कहते हैं
औरत वो आटे का दीया है, जिसे घर के अन्दर रखो तो घर के चूहे खा जाते हैं। घर से
बाहर रखो तो कौए नहीं छोड़ते। यानी कि औरत चाहे घरेलू हो या काम-काजी वह हर जगह
शोषित होती है, प्रताड़ित की जाती है। हर स्थान पर उसकी इज़्ज़त और
अस्तित्त्व पर ख़तरा ही मंडराता रहता है।
एक सर्वेक्षण से पता चला है कि भारत में
लगभग 70 प्रतिशत महिलाएं किसी न किसी ढंग से घरेलू हिंसा से पीड़ित
हैं। यह हिंसा ग़रीब, मध्यम वर्ग से लेकर आर्थिक और सामाजिक स्तर पर सम्पन्न
परिवारों की महिलाओं तक में देखने को मिली है।
लड़की को
पराया धन समझना, न पिता के यहां न पति के घर सुरक्षा,
आर्थिक विपन्नता, बढ़ते तलाक, दहेज़ की समस्या, मादाभ्रूण हत्या के लिए मजबूर करना,
प्रतिभा को दबाना, मानसिक तौर पर छोटी-छोटी बात के लिए प्रताड़ित करना ऐसी
स्थिति चारों ओर देखने को मिलती है। ऐसे माहौल के निरन्तर बढ़ रहे ग्राफ़ के कारण
एक ऐसे कानून की आवश्यकता महसूस की जा रही थी, जो पीड़ित महिलाओं को सहायता प्रदान कर सके,
उन्हें ऐसी विषम परिस्थतियों से निजात दिला सके।
एक
विरोधाभासी परिदृश्य में भारतीय संसद ने अक्तूबर 2006 में महिला घरेलू हिंसा निवारण कानून पारित किया है। इस
कानून के पारित होते ही सामाजिक क्षेत्रों में नए सिरे से एक बहस छिड़ गई। इस के
पक्ष एवं विपक्ष में आवाज़ें उठनी शुरू हो गई।
क्या है
महिला घरेलू हिंसा निवारण कानून 2006:- इस कानून के अंतर्गत पत्नियां,
मां, सास, बहनें, बेटियां यहां तक कि गोद ली हुई महिला भी अपने साथ हो रही
हिंसा के खिलाफ़ कानूनी गुहार लगा सकती हैं। यह कानून उन्हें शारीरिक,
बोल-चाल और यौन उत्पीड़न से तो बचाएगा ही साथ ही उन्हें
निवास और आर्थिक स्वतन्त्रता का अधिकार दिलाने में भी सहायक सिद्घ हो सकता है। यह
कानून उन 70 प्रतिशत महिलाओं की पहचान करने और उनकी मदद करने में सहायक
सिद्घ हो सकता है। यह कानून कितना प्रभावशाली होगा, आने वाला समय ही बताएगा।
14 वर्ष लगे इस कानून को पारित होने में:- सर्वप्रथम 1992 को भारत के चुनिंदा अधिवक्ताओं ने घरेलू हिंसा निवारण का
एक मसौदा तैयार करके महिला संगठनों तक पहुंचाया था। फिर महिला आयोग ने 1994 में इसे सदन में पेश कराने की पहल की। सदन में इस बिल के
खिलाफ़ तीखी अलोचना हुई, परिणाम वश इसके पक्ष में राष्ट्र के सभी महिला संगठनों ने
एक मंच पर एकत्रित हो कर, इसके हक़ में आवाज़ बुलन्द की। यह भी चर्चा हुई कि यह कानून
अापराधिक (क्राईम) न होकर दीवानी में शामिल किया जाना चाहिए।
इसके उपरान्त 1999 में इस निवारण कानून को नए ढंग से तैयार करके पुन: सदन में
लाया गया। फिर इस पर राष्ट्र स्तरीय बहस हुई। इसे तैयार करने में संयुक्त राष्ट्र
के घरेलू हिंसा कानून से भी प्रेरणा ली गई। 2001 में जब केन्द्र सरकार ने इस घरेलू हिंसा निवारण बिल को सदन
पटल पर रखा तो इसके खिलाफ़ ज़ोरदार आंदोलन हुआ। इस पर टिप्पणियां की गईं कि इस बिल
में यह स्पष्ट नहीं था कि घरेलू हिंसा किसे माना जाए और भारतीय दण्ड सहिता के
अनुसार किसी कानून के अन्तर्गत कौन-सी सज़ा निर्धारित की जाए। पुरुष प्रधान समाज
में भारी विरोध के बावजूद 14 वर्ष के लम्बे संघर्ष के बाद आख़िर इस महिला घरेलू हिंसा
निवारण कानून को अक्तूबर 2006 को पारित कराने में सफलता प्राप्त हुई है।
क्या लाभ
हो सकता है इस कानून से:- यह कानून जहां घरेलू हिंसा की परिभाषा स्पष्ट करता है
वहीं शोषित महिला को बराबरी की नज़र से देखता है। यह कानून निवास,
मेंटिनेंस और सुरक्षा के अधिकार भी प्रदान करता है। दोषियों
के लिए सज़ा का स्पष्ट प्रावधान भी करता है। महिलाओं द्वारा इस कानून के दुरूपयोग
का नकारात्मक पहलू भी इसमें छिपा हुआ है।
सबसे पहले
महत्वपूर्ण बात यह है कि इस कानून के बारे में ग़रीब से ग़रीब महिला तक को समझाना
होगा। भारतीय समाज में प्रचलित सामुदायिक रीति-रिवाज़ों पर आधारित संस्थाएं तथा
पंचायतें,
धार्मिक संस्थाएं, इस कानून को सरलता और सहजता से लागू होने देने में रुकावट
बन सकती हैं। सदियों से महिलाएं इन पर आश्रित रही हैं और इन पुरुषों द्वारा
स्थापित पुरुष प्रधान सोच से ग्रस्ति संस्थाओं द्वारा हमेशा महिला को निम्न दर्जे
का नागरिक मान कर उसके ख़िलाफ़ ही फैसले दिए हैं। प्रताड़ित महिला को ही दोषी करार
देने में कसर नहीं छोड़ी है। संवैधानिक कानूनों और धार्मिक कानूनों के बीच टकराव
जारी है। संवैधानिक कानून महिला के पक्ष की बात करता है,
तो धार्मिक उसके विपरीत। ऐसे में घरेलू हिंसा कानून को
कारगर ढंग से लागू कर पाना भी एक चुनौती से कम नहीं है। ‘इमराना’ बलात्कार कांड का हश्र सभी के सामने है। चाहे मीडिया ने
इसमें कुछ सकारात्मक भूमिका निभाते हुए इमराना के हक़ में आवाज़ उठाई थी।
इस कानून
के पारित होते ही घरेलू हिंसा से पीड़ित महिलाओं के कई मामले मीडिया द्वारा
सुर्खियों में लाए गए हैं जो हमारे समाज में 70 प्रतिशत पीड़ित महिलाओं की दुर्दशा को ब्यान करते हैं।
लेकिन यह भी सत्य है कि जो काम स्वस्थ सामाजिक माहौल और मानवीय गुण पैदा कर सकते
हैं। स्त्री और पुरुष को बराबर समझने की सोच हमारी मानव मूल्य आधारित शिक्षा पैदा
कर सकती है। यह वातावरण कोई कानून पैदा नहीं कर सकता। कानून का डर कितना और कितने
लोग महसूस करते हैं यह किसी से छिपा नहीं हैं। कानून के निर्माता,
संरक्षक खुद ही इन कानूनों की परवाह नहीं करेंगे तो आम
लोगों से क्या उम्मीद की जा सकती है। महिलाओं के हक़ में कानून तो पहले भी कई बनाए
गए हैं,
उनका कितना लाभ वे प्राप्त कर सकी हैं या इन कानूनों में
प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से जो ‘होल’ रह गए, उनका लाभ शोषण करने वालों ने उठाया है। इस नए घरेलू हिंसा
निवारण कानून का हश्र भी वैसा ही न हो, इस के बारे में भी महिला संगठनों और भारतीय अधिवक्ताओं को
चिंतन करना होगा।
यदि समाज
में सभी वर्ग मिल कर ऐसे वातावरण का सृजन कर दें जिस में कोई न अपना,
न पराया हो, समानता का भाव हो। दयालुता, परोपकार, सहृदयता हो तो ऐसे कानूनों को बनाने की ज़रूरत ही नहीं होगी।
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