Thursday, 17 July 2008

कहीं खो गया है उनका बचपन

आजकल एकल परिवारों की संख्या अधिक हो रही है। ऐसे में बच्चे दादा-दादी की कहानियों से अछुते रह जाते हैं। इस माहौल में आखिर बच्चा करे तो क्या करे। हर थोड़ी देर पर बच्चा पूछता है मम्मा अब मैं क्या करुं। इसमें बच्चे की भी क्या गलती है। वह नन्ही सी जान बोर जो हो जाता है। कोई भी खिलौना उसे ज्यादा देर तक इंगेज नहीं रख पाता। अब माता पिता की यह समस्या है कि अब कितने पैसे खर्च करें। हर हफ्ते तो हम नया खिलौना नही खरीद सकतें। हम बच्चें को क्वालिटी टाइम भी नहीं दे पा रहें हैं। जिससे बच्चे उदास और चिड़चिड़े रहने लगे हैं। ऐसे में कार्टून चैनलों ने बच्चों की जिज्ञासा को शांत किया है। बच्चे कार्टून देखने में घंटों व्यस्त तो जरूर हो जाते हैं, किन्तु कार्टून चैनल बच्चों के विचारणीय क्षमता को कुंद भी कर रहे हैं।

कार्टून देखते देखते बच्चे आभासी दुनिया में जीने लगते हैं। कई बार काल्पनिक पात्रों को जीने में बच्चे खुद को नुकसान पहुंचा लेते हैं। तीन साल का वंश कहता है कि मैं एक्शन कामेन बन गया हूं, अब तुम मुझसे लड़ाई करो। इस क्रम में वह पलंग से तो कभी कुर्सी से छलांग लगाता है। और यही नहीं वह घंटो कार्टून देखने की जिद करता है।
घर में बच्चों की समस्याओं से उबरने के लिए कई माता पिता अपने बच्चें को जल्दी प्ले-वे में डाल देते हैं। पर कोई जरुरी नहीं है कि आपका बच्चा प्ले वे में जाकर खुश ही हो। हो सकता है कि वह और तनाव में आ जाए। वहां बच्चे को खेलने वाले साथी तो मिल जाते हैं। कई बच्चे वहां जाकर खुश भी रहते है पर कई और ज्यादा तनाव में आ जाते हैं। उन्हें कई कठिनाईयों का सामना करना परता है जैसे सुबह जल्दी उठना, कभी पैंट में पौटी हो जाने से बच्चों का चिढाना इत्यादि। इस क्रम में उन्हें कई तरह के शारीरिक तथा मानसिक यातनाएं सहनी पड़ती है। कई बार डिप्रेशन के शिकार हो जाते है। बच्चें इतने तनाव में आ जाते है कि बोलना तक छोड़ देते हैं। इसलिए बहुत जरुरी है कि बच्चे को समय देना। उसके साथ खेलना उसकी बातों को सुनना, उसकी समस्याओं को सुलझाना।


यदि आप उसे प्ले वे में डालना ही चाहते हैं तो उसके लिए उसे पहले तैयार करें। उसे बताएं कि उसे कुछ समय के लिए अपने माता पिता से दूर रहना पड़ सकता है। वहां बहुत बच्चें होंगे जिनके साथ आप खेल सकते हो। वहां एक टीचर भी होंगी जो आपको नई-नई बातें बताएंगी। नए-नए गेम सिखाएंगी। कुछ इस तरह से आप अपने बच्चे को तैयार कर सकते हैं कि आपका बच्चा खुशी-खुशी उस संस्थान को जाए। अगर बात फिर भी बनती नजर नहीं आ रही तो आप बाल रोग विशेषज्ञ की सलाह ले सकते हैं। याद रखें अपने नौनिहाल को कच्ची उम्र में पूरा समय दें , क्योंकि उसका बचपन लौटकर फिर नहीं आएगा।


-माधवी रंजना, madhavi.ranjana@gmail.com

Thursday, 3 July 2008

पोस्टकार्ड की ताकत

कई दोस्त यह लिख रहे हैं कि यह फोन, फैक्स, ईमेल और वीडियो कान्फ्रेंसिंग का जमाना है। अब लोगों को चिट्ठियां लिखना छोड़ दिया है। लिखते भी हैं तो कूरियर करते हैं। पर मुझे लगता है कि अभी पोस्टकार्ड की ताकत कायम है। भले ही ईमेल तेजी के लोकप्रिय हो रहा हो, पर क्या अभी ईमेल देश की एक बड़ी आबादी तक पहुंच गया है। अगर देश में 65 फीसदी लोग साक्षर हो गए हैं तो इमेल कितने लोगों तक पहुंच गया है। जाहिर अभी आमलोगों में ईमेल इतना लोकप्रिय नहीं हुआ है। कई जगह एक्सेसेब्लिटी नहीं है। पर इतना जरूर है कि अब बायोडाटा भेजने और कई तरह की अन्य जरूरी जानकारियां भेजने के लिए लोग ईमेल का इस्तेमाल कर रहे हैं। पर ईमेल के इस दौर में भी पोस्टकार्ड की मह्ता अभी भी कायम है। देश के 70 फीसदी आबादी गांवों रहती है, उनके पास संदेश भेजने के लिए पोस्टकार्ड ही जरिया है। ये जरूर है कि काफी गांवों में अब लोगों के पास मोबाइल फोन हो गए हैं। ऐसी सूरत में अब फोन करके और एसएमएस करके काम चल जाता है। पर फोन और एसएमएस के बाद भी चिट्ठियां लिखने का महत्व कम नहीं हुआ है। हां, यह जरूर है कि फोन और एसएमएस ने पोस्ट आफिस के टेलीग्राम सिस्टम को बीते जमाने की चीज बना दिया है।
पर जब आप किसी को पोस्ट कार्ड लिखते हैं तो आपकी हस्तलिपी में जे लेख्य प्रभाव होता है वह फोन फैक्स या एसएमएस में गौण हो जाता है। हस्तलिपी के साथ व्यक्ति का व्यक्तित्व भी जाता है। तमाम लोगों ने अपने रिस्तेदारों और नातेदारों की चिट्ठियां अपने पास संभाल कर रखी होती हैं। कई लोगों के पास जाने माने साहित्यकारों और समाजसेवियों के पत्र हैं। ये पत्र कई बार इतिहास बन जाते हैं। मैं महान गांधीवादी और समाजसेवी एसएन सुब्बाराव के संग एक दशक से ज्यादा समय से जुड़ा हूं। उनके हाथ से लिखे कई पोस्टकार्ड मेरे पास हैं। समाजसेवी और पर्यावरणविद सुंदरलाल बहुगुणा का पत्र मेरे पास है। हिंदी प्रचारक संस्थान के निदेशक कृष्णचंद्र बेरी सबको नियमित पत्र लिखा करते थे। मैंने पूर्व सांसद और साहित्यकार बालकवि बैरागी को देखा है कि वे खूब पत्र लिखते हैं। हर पत्र का जवाब देते हैं। इसी तरह सासंद और साहित्यकार डा. शंकर दयाल सिंह भी हर पत्र का जवाब दिया करते थे। कई पुराने चिट्ठी लिखाड़ अब ईमेल का इस्तेमाल करने लगे हैं। पर उन्होंने पत्र लिखना नहीं छोड़ा है। मैंने मनोहर श्याम जोशी का एक लेख पढ़ कर उन्हें पत्र लिखा तो उनका जवाब आया।
कहने का लब्बोलुआब यह है कि हमें पत्र लिखने की आदत को बीते जमाने की बात नहीं मान लेना चाहिए। जो लोग अच्छे ईमेल यूजर हो गए हैं, उन्हें भी पत्र लिखना जारी रखना चाहिए। क्या पता आपके लिखे कुछ पत्र आगे इतिहास का हिस्सा बन जाएं। आप यकीन मानिए कि ईमेल और एसएमएस के दौर में भी पोस्टकार्ड ने अपनी ताकत खोई नहीं है। 50 या फिर 25 पैसे में आप पोस्टकार्ड से वहां भी संदेश भेज सकते हैं जहां अभी ईमेल या एसएमएस की पहुंच नहीं है। भारतीय डाकविभाग द्वारा जारी मेघदूत पोस्टकार्ड तो 25 पैसे में ही उपलब्ध है।
-विद्युत प्रकाश मौर्य
-