जब आप बस में चढते हैं तो आपका पहला सामाना बस के कंडक्टर से होता है। यह बहुत बड़ा सवाल है कि वह कंडक्टर आपके साथ कैसा व्यवहार करता है। खास कर जब दिल्ली में किसी प्राइवेबट बस में चढते हैं तो आप कंडक्टर का व्यवहार नहीं भूला सकते है। अगर कोई दिल्लीवासी हो तो उसे यह बताने की जरूरत नहीं है कि दिल्ली की बसों में कंडक्टर का व्यवहार कैसा होता है, क्योंकि दिल्लीवाले तो उन्हें सालों से झेलते आ रहे हैं। मतलब की वे इसके आदी हो चुके हैं। पर कोई आदमी पहली बार दिल्ली में आता हो और किसी प्राइवेट बस में बैठ जाता हो तो वह कंडक्टर के व्यवहार को देखकर जरूर कई तरह की बातें सोच सकता है।
अब यह बताने की जरूरत नहीं है कि कंडक्टर का व्यवहार कैसा होता है। अगर हम कंडक्टर के शाब्दिक अर्थ पर जाएँ तो यह शब्द ही कंडक्ट करने से बना है। यानी कंडक्टर के लिए व्यवहार ही सबसे बड़ी जरूरत है। पर दिल्ली के निजी बस के कंडक्टरों का व्यवहार से दूर दूर तक कोई वास्ता नहीं है। उन्हें दरअसल इसकी कभी ट्रेनिंग भी नहीं दी गई। इसके उल्ट सरकारी डीटीसी बसों के कंडक्टरों का व्यवहार आम लोगों के साथ अच्छा होता है।अगर आप दिल्ली की किसी ब्लू लाइन बस में घंटे दो घंटे का सफर करें और कंडक्टर का उतरने चढ़ने वाले लोगों के साथ संवाद पर गौर फऱमाएं तो बेहतर समझ सकते हैं कि वह लोगों के साथ कैसे पेश आता है। टिकट खरीदने के लिए लोगों को बुरी तरह के से चिल्लाकर कहना, लोगों को अंदर चलने और उतरने चढने के लिए हल्ला मचाना इसके साथ ही छोटी-छोटी बातों को लेकर यात्रियों के साथ बकझक करना...यह सब किसी के लिए भी बड़े बुरे अनुभव हो सकते हैं। अगर हम पूरी दुनिया की या भारत की भी बात करें तो हर जगह पब्लिक डिलिंग करने वालों लोगों को इस बात की खास तौर पर ट्रेनिंग दी जाती है कि वे लोगों के साथ कैसा व्यवहार करें। इसके लिए कई संस्थानों में समय समय पर वर्कशाप लगाए जाते हैं और रिफ्रेशर कोर्स भी कराए जाते हैं।
आप किसी दफ्तर में प्रवेश करते हैं तो वहां बैठा रिसेप्सनिस्ट आपके साथ मुस्कराकर बातें करता है और आपके साथ अच्छा व्यवहार करता है।निश्चित तौर पर कहीं भी अच्छा व्यवहार जहां किसी को भी शुकुन प्रदान करता है तो बुरे व्यहार से खीज होती है...तनाव होता है...जब लिफ्ट में चढते हैं लिफ्ट वाला, या रोज रोज टकराने वाले तमाम पेशेवर लोग आपके साथ मधुरवाणी में पेश आते हैं। देश के कई अन्य महानगरों में चले जाएं तो वहां के बस कंडक्टरों का व्यवहार भी आमतौर पर ठीक होता है। आंध्र प्रदेश की राजधानी हैदराबाद में तो बसों में महिला कंडक्टरों की नियुक्ति कर दी गई है। वहां महिला कंडक्टर जहां अपना काम पूरी तत्परता से करती हैं वहीं वे लोगों के साथ अच्छा व्यवहार भी करती हैं। वैसे भी आप आमतौर पर महिलाओं से गाली गलौज वाली जुबान की उम्मीद नहीं कर सकते हैं। पर दिल्ली के बस कंडक्टर तो बात बात में गाली-गलौच पर उतारू हो जाते हैं। इसलिए जरूरत इस बात की है भले ही कंडक्टर प्राइवेट बसों में काम करते रहे हैं पर उन्हें बस में बहाल करने से पहले लोगों के साथ व्यवहार करने के तौर तरीकों की अनिवार्य तौर पर ट्रेनिंग दी जाए। जिस तरह ड्राइवर बनने के लिए प्रशक्षिण और उसके बाद लाइसेंस लेना जरूरी किया गया है। उसी तरह से कंडक्टर का भी प्रशिक्षण और प्रमाण पत्र होना चाहिए।
हो सकता है इससे दिल्ली का कंडक्टरों का व्यवहार पूरी तरह नहीं बदल पाए पर बसों होने वाले हो हल्ला और तनाव में कमी जरूर आएगी। अभी दिल्ली के भीड़ भरी किसी निजी बस में सफर करना एक बुरे सपने जैसा ही है। दिल्ली की निम्न मध्यमवर्गीय जनता इसको सालों साल से झेलने की आदी हो गई है, इसलिए उसे कोई सुधार की उम्मीद नजर नहीं आती। हाल के सालो में कंडक्टरों के लिए वर्दी और उनके नाम का बैच लगाना जरूरी कर दिया गया है। पर बात इतने से बनने वाली नहीं है, जब तक उन्हें सही तरीके से व्यवहार करना नहीं सीखाया गया तो हम 2010 के लिए जिस दिल्ली को तैयार कर रहे हैं उसमें कहीं न कहीं बट्टा लगा हुआ रह ही जाएगा।
-- विद्युत प्रकाश मौर्य