बारे में साहित्यकार अनिल सुलभ कहते हैं - पाटलिपुत्र की धरोहरके रूप में चर्चित, आर्यावर्त समेत अनेक पत्रों में अपनी मूल्यवान सेवा देने वाले संघर्ष-जयी पत्रकार रामजी मिश्र मनोहर पाटलिपुत्र के गौरव पुरुष थे। उन्हें पाटलिपुत्र के इतिहास का जीवंत-कोश माना जाता था। सदियों तक विशाल भारत की राजधानी रहे इस महान नगर के गौरवशाली इतिहास को संसार के समक्ष लाने में मिश्र जी का अत्यंत महनीय योगदान था। उनकी पुस्तक दास्ताने-पाटलिपुत्र पाटलिपुत्र नगर का एक प्रामाणिक ग्रंथ माना जाता है। वे खोजपूर्ण पत्रकारिता, लेखन और विचारों में शुचिता, मनस्विता और तेजस्विता के अक्षर उदाहरण थे।

मेरी रामजी मिश्र मनोहर जी से जो वार्ता हुई इसे मैंने डिक्टाफोन में रिकॉर्ड भी किया था। यह साक्षात्कार बाद में भारतीय जन संचार संस्थान द्वारा प्रकाशित पत्रिका संचार माध्यम के अक्तूबर दिसंबर 1996 अंक में दो पृष्ठों में प्रकाशित हुआ। तो पढ़िए उस साक्षात्कार को।

वर्तमान मीडिया के तेवर समाज हित में नहीं – रामजी मिश्र मनोहर

वयोवृद्ध पत्रकार रामजी मिश्र मनोहर को बिहार की पत्रकारिता के इतिहास का इन्साइक्लोपीडिया कहा जाता है। अपने पत्रकारिता जीवन के लंबे समय में वे देश के विभिन्न पत्र पत्रिकाओं से जुड़े रहे। उन्होंने 1991 में पटना से प्रकाशित आर्यावर्त हिंदी दैनिक के संयुक्त संपादक पद से अवकाश ग्रहण किया। आज उनकी पांचवीं पीढ़ी भी पत्रकारिता से जुड़ गई है। वे बिहार पत्रकारिता संस्थान और संग्रहालय के सह निदेशक हैं। इस संस्थान में शोध हेतु कई प्रमुख विश्वविद्यालयों के छात्र और अन्य शोधार्थी आते हैं।
प्रस्तुत है कुबेर टाइम्स के उप संपादक विद्युत प्रकाश मौर्य से उनकी हाल में हुई बातचीत के प्रमुख अंश –

आपका बचपन किन परिस्थितियों में गुजरा ...
बचपन अत्यंत परेशानियों में गुजरा। छह भाइयों में मैं अकेला बचा। मैं बचपन में संग्रहणी, सर्दी, जुकाम जैसी बीमारियों से ग्रस्त रहता था। पिताजी ने अन्य भाइयों की मृत्यु के कारण मेरा पालन पोषण स्वयं न करके मुझे एक दाई को दे दिया। अतः बचपन अभाव और गरीबी में गुजरा। मैट्रिक (दसवीं) तक पढ़ाई के दौरान मैंने जूता भी नहीं पहना था।

पत्रकारिता की तरफ रुझान कैसे हुआ...
सन 1942 में भारत छोड़ो आंदोलन के दौरान मैं नौंवी कक्षा का छात्र था। बलिराम भगत, अंबिकाशरण सिंह, हरदेव नारायण सिंह आदि मित्रों के साथ हमने आंदोलन में सक्रिय भागीदारी की। इससे पढ़ाई बाधित हुई। मैट्रिक पास करने के बाद मैंने पटना के बी.एन. कॉलेज ( बिहार नेशनल कॉलेज ) में दाखिला लिया। पर इसी दौरान अखबार नवीसी का चस्का लग चुका था। कांग्रेस पार्टी का भी मैं सक्रिय सदस्य रहा। बीए के छात्र होने के दौरान ही पटना और कोलकाता से प्रकाशित होने वाले करीब एक दर्जन समाचार पत्रों के लिए संवाददाता के तौर पर काम करने लगा। जागृति, विश्वबंधु, संसद (वाराणसी) आदि समाचार पत्रों के लिए समाचार प्रेषण का कार्य मैंने किया।

क्या उस समय एक साथ कई अखबारों का संवाददाता हुआ जा सकता था...
हां उस समय कई अखबारों के लिए कार्य करने को लेकर कोई पाबंदी नहीं थी। उस समय पांच रुपये से 10 रुपये मासिक तक पारिश्रमिक प्राप्त होता था। पटना से राष्ट्रवाणी दैनिक प्रकाशित होता था। इसके संपादक देवव्रत शास्त्री हुआ करते थे। उन्होंने मुझे उपसंपादक के रूप में कार्य करने के लिए आमंत्रित किया। इस प्रकार में मेरे नियमित पत्रकारिता में राष्ट्रवाणी में उप संपादक के पद पर 1947 में शुरुआत हुई।
आपके परिवार में पत्रकारिता कई पीढ़ियों से चली आ रही है। जैसा की आपने बताया कि आपके पुत्रों की पांचवी पीढ़ी पत्रकारिता में है। कृपया इस परिवेश के बारे में बताएं।
हमारे परदादा राम लाल मिश्र थे। वे 1862 में पटना कॉलेज की स्थापना के बाद वहां के प्राध्यापक नियुक्त हुए। वे संस्कृत, फारसी तथा दर्शनशास्त्र के विद्वान थे। अध्यापन के दौरान एक मौके पर अंग्रेजी लिबास पहनकर तसवीर खिंचवाना उन्होंने स्वीकार नहीं किया और कॉलेज की नौकरी से इस्तीफा दे दिया। सन 1874 में पटना से बिहार बंधु समाचार पत्र का प्रकाशन आरंभ हो चुका था। परदादा ने उसमें सहयोग देना प्रारंभ किया। इसके बाद 1885 में हिंदी का सबसे पहला दैनिक हिन्दोस्थान का प्रकाशन शुरू हुआ। पंडित मदन मोहन मालवीय इसके संपादक थे। मालवीय जी की इच्छा थी की प्रत्येक प्रदेश से योग्य और विद्वान लोग हिन्दोस्थान के संपादक मंडल में शामिल हों। तदनुसार बिहार से मेरे परदादा रामलाल मिश्र हिन्दोस्थान के संपादकीय मंडल में शामिल होने कालाकांकर गए। कुल नौ प्रदेशों से नौ लोग हिन्दोस्थान के संपादक मंडल में थे, जो इस समाचार पत्र के नौ रत्न कहे जाते थे।

इसके बाद आइए मेरे दादा पंडित सत्य रुप मिश्र पर। दादा विद्यालय निरीक्षक थे। वे सरकारी नौकरी में रहते हुए भी छद्म नाम से बिहार बंधु से जुड़े हुए थे। वे लगातार समाचार पत्र को अपना योगदान देते थे। दुखद रहा कि उनका असमय प्लेग से देहांत हो गया।


मेरे पिता डॉक्टर विशेश्वरदत्त मिश्र होमियोपैथी के चिकित्सक थे। उन्होंने होमियोपैथी पर आधी दर्जन पुस्तकें भी लिखी थीं। उन्होंने हिंदी की पहली मीटिरिया मेडिका लिखी। डॉक्टर राजेंद्र प्रसाद समेत कांग्रेस के प्रमुख नेताओं के साथ उनका संपर्क था। राजेंद्र बाबू ने 1920 में प्रजाबंधु नामक समाचार पत्र निकाला था। मेरे पिताजी उसके प्रबंध निदेशक नियुक्त हुए। हमारे घर में उस अखबार का दफ्तर रहा। पंडित जीवानंद शर्मा उस पत्र के संपादक नियुक्त हुए थे।
आपके पत्रकार बनने में प्रेरक लोग कौन रहे...
पहला नाम मेरे मामा और बिहार बंधु के अंतिम संपादक प्रमोद शरण पाठक का लेना चाहूंगा। मेरे संवाददाता बनने में श्रीकृष्ण मोहन शर्मा की प्रेरणा रही। वे अग्रदूत और योगी जैसे समाचार पत्रों के संपादक रह चुके थे। पिताजी ने भी काफी प्रोत्साहित किया। 


नवभारत टाइम्स (कलकत्ता, दिल्ली, बंबई संस्करण ) सन्मार्ग ( वाराणसी, कलकत्ता और दिल्ली ) विश्वबंधु (कलकत्ता ), आज और संसार ( वाराणसी), अमृत बाजार पत्रिका ( इलाहाबाद , पटना से प्रकाशित इंडियन नेशन, सर्चलाइट, आर्यावर्त, प्रदीप, नवीन भारत, नवराष्ट्र, राष्ट्रवाणी जैसे अखबारों का प्रतिनिधित्व किया। पर कॉलेज की पढ़ाई इसी सिलसिले में छूट गई।
राष्ट्रवाणी के उप संपादक के रूप में मैंने काम किया। इसके बाद दैनिक विश्वमित्र कोलकाता चला गया। विश्वमित्र के बाद प्रदीप होते हुए आर्यावर्त आया। सन 1991 में आर्यावर्त से ही संयुक्त संपादक के पद से अवकाश ग्रहण किया।


अब तक किए गए कार्यों में कौन सा ऐसा कार्य है जिसको करके आपको सर्वाधिक संतोष की अनुभूति हुई है...

सर्वाधिक संतोष पत्रकारिता से संबंधित पुरानी पत्र पत्रिकाओं को जमा करके हुई है। कुछ मामा जी से कुछ अपने परिवार से, कुछ देश भर में घूम घूम कर जमा किया। मैं यह कार्य 1943 से ही कर रहा हूं। इसमें आचार्य शिवपूजन सहाय, घनश्याम दास बिड़ला आदि का सहयोग मिला। 


अपने इस अनूठे संग्रह के बारे में बताएं...


मेरे संग्रह में चौदहवीं सदी की हस्तलिखित पुस्तकें भी मौजूद हैं। बिहार बंधु की 1872 -1873 की फाइलें, देश भर से कई समाचार पत्रों और पत्रिकाओं की फाइलें मेरे संग्रह में सुरक्षित हैं। आज जेएनयू और अन्य विश्वविद्यालयों के छात्र-छात्राएं अपने शोध कार्य में सहायता हेतु हमारे पुस्तकालय का उपयोग करने आते हैं। बिहार की पत्रकारिता के इतिहास पर भी मैंने संग्रह तैयार किया है। 


आज मीडिया लोगों का स्वाद बिगाड़ रहा है कि या समाज में यथार्थ है वही प्रकट कर रहा है...


आज मीडिया का जो तेवर है वह समाज के व्यापक हित में नहीं है। जो संस्कृति कनाडा, अमेरिका और इंग्लैंड की है वही हमारी नहीं है। आज दूरदर्शन अथवा अन्य चैनलों पर बहुत कम ऐसे दृश्य होते हैं जिसको भाई बहन-अथवा पिता पुत्र साथ बैठकर देख सकें।
यदि हम समाचार पत्रों के संदर्भ में देखें तो हमारे यहां भाषायी पत्रकारिता का इतिहास भिन्न है। पत्रकारिता विदेश से आई विधा अवश्य थी, परंतु यह देश की स्वतंत्रता के लिए लोगों में भाषायी संस्कार पैदा करने केलिए की गई। पहले जो अखबार या पत्रिकाएं निकलती थीं उनका एक निश्चित उद्देश्य होता था। लेकिन आज उसका अभाव है। आज पत्रकारों के मध्य एक आम धारणा होती जा रही है कि अखबारों का कार्य सिर्फ सूचना देना है। 


जब श्रीकांत ठाकुर आर्यावर्त के संपादक थे। उनका स्पष्ट निर्देश था कि बलात्कार की खबर आर्यावर्त में नहीं प्रकाशित होगी। लीडर के संपादक ज्योतिषी जी थे। उनका निर्देश था कि प्रथम पृष्ठ पर ऐसी कोई खबर न छपे जिसको पढ़ते ही सुबह की चाय के जायके के साथ आदमी के मुंह का स्वाद बिगड़ जाए। आज को प्रथम पृष्ठ पर विशादपूर्ण समाचार रहते ही हैं।


आप एक आदर्श रिपोर्टर के क्या गुण मानते हैं...


आदर्श रिपोर्टर के लिए सबसे बड़ी आवश्यकता उसका निरपेक्ष होना है। कहा गया है कि न्यूज इज सेक्रेड, कमेंट इस फ्री.. परंतु आजकल नमक मिर्च मसाले के साथ समाचार शुरू करने का चलन बढ़ा है। आज एक संवाददाता आलोचना प्रत्यालोचना के साथ समाचार परोसता है। यह संपादकीय टिप्पणी जैसी प्रतीत होती है। 

समाचार लेखन के दौरान कैसे और क्यों के विश्लेषण की स्वतंत्रता संवाददाता को रहती है। वह इसमें कितना निरपेक्ष रह सकता है....


पहले ऐसा होता था कि विशेष संवाददाता स्तर केलोग समाचारों का विश्लेषण करते थे। आज ऐसे समाचार भी पढ़ने को मिल जाते है जिसमे कहां, कब जैसे प्रश्नों का भी उत्तर नहीं होता। एकांगी समाचार प्रकाशित हो जाता है। 


बदलते परिवेश में एक रिपोर्टर की क्या भूमिका होनी चाहिए...

एक रिपोर्टर को चाहिए कि वह सीधे सादे शब्दों में समाचार को प्रस्तुत करे। कोई नमक मिर्च न मिलाए। एक संवाददाता को कभी यह नहीं समझना चाहिए कि हमें लाठी भांजने की सुविधा मिल गई है तो किसी कान टूटे या नाक बस लाठी चलाते रहें। संवाददाता के हाथों में चिकित्सक का चाकू होता है। आपकी कलम से किसी का अहित हो यह ठीक नहीं। 

पत्रकारिता के क्षेत्र में नए आने वाले लोगों में आप क्या कमी और क्या अच्छी बातें देखते हैं...
पत्रकारिता का क्षेत्र अब बहुआयामी हो गया है। अतः प्रशिक्षण की कोई खास आवश्यकता नहीं है। आज विशिष्टिकरण का दौर आ गया है। अतः आवश्यकता है कि संवाददाता की भाषा प्रांजल हो। सीधे सोचने की शक्ति हो। पुराने समय के लोग पत्रकारिता के क्षेत्र में चुनौतियां स्वीकार करने आते थे। पेट पर पत्थर बांध कर त्याग और बलिदान की भावना से आते थे। आज पत्रकारिता का तेजी से व्यवसायीकरण हो रहा है। परंतु आज भी एक संवाददाता के पास अच्छी भाषा और खोजी दृष्टि होनी चाहिए। अगर सिविल सेवाओं की तरह सेवा भावना प्रधान न होकर विलासितपूर्ण जीवन जीने की इच्छा रखने वाले लोग पत्रकारिता में आना चाहते हैं तो यह अच्छी बात नहीं। पेशे की चमक दमक से प्रभावित होकर आने वाले आज भी इस क्षेत्र में बहुत दूर तक नहीं जा सकते।

आज समाचार पत्र को उद्योग का दर्जा देने की बात हो रही है। इस पर आपकी क्या प्रतिक्रिया है...
समाचार पत्र निकालने में बड़ी पूंजी की आवश्यकता तो होती ही है। पहले भी राजाओं महाराजाओं ने समाचार पत्र निकाले थे। आज समाचार पत्रों के मालिक बड़े उद्योगपति हैं। समाचार पत्र के क्षेत्र में अब जितना रुपया आया है और प्रकाशन व्यवसाय जितना खर्चीला हुआ है उससे यह कहा जा सकता है कि समाचार पत्र अब उद्योग का रूप ले चुका है। पुराने जमाने के संपादक अगर आज होते तो समाचार पत्रों के संपादक अगर आज होते तो अखबारों के दफ्तरों की विशाल अट्टालिकाएं देखने की कोशिश करते तो उनके सिर की टोपी गिर जाती। पर पत्रकारिता कभी शुद्ध व्यापार नहीं हो सकती। व्यवसाय हो सकती है। व्यवसाय के साथ व्यवसायिक नैतिकता भी जुड़ी होती है। डॉक्टर अपनी फीस के अभाव में अगर मरीज को मरने देता है तो यह अपराध है। इसी तरह की नैतिकता पत्रकारिता में भी होनी चाहिए।


आज देश में विदेशी अखबार आने को तैयार बैठे हैं, क्या उनका आना  उचित होगा...

इसका उत्तर मैं यूं देता हूं कि जब थॉमसन प्रेस भारत में आया तो उसने अखबार निकालने की भी इजाजत मांगी। तब इंदिरा गांधी प्रधानमंत्री थीं, वे इस प्रस्ताव से कांप गईं। उन्होंने कहा, डायरी और कैलेंडर छापते रहो, अखबार छापने की इजाजत नहीं दी जा सकती। आज भारत में अखबार चाहे देश के कितने भी बड़े उद्योगपति निकाल रहे हों, उनसे व्यापक राष्ट्रीय हितों के विरुद्ध जाने की बात नहीं सोची जा सकती। जो पत्रकार विदेशी अखबारों के स्वागत के लिए तैयार हैं, वे मेवा प्राप्ति के भाव से आबद्ध हैं।


आज भी आप हिंदी के पत्रों में लिख रहे हैं। अंग्रेजी में भी लिख रहे हैं। क्या अंतर पाते हैं हिंदी और अंग्रेजी में...
हां रिटायर होने  बाद पटना से प्रकाशित अंग्रेजी अखबारों में पाटलिपुत्र की विरासत पर कॉलम लिखने का प्रस्ताव आया जिसे मैंने स्वीकार कर लिया। पर आजकल हिंदी पत्रकारिता का भी तेजी से प्रसार हो रहा है। अखबारों की पृष्ठ संख्या में भी वृद्धि हो रही है। इसके अलावा एक ही समूह से प्रकाशित होने वाले हिंदी और अंग्रेजी के समाचार पत्रों में भेदभाव भी घट रहा है।

आज एक संपादक को आप कितना स्वतंत्र पाते हैं...

आदर्श स्थिति तभी रहती है जब संपादक को वैचारिक स्वतंत्रता हो। परंतु आज समाचार पत्र जिस समूह द्वारा प्रकाशित किया जा रहा है, उसके व्यापक हितों से संपादक को कहीं न कहीं समझौता करना पड़ता है। परंतु स्वामी के हित को देखते हुए आप बाकी क्षेत्रों में लिखने के लिए स्वतंत्र होते हैं। कई संपादकों की छुट्टी भी हुई। सर्चलाइट के संपादक के रामाराव ने सर्चलाइट से और कांग्रेस संदेश से इस्तीफा देना स्वीकार किया परंतु व्यवस्था के प्रभाव में नहीं आए। आज मासिक संपादक होते जा रहे हैं। यह शुभ संकेत नहीं है। नव धनाढ्य हुए उद्योगपति भी टाटा , बिड़ला और डालमिया की तरह समाचार पत्र के क्षेत्र में आ रहे हैं। पर उन्हें भी राष्ट्रीय हितो और व्यवसायिक नैतिकता का ख्याल रखना चाहिए।
साक्षात्कार के बाद मैंने उनसे विदा ली। पर वे अगले तीन साल तक जब तक जीवित रहे फोन पर संपर्क बना रहा। उनके पुत्र सर्वश्री ज्ञान वर्धन मिश्र और नवीन मिश्र पत्रकारिता जगत में सक्रिय हैं।  


रामजी मिश्र मनोहर स्मृति ग्रंथ -   सन 1998 में उनके ऊपर एक स्मृति ग्रंथ का प्रकाशन हुआ। इसी साल वे इस दुनिया को अलविदा कह गए। पर उनकी पत्रकारिता जगत में उनकी कृति पताका हमेशा फहराती रहेगी।

इस पुस्तक का नाम - पाटलिपुत्र की धरोहर - रामजी मिश्र मनोहर है। इसका संपादन  श्रीरंजन सूरिदेव, राय प्रभाकर प्रसाद ने मिल कर किया है। पुस्तक के प्रकाशक हैं-  मोतीलाल बनारसी दास। 
( पृष्ठ – 441, मूल्य – 300 रुपये )



रामजी मिश्र मनोहर -  जन्म - 31 दिसंबर 1931
निधन - 29 अक्तूबर 1998  ( तस्वीर - सौजन्य - नवीन मिश्र ) 
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