Monday, 10 August 2020

बिहार की पत्रकारिता के भीष्म पितामह- रामजी मिश्र मनोहर

भूमिका - सन 1995 में जब मैं भारतीय जन संचार संस्थान, नई दिल्ली में हिंदी पत्रकारिता का छात्र बना तो वहां एक अतिथि व्याख्यान में बनारस के प्रसिद्ध पत्रकार डॉक्टर लक्ष्मीशंकर व्यास का आगमन हुआ। हमारे पाठ्यक्रम निदेशक डॉक्टर रामजीलाल जांगिड उनका परिचय कराते हुए कहा कि देश में दो ही ऐसे पत्रकार हैं जिनके पास हिंदी पत्रकारिता के इतिहास पर पुस्तकों और पत्र पत्रिकाओं का विशाल संग्रह है। एक हैं बनारस के लक्ष्मीशंकर व्यास और दूसरे हैं पटना के रामजी मिश्र मनोहर। तब मेरा परिवार पटना के बगल में हाजीपुर में रहता था। तो दुर्गापूजा की छुट्टियों में हाजीपुर जाने पर मेरी रामजी मिश्र मनोहर जी से मिलने की और उनका साक्षात्कार लेने की इच्छा बलवती हो उठी। पटना के अपने परिचित पत्रकार डॉक्टर राधाकृष्ण सिंह से मैंने उनका फोन नंबर पता किया। फोन पर श्री रामजी मिश्र मनोहर से वार्ता हुई। उनकी वाणी में ओज था। 

मैंने बताया कि छात्र हूं हिंदी पत्रकारिता का। आपसे मिलने का आकांक्षी हूं। आपका पुस्तकालय भी देखना चाहता हूं। उन्होने बड़ी आत्मीयता से उत्तर दिया। फिर पटना मेरे फ्लैट में आइए। कल सुबह दस बजे। वैसे तो मैं पटना सिटी के मंगल तालाब में रहता हूं। पर मेरा पुस्तकालय राजेंद्र नगर के फ्लैट में है। वहीं मिलते हैं। मैंने पता नोट किया।
अगले दिन सुबह दस बजे से पहले उनके फ्लैट के दरवाजे पर पहुंच कर घंटी बजाई। एक महिला ने दरवाजा खोला। वे रामजी मिश्र मनोहर जी के बेटे नवीन मिश्र की पत्नी थीं। दरअसल इस फ्लैट में नवीन जी रहते थे। थोड़ी देर में रामजी मिश्र मनोहर जी पहुंचे। वे पटना सिटी से राजेंद्रनगर लोकल ट्रेन से चलकर आए थे। ये उनकी सादगी थी। कई दशक तक पटना की पत्रकारिता के सिरमौर पत्रकार रहे रामजी मिश्र मनोहर जी हमेशा सार्वजनिक परिवहन से ही चलते थे।

उनके आने से पहले मैं चाय पी चुका था। तुरंत उन्होंने एक विजिटर बुक निकाला पहले उसमें मेरा परिचय लिखवाया। फिर मुझसे मेरी जाति पूछी। मुझे थोड़ा झटका लगा। फिर भी मैंने बताया – कुशवाहा ( कोईरी) पिछड़ी जाति से आता हूं। उन्होंने कहा , आप इसे अन्यथा न लें। मेरे जाति पूछने का अभिप्राय है कि आजकल जेएनयू में कास्ट कांसनेस पर भी काफी शोध हो रहे हैं। हमारे पास जेएनयू के कई छात्र इस विषय पर शोध करने आ चुके हैं। मेरे संग्रह में 1914 से 1920 के बीच आपकी जाति के लोगों द्वारा निकाली गई पत्रिकाओं का भी संग्रह है। यही नहीं दूसरी कई जातियों के पत्र पत्रिकाओं का भी संग्रह है। आप कभी समय निकाल कर उन्हें देख सकते हैं।

रामजी मिश्र मनोहर जी का पुश्तैनी घर बिहार की राजधानी पटना के पुराने शहर पटना सिटी का मंगल तालाब इलाके में था। इसमें एक सड़क का नाम डॉक्टर विशेश्वर दत्त मिश्र पथ है। डॉक्टर विशेश्वर दत्त मिश्र पटना के सम्मानित व्यक्ति थे। उनके पुत्र हुए रामजी मिश्र मनोहर। उनके बारे में साहित्यकार अनिल सुलभ कहते हैं - पाटलिपुत्र की धरोहरके रूप में चर्चित, आर्यावर्त समेत अनेक पत्रों में अपनी मूल्यवान सेवा देने वाले संघर्ष-जयी पत्रकार रामजी मिश्र मनोहर पाटलिपुत्र के गौरव पुरुष थे। उन्हें पाटलिपुत्र के इतिहास का जीवंत-कोश माना जाता था। सदियों तक विशाल भारत की राजधानी रहे इस महान नगर के गौरवशाली इतिहास को संसार के समक्ष लाने में मिश्र जी का अत्यंत महनीय योगदान था। उनकी पुस्तक दास्ताने-पाटलिपुत्र पाटलिपुत्र नगर का एक प्रामाणिक ग्रंथ माना जाता है। वे खोजपूर्ण पत्रकारिता, लेखन और विचारों में शुचिता, मनस्विता और तेजस्विता के अक्षर उदाहरण थे।

मेरी रामजी मिश्र मनोहर जी से जो वार्ता हुई इसे मैंने डिक्टाफोन में रिकॉर्ड भी किया था। यह साक्षात्कार बाद में भारतीय जन संचार संस्थान द्वारा प्रकाशित पत्रिका संचार माध्यम के अक्तूबर दिसंबर 1996 अंक में दो पृष्ठों में प्रकाशित हुआ। तो पढ़िए उस साक्षात्कार को।

वर्तमान मीडिया के तेवर समाज हित में नहीं – रामजी मिश्र मनोहर

वयोवृद्ध पत्रकार रामजी मिश्र मनोहर को बिहार की पत्रकारिता के इतिहास का इन्साइक्लोपीडिया कहा जाता है। अपने पत्रकारिता जीवन के लंबे समय में वे देश के विभिन्न पत्र पत्रिकाओं से जुड़े रहे। उन्होंने 1991 में पटना से प्रकाशित आर्यावर्त हिंदी दैनिक के संयुक्त संपादक पद से अवकाश ग्रहण किया। आज उनकी पांचवीं पीढ़ी भी पत्रकारिता से जुड़ गई है। वे बिहार पत्रकारिता संस्थान और संग्रहालय के सह निदेशक हैं। इस संस्थान में शोध हेतु कई प्रमुख विश्वविद्यालयों के छात्र और अन्य शोधार्थी आते हैं।
प्रस्तुत है कुबेर टाइम्स के उप संपादक विद्युत प्रकाश मौर्य से उनकी हाल में हुई बातचीत के प्रमुख अंश –

आपका बचपन किन परिस्थितियों में गुजरा ...
बचपन अत्यंत परेशानियों में गुजरा। छह भाइयों में मैं अकेला बचा। मैं बचपन में संग्रहणी, सर्दी, जुकाम जैसी बीमारियों से ग्रस्त रहता था। पिताजी ने अन्य भाइयों की मृत्यु के कारण मेरा पालन पोषण स्वयं न करके मुझे एक दाई को दे दिया। अतः बचपन अभाव और गरीबी में गुजरा। मैट्रिक (दसवीं) तक पढ़ाई के दौरान मैंने जूता भी नहीं पहना था।

पत्रकारिता की तरफ रुझान कैसे हुआ...
सन 1942 में भारत छोड़ो आंदोलन के दौरान मैं नौंवी कक्षा का छात्र था। बलिराम भगत, अंबिकाशरण सिंह, हरदेव नारायण सिंह आदि मित्रों के साथ हमने आंदोलन में सक्रिय भागीदारी की। इससे पढ़ाई बाधित हुई। मैट्रिक पास करने के बाद मैंने पटना के बी.एन. कॉलेज ( बिहार नेशनल कॉलेज ) में दाखिला लिया। पर इसी दौरान अखबार नवीसी का चस्का लग चुका था। कांग्रेस पार्टी का भी मैं सक्रिय सदस्य रहा। बीए के छात्र होने के दौरान ही पटना और कोलकाता से प्रकाशित होने वाले करीब एक दर्जन समाचार पत्रों के लिए संवाददाता के तौर पर काम करने लगा। जागृति, विश्वबंधु, संसद (वाराणसी) आदि समाचार पत्रों के लिए समाचार प्रेषण का कार्य मैंने किया।

क्या उस समय एक साथ कई अखबारों का संवाददाता हुआ जा सकता था...
हां उस समय कई अखबारों के लिए कार्य करने को लेकर कोई पाबंदी नहीं थी। उस समय पांच रुपये से 10 रुपये मासिक तक पारिश्रमिक प्राप्त होता था। पटना से राष्ट्रवाणी दैनिक प्रकाशित होता था। इसके संपादक देवव्रत शास्त्री हुआ करते थे। उन्होंने मुझे उपसंपादक के रूप में कार्य करने के लिए आमंत्रित किया। इस प्रकार में मेरे नियमित पत्रकारिता में राष्ट्रवाणी में उप संपादक के पद पर 1947 में शुरुआत हुई।
आपके परिवार में पत्रकारिता कई पीढ़ियों से चली आ रही है। जैसा की आपने बताया कि आपके पुत्रों की पांचवी पीढ़ी पत्रकारिता में है। कृपया इस परिवेश के बारे में बताएं।
हमारे परदादा राम लाल मिश्र थे। वे 1862 में पटना कॉलेज की स्थापना के बाद वहां के प्राध्यापक नियुक्त हुए। वे संस्कृत, फारसी तथा दर्शनशास्त्र के विद्वान थे। अध्यापन के दौरान एक मौके पर अंग्रेजी लिबास पहनकर तसवीर खिंचवाना उन्होंने स्वीकार नहीं किया और कॉलेज की नौकरी से इस्तीफा दे दिया। सन 1874 में पटना से बिहार बंधु समाचार पत्र का प्रकाशन आरंभ हो चुका था। परदादा ने उसमें सहयोग देना प्रारंभ किया। इसके बाद 1885 में हिंदी का सबसे पहला दैनिक हिन्दोस्थान का प्रकाशन शुरू हुआ। पंडित मदन मोहन मालवीय इसके संपादक थे। मालवीय जी की इच्छा थी की प्रत्येक प्रदेश से योग्य और विद्वान लोग हिन्दोस्थान के संपादक मंडल में शामिल हों। तदनुसार बिहार से मेरे परदादा रामलाल मिश्र हिन्दोस्थान के संपादकीय मंडल में शामिल होने कालाकांकर गए। कुल नौ प्रदेशों से नौ लोग हिन्दोस्थान के संपादक मंडल में थे, जो इस समाचार पत्र के नौ रत्न कहे जाते थे।

इसके बाद आइए मेरे दादा पंडित सत्य रुप मिश्र पर। दादा विद्यालय निरीक्षक थे। वे सरकारी नौकरी में रहते हुए भी छद्म नाम से बिहार बंधु से जुड़े हुए थे। वे लगातार समाचार पत्र को अपना योगदान देते थे। दुखद रहा कि उनका असमय प्लेग से देहांत हो गया।


मेरे पिता डॉक्टर विशेश्वरदत्त मिश्र होमियोपैथी के चिकित्सक थे। उन्होंने होमियोपैथी पर आधी दर्जन पुस्तकें भी लिखी थीं। उन्होंने हिंदी की पहली मीटिरिया मेडिका लिखी। डॉक्टर राजेंद्र प्रसाद समेत कांग्रेस के प्रमुख नेताओं के साथ उनका संपर्क था। राजेंद्र बाबू ने 1920 में प्रजाबंधु नामक समाचार पत्र निकाला था। मेरे पिताजी उसके प्रबंध निदेशक नियुक्त हुए। हमारे घर में उस अखबार का दफ्तर रहा। पंडित जीवानंद शर्मा उस पत्र के संपादक नियुक्त हुए थे।
आपके पत्रकार बनने में प्रेरक लोग कौन रहे...
पहला नाम मेरे मामा और बिहार बंधु के अंतिम संपादक प्रमोद शरण पाठक का लेना चाहूंगा। मेरे संवाददाता बनने में श्रीकृष्ण मोहन शर्मा की प्रेरणा रही। वे अग्रदूत और योगी जैसे समाचार पत्रों के संपादक रह चुके थे। पिताजी ने भी काफी प्रोत्साहित किया। 


नवभारत टाइम्स (कलकत्ता, दिल्ली, बंबई संस्करण ) सन्मार्ग ( वाराणसी, कलकत्ता और दिल्ली ) विश्वबंधु (कलकत्ता ), आज और संसार ( वाराणसी), अमृत बाजार पत्रिका ( इलाहाबाद , पटना से प्रकाशित इंडियन नेशन, सर्चलाइट, आर्यावर्त, प्रदीप, नवीन भारत, नवराष्ट्र, राष्ट्रवाणी जैसे अखबारों का प्रतिनिधित्व किया। पर कॉलेज की पढ़ाई इसी सिलसिले में छूट गई।
राष्ट्रवाणी के उप संपादक के रूप में मैंने काम किया। इसके बाद दैनिक विश्वमित्र कोलकाता चला गया। विश्वमित्र के बाद प्रदीप होते हुए आर्यावर्त आया। सन 1991 में आर्यावर्त से ही संयुक्त संपादक के पद से अवकाश ग्रहण किया।


अब तक किए गए कार्यों में कौन सा ऐसा कार्य है जिसको करके आपको सर्वाधिक संतोष की अनुभूति हुई है...

सर्वाधिक संतोष पत्रकारिता से संबंधित पुरानी पत्र पत्रिकाओं को जमा करके हुई है। कुछ मामा जी से कुछ अपने परिवार से, कुछ देश भर में घूम घूम कर जमा किया। मैं यह कार्य 1943 से ही कर रहा हूं। इसमें आचार्य शिवपूजन सहाय, घनश्याम दास बिड़ला आदि का सहयोग मिला। 


अपने इस अनूठे संग्रह के बारे में बताएं...


मेरे संग्रह में चौदहवीं सदी की हस्तलिखित पुस्तकें भी मौजूद हैं। बिहार बंधु की 1872 -1873 की फाइलें, देश भर से कई समाचार पत्रों और पत्रिकाओं की फाइलें मेरे संग्रह में सुरक्षित हैं। आज जेएनयू और अन्य विश्वविद्यालयों के छात्र-छात्राएं अपने शोध कार्य में सहायता हेतु हमारे पुस्तकालय का उपयोग करने आते हैं। बिहार की पत्रकारिता के इतिहास पर भी मैंने संग्रह तैयार किया है। 


आज मीडिया लोगों का स्वाद बिगाड़ रहा है कि या समाज में यथार्थ है वही प्रकट कर रहा है...


आज मीडिया का जो तेवर है वह समाज के व्यापक हित में नहीं है। जो संस्कृति कनाडा, अमेरिका और इंग्लैंड की है वही हमारी नहीं है। आज दूरदर्शन अथवा अन्य चैनलों पर बहुत कम ऐसे दृश्य होते हैं जिसको भाई बहन-अथवा पिता पुत्र साथ बैठकर देख सकें।
यदि हम समाचार पत्रों के संदर्भ में देखें तो हमारे यहां भाषायी पत्रकारिता का इतिहास भिन्न है। पत्रकारिता विदेश से आई विधा अवश्य थी, परंतु यह देश की स्वतंत्रता के लिए लोगों में भाषायी संस्कार पैदा करने केलिए की गई। पहले जो अखबार या पत्रिकाएं निकलती थीं उनका एक निश्चित उद्देश्य होता था। लेकिन आज उसका अभाव है। आज पत्रकारों के मध्य एक आम धारणा होती जा रही है कि अखबारों का कार्य सिर्फ सूचना देना है। 


जब श्रीकांत ठाकुर आर्यावर्त के संपादक थे। उनका स्पष्ट निर्देश था कि बलात्कार की खबर आर्यावर्त में नहीं प्रकाशित होगी। लीडर के संपादक ज्योतिषी जी थे। उनका निर्देश था कि प्रथम पृष्ठ पर ऐसी कोई खबर न छपे जिसको पढ़ते ही सुबह की चाय के जायके के साथ आदमी के मुंह का स्वाद बिगड़ जाए। आज को प्रथम पृष्ठ पर विशादपूर्ण समाचार रहते ही हैं।


आप एक आदर्श रिपोर्टर के क्या गुण मानते हैं...


आदर्श रिपोर्टर के लिए सबसे बड़ी आवश्यकता उसका निरपेक्ष होना है। कहा गया है कि न्यूज इज सेक्रेड, कमेंट इस फ्री.. परंतु आजकल नमक मिर्च मसाले के साथ समाचार शुरू करने का चलन बढ़ा है। आज एक संवाददाता आलोचना प्रत्यालोचना के साथ समाचार परोसता है। यह संपादकीय टिप्पणी जैसी प्रतीत होती है। 

समाचार लेखन के दौरान कैसे और क्यों के विश्लेषण की स्वतंत्रता संवाददाता को रहती है। वह इसमें कितना निरपेक्ष रह सकता है....


पहले ऐसा होता था कि विशेष संवाददाता स्तर केलोग समाचारों का विश्लेषण करते थे। आज ऐसे समाचार भी पढ़ने को मिल जाते है जिसमे कहां, कब जैसे प्रश्नों का भी उत्तर नहीं होता। एकांगी समाचार प्रकाशित हो जाता है। 


बदलते परिवेश में एक रिपोर्टर की क्या भूमिका होनी चाहिए...

एक रिपोर्टर को चाहिए कि वह सीधे सादे शब्दों में समाचार को प्रस्तुत करे। कोई नमक मिर्च न मिलाए। एक संवाददाता को कभी यह नहीं समझना चाहिए कि हमें लाठी भांजने की सुविधा मिल गई है तो किसी कान टूटे या नाक बस लाठी चलाते रहें। संवाददाता के हाथों में चिकित्सक का चाकू होता है। आपकी कलम से किसी का अहित हो यह ठीक नहीं। 

पत्रकारिता के क्षेत्र में नए आने वाले लोगों में आप क्या कमी और क्या अच्छी बातें देखते हैं...
पत्रकारिता का क्षेत्र अब बहुआयामी हो गया है। अतः प्रशिक्षण की कोई खास आवश्यकता नहीं है। आज विशिष्टिकरण का दौर आ गया है। अतः आवश्यकता है कि संवाददाता की भाषा प्रांजल हो। सीधे सोचने की शक्ति हो। पुराने समय के लोग पत्रकारिता के क्षेत्र में चुनौतियां स्वीकार करने आते थे। पेट पर पत्थर बांध कर त्याग और बलिदान की भावना से आते थे। आज पत्रकारिता का तेजी से व्यवसायीकरण हो रहा है। परंतु आज भी एक संवाददाता के पास अच्छी भाषा और खोजी दृष्टि होनी चाहिए। अगर सिविल सेवाओं की तरह सेवा भावना प्रधान न होकर विलासितपूर्ण जीवन जीने की इच्छा रखने वाले लोग पत्रकारिता में आना चाहते हैं तो यह अच्छी बात नहीं। पेशे की चमक दमक से प्रभावित होकर आने वाले आज भी इस क्षेत्र में बहुत दूर तक नहीं जा सकते।

आज समाचार पत्र को उद्योग का दर्जा देने की बात हो रही है। इस पर आपकी क्या प्रतिक्रिया है...
समाचार पत्र निकालने में बड़ी पूंजी की आवश्यकता तो होती ही है। पहले भी राजाओं महाराजाओं ने समाचार पत्र निकाले थे। आज समाचार पत्रों के मालिक बड़े उद्योगपति हैं। समाचार पत्र के क्षेत्र में अब जितना रुपया आया है और प्रकाशन व्यवसाय जितना खर्चीला हुआ है उससे यह कहा जा सकता है कि समाचार पत्र अब उद्योग का रूप ले चुका है। पुराने जमाने के संपादक अगर आज होते तो समाचार पत्रों के संपादक अगर आज होते तो अखबारों के दफ्तरों की विशाल अट्टालिकाएं देखने की कोशिश करते तो उनके सिर की टोपी गिर जाती। पर पत्रकारिता कभी शुद्ध व्यापार नहीं हो सकती। व्यवसाय हो सकती है। व्यवसाय के साथ व्यवसायिक नैतिकता भी जुड़ी होती है। डॉक्टर अपनी फीस के अभाव में अगर मरीज को मरने देता है तो यह अपराध है। इसी तरह की नैतिकता पत्रकारिता में भी होनी चाहिए।


आज देश में विदेशी अखबार आने को तैयार बैठे हैं, क्या उनका आना  उचित होगा...

इसका उत्तर मैं यूं देता हूं कि जब थॉमसन प्रेस भारत में आया तो उसने अखबार निकालने की भी इजाजत मांगी। तब इंदिरा गांधी प्रधानमंत्री थीं, वे इस प्रस्ताव से कांप गईं। उन्होंने कहा, डायरी और कैलेंडर छापते रहो, अखबार छापने की इजाजत नहीं दी जा सकती। आज भारत में अखबार चाहे देश के कितने भी बड़े उद्योगपति निकाल रहे हों, उनसे व्यापक राष्ट्रीय हितों के विरुद्ध जाने की बात नहीं सोची जा सकती। जो पत्रकार विदेशी अखबारों के स्वागत के लिए तैयार हैं, वे मेवा प्राप्ति के भाव से आबद्ध हैं।


आज भी आप हिंदी के पत्रों में लिख रहे हैं। अंग्रेजी में भी लिख रहे हैं। क्या अंतर पाते हैं हिंदी और अंग्रेजी में...
हां रिटायर होने  बाद पटना से प्रकाशित अंग्रेजी अखबारों में पाटलिपुत्र की विरासत पर कॉलम लिखने का प्रस्ताव आया जिसे मैंने स्वीकार कर लिया। पर आजकल हिंदी पत्रकारिता का भी तेजी से प्रसार हो रहा है। अखबारों की पृष्ठ संख्या में भी वृद्धि हो रही है। इसके अलावा एक ही समूह से प्रकाशित होने वाले हिंदी और अंग्रेजी के समाचार पत्रों में भेदभाव भी घट रहा है।

आज एक संपादक को आप कितना स्वतंत्र पाते हैं...

आदर्श स्थिति तभी रहती है जब संपादक को वैचारिक स्वतंत्रता हो। परंतु आज समाचार पत्र जिस समूह द्वारा प्रकाशित किया जा रहा है, उसके व्यापक हितों से संपादक को कहीं न कहीं समझौता करना पड़ता है। परंतु स्वामी के हित को देखते हुए आप बाकी क्षेत्रों में लिखने के लिए स्वतंत्र होते हैं। कई संपादकों की छुट्टी भी हुई। सर्चलाइट के संपादक के रामाराव ने सर्चलाइट से और कांग्रेस संदेश से इस्तीफा देना स्वीकार किया परंतु व्यवस्था के प्रभाव में नहीं आए। आज मासिक संपादक होते जा रहे हैं। यह शुभ संकेत नहीं है। नव धनाढ्य हुए उद्योगपति भी टाटा , बिड़ला और डालमिया की तरह समाचार पत्र के क्षेत्र में आ रहे हैं। पर उन्हें भी राष्ट्रीय हितो और व्यवसायिक नैतिकता का ख्याल रखना चाहिए।
साक्षात्कार के बाद मैंने उनसे विदा ली। पर वे अगले तीन साल तक जब तक जीवित रहे फोन पर संपर्क बना रहा। उनके पुत्र सर्वश्री ज्ञान वर्धन मिश्र और नवीन मिश्र पत्रकारिता जगत में सक्रिय हैं।  


रामजी मिश्र मनोहर स्मृति ग्रंथ -   सन 1998 में उनके ऊपर एक स्मृति ग्रंथ का प्रकाशन हुआ। इसी साल वे इस दुनिया को अलविदा कह गए। पर उनकी पत्रकारिता जगत में उनकी कृति पताका हमेशा फहराती रहेगी।

इस पुस्तक का नाम - पाटलिपुत्र की धरोहर - रामजी मिश्र मनोहर है। इसका संपादन  श्रीरंजन सूरिदेव, राय प्रभाकर प्रसाद ने मिल कर किया है। पुस्तक के प्रकाशक हैं-  मोतीलाल बनारसी दास। 
( पृष्ठ – 441, मूल्य – 300 रुपये )



रामजी मिश्र मनोहर -  जन्म - 31 दिसंबर 1931
निधन - 29 अक्तूबर 1998  ( तस्वीर - सौजन्य - नवीन मिश्र ) 
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4 comments:

मुद्दे की बात said...

बहुत सुंदर जानकारी। मैं इनसे बिल्कुल अनभिज्ञ था।

मुद्दे की बात said...

बहुत सुंदर जानकारी। मैं इनसे बिल्कुल अनभिज्ञ था।

मुद्दे की बात said...

बहुत सुंदर जानकारी। मैं इनसे बिल्कुल अनभिज्ञ था।

Vidyut Prakash Maurya said...

धन्यवाद