Saturday, 31 December 2011

साल 2011 ने जिन्हे हमसे छीन लिया..

सबको एक दिन इस दुनिया से एक दिन कूच कर जाना है, पर कुछ लोगों का जाना उदास कर जाता है। कुछ लोगों की जाने के बाद हमेशा याद आती है। यह समय है जो हर साल कुछ लोगों को हमेशा छीन लेता है। साल 2011 ने भी कुछ लोगों को हमसे जुदा कर दिया। 

सबसे पहले बात बालीवुड की -
 1. देवानंद – तीन दिसंबर को लंदन में बालीवुड के सदाबहार अभिनेता देवानंद ने 88 साल की उम्र में अंतिम सांस ली। पर उनका संदेश हमेशा याद आएगा- मैं जिंदगी का साथ निभाता चला गया....
2. भूपेन हजारिका – ( पांच नंवबर ) बहुमुखी प्रतिभा के गीतकार, संगीतकार और गायक थे। इसके अलावा वे असमिया भाषा के कवि, फिल्म निर्माता, लेखक और असम की संस्कृति और संगीत के अच्छे
जानकार भी रहे थे। वे भारत के ऐसे विलक्षण कलाकार थे जो अपने गीत खुद लिखते थे, संगीतबद्ध करते थे और गाते थे। उन्हें दक्षिण एशिया के
श्रेष्ठतम जीवित सांस्कृतिक दूतों में से एक माना जाता है। उन्होंने
कविता लेखन, पत्रकारिता, गायन, फिल्म निर्माण आदि अनेक क्षेत्रों में काम किया। भूपेन हजारिका के गीतों ने लाखों दिलों को छुआ। हजारिका की असरदार आवाज में जिस किसी ने उनके गीत "दिल हूम हूम करे" और "ओ गंगा तू बहती है क्यों" सुना वह इससे इनकार नहीं कर सकता कि उसके दिल पर भूपेन दा का जादू नहीं चला।

3. जगजीत सिंह – 10 अक्टूबर को गजल की मखमली आवाज नहीं रही। देश भर में लाखों फैन उनके जाने से निराश हैं। 
4. शम्मी कपूर – 14 अगस्त। फिल्म जंगली का गीत याहू काफी लोकप्रिय हुआ। हर उम्र के लोगों के पसंदीदा एक्टर रहे। 
5. नवीन निश्चल – 19 मार्च को टीवी और फिल्मों के जाने माने कलाकार नवीन निश्चल का दिल का दौरा पड़ने से निधन हो गया। वह 65 साल के थे।  निश्चल अपने करीबी मित्र रंधीर कपूर के साथ पुणे रवाना हुए थे। वह
अभी मध्य मुंबई ही पहुंचे थे कि निश्चल को दिल का दौरा पड़ा। उन्हें पास
के एक अस्पताल में ले जाया गया, जहां उन्हें मृत घोषित कर दिया। 
6. जगमोहन मूंदड़ा – ( 5 सितंबर 2011 ) फिल्मकार जगमोहन मूंदड़ा का निधन हो गया। वह 62 वर्ष के थे। मूंदड़ा ने 'बवंडर' एवं 'प्रोवोक्ड' जैसी फिल्मों का निर्देशन किया था।
7. मणि कौल – 6 जुलाई 2011 फिल्म निर्माता और लेखक

8. बालेश्वर यादव - भोजपुरी गायक - 9 जनवरी 2011, बालेश्वर के गीत बड़े लोकप्रिय हुए और भोजपुरी जन मानस पर व्यापक प्रभावकारी रहे। एलपी रिकार्ड के जमाने में बालेश्वर के रिकार्ड खूब बिकते और बजते थे।
9. मंसूर अली खान पटौदी- महान क्रिकेटर और टीम इंडिया के कैप्टन रहे
मंसूर अली खान पटौदी अक्टूबर में हमे छोडकर चले गए। उन्होने बालीवुड की अपने समय की सबसे खूबसूरत हीरोइन शर्मिला टैगोर से शादी की थी। पटौदी के बेटे सैफ अली खान और सोहा अली भी फिल्मों में हैं।


10.सत्यदेव दूबे ( 25 दिसंबर ) - मशहूर रंगमंच निर्देशक, अभिनेता और पटकथा लेखक सत्यदेव दुबे का रविवार को मुंबई में लंबी बीमारी के बाद निधन हो गया। वे 75 वर्ष के थे। छत्तीसगढ़ के बिलासपुर में सत्यदेव दूबे का जन्म हुआ था।  
11. मकबूल फिदा हुसैन  ( 9 जून ) को कला के क्षेत्र में भारत सरकार द्वारा सन 1973 में पद्म भूषण से सम्मानित किया गया था। महाराष्ट्र के पंढ़रपुर में 17 सितंबर 1915 को जन्मे हुसैन का 9 जून 2011 को लंदन में निधन हुआ.
साहित्य पत्रकारिता
1. जानकी वल्लभ शास्त्री ( मुजफ्फरपुर , बिहार ) हिंदी संस्कृत के
प्रकांड विद्वान जानकी वल्लभ शास्त्री 8 अप्रैल 2011 को नहीं रहे।
उन्होने लंबा और स्वस्थ जीवन जीया।
2. डा. फजलुर रहमान हाशमी - 21जुलाई साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित भवानंदपुर निवासी डा. फजलुर रहमान हाशमी का निधन। साल 2002 में हाशमी को साहित्य अकादमी पुरस्कार मिला था।

3. अतुल सवानी - गुजराती लेखक - नहीं रहे - 10 नवंबर को मशहूर प्रगतिशील गुजराती लेखक और समाजसेवी अतुल सवानी का रूस की राजधानी मास्को के एक अस्पताल में निधन हो गया। वह 85 वर्ष के थे।
4. श्री लाल शुक्ल ( 28 अक्टूबर ) साहित्यकार – राग  दरबारी से चर्चित।
श्रीलाल शुक्ल का जन्म उत्तर प्रदेश में सन् 1925 में हुआ था तथा उनकी
प्रारम्भिक और उच्च शिक्षा भी उत्तर प्रदेश में ही हुई। उनका पहला
प्रकाशित उपन्यास 'सूनी घाटी का सूरज' (1957) तथा पहला प्रकाशित व्यंग 'अंगद का पाँव' (1958) है। स्वतंत्रता के बाद के भारत के ग्रामीण जीवन की मूल्यहीनता को परत दर परत उघाड़ने वाले उपन्यास 'राग दरबारी' (1968) के लिए उन्हें साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित किया गया। उनके इस उपन्यास पर एक दूरदर्शन-धारावाहिक का निर्माण भी हुआ। श्री शुक्ल को भारत सरकार ने 2008 मे पद्मभूषण पुरस्कार से सम्मानित किया ।

 5. डाक्टर कुमार विमल – ( 26 नवंबर ) पटना में हिंदी के जाने माने आलोचक का निधन
6. इंदिरा गोस्वामी ( गुवाहाटी 29 नवंबर)  - असमिया की साहित्यकार और सामाजिक कार्यकर्ता।
7. अतुल माहेश्वरी – (3 जनवरी, पत्रकार)  अतुल जी 55 साल के थे। बावजूद इसके उनका 37 वर्षों का मीडिया का गहरा अनुभव उन्हें एक अलग ही श्रेणी में लाकर खड़ा करता है।  राजनीति शास्त्र में पोस्ट ग्रेजुएट अतुल माहेश्वरी ने अमर उजाला को नई ऊंचाई तक पहुंचाने में अहम भूमिका निभाई। उन्होंने मीडिया इंडस्ट्री के गुर अपने पिता और अमर उजाला के संस्थापक स्वर्गीय श्री मुरारीलाल माहेश्वरी से बरेली में सीखा। इसके बाद वे 1986 में मेरठ संस्करण स्थापित करने के लिए मेरठ चले गए। उन्होंने अमर उजाला पब्लिकेशन का चंडीगढ़, जम्मू-कश्मीर, उत्तराखंड और दिल्ली के अलावा अन्य शहरों में भी विस्तार किया। श्री अतुल माहेश्वरी मीडिया इंडस्ट्री से संबद्ध अन्य संस्थानों से भी जुड़े थे और साथ ही वैश्विक मीडिया इंडस्ट्री पर गहरी पकड़ रखते थे।

8. घनश्याम पंकज, ( 24 जनवरी ) – पत्रकार। दिनमान टाइम्स, स्वतंत्र भारत समेत कई अखबारों के संपादक रहे। बड़ी संख्या में नए पत्रकारों को ब्रेक दिया था। बेटे कबीर कौशिक फिल्म निर्माता हैं।
9. राम दयाल मुंडा - 1 अक्टूबर को रांची में निधन।  पद्म श्री से
सम्मानित और राज्यसभा के मनोनीत सदस्य तथा झारखंड के संस्कृति वाहक डा. रामदयाल मुंडा का आज लम्बी बीमारी के बाद निधन हो गया।
10. मारियो मिरांडा – ( 12 दिसंबर, कार्टूनिस्ट ) जिंदगी के विभिन्न
रंगों को अपने कैनवास पर जीवंतता के साथ उकरने वाले चर्चित कार्टूनिस्ट मारियो मिरांडा अपनी जिंदगी के कैनवास से ओझल हो गए। लम्बी बीमारी के बाद मिरांडा कागोवा के लौटोलिम स्थित 300 वर्ष पुराने उनके पैतृक  घर में निधन हो गया।

10. सत्य साईं बाबा - 24 अप्रैल - पुट्टपर्थी के सत्य साईं
बाबा के का निधन। साईं बाबा के देश विदेश में करोड़ो भक्त हैं।
11. महेंद्र सिंह टिकैत-  के किसान नेता महेन्द्र सिंह टिकैत का निधन - 15 मई 2011...किसी जमाने में यूपी की राजनीति में टिकैत की तूती बोलती थी।
12. 25 नवंबर 2011 - किशनजी ( कोटेश्रर राव ) माओवादी नेता को पुलिस ने एनकाउंटर में मार गिराया।

13. एस बंगारप्पा  ( 26 दिसंबर ) कर्नाटक के पूर्व मुख्यमंत्री एस बंगारप्पा का सोमवार तड़के एक निजी अस्पताल में निधन हो गया। वह कुछ समय से बीमार थे । उनके पारिवारिक सूत्रों ने यह जानकारी दी। 79 वर्षीय बंगारप्पा के परिवार में उनकी पत्नी दो बेटे तथा तीन बेटियां हैं । गुर्दे संबंधी बीमारी और मधुमेह से पीड़ित बंगारप्पा का सात दिसंबर से इलाज चल रहा था। 
विदेश
1. ओसामा बिन लादेन – लादेन को पाकिस्तान में अमेरिका सेना ने मार
गिराया। अमेरिका के लिए बड़ी सफलता।

2. कर्नल मुअम्मर गद्दाफी- लीबीया के तानाशाह - कर्नल मुअम्मर गद्दाफी को विद्रोहियो ने मार डाला। गद्दाफी ने लंबे समय तक शासन किया।
 3. किम जोंग इल – उत्तर कोरिया के तानाशाह शासनाध्यक्ष का निधन 20 दिसंबर को 69 साल की उम्र में हो गया। लादेन, गद्दाफी, और किम की मौत अमेरिका के लिए बहुत फायदेमंद रही। क्योंकि तीनों ही अमेरिका के लिए खतरा थे।
4 स्टीव जॉब्स  ( 5 अक्टूबर ) एप्पल के संस्थापक। एक ऐसा सख्श जिसका दुनिया को बदलने में बड़ा योगादन रहा। - स्टीवन पॉल "स्टीव" जाब्स एक अमेरिकी बिजनेस टाईकून और आविष्कारक थे। वे एप्पल इंक के सह-संस्थापक और मुख्य कार्यकारी अधिकारी थे। अगस्त २०११ में उन्होने इस पद से त्यागपत्र दे दिया। जाब्स पिक्सर एनीमेशन स्टूडियोज के मुख्य कार्यकारी अधिकारी भी रहे। सन 2006 में वह दी वाल्ट डिज्नी कम्पनी के निदेशक मंडल के सदस्य भी रहे, जिसके बाद डिज्नी ने पिक्सर का अधिग्रहण कर लिया था। 1995 में आई फिल्म टॉय स्टोरी में उन्होंने बतौर कार्यकारी निर्माता काम किया।


5. नुसरत भुट्टो - 24 अक्टूबर पाकिस्तान के पूर्व राष्ट्रपति जुल्फिकार
अली भुट्टो की पत्नी एवं पूर्व प्रधानमंत्री बेनजीर भुट्टो की मां नुसरत
भुट्टो का लंबी बीमारी के बाद दुबई में निधन ।

6. हरगोविंद खुरानाभारतीय मूल के नोबेल पुरस्कार विजेता वैज्ञानिक, हालांकि कि खुराना विदेश में रहते थे। भारत की नागरिकता छोड़ दी थी लेकिन उनका विज्ञान जगत को योगदान हमेश याद किया जाएगा।
7. श्वेतलाना – स्टालिन की बेटी। नवंबर की एक सुबह गुमनाम मौत। भारत में कलाकांकर के राजा ब्रजेश सिंह से किया था तीसरा विवाह। पति की मौत के बाद भारत आई थीं लेकिन भारत सरकार ने शरण नहीं दी थी। तब समाजवादी नेता राममनोहर लोहिया ने ये मुद्दा संसद में उठाया था। उन्होंने श्वेतलाना को भारत की बेटी कहते हुए उसे भारत में शरण देने की मांग की थी। लेकिन तब रूस के नाराज होने के कूटनीतिक कारणों से भारत सरकार ने श्वेतलाना को पनाह नहीं दी थी। अब 2011 की एक सुबह श्वेतलाना ने 85 साल की उम्र में चुपके से दुनिया को अलविदा कह दिया।

- जाते हुए साल को अलविदा...

Thursday, 29 December 2011

अब तक 21 मंत्रियों पर गिरी गाज

यूपी की मुख्यमंत्री मायावती अब तक भ्रष्टाचार और दूसरे  आरोपों की शिकायतें मिलने के बाद 21 मंत्रियों को बाहर का रास्ता दिखा चुकी है। सूबे के लघु उद्योग मंत्री चंद्रदेव राम यादव को हटाए जाने की सिफारिश के साथ ही लोकायुक्त न्यायमूर्ति (रि.) एनके मेहरोत्रा ने अब तक 12 मंत्रियों की बर्खास्तगी की सिफारिश की है। इसमें से मुख्यमंत्री मायावती ने 11 को बाहर का रास्ता दिखा दिया। वहीं अभी तक मायावती ने दस और मंत्रियों को अलग अलग आरोपों में मंत्रिमंडल से बाहर कर चुकी है।

चंद्रदेव यादव के खिलाफ मंत्री पद पर रहते हुए अपने गृह जिले आजमगढ़ के एक स्कूल से प्रधानाध्यापक की तनख्वाह लेने का भी आरोप है। मंत्री ने दो दिन पहले लोकायुक्त समक्ष पेश होकर अपनी गलती स्वीकारी थी। इसके बाद बुधवार देर शाम न्यायमूर्ति ने इन्हें हटाने की सिफारिश मुख्यमंत्री से कर दी। इनके ऊपर भ्रष्टाचार से जुडे़ कई अन्य आरोप भी हैं।

लोकायुक्त की सिफारिश पर अब तक बर्खास्त किए गए मंत्रियों में धर्मार्थ कार्य मंत्री राजेश त्रिपाठी,  दुग्ध विकास मंत्री अवधपाल सिंह यादव,  श्रम मंत्री बादशाह सिंह, माध्यमिक शिक्षा मंत्री रंगनाथ मिश्र,  अम्बेडकर ग्राम विकास मंत्री रतन अहिरवार, कृषि शिक्षा मंत्री राजपाल त्यागी,  उच्च शिक्षा मंत्री राकेशधर त्रिपाठी,  डॉ. यशपाल सिंह,  अतिरिक्त ऊर्जा मंत्री अकबर हुसैन,  पिछला कल्याण मंत्री अवधेश वर्मा और प्रांतीय रक्षादल मंत्री डॉ. हरिओम शामिल है।

मायावती ने दस और मंत्रियों को विभिन्न आरोपों में मंत्रिमंडल से बाहर का रास्ता दिखाया। इनमें मुख्य रूप से परिवार कल्याण मंत्री बाबू सिंह कुशवाहा, स्वास्थ्य मंत्री अनंत मिश्रा,  खाद्य प्रसंस्करण मंत्री आनंदसेन यादव,  मत्स्य मंत्री जमुना निषाद और अशोक दोहरे शामिल हैं।

इतना ही नहीं राज्य के लोक निर्माण और सिंचाई मंत्री नसीमुद्दीन सिद्दीकी, परिवहन मंत्री रामअचल राजभर, राजस्व मंत्री फागू चौहान समेत करीब 12 मंत्रियों के खिलाफ भ्रष्टाचार की शिकायतें लोकायुक्त को मिली हैं। इनमें कुछ के खिलाफ जांच जारी है।
जो मंत्री बाहर हुए
चंद्रदेव राम यादव - लघु उद्योग मंत्री ( लोकायुक्त ने की हटाने की सिफारिश )
डॉ. यशपाल सिंह – विज्ञान एंव प्रोद्योगिकी मंत्री – (27 दिसंबर )
अकबर हुसैन - अतिरिक्त ऊर्जा मंत्री- (27 दिसंबर)
राजेश त्रिपाठी - धर्मार्थ कार्य मंत्री
अवधपाल सिंह यादव - दुग्ध विकास मंत्री
बादशाह सिंह - श्रम मंत्री
रंगनाथ मिश्र - माध्यमिक शिक्षा मंत्री
रतन लाल अहिरवार - अम्बेडकर ग्राम विकास मंत्री
राजपाल त्यागी ­ - कृषि शिक्षा मंत्री
राकेशधर त्रिपाठी - उच्च शिक्षा मंत्री
अवधेश वर्मा - पिछला कल्याण मंत्री
डॉ. हरिओम - प्रांतीय रक्षादल मंत्री
बाबू सिंह कुशवाहा - परिवार कल्याण मंत्री
अनंत मिश्रा - स्वास्थ्य मंत्री
आनंदसेन यादव - खाद्य प्रसंस्करण मंत्री
जमुना निषाद - मत्स्य मंत्री
अशोक दोहरे – जल संसाधन मंत्री ( 19 जनवरी 2011 )

Tuesday, 20 December 2011

शरतचंद्र की कहानी पर फिल्में

महान् उपन्यासकार शरतचंद्र चट्टोपाध्याय फ़िल्मकारों की हमेशा अच्छी पसंद में रहे हैं। विधु विनोद चोपड़ा उनके लोकप्रिय उपन्यास परिणिता पर इसी नाम से फ़िल्म लेकर आए। हालांकि परिणिता पर इससे पहले अलग-अलग नाम से दो फ़िल्में बन चुकी थीं। पर शरत की और कई कहानियों पर फ़िल्में बन चुकी हैं। उनकी कहानी राम की सुमति पर अनोखा बंधन (शबाना आज़मी अभिनीत) मझली दीदी (मीना कुमारी, धर्मेंद्र व सचिन) बड़ी दीदी जैसे कई नाम हैं।
 देवदास पर तो तीन बार इसी नाम से फ़िल्में बनीं। पहली बार देवदास में कुंदनलाल सहगल थे तो दूसरी बार देवदास में दिलीप कुमार व संजय लीला भंसाली की देवदास में शाहरूख ख़ान। इतना ही नहीं देवदास पर कई बार और भी फ़िल्म बनाने के प्रयास हुए।

 आख़िर क्या कारण है कि शरतचंद्र के उपन्यास पर निर्माता फ़िल्म बनाना पसंद करते हैं। उनके उपन्यासों के कथानक के मोड़ ऐसे हैं जो फ़िल्म की भाषा के अनुरूप हैं। इसमें निर्माताओं को ज्‍़यादा बदलाव नहीं करना पड़ता है। शरत की दूसरी सबसे बड़ी विशेषता है उनके उपन्यासों के नारी पात्र। शरत की नारी दया व त्याग की मूर्ति होती है। वह भारतीय नारी की आदर्श प्रतिमूर्ति होती है। वह कर्म करना जानती है पर श्रेय लेने के लिए आगे नहीं आती। हालांकि कई और बड़े कहानीकारों ने फ़िल्म इंडस्ट्री की ओर रुख किया पर वे उतने सफल नहीं हो सके। मुंशी प्रेमचंद के उपन्यास पर भी फ़िल्में बनीं पर वे उस तरह सफल नहीं हो सकीं।

मृणाल सेन ने उनकी प्रसिद्ध कहानी कफ़न पर इसी नाम से फ़िल्म बनाई थी। पर वह फ़िल्म दर्शकों की भीड़ अपनी ओर खींचने में सफल नहीं हो सकी। इसी तरह समय-समय पर अन्य उपन्यासकारों की कहानियों पर भी फ़िल्में बनीं। कई कहानीकारों ने निर्माताओं पर अपनी कहानी के संग छेड़छाड़ के गंभीर आरोप भी लगाए।

जून 2005 में प्रदर्शित होने वाली फ़िल्म पहेली जिसमें शाहरूख ख़ान व रानी मुखर्जी ने अभिनय किया है विजयदान देथा के उपन्यास पहेली पर आधारित थी। राजस्थानी पृष्ठभूमि के कथानक पर आधारित इस फ़िल्म से इसके निर्माताओं को काफ़ी उम्मीदें बंधी थी। यानि साल 2005 में दर्शकों को साहित्यिक कृतियों पर आधारित कई फ़िल्में देखने को मिली। अक्सर फ़िल्मकार इस बात का रोना रोते हुए देखे जाते हैं कि उन्हें अच्छी कहानी नहीं मिलती। 

सुपर स्टार अच्छी कहानी की तलाश में निराश रहते हैं। वहीं हिन्दी के उपन्यासकार अपनी कहानी के साथ फ़िल्म बनाए जाने पर बलात्कार के आरोप लगाते हैं। कई बार उपन्यासों पर अच्छी फ़िल्में भी बनी हैं। फणीश्‍वर नाथ रेणू की कहानी मारे गए गुलफ़ाम पर बनी फ़िल्म तीसरी क़सम इसका शानदार उदाहरण है। हालांकि यह फ़िल्म भी अच्छा बिजनेस नहीं कर सकी थी। राजेंद्र यादव के उपन्यास सारा आकाश पर भी फ़िल्म बन चुकी है। पर शरत जैसा शानदार प्लाट निर्माताओं को कहीं और नहीं नज़र आता है। यही कारण है कि शरत आज भी लोकप्रिय हैं।

  -विद्युत प्रकाश मौर्य 
(SHARAT CHANDRA, DEVDAS, SANJAY LILA BHANSALI ) 

Monday, 12 December 2011

दिल्ली का सौ साल का दर्द

भले ही दिल्ली ने राजधानी के रूप में सौ साल पूरे कर लिए हों लेकिन दिल्ली सौ साल के इस सफर में कई तरह के खतरों में जी रही है। दिल्ली देश की राजधानी है कुछ लोग इसे दुनिया की चंद खूबसूरत राजधानियों में शुमार करते हैं लेकिन दिल्ली के तस्वीर का दूसरा पहलू भी है जो कम लोगों को दिखाई देता है। इस पहलू में कई तरह के दर्द समेटे है दिल्ली। सबसे पहला दर्द है दिल्ली की बढ़ती आबादी का। आज दिल्ली की आबादी एक करोड़ 60 लाख के पार कर चुकी है। दिल्ली आबादी में दुनिया के पांच बड़े शहरों में है। लेकिन इस बढ़ती आबादी के लिए दिल्ली में हवा, पानी, धूप, अनाज और सड़कें नहीं हैं। पानी और दाना तो दिल्ली के लोग दूसरे राज्यों से मंगा कर पेट भरते हैं। लेकिन दिल्ली की सड़कें भी बढ़ती आबादी का बोझ सह पाने में सक्षम नहीं है।

जहां दिल्ली में चाणक्यापुरी जैसे खूबसूरत मुहल्ले हैं तो उसी साउथ दिल्ली में संगम विहार जैसा स्लम इलाका भी है। सिर्फ संगम विहार ही क्यों दिल्ली की असली तस्वीर देखनी हो तो लोगों को नांगलोई, बुराड़ी, सादतपुर, भजनपुरा, सीलमपुर, मौजपुर, करावलनगर के मुहल्ले भी देखने चाहिए। साल 2011 की जनगणना में उत्तर पूर्वी दिल्ली को देश का सबसे घनी आबादी वाला इलाका माना गया है। इसमें प्रति वर्ग किलोमीटर सबसे ज्यादा लोग रहते हैं। मतलब साफ है कि दिल्ली की 40 फीसदी आबादी को हवा, धूप, पानी और इंसानों लायक का खाना भी उपलब्ध नहीं है। जाहिर है आधी दिल्ली जानवरों का सा जिंदगी जीने को मजबूर है। ये सब उस दौर में हो रहा है जब दिल्ली में मेट्रो दौड़ रही है और सिविक सेंटर जैसी ऊंची इमारते बन रही हैं। लेकिन तस्वीर के दूसरे रूख में बहुत अंधेरा है। ये अंधेरा दिल्ली के पुराने गांव में भी है। दक्षिण दिल्ली में पिलंजी, कोटला मुबारकपुर, सनलाइट कालोनी, मस्जिद मोठ, मुनिरका, शाहपुर जट जैसे गांव है जहां कई घरों में हवा धूप भी नहीं आती।

आज दिल्ली का जो विस्तार है वह सिर्फ लुटियन दिल्ली तक नहीं है जो सुंदर दिखती है। लेकिन दिल्ली के इस बेतरतीब विकास के लिए जिम्मेवार कौन हैं। जाहिर है सौ साल की दिल्ली के विकास के लिए कभी ठीक से टाउन प्लानिंग नहीं की गई जिसका नतीजा है आबादी की ये विस्फोट। दिल्ली में आरके पुरम, आनंद विहार, विवेक विहार जैसी प्लांड कालोनियां बनी। रोहिणी, द्वारका जैसे उपनगर बने, लेकिन साथ ही साथ बड़ी संख्या में अवैध कालोनियां भी बनती गईं। क्योंकि हमने गरीब और मध्यम वर्ग के लोगों के आवास के लिए तो कभी इमानदारी से सोचा भी नहीं। भला दिल्ली के चाय वाले पान वाले खोमचे वाले, माली, चौकीदार, सफाईवाले कहां रहेंगे। हमने उनके लिए पर्याप्त घर कभी बनाए ही नहीं। लिहाजा ऐसी कालोनियां बनती गईं शहर के लिए समस्या बन गईं।
सौ साल की दिल्ली में आज हमारे पास गर्व करने लायक कुछ चीजें हैं तो उससे ज्यादा ऐसी समस्याएं हैं जो दिल्ली के लिए कभी भी मुश्किल खड़ा कर सकती हैं। अगर भूकंप आया तो तबाह हो जाएगी दिल्ली। आग लगने पर कई इलाकों में फायर ब्रिगेड की गाड़ी नहीं पहुंच सकती। पर्याप्त हवा, पानी नहीं मिलने और गंदगी के कारण दिल्ली में डेंगू जैसी बीमारियां फैलती हैं। आज आप एक लखनऊ, चंडीगढ़, भोपाल, जयपुर जैसे मध्यमवर्गीय शहर में रहने वाले से बात करें तो वह खुद को दिल्ली से ज्यादा बेहतर सुविधाओं में खुद को पाता है।

अगर दिल्ली सिर्फ राजधानी के रूप में विस्तार पाती तो हमारे पास इतनी समस्याएं नहीं होतीं। दिल्ली के साथ सबसे बड़ी दिक्कत है दिल्ली भारी संख्या में ऐसे उद्योग हैं जो दिल्ली के बजाए किसी दूसरे शहर में होते तो राष्ट्रीय राजधानी पर आबादी का इतना बड़ा बोझ नहीं होता। कभी दिल्ली के सियासतदां ये आरोप लगाते हैं कि बाहर से आए लोग दिल्ली पर बोझ बने हैं लेकिन बाहर के लोगों के बिना दिल्ली काम भी नहीं चल सकता। आज दिल्ली सौ साल की हो गई है। अब एक मौका है कि हम दिल्ली के पुराने गौरव कैसे बनाए और बचाए रख सकें इसके लिए गंभीरता से सोचा जाए। राजधानी के सौंदर्य को बचाए रखने के लिए कुछ जरूरी कदम उठाए जाएं। ट्रैफिक जाम बड़ी समस्या है लेकिन सिर्फ पार्किंग शुल्क महंगा कर देने भर से ट्रैफिक की समस्या खत्म नहीं हो सकेगी। इसका सबसे अच्छा तरीका हो सकता है कि दिल्ली से आबादी को दूसरे शहरों की ओर मोड़ने का। चरणबद्ध तरीके से दिल्ली के उद्योगों को दिल्ली से हटाकर दूसरे शहरों में भेजा जाए। इससे शहर में बढ़ती आबादी पर रोक लग सकेगी। राजधानी के अलावा बहुत सारे केंद्रीय दफ्तरों को भी दूसरे शहरों में शिफ्ट किया जा सकता है। अगर समय रहते शहर को बचाने के लिए जरूरी उपाय नहीं किए गए तो हो सकता है कि हम दिल्ली के डेढ सौ साल या दो सौ साल नहीं मना सकें। वैसे भी दिल्ली का इतिहास कई बार उजड़ने और बसने का रहा है।

- विद्युत प्रकाश मौर्य
  

Sunday, 4 December 2011

देव साहब ...अभी दिल भरा नहीं था....


देवानंद ( 1923-2011 ) - अभी ना जाओ कि दिल अभी भरा नहीं...
जिंदगी को जिंदादिली से जीने का नाम था देवानंद। कई लोग साठ का हो जाने पर खुद को रिटायर मानते है। लेकिन देवानंद 88 साल की उम्र तक जिंदगी को उसी तरह जीते रहे जैसे कोई 22-23 का आदमी जीता है। आखिरी दम तक फिल्में बनाते रहे। भविष्य की योजनाएं बनाते रहे। कोई उन्हें कभी बूढ़ा कहने की कभी जुर्रत नहीं कर सका। ये अलग बात है कि उनकी स्वामी दादा ( 1982 ) के बाद आखिरी दौर की बनाई सभी फिल्में बाक्स आफिस पर कोई कमाल नहीं दिखा सकीं। लेकिन इन सबसे देवानंद को कोई फर्क नहीं पड़ता था। वे एक सच्चे फिल्मकार थे इसलिए आखिरी दौर तक पूरी ऊर्जा और उत्साह से लबरेज रहे। वे आजकल के युवाओं के प्रेरणा स्रोत हो सकते हैं, जो प्यार में धोखा खाने के बाद महीनों रोते हैं या फिर जिंदगी में कई बार आत्मघाती कदम उठाते हैं। 
देव साहब ने सुरैया को जी भर के प्यार किया। लेकिन वे सुरैया को पा नहीं सके। लेकिन देव साहब को जिंदगी से फिर भी कभी शिकायत नहीं रही। देव साहब ने जिंदगी की निराशा जनक स्थितियों से भी प्रेरणा ली। हर पल जिंददगी में रंग भरा। एक बार एक इंटरव्यू में बोले कि 35 के बाद हर किसी के बाल सफेद हो जाते हैं। मैं अपने बालों को काला करता हूं। 80 के पार जाने के बाद भी रंग बिरंगे कपड़े पहनता हूं तो भला इसमें बुराई क्या है। 88 साल का जीवन दीर्घायू ही कहा जाएगा।
चार साल पहले 26 सितंबर को 84 साल की उम्र में उनकी आत्मकथा रोमांसिंग विद लाइफ का विमोचन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने किया। अपनी आत्मकथा में देवानंद ने सुरैया को याद किया है। सुरैया को याद करके वे भावुक भी हुए हैं।
सुरैया के साथ उनकी कनबतियों ने रोमांस की एक नई दास्तां को जन्म दे दिया। इसके अफसाने आज भी देवानंद का नाम आते ही फिजां में तैरने लगते हैं। यह पूछे जाने पर कि क्या उस मासूम प्यार की कहानी इस किताब में भी दर्ज है देवानंद ने तपाक से कहा था कि जी, बिलकुल। इसमें उसका जिक्र है। इसमें उससे भी ज्यादा है जितना जमाना जानता है। दुनिया वाले ये जानते हैं कि देवानंद सुरैया को कभी भुला नहीं पाए और अक्सर उन्होंने सुरैया को अपनी जिंदगी का प्यार कहा है। वह भी इस हकीकत के बावजूद कि उन्होंने बाद में अभिनेत्री कल्पना कार्तिक से विवाह कर लिया था। वर्ष 2005 में जब सुरैया का निधन हुआ तो देवानंद उन लोगों में से एक थे जो उनके जनाजे के साथ थे।
सुरैया इकलौती बेटी थीं , बला की ख़ूबसूरत थीं । एक साथ में काम करने वाले हीरो से प्यार कर बैठीं । वो हीरो देवानंद थे। काफी अरसे तक मोहब्बत ने इंतजार किया । पर इकलौती बिटिया ने एक आखरी दीवार नही लांघी। मोहब्बत का दामन सुरैया ने नही छोड़ा । उन्होंने कभी शादी नही की। 2004 में सुरैया नही रहीं । कैसा कठिन फ़ैसला रहा होगा सुरैया का यूं अकेले रहना।

 देवानंद ने ये कह दिया कि मुहब्बत कभी मरती नहीं है लेकिन उन्होने अपनी मुहब्बत को भी सरेआम रूसवा नहीं किया, बल्कि उसे एक अमर कहानी बना डाला। बहुत लोकप्रिय गीत है देव साहब कि एक फिल्म का...अभी ना जाओ की दिल अभी भरा नहीं...उनके नहीं रहने पर ये गीत बार बार याद आता है...वाकई देव साहब आप जल्दी चले गए दिल तो अभी भरा नहीं था....
- विद्युत प्रकाश मौर्य
(DEVANAND, FILMS) 



Thursday, 17 November 2011

हां, हम भिखारी ही तो हैं... ( व्यंग्य )

वास्तव में हम भिखारी ही तो हैं...आखिर हम भिखारी ही तो हैं...आखिर राहुल गांधी ने क्या गलत कह डाला। कब तक भीख मांगते रहोगे। ये सवाल यूपी वालों का अपमान नहीं है। अपमान तब होता जब ये संवाद किसी गैर यूपी वालों ने किया होता।


राहुल गांधी तो अपने यूपी वाले ही हैं। यूपी से ही सांसद है। राहुल ने
यूपी के लोगों का सोया स्वाभिमान जगाने की कोशिश भर की है। बाल ठाकरे बार बार मराठी अस्मिता का सवाल उठाते हैं। तो अपनों के बीच यूपी की अस्मिता का सवाल उठाना कहां गलत है। राहुल गांधी ने तो यूपी के लोगों से एक सवाल भर पूछा है कि आखिर कब तक...कब तक हम लोग दूसरे राज्यों में जाकर छोटे मोटे काम करते रहेंगे। भले ही हर काम कोई व्यक्ति स्वाभिमान के साथ करता
हो..लेकिन सफाई करना., टैक्सी चलाना, फुटपाथ पर रेहड़ी पटरी पर सामान बेचना, चौपाटी पर खोमचे लगाकर सामान बेचना या पंजाब के गांव में खेतों में जाकर मजदूरी करना ये सब कार्य समाज शास्त्र के स्तरीकरण के हिसाब से छोटे मोटे काम ही माने जाते हैं। इन सारे कार्यों को पाने के लिए याचना के स्वर में बात तो करना ही पड़ता है। जब हम किसी के सामने याचक के स्वर में होते हैं तो वह भीख मांगने के ही जैसा है। अगर हमारा स्वाभिमान जगेगा तो हम अपने इलाके में छोटे छोटे उद्योग और कल कारखाने लगाएंगे।
अपनी मेहनत और श्रम से उत्पादन करेंगे। हमारे उत्पाद दुनिया में दूर दूर तक बिकने जाएंगे। लोगों की मजबूरी होगी की हमारे उत्पादन को खरीदें। फिलहाल लोग हमारा उत्पादन कम हमारा श्रम ज्यादा खरीदते हैं। श्रम की कीमत तो मिलती है लेकिन वह कम होती है। इसके बदले में हमें उपेक्षा का दंश झेलना पड़ता है। कदम कदम पर दुत्कारे भी जाते हैं। ये सारी स्थितियां भीख मांगने के आसपास ही तो हैं। लेकिन सच कई बार कड़वा लगता है।

सच कई बार कहने के तरीके से कड़वा लगता है। इन्ही बातों को दूसरे शब्दों में ही कहा जा सकता है। लेकिन राहुल गांधी ने बिना लाग लपेट के सीधे शब्दों में कहने की कोशिश की है। उनकी कोशिश इमानदार है। वे हमारा सोया स्वाभिमान जगाना चाहते हैं। आज मउ में बुनी गई साड़ियें को दक्षिण भारत के निर्माता खरीद रहे हैं। हम यूपी के हर शहर को कुछ ऐसा ही बना दें तो शायद मुंबई जाकर मजदूरी नहीं करनी पड़े। बजाए की बाल की खाल निकालने के हमें राहुल गांधी की बातों को मर्म समझना चाहिए। उनके संवाद में हर यूपी वाले का दर्द है।
यूपी को विकसित बनाने के लिए आजादी के 60 साल में कितने इमानदार प्रयास हुए उसके क्या परिणाम निकले...उसके लिए दोषी कौन से नेता हैं..कौन सी पार्टियां है....इसके लिए तो राहुल गांधी को दोषी नहीं ठहराया जा सकता।

-   विद्युत प्रकाश

Sunday, 6 November 2011

गंगा तुम बहती क्यों हो....


भूपेन हजारिका ( 1926-2011) 
वह गायक भी था. संगीतकार भी था। गीत भी लिखता था। कहानियां भी लिखता था। उसे भाषा, राज्य, देश की सीमाओं से उपर उठकर लोग प्यार करते थे। कहा जाता है कि भूपेन हजारिका के टक्कर की कोई प्रतिभा पूरे एशियाई देश में नहीं थी। उनके तराने को वामपंथी, दक्षिण पंथी, हिंदी भाषी, बांग्ला भाषी, असमिया सभी गाते थे। आवाज में मखमली एहसास था। दिल हूम हूम करे....एक कली दो पत्तियां...नाजुक नाजुक उंगलियां...या फिर गंगा तुम बहती क्यों हो....एक कलाकार होने से ऊपर भूपेन दादा सामाजिक सरोकारों से जुड़े थे। उन्होने लंबी राजनीतिक पारी भी खेली। लेकिन उनके अंदर एक सच्चा कलाकार था। तभी तो उनके जाने से मुंबई का बॉलीवुड गम डूबा है। कोलकाता में दुख है। असम के लोग दर्द से भरे हैं। 1926 में जन्में भूपेन हजारिका की स्कूली पढाई असम में हुई तो उच्च शिक्षा काशी हिंदू विश्वविद्यालय में...बीएचयू के बिड़ला हॉस्टल की वे दीवारें भी गमजदा हैं जहां कभी भूपेन दा संगीत साधना किया करते थे....
भूपेन हजारिका ने जन संचार में पीएचडी कर रखा था....हम यूं कह सकते हैं वे सच्चे मायने में एक जन संचारक थे। एक आदमी कई चेहरे। गायक भी संगीतकार भी। राजनीति में भी किस्मत आजमाया, ये अलग बात है कि राजनीति रास नहीं आई। साल 2011 बड़ा क्रूर है कई महान लोगों को हमसे छीन रहा है। शम्मी कपूर, जगजीत सिंह और अब भूपेन हजारिका....

आज सारा देश उदास है....लोहित नदी उदास है...आदिवासी उदास हैं....असम के चाय के बगान उदास हैं....गंगा भी उदास है....उससे सवाल पूछने वाला नहीं रहा....
गंगा तुम बहती क्यों हो....एक ऐसा गीत था जिसमें आज के युग का सच उभर कर आया है....पढ़िए क्या था पूरा गीत....

विस्तार है अपार.. प्रजा दोनो पार.. करे हाहाकार...
निशब्द सदा ,ओ गंगा तुम, बहती हो क्यूँ ?
नैतिकता नष्ट हुई, मानवता भ्रष्ट हुई,
निर्लज्ज भाव से , बहती हो क्यूँ ?

इतिहास की पुकार, करे हुंकार,
ओ गंगा की धार, निर्बल जन को, सबल संग्रामी,
गमग्रोग्रामी,बनाती नहीँ हो क्यूँ ?

विस्तार है अपार ..प्रजा दोनो पार..करे हाहाकार ...
निशब्द सदा ,ओ गंगा तुम, बहती हो क्यूँ ?

अनपढ जन, अक्षरहीन, अनगिन जन,
अज्ञ विहिन नेत्र विहिन दिक` मौन हो क्यूँ ?इतिहास की पुकार, करे हुंकार,
ओ गंगा की धार, निर्बल जन को, सबल संग्रामी,
गमग्रोग्रामी,बनाती नहीँ हो क्यूँ ? 
विस्तार है अपार ..प्रजा दोनो पार..करे हाहाकार ...
निशब्द सदा ,ओ गंगा तुम, बहती हो क्यूँ ? 


व्यक्ति रहे , व्यक्ति केन्द्रित, सकल समाज,
व्यक्तित्व रहित,निष्प्राण समाज को तोड़ती न क्यूँ ?
इतिहास की पुकार, करे हुंकार,
ओ गंगा की धार, निर्बल जन को, सबल संग्रामी,
गमग्रोग्रामी,बनाती नहीँ हो क्यूँ ?

विस्तार है अपार ..प्रजा दोनो पार..करे हाहाकार ...
निशब्द सदा ,ओ गंगा तुम, बहती हो क्यूँ ?
( रचना- पंडित नरेंद्र शर्मा ) 
- भूपेन दा सच्चे भारतीय थे। वे असमिया भी थे। यूपी वाले भी थे। मुंबई वाले भी थे। तभी तो उनके जाने के बाद देश भर में लोग दुखी हुए रो पड़े और उदास हो गए...

Thursday, 3 November 2011

मानसून में चलिए अजंता की सैर पर

अक्सर लोग बारिश के दिनों में कहीं घूमने की योजना नहीं बनाते। पर ऐसा नहीं है, आप बारिश में तमाम ऐसे स्थल है जहां घूमने जा सकते हैं। कई जगह तो ऐसे हैं जिनकी खूबसूरती बारिश के दिनों में बढ़ जाती है। तो आपने अजंता का नाम तो सुन होगा। महाराष्ट्र के जलगांव के पास स्थित अजंता की गुफाएं यूनेस्को द्वारा विश्व विरासत की सूची मे शामिल की गई हैं। वैसे तो अजंता देश दुनिया के लोग सालों भर घूमने पहुंचते हैं, पर बारिश के दिनों में अजंता की सैर करना बेहतरीन अनुभव हो सकता है। भला ऐसा क्यों। ऐसा इसलिए कि अंजता की गुफाएं जंगल में पहाड़ियों के मध्य स्थित हैं। वर्गुना नदी के तीन तरफ पहाड़ी को को काटकर ये गुफाएं बनाई गई हैं। बारिश में जब पहाड़ों से पानी नीचे गिरता है तो अजंता की खूबसूरती में इजाफा हो जाता है। इसके साथ ही पहाड़ों पर बारिश के कारण हरियाली भी की एक खूबसूरत चादर भी बिछ जाती है।
32 गुफाओं में गौतम बुद्ध की जीवन
अजंता की गुफाओं को अच्छी तरह देखने के लिए पूरा एक दिन का समय चाहिए। यहां कुल 32 गुफाओं में गौतम बुद्ध का जीवन और दर्शन उकेरा गया है। पर इनमें से 28 गुफाओं को देखने के लिए मार्ग बना हुआ है। गर्मियों में इस क्षेत्र में तापमान काफी ऊंचा रहता है। पर बारिश के दिनों में मौसम मनोरम हो जाता है।
एलोरा और औरंगाबाद भी घूम सकते हैं
आप अजंता जा रहे हैं तो औरंगाबाद में रहकर आसपास के दूसरे दर्शनीय स्थलों का भी नजारा कर सकते हैं। आप एलोरा की गुफाएं, घूश्मेश्वर ज्योतिर्लिंग, दौलतबाद का किला, औरंगाबाद में बीवी का मकबरा, पानी कोठा आदि भी देख सकते हैं। आप पास में भद्र मारूति के दर्शन कर सकते हैं और औरंगजेब की मजार पर भी जा सकते हैं।

     

Tuesday, 18 October 2011

टीवी पर हिंदी की बढ़ती धमक

आजकल स्टार प्लस और जीटीवी पर प्रसारित होने वाले धारावाहिकों की कास्टिंग हिंदी में दिखाई जा रही है। ये धारावाहिकों के जनता के बीच से मिले फीडबैक और लगातार शोद का नतीजा है। हालांकि ज्यादातर हिंदी फिल्मों की कास्टिंग अभी भी अंग्रेजी में होती है। लेकिन अब टीवी ने इस ट्रेंड को बदल दिया है।

कभी आपने बिग बास की हिंदी सुनी है। अक्सर बिग बास जब अपने घर में रहने वाले यानी अंतेवासियों को संबोधित करते हैं तो उनकी हिंदी भी बड़ी अच्छी होती है। वे आम फहम हिंदी की तुलना में कई बार तत्सम हिंदी का प्रयोग करते हैं। ठीक इसी तरह कौन बनेगा करोड़पति में अमिताभ बच्चन भी बड़ी अच्छी हिंदी बोलते नजर आ रहे हैं। ये सब हिंदी की बढ़ती धमक का नतीजा है कि हिंदी चमक रही है।

हिंदी बाजार में चमक रही है। विज्ञापन जगत में कई विज्ञापन भी अच्छी शब्दावली वाली हिंदी में तैयार किए जा रहे हैं। सरकार भले ही हिंदी दिवस मनाकर हिंदी के विकास की रस्मअदायगी कर लेती हो लेकिन बाजार अब हिंदी  को स्वीकार कर रहा है। भले ही हिंदी के मनोरंजन चैनलों पर चलने वाले धारावाहिकों को गैर हिंदी इलाके में भी देखा जाता हो लेकिन उसकी हिंदी में कास्टिंग देखकर एक अच्छा फील आता है. हिंदी प्रदेश में रहने वालों को अपनेपन का एहसास होता है। इतना ही नहीं इन धारावाहिकों में हिंदी लिखे जाने के लिए यूनीकोड फांट का इस्तेमाल किया जा रहा है। जो सकारात्मक संदेश है।

हाल में सुना गया है कि अमिताभ बच्चन अपनी फिल्मों के लिए पटकथा भी हिंदी में मांगते हैं. हालांकि अब तक सुना जा रहा था कि बालीवुड में फिल्में भले हिंदी में बनती हों लेकिन उनकी पटकथाएं तो अंग्रेजी ( रोमन ) में लिखकर कलाकारों को दी जाती थीं। लेकिन अब जमाना बदल रहा है। हिंदी की ताकत बढती जा रही है। तो आइए आप भी इसका हिस्सा बनिए...भला शरमाना कैसा....हिंदी हैं हम वतन है...ये हिंदुस्तान हमारा....
विद्युत प्रकाश मौर्य


Monday, 10 October 2011

जगजीत के साथ सुदर्शन फाकिर को रखें याद


जगजीत सिंह नहीं रहे। पूरा देश उन्हें याद कर रहा है लेकिन जगजीत ने ज्यादातर जो गजलें गाईं उनमें कई उनके दोस्त सुदर्शन फाकिर की रचनाएं थी। अस्सी के दशक में जगजीत-चित्रा की जोड़ी को जो सफलता मिली उसमें सुदर्शन फा़किर की लिखी नायाब ग़ज़लों का एक अहम हिस्सा था। कुछ बानगी देखिए...

कहां गए वो दिन: जगजीत सिंह के परिवार की एक पुरानी फोटो। 
ये दौलत भी ले लो ये शोहरत भी ले लो 
भले छीन लो मुझसे मेरी जवानी ।
मगर मुझको लौटा दो वो बचपन का सावन
वो काग़ज़ की कश्ती वो बारिश का पानी... 
--
अगर हम कहें और वो मुस्कुरा दें
हम उनके लिए जवानी लूटा दें...

ये सब उस दौर की गजलें थी जिसमें जगजीत सिंह, चित्रा सिंह की मखमली आवाज का जादू दिखता है। कई पीढियां इस आवाज के जादू की फैन रहीं। बाद में जगजीत सिंह के सुर कुछ संजीदा हो गए...तब भी सुदर्शन फाकिर के शब्दों ने उनका साथ दिया...
--
उस मोड़ से शुरू करें हम ये जिंदगी
हर शय जहां हसीन थी...

--
आदमी आदमी को क्या देगा
जो भी देगा वही खुदा देगा
--
शायद मैं ज़िन्दगी की सहर ले के गया
क़ातिल को आज अपने ही घर लेके गया
--
इश्क़ ने गैरते जज़्बात ने रोने दिया....
वर्ना क्या बात थी, किस बात ने रोने न दिया।
--
चराग़--आफ़्ताब ग़ुम, बड़ी हसीन रात थी
शबाब की नक़ाब ग़ुम, बड़ी हसीन रात थी
मुझे पिला रहे थे वो कि ख़ुद ही शम्मा बुझ गयी
गिलास ग़ुम शराब ग़ुम, बड़ी हसीन रात थी


किसी रंजिश को हवा दो कि मैं ज़िंदा हूँ अभी
मुझ को एहसास दिला दो कि मैं ज़िंदा हूँ अभी ( चित्रा सिंह की आवाज में)

और
पत्थर के ख़ुदा पत्थर के सनम पत्थर के ही इंसां पाए हैं
तुम शहरे मुहब्बत कहते हो, हम जान बचाकर आए हैं 

सुदर्शन फाकिर जालंधर के रहने वाले थे जबकि जगजीत सिंह ने लंबे समय तक जालंधर के डीएवी कालेज में पढ़ाई की। 10 अक्टूबर 2011 की मनहूस सुबह को जगजीत सिंह हमें छोड़कर चले गए। देश और दुनिया में उनके प्रशंसकों में निराशा है। उनका प्यारा सुरों का चितेरा उनके बीच नहीं है। लेकिन साल 2008 की एक सुबह जब जालंधर में सुदर्शन फाकिर ने इस दुनिया को अलविदा कहा तो शहर के बहुत कम लोगों ने नोटिस लिया। सुदर्शन फाकिर और जगजीत सिंह के कालेज के जमाने के दोस्त गुलशन कुंदरा सुदर्शन फाकिर को याद करके भावुक हो जाते हैं। आज जगजीत सिंह भी इस दुनिया में नहीं लेकिन जगजीत को जब भी याद किया जाएगा उनके साथ सुदर्शन फाकिर की चर्चा भी बड़ी सिद्दत से होगी...क्योंकि शायर ही तो शब्द देता है जिसे गायक सुरों में पिरोता है।