Mass communication through Bhojpuri Folk songs in Indian Freedom Movemnet
- VIDYUT P MAURYA
प्रस्तावना
भोजपुरी बिहार और पूर्वी उत्तर प्रदेश के जिलों में बोली जाने वाली बहुत ही प्राचीन लोकभाषा है। पर भोजपुरी बोलने वाले सिर्फ यूपी बिहार तक सीमित नहीं हैं, बल्कि झारखंड, छत्तीसगढ़, कोलकाता, दिल्ली मुंबई, पूर्वोत्तर के राज्यों में भी बड़ी संख्या भोजपुरी भाषी रहते हैं। ब्रिटिश काल में भोजपुरी भाषी जब एग्रीमेंट के तहत मजदूर बनाकर मारीशस, सुरीनाम जैसे देशों में गए तो वहां अपनी भाषा की चादर साथ लेकर गए। आज दुनिया में भोजपुरी बोलने समझने वालों की संख्या 22 करोड़ से ज्यादा है।
सुप्रसिद्ध भाषाशास्त्री डाक्टर जार्ज ग्रियर्सन ने अपनी पुस्तक ‘लिंग्वस्टिक सर्वे आफ इंडिया’ में भोजपुरी को लेकर कुछ विचार व्यक्त किए हैं। उनके कथन का हिन्दी रूपान्तरण यह है कि भोजपुरी उस शक्तिशाली, स्फूर्तिपूर्ण और उत्साही जाति की व्यावहारिक भाषा है, जो परिस्थिति और समय के अनुकूल अपने को बनाने के लिए सदैव प्रस्तुत रहती है। एक ऐसी भाषा जिसका प्रभाव हिन्दुस्तान के हर भाग पर पडा है। हिन्दुस्तान में सभ्यता फैलाने का श्रेय बंगालियों और भोजपुरियों को ही प्राप्त है। इस काम में बंगालियों ने अपनी कलम से प्रयास किया और भोजपुरियों ने अपनी लाठी से। हालांकि भोजपुरियों के लिए यहां जो लाठी का प्रयोग हुआ है वह उनके आत्म-विश्वास का प्रतीक है। यह लाठी अन्याय और असत्य के प्रति उनके असहिष्णु स्वभाव और प्रबल प्रतिकार का भी प्रतीक है।
1857 का सिपाही विद्रोह और भोजपुरी भाषा -
लोक परंपराओं और लोक गीतों में वर्ष 1857 के पहले से ही अंग्रेजों के खिलाफ साहित्य लिखा और गाया जाने लगा था। यह देखा गया है कि इन गीतों में अंग्रेजों को काफी जालिम, बेईमान और नाइंसाफ बताया जाता था। हम देखते हैं कि उस दौर में उर्दू के अलावा लोकभाषाएं जैसे भोजपुरी और मगही में भी अंग्रेजी राज के जुल्म पर बहुत कुछ लिखा और कहा गया। इसमें दो तरह की धाराएं दिखाई देती हैं। काफी कुछ साहित्य लिखा हुआ मिलता है तो काफी कुछ लोक परंपरा में गीतों में ही मिलता है। इनमें से काफी लोकगीत कभी लिखित रूप में सामने नहीं आए बल्कि लोग इसे गाया करते थे। यह गायकी में ही एक पीढ़ी से दूसरी पीढी तक आगे बढ़ता रहा। इससे पता चलता है कि लोकगायक उस दौर में भी कितना जागरूक थे। ब्रिटिश राज के खिलाफ विद्रोह को सुर देने वाली अवधी, भोजपुरी और मगही में तो बहुत-सी कविताएं हैं। 1857 के विद्रोह के नायकों में से एक बाबू कुंवर सिंह के बारे में भोजपुरी और मगही में बहुत कुछ कहा गया है।
सन सत्तावन के गदर की कहानी जिस तरह बुंदेले हरबोलों ने गाई, अवध के भाटों ने गाई, जोगियों ने सारंगी के धुन के साथ गाई तो भोजपुरी क्षेत्र के कवि और गीतकारों ने भी क्रांति गीतों को सुर दिया।
ब्रिटिश राज के खिलाफ पहले और सबसे बड़े संगठित विद्रोह जिसे सिपाही विद्रोह कहा गया है, उसका एक केंद्र बिहार का भोजपुर क्षेत्र भी था। यहां 80 साल के बाबू कुअंर सिंह ने ब्रिटिश राज के खिलाफ विद्रोह का बिगुल फूंका। उस दौर में समाचार पत्र नहीं थे। वह फेसबुक, ट्विटर, ह्वाटसएप का युग नहीं था। तो उस दौर में जन संचार में भोजपुरी गीतों ने बड़ी भूमिका निभाई। उत्तर बिहार और दक्षिण बिहार के तमाम जिलों में लोकगायकों ने बाबू कुअंर सिंह की वीरगाथा में लोकगीतों की रचना की। इन गीतों की जनचेतना के प्रसार और जन संचार में बड़ी भूमिका रही। भोजपुरी क्षेत्र के गांवों में लोक परंपरा में वीर कुअंर सिंह और उनके भाई अमर सिंह की बहादुरी के किस्से गाने के परंपरा आज भी चली आ रही है।
भोजपुरी लोकगीतों की बात करें तो इनमें प्रथम स्वतंत्रता संग्राम, चारण साहित्य और राष्ट्रीय चेतना के विप्लवी रूप स्वर बहुत ही विशिष्टता से देखने सुनने को मिलते हैं। 1857 के आसपास के भोजपुरी रचनाओं को देखा जाए तो उनमें राष्ट्रीय चेतना के सुर साफ तौर पर दिखाई देने लगते हैं। कुंअर विजयमल भोजपुरी का बहुत ही प्रसिद्ध गाथा काव्य है। इसका समय सोरठी बृजभार के बाद का है। डॉक्टर ग्रियर्सन ने इसका प्रकाशन एशियाटिक सोसाइटी ऑफ बंगाल में करवाया था।
इसकी कुछ पंक्तियां देखें-
रामा बोली उठे देवी दुरगवा हो ना..
कुँअर इहे हवे मानिक पलटनिया हो ना..
रामा घोड़वा नचावे कुंअर मैदनवा हो ना...
हालांकि इन पंक्तियों के लेखक का नाम नहीं मिलता है। पर इसमें 1857 के विद्रोह के नायक वीर कुंअर सिंह की वीरता का बखान है।
वीर कुंअर सिंह के समकालीन भोजपुरी कवि तोफा राय ने अपनी रचना कुंअर पचासा में उनकी वीरता का बखान किया। तोफा राय उत्तर बिहार के सारण जिले के हथुआ राज के राज कवि थे।
उनकी पंक्तियां देखें
देवता देखे लागल जोगनी भखे लगलि
गोरन के रक्त लाल पीके पेट भरल लू
ऊपर आकाश गरजे, नीचे बीर कुंअर गरजे,
गोर फिरंग संग पावस होली खेलल नू।
इसी तरह 1839 में जन्में भोजपुरी कवि नर्मदेश्वर प्रसाद ईश की कविताओं में उस समय के स्वतंत्रता संघर्ष का सुंदर चित्रण मिलता है। नर्मदेश्वर प्रसाद शाहाबाद के निवासी थे और वीर कुंअर सिंह के भाई लगते थे।
देसी अउर विदेशी के फरक कह राखल नाही
अपने मे लड़ लड़ के विदेशी के जितौले बा...
गोरा सिख सेना ले निडर जे चढ़ल आवे
घर के विभिखन भेद घरवे नू बतवले बा।
कुंअर सिंह और उनके भाई अमर सिंह के बीच देशभक्ति जगाने वाले संवाद की चर्चा एक और गीत में मिलती है- इस गीत रचयिता का भी नाम नहीं पता पर यह भोजपुरी के गायन परंपरा में है-
लिखि लिखि पतिया भेजे कुंअर सिहं
सुनि ल अमर सिंह भाई हो रामा।
चमवा के टोंटवां दांत से चलवाता
छत्री के धरम नसावे हो रामा।
पंक्तियां भोजपुरी चैता शैली में है। इसमें कुंअर सिंह अपने भाई अमर सिंह को पत्र लिख कर संदेश दे रहे हैं। कारतूस में चमड़े के इस्तेमाल की बात कही जा रही है। संदेश है कि अंगरेज छत्रिय का धर्म भ्रष्ट कर रहे हैं।
इसी तरह एक गीत में कुंअर सिंह और अमर सिंह की वीरता का बखान नजर आता है।
पहली लड़इया कुंअर सिंह जीते
दूसरी अमर सिंह भाई हो रामा।
तीसरी लड़इया सिपाही सब जीते
लाट उठे घबराई हो रामा।
बाबू कुंअर सिंह की वीर गाथा की पंक्तियां भोजपुरी समाज में आज भी गांवों में गाई जाती है। ये गीत लोगों में आज भी उत्साह का संचार करते हैं।
भोजपुरी लोकगीत में गांधीजी
महात्मा गांधी और उनके द्वारा संचालित स्वतंत्रता-संग्राम आंदोलन का प्रभाव भोजपुरी क्षेत्र में देश के अन्य भागों की अपेक्षा अधिक रहा, क्योंकि इस आंदोलन का प्रारम्भ गांधीजी ने स्वयं सन् 1917 में चम्पारण से किया था। हमें कई भोजपुरी गीतों में निलहा आंदोलन और गांधीजी का जिक्र मिलता है।
उत्तर बिहार के चंपारण निवासी शिवशरण पाठक की सन 1900 में रचित गीत में नील की खेती और ब्रिटिश जुल्म का चित्रण मिलता है। यह गीत बापू के चंपारण आने से पहले का है।
राम नाम भइल भोर गांव लिलहा के भइले
चंवर दहे सब धान, गोएडे लील बोइले...
भई भैल आमील के राज, प्रजा सब भइले दुखी
मिल जुल लुटे गांव गुमस्ता, हो पटवारी सुखी।
इस गीत की रचना के 17 साल बाद महात्मा गांधी का चंपारण क्षेत्र में आगमन होता है। इसके साथ ही चंपारण में चल रहे तीन कठिया प्रथा और नील की खेती के खिलाफ एक आंदोलन खड़ा होता है।
गोपाल शास्त्री बिहार में सारण जिले के संस्कृत के विद्वान थे। वे सन 1932 में उत्तर प्रदेश कांग्रेस के अध्यक्ष भी चुने गए थे। वे असहयोग आंदोलन के अगुआ थे। शास्त्रीजी द्वारा रचित लोकगीत न केवल बहुत लोकप्रिय हुए, बल्कि उनका प्रचार भी काफी हुआ। अपने गीतों से वे अंग्रेज़ों की नज़र पर चढ़ गए और उनका सारा साहित्य जब्त कर लिया गया। उनके राष्ट्रीय गीत की एक बानगी देखिए -
उठु उठु भारतवासी अबहु ते चेत करू,
सुतले में लुटलसि देश रे विदेशिया।
जननी - जनम भूमि जान से अधिक जानि,
जनमेले राम अरुं कृष्ण रे विदेशिया।
इसी तरह सरदार हरिहर सिंह अपने गीतों से आम जनता को जगाने का काम करते प्रतीत होते हैं।
चलु भैया चलु आज सभे जन जन हिली मिली..
सूतल जे भारत के भाई के जगाई जा।
गांधी अइसन जोगी भइया जेहल में परल बाटे
मिली जुली चलु आज गांधी के छोड़ाई जा।
ये वही सरदार हरिहर सिंह हैं जो आजादी के बाद राजनीति में आए और 1969 में बिहार के मुख्यमंत्री भी बने।
गांधी जी की पहल पर सन 1926 में गुवाहाटी कांग्रेस अधिवेशन में कांग्रेस के सदस्यों के लिए खादी वस्त्र पहनने का प्रस्ताव पारित किया गया। खादी- भावना जन-जन तक पहुंच गई। तो इसका यशगान लोक-कंठ से भी फूट पड़ा। खादी-गान संबंधी इस गीत से इसका अनुमान लगाया जा सकता है -
खद्दर की धोती पहिरे, खद्दर के कुरता पहिरे,
आवे के बेरि गाँधी बाबा अवरु राजेन्द्र बाबू सीटिया बजवले
उठि गइले सब सुराजी, सुराजी झंडा हाथ में।।
हालांकि 1926 में रचित इस लोकगीत के रचनाकार का नाम नहीं मिलता है पर इस लोकगीत के से यह स्पष्ट है कि भोजपुरी जनमानस ने गांधी-दर्शन को स्वतंत्रता- आंदोलन के परिप्रेक्ष्य में पूरी तरह आत्मसात कर लिया था। (5)
इसी तरह बापू के चरखा चलाने पर भी भोजपुरी में कई गीत रचे गए। इन गीतों के माध्यम से स्वदेशी का संदेश गांव-गांव में पहुंच रहा था।
देसवा के लाज रहि है चरखा से,
गांधीजी के मान सनेसवा
पिया जनि जा हो विदेसवा।।
भोजपुरी भाषा के माध्यम से स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान ब्रिटिश राज के खिलाफ सुर देने वाले भोजपुरी कवियों की सूची यहीं खत्म नहीं होती। शाहाबाद, बलिया, छपरा के 20 से ज्यादा कवि हैं जिन्होंने अपनी कलम ब्रिटिश राज के खिलाफ चलाई और गीतों के माध्यम से जन जागरण का काम किया।
रचना काल के लिहाज से भोजपुरी साहित्य सृजन को पांच हिस्सों में बांटा गया है। दुर्गा शंकर प्रसाद सिंह ने अपनी पुस्तक भोजपुरी के कवि और काव्य कालखंड का विभाजन पेश किया है। उन्होंने साल 1900 से 1950 को भोजपुरी काव्य का आधुनिक काल माना गया है। इस काल में भी स्वतंत्रता संग्राम युगीन रचनाएं देखने को मिलती हैं।
भोजपुरी के महान कवि रघुवीर नारायण और बटोहिया –
भोजपुरी में अगर हम क्रांति गीतों की चर्चा करें तो भला रघुवीर नारायण को कैसे भूल सकते हैं। 30 अक्टूबर 1884 को जन्में इस महान हिन्दी साहित्यकार तथा भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के सेनानी ने जिस गीत की रचना की उसे भोजपुरी में वंदे मातरम जैसा सम्मान मिला। उनके द्वारा रचित 'बटोहिया' नामक भोजपुरी राष्ट्रीय गीत को आचार्य शिवपूजन सहाय ने भोजपुरी का वंदे मातरम का। जन-जागरण गीत की तरह गाया जाने वाला यह गीत पूर्वी लोकधुन में लिखा गाया है। साल 1911 में उन्होंने इस गीत की रचना डॉक्टर राजेंद्र प्रसाद की सलाह पर की थी। इसका रचना काल हमारे राष्ट्रगान जन गन मन अधिनायक...( 1912 ) से एक वर्ष पहले का है।
थोड़ी बात रघुवीर नारायण की करें तो....रघुवीर नारायण का जन्म बिहार के सारण जिले के दहियावां गांव में हुआ था। उनके पिताजी का नाम जगदेव नारायण था। उनकी स्कूली शिक्षा जिला विद्यालय, छपरा में हुई। उन्होने पटना कॉलेज से प्रतिष्ठा के साथ स्नातक किया। शुरुआत में वे अंग्रेजी में लिखते थे, पर बाद में अपनी मातृभाषा में लिखा। 1940 के बाद उन्होंने पूर्ण संन्यासी जीवन जिया। उनका निधन 1 जनवरी 1955 को हुआ।
इतिहासकर सर यदुनाथ सरकार ने रघुवीर नारायण को एक खत में लिखा- - “I can not think of you without remembering your BATOHIYA .
रघुवीर नारायण जी की कविता बटोहिया के बारे में राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर ने अपने एक लेख बिहार की साहित्यिक प्रगति में लिखा - बाबू रघुवीर नारायण बिहार में राष्ट्रीयता के आदिचारण और जागरण के अग्रदूत थे। पूर्वी भारत के ह्रदय में राष्ट्रीयता कि जो भावना मचल रही थी , वह पहले पहल उन्ही के ‘बटोहिया’ नामक गीत में फूटी और इस तरह फूटी कि एक उसी गीत ने उन्हें अमर कवियों कि श्रेणी में पंहुचा दिया।
सिर्फ बिहार या भारत ही नहीं, मारीशस, त्रिनिदाद, फिजी, गुयाना इत्यादि जगहों तक, जहां भी भोजपुरी जानी जाई जाती है, वहां इसकी लोकप्रियता थी। 1970 तक 10वीं और 11वीं बिहार टेक्स्ट बुक के हिंदी काव्य की पुस्तक के आवरण पर यह गीत प्रकाशित हुआ करता था।
इसकी प्रथम चार पंक्तियां देखें –
सुंदर सुभूमि भैया भारत के देसवा से
मोरे प्राण बसे हिम-खोह रे बटोहिया
एक द्वार घेरे रामा हिम-कोतवलवा से
तीन द्वार सिंधु घहरावे रे बटोहिया…
वैसे बटोहिया को समग्र रूप से सुनें तो इसमें जिस तरह के राष्ट्रीय गौरव का चित्रण हुआ है वह इसके समकालीन दूसरी भाषा के राष्ट्रीय गीतों में नहीं दिखाई देता है।
इसी दौर के एक और कवि बाबू प्रसिद्ध नारायण सिंह भी क्रांति गीतों को वीर रस में सुर देते हैं –
लुटा दिहलन परान जे मिटा दिहलन सान जे
चढ़ा के सीस देश के बना दीहलन मान जे
गौहर जान और भोजपुरी कजरी में क्रांति के सुर -
भोजपुरी की बहुत ही प्रसिद्ध कजरी है – मिर्जापुर कइल गुलजार हो, कचौड़ी गली सुन कइला बलमू । इस कजरी की रचयिता बनारस और कोलकाता की जानी मानी तवायफ गौहर जान थीं। गौहर जान के बारे में कहा जाता है कि वे क्रांतिकारियों की मदद भी करती थीं। उनके चाहने वालों की फेहरिस्त में बड़े बड़े रईस लोग थे। इन्ही में से एक के विरह में उन्होंने कचौड़ी गली सून कइल बलमू लिखा था। पर इस विरह गीत में ब्रिटिश सरकार की कारस्तानियां झलकती हैं। इसकी आगे की पंक्तियां बताती हैं....एहि मिर्जापुरवा से उड़ल जहजवा, पिया चले गइले रंगून हो कचौडी गली सून कइला बलमू । इसमें पिया के रंगून जाने का जिक्र आता है। तब क्रांतिकारियों को सजा के तौर पर रंगून भेजा जाता था।
नवाब वाजिद अली शाह की दरबारी नृत्यांगना मलिका जान और आर्मेनियाई पिता विलियम की 1873 में जन्मी संतान गौहर की फनकारी, विद्वता और अदाओं ने संगीत प्रेमियों में दीवानगी पैदा की थी। उन्हें देश की पहली ग्लैमरस गायिका कहा जाता है। वह पहली ऐसी गायिका थीं, जिनके गीतों के रिकॉर्ड्स बने थे। 1902 से 1920 के बीच द ग्रामोफोन कंपनी ऑफ इंडिया ने गौहर के हिन्दुस्तानी, बांग्ला, गुजराती, मराठी, तमिल, अरबी, फारसी, पश्तो, अंग्रेजी और फ्रेंच गीतों के छह सौ डिस्क निकाले थे।
राहुल सांकृत्यायन और भोजपुरी नाटक-गीत
स्वतंत्रता पूर्व भारत में हिंदी के महान लेखक राहुल सांकृत्यायन का कार्य क्षेत्र भी भोजपुरी क्षेत्र में रहा। बिहार के छपरा और आसपास के इलाकों में उन्होंने किसानों के बीच में काफी सक्रियता से काम किया। उनकी कई पुस्तकों में छपरा के उनके किसान आंदोलन की चर्चा मिलती है। पर इस दौरान राहुल जी ने भोजपुरी की ताकत को पहचाना और कुछ पुस्तकों की रचना उन्होने भोजपुरी में की। महापंडित राहुल सांकृत्यायन ने आठ भोजपुरी नाटकों-की रचना की। यहां उन्होंने लेखक का नाम राहुल बाबा दिया। इनमें जोंक, नईकी दुनिया, जपनिया राछस, ढुनमुन नेता, देस रक्षक, जरमनवा के हार प्रमुख हैं। उनके लिखा भोजपुरी नाटक मैहरारुन के दुरदसा तत्कालीन समाज को संदेश देने के लिए था। नाटक महिलाओं की सामाजिक स्थिति पर प्रकाश डालता है। उनके ये नाटक संग्रह दो हिस्सों में 1942 और 1944 में प्रकाशित हुए थे। जोंक नाटक में उन्होंने एक भोजपुरी गीत लिखा था जो किसानों के जमींदारों के शोषण की बात रखता है-
हे फिकिरिया मरलस जान।
सांझ बिहान के खरची नइखे, मेहरी मारै तान।।
अन्न बिना मोर लड़का रोवै, का करिहैं भगवान।।
करजा काढि काढि खेती कइली, खेतवै सूखल धान।।
बैल बेंचि जिमदरवा के देनी सहुआ कहे बेईमान।।
भले ही क्रांति गीत नहीं है, पर ब्रिटिशकालीन भोजपुरी समाज की दुर्दशा बयां करता है।
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भारत में ब्रिटिश राज के आगमन काल के साथ ही हिंदी पट्टी में खडी बोली का उदय हो रहा था। पर यह बात बहुत मजबूती के साथ कही जा सकती है कि वह 1857 का गदर के आसपास का कालखंड हो या फिर चंपारण आंदोलन के बाद भारतीय राजनीति का गांधी युग हो, भोजपुरी लोकगीतों ने तत्कालीन समाज में जन चेतना जागृत करने में जन संचार के अवयव के रूप में बड़ी भूमिका निभाई।
संदर्भ –
1. पुस्तक छवि और छाप – सुनील कुमार पाठक - पृष्ठ- 55 61-62, ग्रंथ अकादमी,दरियागंज, 2015
2. हिंदी हिंदी दैनिक, 6 अप्रैल 2017, संपादकीय पृष्ठ, ध्रुव गुप्ता का लेख, गौहर जान।
3. बीबीसी हिंदी,मृणाल पांडे का लेख- गौहरजान- 18 अप्रैल 2016
4. पुस्तक -भोजपुरी के कवि और काव्य- दुर्गा शंकर प्रसाद सिंह –( पृष्ठ-32 )
5. भोजपुरी लोकगीतों मे गांधी दर्शन – डाक्टर राजेश्वरी शांडिल्य - http://www.hindi.mkgandhi.org/gmarg/chap27.htm गाँधी और गाँधी-मार्ग, संपादक : डॉ. सुशीला गुप्ता (2006)
6. बीबीसी पर शमसुर रहमान फ़ारूक़ी उपाध्यक्ष, काउंसिल फ़ॉर प्रमोशन ऑफ़ लैंग्वेजhttp://www.bbc.com/hindi/regionalnews/story/2007/05/printable/070508_spl_1857_farooqui.shtml
7. पुस्तक - जंगनामा – विद्या विंदु सिंह, पृष्ठ – 58 प्रकाशक – ज्ञानगंगा, दिल्ली।
8. http://www.bidesia.co.in/bhojpuri-poetry.php?subaction=showfull&id=1299428059&archive=&start_from=&ucat=5&
9. http://www.patnabeats.com/ek-kavita-bihar-se-batohiya/
10. पुस्तक तीन नाटक, पांच नाटक – राहुल सांकृत्यायन – 1942, 1944
( This paper was Presented at National Seminar on Regional Languages at Govt college, Talbehat, Lalitpur UP held on 24-25 Feb 2018 )
( This paper was Presented at National Seminar on Regional Languages at Govt college, Talbehat, Lalitpur UP held on 24-25 Feb 2018 )
लेखक संपर्क -
-विद्युत प्रकाश मौर्य , Vidyut P Maurya
ईमेल – vidyutp@gmail.com Mobile - 9711815500
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