Friday, 26 February 2016

रेलवे ट्रैक का विद्युतीकरण के लिए बजट दोगुना हुआ

- किफायती सफर के कारण रेल मंत्री का विद्युतीकरण पर खास जोर

- 1600 किमी इलेक्ट्रिक लाइनों पर परिचालन शुरू होगा इस साल

रेलमंत्री सुरेश प्रभु का खास जोर रेलवे में विद्युतीकरण पर है। उन्होंने 2016-17 के लिए पेश बजट में इसके लिए ज्यादा फंड का प्रावधान किया है। इसके तहत आने वाले वित्तीय वर्ष में 2000 किलोमीटर नई रेलवे लाइनों को विद्युतीकृत करने का प्रस्ताव किया गया है। हालांकि पहले हर साल एक हजार किलोमीटर का ही अधिकतम लक्ष्य रखा जाता था।
रेलमंत्री ने अपने बजट भाषण में कहा कि इस साल विद्युतीकृत हो चुकी 1600 किलोमीटर लाइन को चालू किया जाएगा जो अब तक का सबसे बड़ा रिकॉर्ड होगा। रेल मंत्री ने अपने बजट भाषण में कहा कि बिजली के इंजन से रेल चलाना अधिक पर्यावरण के अनुकूल होने के साथ ही लागात की लिहाज से किफायती भी है। समान्य कामकाज की गति से अगर विद्युतीकरण हो तो निर्धारित लक्ष्य तक पहुंचने में 15 साल तक लग जाएंगे। पर अधिक वित्त पोषण और तकनीक में ऊर्जा मंत्रालय की भागीदारी से इलेक्ट्रिफिकेशन में कई गुना तेजी लाई जाएगी।
 अगले वित्तीय वर्ष में रेल विद्युतीकरण के लिए परियोजना व्यय को 50 फीसदी बढ़ाया गया है जिससे दो हजार किलोमीटर नई लाइनों का विद्युतीकरण हो सकेगा। 12वीं पंचवर्षीय योजना में 2012 से 2015 के बीच 4042 किलोमीटर रेलमार्ग का विद्युतीकरण किया गया जबकि लक्ष्य 6500 किलोमीटर का लक्ष्य रखा गया था। देश के कुल रेलनेटवर्क का तकरीबन 60 फीसदी हिस्सा अभी विद्युतीकृत नहीं हैं। इन मार्गों पर डीजल चलित लोकोमोटिव से गाड़ियों का परिचालन  होता है।

देश के प्रमुख बड़े शहरों को जोड़ने वाले सात रेल नेटवर्क में से अभी भी मुंबई से चेन्नई का रेल मार्ग पूरी तरह विद्युतीकृत नहीं है। रेलवे ने साल 2008-09 में हर साल एक हजार किलोमीटर मार्ग को विद्युतीकृत करने का लक्ष्य रखा था। पर रेल मंत्री सुरेश प्रभु ने इस साल इसे दुगुना करने का प्रस्ताव किया है। रेलवे ने विद्युतीकरण को तेजी से लागू करने के लिए 1979 में केंद्रीय रेल विद्युतीकरण संगठन का गठन किया, जिसका मुख्यालय इलाहाबाद में है।


रेल विद्युतीकरण की हकीकत
- 26,269 किलोमीटर रेलमार्ग ही विद्युतीकृत था मार्च 2015 तक
- 65,000 किलोमीटर से ज्यादा लंबा रेलवे नेटवर्क है भारत के पास
- 40 फीसदी के करीब रेलमार्ग को विद्युतीकृत किया जा चुका है
- 51.2 फीसदी यात्री विद्युतीकृत मार्ग पर सफर करते हैं
- 65 फीसदी माल ढुलाई इलेक्ट्रिफाईड नेटवर्क से होती है
- 1925 में भारत में पहली रेलवे लाइन का विद्युतीकरण हुआ

- 388 किलोमीटर विद्युतीकरण हुआ था 1947 में आजादी के समय तक

- vidyutp@gmail.com

Thursday, 11 February 2016

निदा फाजली - तुम ये कैसे जुदा हो गए

निदा फाजली की गजलें, नज्में और दोहे संवेदना, प्रेम और मनुष्यता के जीवंत दस्तावेज हैं। सूरदास और कबीर से प्रेरणा लेकर शायरी करने वाले निदा फाजली सहज शब्दों में दो टूक कहने में विश्वास रखते थे। आम फहम जुबां चयन करके वे कमाल की बात कह जाते थे। यही कारण था कि उनकी शायरी के चाहने वालों की संख्या बहुत बड़ी थी। आज जब वे इस दुनिया में नहीं हैं तो उनके चाहने वाले उनके ही शब्दों में उन्हें श्रद्धांजलि दे रहे हैं- तुम ये कैसे जुदा हो गए...हर तरफ हर जगह हो गए। तो गम में डूबे उनके प्रशंसक कह रहे हैं- उसको रुख़सत तो किया था मुझे मालूम न था, सारा घर ले गया घर छोड़ कर जाने वाला।



निदा फाजली - जन्म : 12 अक्तूबर 1938 दिल्ली में. इंतकाल -  08 फरवरी 2016 मुंबई में

ग्वालियर में बीता बचपन
दिल्ली में पिता मुर्तुजा हसन और मां जमील फातिमा के तीसरी संतान के तौर पर निदा फाजली का जन्म हुआ। बड़े भाई ने उनका नाम मुक्तदा हसन रखा। पिता भी शायर थे। उनके साथ बचपन ग्वालियर में बिता। स्कूली जीवन से ही शायरी में रूचि जगी। 1958 में ग्वालियर के विक्टोरिया कालेज ( लक्ष्मीबाई कालेज) से स्नातकोत्तर की पढ़ाई पूरी की। बाद में उन्होने अपना शायरी का नाम रखा निदा फाजली। निदा मतलब है स्वर और फाजली अपने कश्मीरी पृष्ठभूमि की याद में जोड़ा।

सूरदास से शायरी की प्रेरणा
निदा साहब को सूरदास के पद से शायरी की प्रेरणा मिली। एक सुबह एक मंदिर के पास से गुजरते हुए सुरदास का भजन सुना. मधुबन तुम क्यो रहत हरै... इसमें कृष्ण के मथुरा से द्वारका चले जाने पर उनके वियोग में डूबी राधा और गोपियाँ फुलवारी से पूछ रही होती हैं ऐ फुलवारी, तुम हरी क्यों बनी हुई हो? कृष्ण के वियोग में तुम खड़े-खड़े क्यों नहीं जल गईंवह सुन कर निदा को लगा कि उनके अंदर दबे हुए दुख की गिरहें खुल रही है। इसके बाद उन्होंने सूरदास, बाबा फरीद, कबीर, तुलसीदास जैसे कवियों को गहराई से पढ़ा।

सहज भाषा, दिल को छू जाने वाले शब्द
उन्हें ऐसी कवियों ने आकर्षित किया जो सीधे बिना किसी लाग लपेट के लिखते हुएं। इसके बाद से अपनी बात को शायरी में सहजता से बयां करना निदा साहब की खासियत बन गई। उनकी ज्यादातर शायरी अत्यंत सरल भाषा में और दिल को छू जाने वाली है।

मुंबई में संघर्ष के दिन
हिन्दू-मुस्लिम दंगों से तंग आ कर उनके माता-पिता पाकिस्तान जाकर बस गए, लेकिन निदा साहब ने भारत में ही रहने का फैसला किया। बाद में कमाई की तलाश में कई शहरों में भटकते रहे। तलाश मुंबई जाकर खत्म हुई। उस समय मुंबई हिन्दी और उर्दू साहित्य का केन्द्र था। वहां से धर्मयुग, सारिका जैसी लोकप्रिय पत्रिकाएं प्रकाशित होती थीं। 1964 में में निदा साहब ने धर्मयुग, ब्लिट्ज  जैसी पत्रिकाओं में लिखना शुरू किया। उनकी सरल और प्रभावकारी लेखनशैली ने शीघ्र ही उन्हें सम्मान और लोकप्रियता दिलाई। उर्दू में उनका पहला शायरी का संग्रह 1969 में प्रकाशित हुआ।

फिल्मों के लिए लेखन
कमाल अमरोही उन दिनों धर्मेंद्र और हेमा को लेकर फ़िल्म रजिया सुल्तान बना रहे थे। इसके गीत जानिंसार अख्तर ने लिख रहे थे। पर उनका अकस्मात निधन हो गया, तब कमाल अमरोही ने उनसे संपर्क किया और उन्हें फ़िल्म के शेष दो गाने लिखने को कहा। इस तरह से फिल्मों के लिए गीत गजल लिखने की शुरुआत हुई।

कौमी एकता के शायर -
निदा फाजली साहब जब वह पाकिस्तान गए तो एक मुशायरे के बाद कट्टरपंथी मुल्लाओं ने उनका घेराव कर लिया और उनके लिखे शेर - घर से मस्जिद है बड़ी दूर, चलो ये कर लें। किसी रोते हुए बच्चे को हंसाया जाए।
पर अपना विरोध प्रकट किया। शायरों ने उनसे पूछा कि क्या निदा किसी बच्चे को अल्लाह से बड़ा समझते हैं? निदा ने उत्तर दिया कि मैं केवल इतना जानता हूँ कि मस्जिद इंसान के हाथ बनाते हैं जबकि बच्चे को अल्लाह अपने हाथों से बनाता है। 

प्रमुख कृतियां
सफर में धूप तो होगी,  खोया हुआ सा कुछ, आंखों भर आकाश,  मौसम आते जाते हैं 
लफ़्जों के फूल, मोर नाच,  आंख और ख़्वाब के दरमियां, शहर में गांव ( 2015) 

पुरस्कार सम्मान
2013 में भारत सरकार ने पद्मश्री सम्मान दिया
1998 में उन्हें उनकी कृति खोया हुआ सा कुछ के लिए साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित
2003 में स्टार स्क्रीन पुरस्कार - श्रेष्टतम गीतकार - फ़िल्म 'सुर के लिए
2002 में  बॉलीवुड मूवी पुरस्कार  श्रेष्टतम गीतकार - फ़िल्म सुर के गीत आ भी जाके लिए
मध्यप्रदेश सरकार का मीर तकी मीर पुरस्कार (आत्मकथा रुपी उपन्यास-  दीवारों के बीच के लिए)
मध्यप्रदेश सरकार का खुसरो पुरस्कार - उर्दू और हिन्दी साहित्य के लिए
महाराष्ट्र उर्दू अकादमी का श्रेष्ठतम कविता पुरस्कार - उर्दू साहित्य के लिए
बिहार उर्दू अकादमी पुरस्कार
उत्तर प्रदेश उर्दू अकादमी का पुरस्कार
हिन्दी उर्दू संगम पुरस्कार (लखनऊ) - उर्दू और हिन्दी साहित्य के लिए


प्रसिद्ध फिल्मी गीत –
तेरा हिज्र मेरा नसीब है, आई जंजीर की झंकार खुदा खैर करे (रजिया सुल्तान)
होश वालों को खबर क्या, बेखुदी क्या चीज है (सरफ़रोश)
कभी किसी को मुक़म्मल ज़हां नहीं मिलता (आहिस्ता-आहिस्ता)
तू इस तरह से मेरी ज़िंदग़ी में शामिल है (आप तो ऐसे न थे),
चुप तुम रहो, चुप हम रहें (इस रात की सुबह नहीं)
कभी शाम ढले तो मेरे दिल में आ जाना, आ भी जा ओ सुबह आ भी जा (सुर)
ज़िंदगी है कि बदलता मौसम (एक नया रास्ता)
तुमसे मिलके जिंदगी को यूं लगा (चोर पुलिस)
मुस्कुराते रहो गम छुपाते रहो (नज़राना प्यार का)
अजनबी कौन हो तुम (स्वीकार किया मैंने)।

निदा साहब की कुछ प्रसिद्ध गजलें-
कभी किसी को मुकम्मल जहां नहीं मिलता
कहीं ज़मीं तो कहीं आस्मां नहीं मिलता
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होश वालों को ख़बर क्या बेख़ुदी क्या चीज़ है 
इश्क़ कीजे फिर समझिए ज़िन्दगी क्या चीज़ है
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जब किसी से कोई गिला रखना 
सामने अपने आईना रखना 
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दुनिया जिसे कहते हैं जादू का खिलौना है
मिल जाए तो मिट्टी है खो जाए तो सोना है
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अपनी मर्ज़ी से कहां अपने सफ़र के हम हैं 
रुख़ हवाओं का जिधर का है उधर के हम हैं 
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बदला न अपने आप को जो थे वही रहे

मिलते रहे सभी से मगर अजनबी रहे
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धूप में निकलो घटाओं में नहा कर देखो

ज़िन्दगी क्या है किताबों को हटा कर देखो
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गरज बरस प्यासी धरती पर फिर पानी दे मौला 
चिड़ियों को दाना, बच्चों को गुड़धानी दे मौला 
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कुछ तबीयत ही मिली थी ऐसी चैन से जीने की सूरत ना हुई
जिसको चाहा उसे अपना ना सके जो मिला उससे मुहब्बत ना हुई
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मैं रोया परदेस में भीगा मां का प्यार 
दुख ने दुख से बात की बिन चिठ्ठी बिन तार 
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बेसन की सोंधी रोटी पर, खट्टी चटनी जैसी मां
याद आता है चौका-बासन, चिमटा फुंकनी जैसी मां ।


जाने वालों से राब्ता रखना
दोस्तो रस्म-ए-फातिहा रखना

उसको रुखसत तो किया था, मुझे मालूम न था
 सारा घर ले गया, घर छोड़ के जानेवाला । 

-vidyutp@gmail.com





Wednesday, 3 February 2016

सियाचिन - दुनिया का सबसे ऊंचा युद्धस्थल


हिमालय के पूर्वी कारकोरम रेंज में स्थित सियाचिन दुनिया के सबसे ऊंचे युद्धस्थलों में से एक है। सियाचिन दुनिया का दूसरा सबसे बड़ा हिमनद ( ग्लेसियर) है। भारत पाकिस्तान के बीच सामरिक रुप से महत्वपूर्ण है। लेकिन सियाचिन में तैनात फौजियों की जिंदगी काफी मुश्किल है। अगर मौत आ भी जाए तो चिता भी नसीब नहीं होती। उसी बर्फ के नीचे दफन होना पड़ता है। साल 1984 से पहले बात करें तो सियाचिन पर भारत या पाकिस्तान किसी भी देश की सेना गस्त नहीं लगाती थी। पर 13 अप्रैल 1984 को आपरेशन मेघदूत आरंभ कर पाकिस्तानी सेना को सियाचिन हिमनद के एनजे 9842 से पीछे धकेलने का अभियान आरंभ किया। तब से लगातार जंग जारी है।

दर्दनाक बर्फीली मौत सियाचिन में गस्त लगा रहे फौजियों को कई बार ग्लेसियरों का पता नहीं चलता। एक बार हिमनद में डूब जाने के बाद बचन मुश्किल होता है। फौजी मारे जाते हैं उनके शव भी कई बार बरामद नहीं हो पाते। कई सालों बाद ग्लेसियर पिघलने पर उनके शव बर्फ में दिखाई देते हैं। उनके बाल और नाखून बढ़ते जाते हैं पर मौत तो काफी पहले हो चुकी रहती है।

खराब मौसम से ज्याद मौतें - भारत ने पिछले करीब 30 साल से सियाचिन में अपने सैनिक तैनात कर रखे हैं। भारत ने दुश्मन की गोलियों से कहीं अधिक जवान मौसम और प्रतिकूल भौगोलिक स्थितियों की वजह से गंवाए हैं। हाई एल्टीट्यूड पर होने वाली बीमारियां जानलेवा होती हैं।

आखिर फौज क्यों जरूरी - कई रक्षा विशेषज्ञ मानते हैं कि सियाचिन सैनिकों का रहना ज़रुरी नहीं है पर अगर किसी दुश्मन का क़ब्जा हो तो फिर दिक़्क़त हो सकती है। यहां से लेह, लद्दाख और चीन के कुछ हिस्सों पर नज़र रखने में भारत को मदद मिलती है।

फौज हटाने का विचार - सियाचिन मुद्दे पर कई दौर की बातचीत के बाद भारत और पाकिस्तान कुछ साल पहले इस क्षेत्र के सैनिक हटाने के करीब पहुंच गए थे, लेकिन यह संधि परवान नहीं चढ़ सकी क्योंकि पाकिस्तान ने अपनी सैन्य स्थिति के पुष्टिकरण से इनकार कर दिया।

कुछ ऐसा है सियाचिन

19 से 21 हजार फीट तक समुद्र तल से सियाचिन की ऊंचाई

72 किलोमीटर लंबी है सियाचिन की सीमा

0 से माइनस 40 डिग्री सेल्सियस नीचे रहता है तापमान।

1800 करोड़ रुपये प्रतिवर्ष खर्च करता है भारत फौज की तैनाती पर

05 करोड़ रुपये प्रतिदिन का औसत खर्च है सियाचिन पर 

500 करोड़ हर साल खर्च करता है पाकिस्तान सियाचिन पर

1984 से भारत पाकिस्तान के फौजी सियाचिन में लड़ रहे हैं जंग

12 दौर की बातचीत हो चुकी है भारत पाकिस्तान में विवाद हल करने के लिए

90 फीसदी फौजियों की मौतें प्राकृतिक कारणों से हो जाती है

135 पाकिस्तानी सैनिक हिमस्खलन की चपेट में आ गये थे 07 अप्रैल 2012 को 

30 पाक सैनिकों हर साल मारे जाते हैं औसतन  

869 भारतीय जवानों की मौत हो चुकी है 1984 से दिसंबर 2015 के बीच  ( केंद्रीय मंत्री राव इंद्रजीत सिंह ने लोकसभा में दी जानकारी) 846 मौत हो चुकी है साल 2012 तक ( तब तत्कालीन रक्षा मंत्री एएके एंटनी ने दी थी जानकारी।
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