Wednesday, 31 December 2008

गुजर गया एक साल और...

एक और साल गुजर गया...गुजरे हुए साल के टेलीविजन स्क्रीन पर नजर डालें तो समाचार चैनलों पर दो खबरें छाई रहीं, आरूषि मर्डर केस और मुंबई आतंकी हमले की लाइव कवरेज। भारत में 24 घंटे लाइव समाचार चैनलों का इतिहास अब एक दशक से ज्यादा का समय तय कर चुका है। इस एक दशक में परिपक्वता तो आई है लेकिन ये परिपक्वता किस तरह की है, इसके बारे में सोचना जरूरी है। क्या भारत के समाचार चैनल जिम्मेवार चौथे खंबे की भूमिका निभा रहे हैं।


अगर हम आरूषि मर्डर केस की बात करें तो तमाम टीवी चैनल जिनके दफ्तर नोएडा या दिल्ली में हैं उन्हें दिल पर हाथ रखकर पूछना चाहिए कि क्या आरूषि मर्डर केस जैसी घटना जबलपुर या रांची में हुई होती तो वे घटना को उतनी ही कवरेज देते। सच्चाई तो यही थी कि चैनल दफ्तर के पास एक क्राइम की खबर मिली थी, सबकों अपने अपने तरीके से कयास लगाने का पूरा मौका मिला। केस का इतना मीडिया ट्रायल हुआ जो इससे पहले बहुत कम केस में हुआ होगा। देश के नामचीन चैनलों ने मिलकर आरूषि और उसके परिवार को इतना बदनाम किया कि सदियों तक आत्मालोचना करने के बाद भी आरूषि की आत्मा उन्हें कभी माफ नहीं कर पाएगी।
सवाल यह है कि किसी भी टीवी चैनल को किसी परिवार की इज्जत को सरेबाजार उछालने का हक किसने दिया है। जाने माने संचारक ने कहा था कि मैसेज से ज्यादा जरूरी है मसाज। तो जनाब समाचार चैनल किसी एक खबर को इतनी बार इतने तरीके से मसाज करते हैं कि वह हर किसी के जेहन में किसी दु:स्पन की तरह अंकित हो जाता है। मैं अपने तीन साल के नन्हें पुत्र को उत्तर देने में खुद को असमर्थ पाता हूं जब वह समाचार चैनल देखकर कई तरह की जिज्ञासाएं ज्ञापित करता है। तब मेरा पत्रकारीय कौशल जवाब दे जाता है। सवाल एक नन्हीं सी जान का ही नहीं है। सवाल इस बात का है कि हम नई पीढ़ी को क्या उत्तर देंगे।


अब बात मुंबई धमाकों के लाइव कवरेज की। जिस चैनल के पास जितनी उन्नत तकनीक थी उस हिसाब से आंतकी के सफाया अभियान का जीवंत प्रसारण दिखाने की कोशिश की। लेकिन बाद में पता चला कि इसका हमें भारी घाटा उठाना पड़ा। आतंकी टीवी चैनलों की मदद से सब कुछ आनलाइन समझने की कोशिश कर रहे थे। लेकिन हम देश को तीन दिन तक क्या दिखा रहे थे। टीवी के सुधी दर्शकों ने अपने अपने तरीके से खबर को देखा होगा, लेकिन एक बार फिर अपने तीन साल नन्हे बेटे के शब्दों की ओर आना चाहूंगा।


मेरा बेटा जो धीरे धीरे दुनिया को समझने की कोशिश कर रहा है, अक्सर कहा करता था कि पापा मैं बड़ा होकर पुलिस वाला बनना चाहता हूं। उसकी नजर में पुलिस वाले बहादुर होते हैं। पर 59 घंटे आतंकी सफाए की लाइव कवरेज देखने के बाद मेरे बेटे मानस पटल जो कुछ समझने की कोशिश की उसके मुताबकि अब वह पुलिस बनने का इरादा त्याग रहा है, उसने कहा कि पापा अब मैं पुलिस नहीं बनूंगा. अब तो मैं आतंकवादी बनना चाहता हूं। हां आतंकवादी इसलिए कि वे पुलिस वालों से भी ज्यादा बहादुर होते हैं। आतंकवादी पुलिस वालों को मार डालते हैं। ....ये था 59 घंटे टीवी चैनलों की लाइव कवरेज का असर। मैं अपने बेटे को एक बार फिर कुछ समझा पाने में खुद को असमर्थ पा रहा हूं।


जाहिर सी बात है कि टीवी चैनल खबरों को मांजने को लेकर अभी शैशवावस्था की में है। हम खबर को ढोल पीटकर दिखाना चाहते हैं। कोई अगर हमारे चैनल पर ठहरना नहीं चाहता है तो हम हर वो हथकंडे अपनाना चाहते हैं जिससे कि कोई रिमोट का बटन बदल कर किसी और चैनल की ओर स्वीच न करे। हालांकि सारे चैनलों के वरिष्ट पत्रकार दावा तो इसी बात का करते हैं कि वे जिम्मेवार पत्रकारिता ही कर रहे हैं लेकिन इस तथाकथित जिम्मेवार पत्रकारिता का लाखों करोड़ो लोगों पर कैसा असर हो रहा है....
तुम शौक से मनाओ जश्ने बहार यारों
इस रोशनी मे लेकिन कुछ घर जल रहे हैं...

हमें वाकयी दिल पर हाथ रखकर सोचना चाहिए कि हम जो कुछ करने जा रहे हैं उसका समाज पर क्या असर पडेगा। जब मीडिया के उपर कोर्ट की या सूचना प्रसारण मंत्रालय की चाबुक पड़ती है तब तब याद आता है कि हमें संभल जाना चाहिए। लेकिन हम अगर पहले से ही सब कुछ समझते रहें तो क्या बुराई है। सबसे पहले समाचार चैनलों ने प्राइम टाइम में अपराध दिखा दिखा कर टीआरपी गेन करने की कोशिश की थी। अब अपराध का बुखार उतर चुका है तो समाचार चैनल ज्यादातर समय अब मनोरंजन और मशाला परोस कर टीआरपी को अपने पक्ष में रोक कर रखना चाहते हैं। धर्म को बेचने का खेल भी अब फुस्स हो चुका है।
वैसे इतना तो तय है कि आने वाले सालों में फिर से खबरों की वापसी होगी। खबर के नाम पर आतंक, भय जैसा हाइप क्रिएट करने का दौर निश्चित तौर पर खत्म हो जाएगा। लेकिन वो सुबह भारतीय टीवी चैनल के इतिहास में शायद देर से आएगी, लेकिन आएगी जरूर....
- -विद्युत प्रकाश मौर्य

Friday, 19 December 2008

इनकी ईमानदारी का स्वागत करें

चांद मोहम्मद यानी चंद्रमोहन ने ऐसा कौन सा अपदाध कर दिया है कि उनके साथ अपराधी जैसा व्यवहार किया जा रहा है। उन्होने अनुराधा वालिया उर्फ फिजां से शादी रचाई है। हमें चंद्रमोहन के साहस और इमानदारी की तारीफ करनी चाहिए कि उन्होंने इस रिश्ते को एक नाम दिया है। एक पत्नी के साथ अठारह साल तक निभाने के बाद उन्होंने दूसरी शादी कर ली है। दूसरी शादी करने से पूर्व अपने पत्नी और बच्चों को उन्होंने भरोसे में लिया था।
उन्होंने शादी के लिए धर्म परिवर्तन किया ये अलग से चर्चा का मुद्दा हो सकता है। लेकिन कई साल तक राजनीतिक जीवन जीने वाले कालका से विधायक और हरियाणा के पूर्व उप मुख्यमंत्री रहे चंद्रमोहन ने सब कुछ सार्वजनिक करके रिश्तों में और सार्वजनिक जीवन में जो इमानदारी का परिचय दिया है उसका स्वागत किया जाना चाहिए। अगर हम पहले राजनीति की ही बात करें तो हर दशक में ऐसे दर्जनों नेता रहे हैं जिन्होंने दो दो शादियां की है।
दर्जनों लोगों ने हिंदू रहते हुए दो दो शादियां कर रखी हैं और इन शादियों पर पर्दा डालने की भी कोशिश की है।
भारतीय जनता पार्टी, लोकजनशक्ति पार्टी, राष्ठ्रीय जनता दल में कई ऐसे सीनियर लीडर हैं जिनकी दो शादियां है। भले ही हिंदू विवाह दो शादियों को गैरकानूनी मानता हो पर ये नेता एक से अधिक पत्नियों के साथ निभा रहे हैं।
अगर राजनीतिक की बात की जाए तो सभी जानते हैं कि राजनेताओं का महिला प्रेम कितना बदनाम रहा है। बड़े बड़े राजनेताओं पर रसिया होने के कैसे कैसे आरोप लगते रहे हैं। कहा जाता है कि किसी पिछड़े इलाके का बदसूरत दिखने वाला नेता जब सांसद बनकर दिल्ली आता है तो कई बार वह गोरी चमड़ी के ग्लैमर में आकर दूसरी शादी रचा लेता है। महिलाओं से रिश्ते को लेकर पंडित जवाहर लाल नेहरू एनडी तिवारी और न जाने और कितने नेताओं
के बारे में किस्से गढ़े जाते हैं। सिर्फ उत्तर भारत ही नहीं बल्कि दक्षिण भारत के राजनेता भी एक से अधिक शादी करने में पीछे नहीं रहे। अगर फिल्म इंडस्ट्री की बात की जाए तो वह ऐसे रिश्तों के लिए बदनाम है। हालीवुड की तरह भले ही एक ही जीवन में यहां कई शादियां और तलाक नहीं होते पर दो शादियों के वहां भी कई उदाहरण है। धर्मेंद्र से लेकर बोनी
कपूर तक लोगों ने दो शादियां कर रखी हैं। दक्षिण भारत के फिल्म निर्माताओं में तो दो शादियां आम बात है। चेन्नई में तो कहा जाता है कि निर्माताओं की दूसरी बीवीयों की अलग से कालोनी भी बनी हुई है। वैसे यह हमेशा से चर्चा का विषय रहा है कि एक आदमी जीवन में एक ही से निभाए या कई रिश्ते बनाए।
राजनेता, साहित्यकार, लेखक, कलाकार और फिल्मकार जैसे लोगों के जीवन में कई रिश्तों का आना आम बात होती है। कई लोग कई शादियां करते हैं तो कई लोग ऐसे रिश्तों को कोई नाम नहीं देते। साहित्य जगत में राहुल सांकृत्यायन के बार में कहा जाता है कि उनकी कुल 108 प्रेमिकाएं थीं जिनमें से सात या आठ से तो उन्होंने विधिवत विवाह भी किया था। सचिदानंद हीरानंद वात्स्यान अज्ञेय जैसे कई और नाम भी साहित्य जगत में हैं।
पत्नी के प्रति ईमानदारी न दिखाने पर रिश्तों में आए बिखराव की तो हजारों कहानियां हो सकती हैं। ऐसे में अगर कोई राजनेता अपने परिवार को विश्वास में लेने के बाद दूसरी शादी रचाता हो तो इसको किस तरह से गलत ठहराया जा सकता है। चंद्रमोहन और अनुराधा वालिया के बारे में बात की जाए तो दोनों ही विद्वान हैं और समाज में महत्वपूर्ण दायित्वों का निर्वहन करते आ रहे हैं। अगर ये लोग चाहते तो इस रिश्ते कोई ना दिए बगैर
भी लंबे समय तक रिश्ता रख सकते थे। पर इन लोगों ने ऐसा नहीं किया वे जनता के सामने आए। उन्होंने मुहब्बत में तख्तोताज को ठुकरा दिया है। अपने अपने पद के साथ जुड़े हुए ग्लैमर की कोई परवाह नहीं की है। वे वैसे लोगों से हजार गुना अच्छे हैं जो किसी को धोखा देते हैं, चोरी करते हैं, जेब काटते हैं, चुपके चुपके गला रेत देते हैं। उन्होंने तो बस प्यार किया है। प्यार यानी ना उम्र की सीमा हो ना जन्म का हो बंधन....अगर प्यार होना
ही है तो यह किसी भी उम्र में हो सकता है।ऐसे जोड़े की इमानदारी से यह उम्मीद की जाती है कि वह राजनीतिक जीवन में सूचिता का निर्वहन करेगा, इसलिए ऐसे लोगों से पद नहीं छिनना चाहिए। अगर दूसरी शादी करने पर किसी को पद से हटाने की बात की
जाती हो तो बहुत से केंद्रीय मंत्री, राज्यों के मंत्री और सांसद विधायकों को भी अपना पद छोड़ना चाहिए....( राम विलास पासवान, लालमुनि चौबे और रमई राम जैसे लोगों से क्षमा मांगते हुए ) इसलिए मेरा ख्याल है कि चांद मोहम्मद को हरियाणा का उप मुख्यमंत्री पद सम्मान के साथ वापस मिलना चाहिए। कालका की जनता तो उम्मीद है कि उन्हें माफ कर देगी। क्योंकि वे कालका के अच्छे विधायक रहे हैं।

-विद्युत प्रकाश मौर्य