Monday, 4 February 2013

हिंदी प्रकाशन के शलाका पुरूष कृष्णचंद्र बेरी और मैं

अपने कक्ष में कृष्ण चंद्र बेरी - 1996 ( फोटो-विद्युत) 
किसी के जीवन में उसका पहला काम पहला अनुबंध (एसाइनमेंट) बहुत महत्व रखता है। मेरा परिचय हिंदी प्रकाशन जगत के शलाका पुरुष कृष्ण चंद्र बेरी से होना एक संयोग था। तब मैं काशी हिंदू विश्वविद्यालय में एमए की पढ़ाई के साथ पत्रकारिता में फ्रीलांसिंग कर रह रहा था। दीप जगत के फीचर प्रभारी जीतेंद्र मुग्ध ने एक विषय दिया महंगी होती पुस्तकों के लिए जिम्मेवार कौन...इस पर प्रमुख प्रकाशकों से बातें करके फीचर तैयार करो। मैं विश्वविद्लाय प्रकाशन के पुरूषोत्तम दास मोदी, चौखंबा विद्या भवन के स्वामी और हिंदी प्रचारक संस्थान के निदेशक श्री कृष्णचंद्र बेरी से इसी क्रम में जून 1994 में मिला। 
बेरी जी की आदत थी हर नए व्यक्ति को भी उत्साहित करने की। सो उन्होंने विषय पर अपने विचार देने के साथ मुझे उत्साहित भी किया था। 

जब यह लेख प्रकाशित हो गया तब उसे दिखाने के बहाने मैं एक बार फिर बीएचयू से 9 किलोमीटर अपनी साइकिल चलाता हुआ पिशाचमोचन में हिंदी प्रचारक संस्थान के दफ्तर पहुंचा। मुझे देखते ही बेरी जी आह्लादित स्वर में बोले मैं इंटरव्यू पढ़ लिया है। तुमने जैसा मैंने कहा था वैसा ही हूबहू उतार दिया है। बात आगे बढ़ी, वे बातों बातों में अतीत में चले गए। वे कुछ भावुक हुए और कहा, मैं अपने कुछ पुराने संस्मरण लिपिबद्ध कराना चाहता हूं। तुम कुछ दिन बाद मुझे मिलो। बात आई गई हो गई। लेकिन उन्होंने थोड़े दिन बाद संदेश देकर मुझे बुलवाया। उनका प्रस्ताव था कि मैं अपनी आत्मकथा लिखवाना चाहता हूं। तुम इस काम को लिप्यांतरकार के तौर करो। उन्होंने जुबानी वादा किया पुस्तक में तुम्हारा नाम रूपांतरकार के तौर पर जाएगा। मेरे लिए पत्रकार बनने से पहले ये किसी काम का सुंदर प्रस्ताव लगा। अस्वीकार करने का कोई कारण नहीं था।
 एक दिन उनकी जीवनी प्रकाशकनामा पर काम शुरू हो गया। बेरी जी की उम्र 80 साल हो चुकी थी। बोलने में मुश्किल होती थी। लिख नहीं पाते थे। लिहाजा रोज मैं उनके घर और लाइब्रेरी में पुरानी फाइलों पुस्तकों से उनके जीवन के बारे में शोध करता। हर सुबह सात से आठ बजे एक घंटा वे अपने पुराने अनुभव सुनाते। मैं प्रश्नावली के साथ भी तैयार रहता। ये सब कुछ मैं अपने डिक्टाफोन में रिकार्ड करता। हर रोज एक कैसेट। फिर दोपहर में उसकी स्क्रीप्ट तैयार करता। इसके बाद अगले दिन के लिए फिर शोध और तैयारी। रहना खाना पीना सब बेरी जी के आवास में उनके परिवार के सदस्यों के साथ ही। उनके रसोई घर से बनकर आने वाली हिंग की खूशबु वाली थी का स्वाद नहीं भूलता। बेरी जी कभी कभी काम से खुश होने पर रसगुल्ले जरूर मंगाकर खिलाते थे। कभी लगातार कभी कुछ दिनों के ब्रेक के साथ काम जारी रहा। लगभग एक साल में 450 पृष्ठों की पुस्तक प्रकाशकनामा का मसौदा तैयार हो गया।

पुस्तक के संपादन का काम मैंने आईआईएमसी की छुट्टियों के दौरान और उसके बाद कुबेर टाइम्स में नौकरी मिल जाने के बाद भी छुट्टियों के दौरान वाराणसी जाकर पूरा किया। इस दौरान मैं बेरी जी के आवास में उनके सानिध्य में ही रहता था। पुस्तक प्रकाशकनामा 2001 में प्रकाशित हुई। इसे 2002 में भारत सरकार की ओर से भारतेंदु हरिश्चंद्र पुरस्कार भी मिला। 

-    - विद्युत प्रकाश मौर्य

Friday, 4 January 2013

आईआईएमसी का साक्षात्कार और बेरी जी का संदर्भ

मैं एमए की पढ़ाई पूरी कर चुका था। मेरा चयन भारतीय जन संचार संस्थान में हिंदी पत्रकारिता पाठ्यक्रम में हो गया। जब मैं आईआईएमसी के साक्षात्कार कक्ष में जुलाई 1995 में पहुंचा तो बोर्ड के लोगों ने मेरे पत्रकारिता में किसी तरह के कार्य के अनुभव के बारे में पूछा।
 मैंने बताया कि इन दिनों मैं हिंदी प्रचारक संस्थान के निदेशक कृष्णचंद्र बेरी की आत्मकथा लिख रहा हूं। बोर्ड के लोग थोड़े चकित हुए। सभी लोग बेरी जो को सम्मान से जानते थे। एक सदस्य ने सवाल किया- बेरी जी ने किसी महानपुरूष की आत्मकथा पर काम किया था आपको पता है...मैंने बताया- हां 18 साल की आयु में ही उन्होंने हिटलर की आत्मकथा मेनकेंफ का पहला हिंदी अनुवाद पेश किया था। ये पुस्तक एक बार फिर नए रूप में प्रकाशित हो रही है।
बोर्ड के सदस्यों ने मुझसे और भी सवाल पूछे थे- मसलन इतिहास के छात्र होते आपने किन इतिहासकारों की पुस्तकें पढ़ी उनकी क्या खासियत है...मैंने ताराचंद, सुमित सरकार के नाम लिए। मेरे गृह नगर सासाराम के ऐतिहासिक नाम शेरशाह की इतिहास में प्रमुख देन- मैंने बताया डाक व्यवस्था, न्याय व्यवस्था और बाद में जीटी रोड। एक सदस्य ने पूछा पत्रकारिता बीएचयू में भी पढ़ाई जाती है फिर यहां क्यों आना चाहते हो। मैंने कहा आईआईएमसी की अच्छी फैकल्टी और आधारभूत संरचना के बारे में सुन रखा है। मेरा 20 मिनट का इंटरव्यू एक भी जवाब नकारात्मक नहीं रहा। पर बेरी जी पर शुरू हुए प्रसंग ने मेरे साक्षात्कार को लंबा खींचा और सुखद संवादों के साथ समापन हुआ। मैं बाहर आकर आश्वस्त हो चुका था कि मेरा चयन पक्का है। मैंने बनारस पहुंच कर बेरी जो ये बात बताई। साक्षात्कार बोर्ड में सबने उनका नाम सम्मान से लिया ये जानकर मैं व बेरी जी दोनों ही प्रसन्नचित थे। सचमुच उस दौर में कोई भी हिंदी का लेखक या पत्रकार नहीं होगा जो बेरी जो को न जानता हो। उन्होंने कमलेश्वर, राजेंद्र अवस्थी, शानी, विश्वनाथ प्रसाद ( आलोचक) जैसे कई नामचीन लेखकों की पहली किताब छापी वह भी  बिना किसी सिफारिश के। जब सक्रिय पत्रकारिता शुरू करने के बाद दिल्ली ली मीरिडयन होटल में टीवी धारावाहिक युग की प्रेस कान्फ्रेंस में मेरी कथाकार कमलेश्वर से मुलाकात हुई तब उन्होंने मुझसे बेरी जी का नाम अति सम्मान से लिया और उनकी प्रशंसा में न जाने कितने वाक्य कह डाले।
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   - विद्युत प्रकाश मौर्य 

Friday, 23 November 2012

तुम खुद को इतना मासूम मत समझो ( व्यंग्य)

उनके नाम 13 लाख रुपए किसी ने यूं ही लिफाफे में रखकर भेज दिए। वह भी दूर देश से। सात समंदर पार से। हमारे पास तो किसी ने आजतक 13 रुपए भी नहीं भेजे। हमारी भोली भाली ऐश्वर्या को यह भी नहीं मालूम कि किसने उसके नाम यह 13 लाख रुपयों का पैकेट भेज दिया। लोग गरीबों को अठन्नी देने से भी कतराते हैं पर अमीरों पर लाखों न्योक्षावर करते हैं। मैं यह नहीं कहता कि उस व्यक्ति ने ऐश्वर्या को 13 लाख रुपए भेजकर कोई गलती की। इन रुपयों को वह दरिद्र नारायण पर भी न्योछावर कर सकता था। जैसा कि विदेशों के कुछ अमीर कर रहे हैं।
एक विदेशी महिला ने बनारस के गरीबों पर धन लुटाना शुरू किया है। उसका कहना है कि छप्पन प्रकार के भोग सिर्फ अमीर लोग ही क्यों खाएं। गरीबों को जूठे पत्तल का खाना ही क्यों नसीब हो। इसलिए वे बनारस दश्वाश्वमेध घाट पर गरीबों के लिए सुस्वादु व्यंजनों का लंगर लगाने जा रही हैं। वे हर साल क्रिसमस पर ऐसा करती हैं।
अब ऐश्वर्या राय को रुपए की थैली भेजने वाला निश्चय ही इतना गरीबों के लिए हमदर्द नहीं होगा। उसने ऐश्वर्या की भोली सी हंसी पर ही रुपए लुटाने की ठान ली होगी। पर आखिर उसने ये रुपए चोरी छुपे क्यों भेजे। वह चाहता तो इसे कानूनी तरीके से डंके चोट पर भेज सकता था। वह चाहता तो रुपए के बदले में कोई गिफ्ट सामग्री आदि भेज सकता था। दुनिया में कई खिलाड़ियों और सितारों के ऐसे गुमनाम प्रशंसक हुए हैं जो अपने चहेते सितारों को इनाम भेजते रहे हैं। पर यह भेजने वाला गुमनाम नहीं है। उसने अपना नाम बताते हुए भेजा है। पर उसने रुपयों को इलेक्ट्रानिक उपकरण में चोरी से छुपाया है। कहतें है वह इवेंट आरगनाइजर है। वह कई सितारों को पहले भी पैसे देता रहा होगा। यह भी कहा जाता है कि कुछ सितारे चोरी चुपके पैसे लेते हैं जिससे टैक्स की बचत हो सके। पर हमारी ऐश्वर्या तो सबसे ज्यादा टैक्स भरने वालों में से हैवह भला चोरी चुपके पैसे क्यों लेगी।
कस्टम अधिकारियों ने ऐश्वर्या से पूछा। पर उसने बड़े भोलेपन से कहा मुझे तो उस रुपए के बारे में कुछ नहीं मालूम। कस्टम वाले भी पूर्व मिस वर्ल्ड की बातों में आ ही गए। अब ऐश्वर्या खुद जानना चाहती हैं कि यह रुपया उनके पास क्यों भेजा गया है। कुछ लोगों का मानना है कि उन्हें बदनाम करने के लिए ही यह रुपया किसी ने भेज दिया है। मैं कहता हूं कि देश के कुछ और लोगो को बदनाम करने के लिए इसी तरह के पैकेट भेजे जाएं विदेशों से। बड़ा अच्छा होगा। इसी बहाने हमारे पास यूरो को बरसात तो होगी न। पर ऐश्वर्या भले ही 33 साल की हो गई हों पर वे बड़ी भोली हैं। उन्हें तो जी भर कर खिलखिलाने के अलावा दुनियादारी की बातें कुछ भी नहीं मालूम है। वे जमकर रुपए कमाती हैं और टैक्स भरती हैं। पर उनको रुपए के लेनदेन के बारे में ज्यादा नहीं मालूम है। एक शायर ने लिखा है -
तुम खुद को इतना मासूम मत समझोतुम पर भी इलजाम बहुत हैं।
भले ही हमारी ऐश्वर्या पर कई तरह के इल्जाम लग गए हों। पहले भी वे रुपए के लेनदेन के मामले में चर्चा में आई हों पर वे फिर भी भोली भाली हैं। वे हमेशा भोली भाली रहेंगी। कोई भी उनकी बातें सुनकर उन्हें क्लीन चीट ही दे देगा। हां हमारी भोली सी ऐश्वर्या ।
- विद्युत प्रकाश 

Tuesday, 17 July 2012

कहां है आम आदमी का घर....

बाजार में मंदी है। बड़ी प्रापर्टी के दाम में तेजी से गिरावट आ रही है। मुंबई, गुड़गांव नोयडा जैसे शहरों में महंगी प्रोपर्टी के खरीददार नहीं मिल रहे हैं। फिर नई कंपनियां 80-90 लाख और करोड़ों के अपार्टमेंट और पेंट हाउस बनाने का ऐलान कर रही हैं। आम आदमी के लिए या मध्यम वर्ग के लिए घर का ऐलान को भी बिल्डर नहीं कर रहा है। टाटा जैसा समूह जो एक ओर आम आदमी के लिए कार नैनो को बाजार में लांच कर रहा है, उसने हाउसिंग प्रोजेक्ट के क्षेत्र में भी कदम रख दिया है। पर टाटा ने हाउसिंग के क्षेत्र में आम आदमी के लिए घर का ऐलान नहीं किया है। टाटा ने भी रहेजा समूह के साथ मिलकर उच्च आय वर्ग के लोगों के लिए महंगे और लक्जरी आवास बनाने का ऐलान किया है। खास कर दिल्ली और उसके आसपास के शहरों में देखा जाए तो यहां मध्यम वर्ग और निम्न आय वर्ग के लोगों के लिए घर बहुत कम हैं। एक ओर जहां इसको लेकर सरकार उदासीन है वहीं निजी बिल्डर भी महंगे मकानों को ही प्राथमिकता दे रहे हैं।

 कई साल बाद दिल्ली विकास प्राधिकरण ( डीडीए) ने अपनी आवासीय योजना का ऐलान किया है जिसमें आम आदमी के लिए घर हैं। पर घर हैं सिर्फ पांच हजार और आवेदन होने की उम्मीद है पांच लाख। डीडीए की योजनाएं कई-कई सालों बाद निकलती हैं। डीडीए जितने फ्लैट्स बनाती वह लोगों की जरूरत के हिसाब से देखा जाए तो ऊंट के मुंह में जीरा जैसा साबित होता है। लाखों लोग दिल्ली जैसे महानगर में जिंदगी गुजार देते हैं पर वे अपना फ्लैट नहीं खरीद पाते क्योंकि उनके लिए मिड्ल क्लास प्रोजेक्ट कहीं निकलते ही नही हैं। आम आदमी को कार का सपना दिखाने वाली कंपनी टाटा को चाहिए कि वह आम आदमी के घर का प्रोजेक्ट भी लांच करे। आजकल ज्यादा परिवार छोटे हो रहे हैं। ऐसे में एक कमरे और दो कमरे वाले घरों की जबरदस्त मांग है। अगर निजी ब्लिडर इस तरह के बहुमंजिले अपार्मेंट्स का निर्माण करें तो उसके ग्राहक तेजी से मिलेंगे। जैसी मंदी इन दिनों प्रोपर्टी के बाजार में आई है उसमें महंगे और लक्जरी अपार्टमेंट के ग्राहक बहुत कम मिल रहे हैं, जिससे मजबूर होकर बड़े बिल्डरों को महंगे घरों का दाम कम करना पड़ रहा है। जिस तरह एफएमसीजी गुड्स के मामले में पांच-दस रूपये की चीजें बड़ी तेजी से बिकती हैं उसी तरह अगर पांच दस लाख रुपये के घर बनाए जाएं तो उसके भी ग्राहक बड़ी संख्या में मिलेंगे। इस मामले में सरकार को और सभी प्रमुख बिल्डरों को गंभीरता से सोचना होगा। ऐसी सस्ती परियोजनाओं के आने से आम आदमी के घर का सपना साकार हो सकेगा।
अगर हम दिल्ली, नोयडा, फऱीदाबाद, गुड़गांव, गाजियाबाद की प्रोपर्टी पर नजर डालें तो वहां वन रूम और टू रूम के प्रोजेक्ट बहुत कम हैं। ऐसे में कम आय वाले व्यक्ति के पास लोन लेकर घर खरीदने का विकल्प नहीं रह जाता है। ऐसा नहीं है कि छोटे आवासीय यूनिट बनाने में बिल्डरों को कोई लाभ नहीं होता है, पर मोटे लाभ की उम्मीद में बिल्डर ज्यादातर बड़े घर बनाते हैं। ऐसे मामले में सरकार को पालिसी बनानी चाहिए कि बिल्डर एक ही आवासीय प्रोजेक्ट में हर आय वर्ग के लोगों के लिए घर बनाएं। अगर हम दिल्ली की तुलना में मुंबई को देखें तो वहां छोटे आवासीय अपार्टमेंट बडी़ संख्या में बने हैं, ऐसे में वहां पर एक फ्लैट खरीदना दिल्ली की तुलना में आसान है।



Sunday, 17 June 2012

शॉपिंग मॉल्स भी घाटे में

देश के सबसे बड़े रिटेल नेटवर्क में से एक स्पेंसर को अपने 40 स्टोर बंद करने का निर्णय लेना पड़ा है। स्पेंसर आरपीजी रिटेल द्वारा प्रवर्तित स्टोर का नेटवर्क है। वहीं किशोर बियानी का बिग बाजार भी इससे अछूता नहीं है। यानी की पिछले कुछ सालों में जिस तरह तेजी से बिग बाजार जैसे बड़े रिटेल स्टोर खुले हैं वहां सब कुछ हरा भरा नहीं है। इन बड़े स्टोरों के चेन में खुले कई शहरों स्टोर घाटे में भी जा रहे हैं। जाहिर बड़ी कंपनी के 100 में से कुछ स्टोर घाटे में भी हों तो वह घाटे को एक समय तक बर्दास्त कर सकती है, पर लंबे समय तक ऐसा नहीं कर सकती है। इसलिए अब कई बड़े शापिंग माल्स भी अपने स्टोरों को बंद करने का निर्णय ले रहे हैं। स्टोर को डेकोरेट करने में आई बड़ी लागात और उसके बाद बड़ा बिजली बिल, मंहगा किराया और स्टाफ के वेतन के बाद बिक्री का आंकड़ा कम हो तो घाटा हो सकता है। इस घाटे से उबरने के लिए बड़े स्टोर समय समय पर डिस्काउंट की घोषणा भी करते हैं। 

पर बड़ा से बड़ा व्यापारी भी लंबे समय क घाटे का खेल नहीं खेल सकता है। इसलिए उन्हें स्टोंरों को बंद करने का भी निर्णय लेना पड़ रहा है। हालांकि ऐसी कंपनियों ने अपनी विस्तार योजना को कोई रोक नहीं लगाई है, पर वे अब सोच समझ कर ऐसी जगहों पर ही स्टोर खोलने जा रहे हैं जहां अच्छी बिक्री की उम्मीद हो। बिग बाजार के प्रवर्तक किशोर बियानी ने तो छोटे रिटेलरों को चुनौती देने के लिए गली मुहल्ले और व्यस्त बाजारों के बीच में एक हजार स्क्वायर फीट में केबीज सबका बाजार खोलना शुरू कर दिया है। यह बिल्कुल किसी परंपरागत किराना दुकान की तरह ही है। ऐसे स्टोरों के घाटे में चलने की उम्मीद कम ही है।

आखिर क्या कारण है जिससे माल्स में खुले कई बड़े स्टोर घाटे में जा रहे हैं। दरअसल बड़े स्टोर खोलने में जितनी बड़ी लागत आती है, उसी वाल्यूम में वहां ग्राहक नहीं मिलते हैं, जिसके कारण घाटा उठाना पड़ता है। दूसरी बात यह भी हुई है कि परंपरागत दुकानदार भी इन बड़े स्टोरों से मुकाबले को लेकर सचेत हुए हैं। उन्होंने क्रेडिट कार्ड मशीने लगानी शुरू कर दी हैं। ग्राहकों को लुभाने के लिए डिस्काउंट और उधार देना भी शुरू कर दिया है। कई छोटे दुकानदारों ने भी अपने रेट्स को प्रतिस्पर्धी बनाना शुरू कर दिया है। मतलब कि जिस रेट में राशन आपको किसी बड़े रिटेल स्टोर में मिलता है उससे कम में समान्य किराना की दुकानों में भी मिल रहा है ऐसे में लोग अपने मुहल्ले की दुकान से राशन खरीद लेन अक्लमंदी समझ रहे हैं।
कई छोटे और मझोले शहरों में जितना बड़ा उपभोक्ता वर्ग है उसकी तुलना में शापिंग माल्स ज्यादा संख्या में खुल गए हैं, इस कारण से माल्स में ग्राहकों का टोटा पड़ने लगा है। जैसे पानीपत और हिसार जैसे शहरों में पांच पांच माल्स खुल रहे हैं। कई इसमें चालू भी हो गए हैं। अगर पांच लाख आबादी वाले शहर में पांच बड़े माल्स होंगे तो जाहिर है कि कुछ माल्स की दुकानें दिन भर ग्राहकों का इंतजार करेंगी। हालांकि बिग बाजार जैसे स्टोर अधिकांश शहरों में सफल हो रहे हैं क्योंकि यहां एक ही स्टोर में सब कुछ मिलता है। सब्जी भाजी से लेकर कपड़े तक। पर ज्यादा परेशानी वैसे स्टोरों के साथ है जो किसी एक सिगमेंट पर केंद्रित हैं। जैसे कई रेडीमेड गारमेंट के कंपनी शो रुम बंद होने के कागार पर हैं।
- vidyutp@gmail.com




Sunday, 20 May 2012

SOCIAL MEDIA A NEW ARM



सोशल मीडिया - एक नया हथियार 

कुछ साल पहले छोटे समूहों के पास अपनी बातें कहने का एक मात्र तरीका था लघु पत्रिकाएं निकालना, अनियतकालीन पत्रिकाएं निकालना या छोटे अखबार निकालना। लेकिन इसके साथ एक समस्या थी इसे देश-विदेश में बड़े समूह तक पहुंचाना आसान नहीं था। इसके साथ ही ये एक खर्चीली प्रक्रिया भी थी। पत्रिका निकालने या अखबार निकालने के लिए रजिस्ट्रेशन की प्रक्रिया से गुजरना पड़ता है। छपाई और लोगों तक पहुंचाने के खर्चे अलग पड़ते हैं। लेकिन अब सोशल मीडिया ने हर किसी को अपनी बात एक बड़े समूह तक साझा करने के लिए एक बड़ा मंच प्रदान कर दिया है।
याहू ग्रुप, आरकुट, फेसबुक, लिंकड इन, गूगल प्लस, ट्विटर, यू ट्यूब जैसे कई मंच इंटरनेट की खिड़की खुलने के साथ लोगों को मिले हैं। ब्लॉगिंग और माइक्रो ब्लॉगिंग के जरिए न सिर्फ खास बल्कि आम लोग भी खुल कर अपनी बात कह सकते हैं। दुनिया के किसी भी कोने में हजारों लाखों लोगों तक अपनी आवाज पहुंचा सकते हैं। 
अपनी बात कहने की आजादी
अमिताभ बच्चन यानी सदी के महानायक। एक बड़े फिल्म स्टार। मीडिया से अपनी बात कहना चाहते हैं। जाहिर एक प्रेस कान्फ्रेंस बुलानी पड़ेगी। पत्रकारों को न्योता भेजना किसी फाइव स्टार होटल में खाने पीने का इंतजाम। इसमें खर्चा दो लाख रुपये के आसपास। इसके बाद भी गांरटी नहीं कि वे जो कुछ बोलेंगे कल के अखबारों में सब कुछ वैसा ही छपेगा या उन्हें स्पेश मिलेगा भी या नहीं। लेकिन अब सोशल मीडिया ने उन्हे एक शानदार विकल्प दे दिया है। वे कहीं नहीं जाएंगे। घर बैठे या कार में घूमते हुए अपनी बात अपने टिवटर एकाउंट या बिग अड्डा के ब्लाग पर लिख देंगे। उनकी बातों को सभी जाने माने अखबार और टीवी चैनल लपक कर उठा लेंगे। न हर्रे लगा न फिटकरी रंग चोखा हो जाए। न सिर्फ अमिताभ बच्चन बल्कि आमिर खान और दूसरे कई फिल्म स्टार भी फेसबुक, ट्विटर जैसी सोशल नेटवर्किंग साइट्स का इस्तेमाल कर रहे हैं। उभरती हुई माडल पूनम पांडे का उदाहरण हमारे समाने है जो यू ट्यूब पर अपना एक एक कर ताजा वीडियो अपलोड पर चर्चा में हैं। अगर सोशल मीडिया का अविर्भाव नहीं हुआ होता तो बिग बी, आमिर खान या पूनम पांडे को अपनी बात लोगों तक पहुंचाने में बड़ी मुश्किल आतीं। टीवी और फिल्मों के कम लोकप्रिय सितारे भी अपने प्रशंसकों से सीधा संबंध बना रहे हैं सोशल नेटवर्किंग साइट्स के सहारे। कई साल पहले अखबार या पत्रिकाओं में सितारों के पते छपते थे फिर फैन्स उन्हें चिट्ठियां लिखते थे। लेकिन अब दूरियां घट गई हैं। समय सिमट गया है। अब सीधा संवाद का जमाना है। आज फिल्म प्रोड्यूसर अपनी नई फिल्म का प्रचार सोशल मीडिया के सहारे कर रहे हैं। हर नई रीलीज होने वाले फिल्म का फेसबुक पर पेज खोला जाता है। फिल्मों की पब्लिसिटी में बड़ा बड़ा बजट खर्च होता है लेकिन सोशल मीडिया ने कम बजट वाले निर्माताओं के लिए राह आसान कर दी है।
न सिर्फ फिल्मी सितारों का बल्कि राजनेताओं का भी अपने समर्थकों से सीधा संवाद करने का जरिया बन गए हैं सोशल नेटवर्किंग साइट्स। यूपी के चुनाव  से पहले समाजवादी पार्टी जैसी परंपरागत पार्टी ने देश के बडे अखबार में अंग्रेजी में अपना विज्ञापन दिया और उसमें लिखा फालो अस ऑन फेसबुक एंड ट्विटर। जाहिर ये सब कुछ युवा वर्ग को अपने साथ जोड़ने के लिए था। चाहे छोटे राजनैतिक विचार समूह हों या बड़े राजनीतिक दल सबके लिए फेसबुक, ट्विटर जैसे साइट जनता तक पहुंचने का आसान और सस्ता जरिया बन चुके हैं। पीएम के मीडिया सलाहकार पंकज पचौरी के बनने के बाद प्रधानमंत्री कार्यालय भी ट्विटर पर आ चुका है। इसके पहले फारूक अब्दुल्ला, शशि थरूर जैसे राजनेता माइक्रो ब्लागिंग साइट ट्विटर और फेसबुक का इस्तेमाल लगातार लोगों तक अपनी बातें रखने के लिए कर रहे थे। लेकिन अब बीजेपी की सुषमा स्वराज भी सोशल नेटवर्किंग साइट का इस्तेमाल कर रही हैं तो तमाम छोटे दलों के लिए सोशल मीडिया सस्ता और माकूल हथियार बन चुका है। कांग्रेस के नेता दिग्विजय सिंह किसी भी मुद्दे पर अपने विचार ट्विटर पर लिखते हैं और टीवी चैनलों और अखबारों के लिए बड़ी खबर बन जाती है। पहले ऐसे विचारों को अखबारों में जगह दिलाने के लिए पत्रकारों और संपादकों की मनुहार करनी पड़ती थी, राजनेता लाखों खर्च करके प्रेस वार्ताएं बुलाई जाती थीं, महंगे गिफ्ट बांटे जाते थे, शराब परोसी जाती थी लेकिन कई बार फिर भी अखबारों में उनकी खबर नहीं छपती थी। लेकिन सोशल मीडिया ने हालात बदल दिए हैं अगर आप कुछ नई या विवादास्पद बात करेंगे तो मीडिया के लिए सुर्खी बनाना अब मजबूरी बन जाती है। अब किस राजनेता ने ट्विटर पर क्या विचार दिया फेसबुक पर क्या कमेंट किया ये सब कुछ अखबारों में आसानी से छप जाता है। अगर अखबार नहीं छापता है तो भी राजनेताओं के फालोअर तक उनके विचार फर्स्ट परसन में पहुंच जाते हैं। इसमें कोई मिलावट नहीं होती।
राजनेता तो फेसबुक का इस्तेमाल अपने फैन मेल बढ़ाने या फिर अपने समर्थकों तक अपनी बात पहुंचाने के लिए खूब कर रहे हैं। यूपी के पूर्व मुख्यमंत्री जगदंबिका पाल, कांग्रेस सांसद और एससी एसटी कमीशन के चेयरमैन पीएल पुनिया, केंद्रीय कोयला मंत्री श्री प्रकाश जायसवाल, केंद्रीय मंत्री राजीव शुक्ला सभी फेसबुक और ट्विटर जैसी सोशल मीडिया की ताकत को अच्छी तरह पहचान चुके हैं। बिहार के कांग्रेस नेता प्रेमचंद मिश्रा, एलजेपी नेता राघवेंद्र सिंह कुशवाहा अपने राजनैतिक विचार और प्रतिक्रियाएं लगभग रोज अपने समर्थकों से साझा करते हैं। ये इस नए मीडिया की ही तो ताकत है।     
न सिर्फ नेता अभिनेता और सामाजिक संगठन बल्कि सरकारी महकमा भी सोशल मीडिया का इस्तेमाल लोगों से जुड़ने के लिए कर रहा है। दिल्ली पुलिस का भी फेसबुक पर पेज है। जिस पर शिकायतें दर्ज की जा सकती हैं। ट्रैफिक नियमों के उल्लंघन के फोटो अपलोड किए जा सकते हैं। ऐसी कई तस्वीरों के भेजे जाने पर कार्रवाई भी हुई है। आम लोगों की ओर से आई फेस बुक पर शिकायतके बाद दिल्ली पुलिस ने ट्रैफिक नियम के उल्लंघन के मामले में बड़े नेताओं का भी चालान काट दिया है। सिर्फ दिल्ली पुलिस ही नहीं बल्कि कई और सरकारी विभाग फेसबुक के सहारे लोगों तक पहुंचने की कोशिश में हैं। भारतीय रेल ने नई दिल्ली स्टेशन पर ट्रेनों की आवाजाही का ताजा अपडेट फेसबुक पर अपने पेज पर देने की शुरूआत कर दी है।
न सिर्फ सरकारी महकमे बल्कि बड़े अखबारों और टीवी चैनलों ने सोशल मीडिया की ताकत को पहचाना है। आज देश में नंबर होने का दावा करने वाले अंग्रेजी और हिंदी के अखबार भी अपनी खबरों को लोगों तक पहुंचाने के लिए फेसबुक और ट्विटर पर अपने फालोअर का सहारा ले रहे हैं। अंग्रेजी में हिंदुस्तान टाइम्स, टाइम्स आफ इंडिया तो हिंदी में दैनिक भास्कर और अमर उजाला जैसे अखबारों की मौजूदगी फेसबुक पर देखी जा सकती है। कई क्षेत्रीय भाषाओं के मीडिया समूह भी तेजी से सोशल मीडिया पर अपना एकाउंट बना रहे हैं। हालांकि सोशल मीडिया की शुरूआत बड़े मीडिया के समूहों के विकल्प के रूप में हुई थी लेकिन आज सोशल मीडिया की ताकत में इतना इजाफा हो चुका है कि बड़े मीडिया समूह भी इसका लाभ उठाने में बिल्कुल हिचक नहीं रहे हैं।
विज्ञापन के लिए सोशल मीडिया का इस्तेमाल –
जब आप अखबारों में किसी प्राडक्ट का विज्ञापन देखते हैं तो उसमें नीचे कई बार लिखा मिलता है फालो अस आन ट्विटर और फेसबुक । तमाम बड़ी कारपोरेट कंपनियां अपने प्रोडक्ट की ब्रांडिंग के लिए फेसबुक और ट्विटर पर एकाउंट खोल रही हैं।  चाहे रिब़ॉक के जूते हों या कार और बाइक कंपनियां सभी ने सोशल मीडिया पर अपने एकाउंट खोले हैं और अपने टारगेट आडिएंस को अपने फालोअर के रूप में जोड़ा है। यह विज्ञापन करने का एक सस्ता और सटीक तरीका है। जब  कोई ब्रांड अपना विज्ञापन किसी अखबार या टीवी चैलन में देता है तो उसके लिए लाखों करोड़ों खर्च करने पड़ते हैं। जबकि फेसबुक या ट्विटर पर मुफ्त में एकाउंट बनाया जा सकता है। दूसरा सबसे बड़ा फायदा है कि यहां वही लोग सीधा जुड़ते हैं जिनका किसी खास ब्रांड से कोई लगाव हो या फिर वे उस ब्रांड को खरीदने इस्तेमाल करने में रूचि रखते हों। हां ये जरूर है कि सोशल मीडिया का विज्ञापन एकाउंट सिर्फ वही लोग देख सकते हैं जो नियमित इंटरनेट के उपयोक्ता हैं।
वंचित समाज को अपनी बात रखने का मौका -
विचारों को लोगों तक पहुंचाने के लिए समाजिक संगठन और जन आंदोलन खड़ा करने वाले संगठन भी सोशल मीडिया की ताकत का बखूबी इस्तेमाल कर रहे हैं। भ्रष्टाचार के खिलाफ देश व्यापी आंदोलन खड़ा करने वाले संगठन इंडिया एगेन्स्ट करप्शन ने सोशल मीडिया का बखूबी इस्तेमाल कर लोगों को जोड़ने और आंदोलन को धार देने का काम किया। दुनिया के कई देशों में फेसबुक और ट्विटर से क्रांति भी हो चुकी है। भारत आबादी में बड़ा देश है। हर राज्य में अलग अलग भाषाएं बोली जाती हैंलेकिन महानगरोंछोटे और मझोले शहरों में इंटरनेट के बढ़ते इस्तेमाल ने आम जनता को सोशल मीडिया के रूप में एक बड़ा हथियार दिया है। भले ही फेसबुक जैसे साइट्स की शुरूआत नए पूराने दोस्तों को एक कड़ी के रूप में जोड़ने के लिए हुई थी लेकिन अब ये महज दोस्तों का साझा मंच भर नहीं रह गया है। बड़ी संख्या में पत्रकार, साहित्यकार, टेक्नोक्रैट, राजनेता, छात्र, अलग अलग क्म्यूनिटी के लोग फेसबुक का इस्तेमाल एक दूसरे से जुड़े रहने के लिए कर रहे हैं। लेकिन फेसबुक जैसे सोशल मीडिया ने एक मंच दिया है अपनी बातें कहने का। आप वो सब कुछ यहां कह सकते हैं जिसे लोग सुनने के लिए तैयार नहीं हैं। आपके कहने के बाद जिन जिन लोगों को जरूरत होगी आपकी बात को वे लोग सुन लेंगे।

फेसबुक ने लोगों को मौका दिया है वंचित समाज के लोगों को अपनी बात रखने का। अपना समूह बनाने का। आजकल सोशल मीडिया पर पर कई तरह के विचार समूह चलाए जा रहे हैं तो कई तरह दबाव समूह चलाए भी जा रहे हैं। कई तरह के साहित्यिक विचारधारा के लोग अपनी बातें साझा कर रहे हैं। कोई नया पुराना लेखक अपनी नई किताब के बारे में लोगों को बता रहा है। किताब का प्रथम पृष्ठ फेसबुक पर जारी कर देता है। किताब के विमोचन समारोह की जानकारी देता है। विमोचन होने के बाद उसकी खबर और फोटोग्राफ भी फेसबुक पर जारी कर देता है। कई बार वे खबरें जो काफी कोशिश करके भी अखबारों ने हीं छप पाती थीं उन्हें सोशल मीडिया पर आप चाहें तो प्रकाशित कर सकते हैं और उन लोगों तक आसानी से पहुंचा सकते हैं जो आपके लक्षित श्रोता समूह में आते हैं। भले ही आप दिल्ली या फिर छत्तीसगढ़ के बस्तर में रहते हों आपकी बात आपकी खबरें आपके विचार न सिर्फ कश्मीर से लेकर कन्याकुमारी तक बल्कि जर्मनी और आस्ट्रेलिया में बैठे आपके दोस्तों तक भी पहुंच जाती है। वह भी बिना किसी खर्च के। सिर्फ खबर तस्वीर या विचार की ही बात क्यों करें आप अपने कार्यक्रम की वीडियो भी सोशल मीडिया पर अपलोड कर सकते हैं जिसे दुनिया के किसी कोने में बैठा व्यक्ति देख सकता है।
न सिर्फ साहित्यिक या फिर समाजिक समूह बल्कि सोशल मीडिया का इस्तेमाल आजकल जन आंदोलन से जुड़े संगठन वंचित समाज के संगठन, अपने अधिकारों के लिए लड़ने वाले संगठन भी कर रहे हैं। अगर किसी संगठन के पांच से या हजार दो हजार कार्यकर्ता देश के अलग अलग इलाकों में फैले हुए हैं तो उन सबके बीच संदेश, साहित्य, विचारों के आदान प्रदान के लिए सोशल मीडिया ने एक सस्ता, शानदार और तेजी से पहुंचने वाला मंच प्रदान किया है। पहले इसके लिए अखबारों में खबर छपवाना या फिर कई सौ, हजार चिट्ठियां लिखने के लिए अलावा कोई विकल्प नहीं था। आज फेसबुक पर दलित मत, आदिवासियों से जुड़े संगठन, अलग अलग जातियों के संगठन, अलग अलग धार्मिक विचारों के संगठनों की समूह देखे जा सकते हैं जो अपने विचारों का आदान प्रदान करते नजर आते हैं। ऐसे संगठन आन लाइन नए लोगों को अपने विचारों से जोड़ने और प्रभावित करने की कोशिश में भी लगे नजर आते हैं। कई लोग अपने से मिलते जुलते विचारों के लोगों से सोशल मीडिया के जरिए जुड़ भी रहे हैं।
जो लोग अपनी पत्रिका नहीं निकाल सकते हैं या अपनी वेबसाइट बनाने का खर्च नहीं उठा सकते हैं वे कम्यूनिटी ब्लॉग बनाकर, याहू ग्रूप पर अपना समहू बनाकर या फेसबुक पर अपने संगठन का पेज बनाकर अपनी बातों को लोगों तक पहुंचाने  लगे हैं।
सोशल मीडिया के खतरे –
 सोशल मीडिया भले ही एक हथियार के रूप में लोगों के लिए वरदान बन कर आया हो लेकिन इसके अपने खतरे भी हैं। पहले तरह का खतरा शारीरिक और मनोवैज्ञानिक है। लगातार कई घंटे मोबाइल या कंप्यूटर से फेसबुक पर जुड़े रहने से जहां वक्त की बर्बादी होती है वहीं कई तरह की बीमारियों का भी खतरा है जो कंप्यूटर जन्य बीमारियां हो सकती हैं। दूसरा बड़ा खतरा मनोवैज्ञानिक है लगातार इंटरनेट की आभासी दुनिया में खोया रहने वाला व्यक्ति अपने आसपास के लोगों से अड़ोस-पड़ोस से कई बार कट जाता है। भले ही आप दुनिया से जुड़े होते हैं लेकिन आपके पड़ोसी का घर आपसे दूर होता जाता है।
  सोशल मीडिया पर अश्लीलता परोसने के भी आरोप लगते रहे हैं क्योंकि यहां कोई सेंसरशिप नहीं है। कोई अपनी बात कैसे भी शब्दों में रख सकता है कोई किसी भी तरह की तस्वीर या वीडियो अपलोड कर सकता है। इसमें कई बार शब्द अपना जनक और तस्वीर या वीडियो शालीनता की सीमा से परे हो सकते हैं। इसलिए कई बार ऐसे मीडिया पर सेंसरशिप की बात उठी है। सरकार सोशल मीडिया की सेवाएं प्रदान करने वाली साइटों को कंटेट की जानकारी देने की बात करती है। सोशल मीडिया पर सेल्फ सेंसरशिप की बात करना भी बहुत मुश्किल है। माडल पूनम पांडे अपना बाथरूम वीडियो अपने फैन्स को परोसती हैं। अगली बार वे अपना कम अंधेरे में लिया गया न्यूड वीडियो भी पेश करने की बात करती हैं। उनको अपने इन कदमों से काफी पब्लिसिटी मिलती है लेकिन ऐसी हरकतों पर नियंत्रण रखने के लिए हमारे पास माकूल हथियार नहीं है। कुछ लोगों की बेजा हरकतों के कारण कई बार ऐसी साइटों को पूरी तरह प्रतिबंधित करने की बात भी उठती है। यू ट्यूब ने एक नीति अपनाई जब किसी वीडियो के बारे में अश्लील होने की शिकायत की जाती है तब यू ट्यूब ऐसे वीडियो को अपनी साइट से हटा देती है। कुछ लोग फेसबुक पर कुछ भी अनाप सनाप लिखने के बाद ये तर्क देते नजर आते हैं कि हमने ये बात तो सिर्फ अपने दोस्तों में कही है कोई सार्वजनिक तौर पर थोड़े ही कही। लेकिन ऐसा तर्क देना फिजुल है। मान लिजिए फेसबुक पर आपके पांच सौ दोस्त हैं। उन पांच सौ दोस्तों के पांच पांच सौ दोस्त हैं। जब आप कोई विचार, तस्वीर या वीडियो शेयर करते हैं तो वह तुरंत हजारों लाखों लोगों तक पहुंच जाता है। न सिर्फ आपके दोस्त बल्कि आपके दोस्तों के दोस्त तक भी पोस्ट की हुई सामग्री पहुंच जाती है। इसलिए सोशल मीडिया एक सार्वजनिक मंच है न कि कोई निजी तौर पर साझा किया जाने वाले मंच। हाल के दिनों में राजनेताओं के मार्फिंग कि हुई आपत्तिजनक तस्वीरें सोशल मीडिया पर देखने को मिली। ये तस्वीरें जिन लोगों से जुड़ी हुई हैं उन्हें गुस्सा आना या आपत्ति जताना लाजिमी है। हमारी आजादी वहीं तक है जहां तक दूसरे की आजादी या निजता का हनन नहीं होता हो।  


कैसे- कैसे सोशल मीडिया –
1.      समन्यवय प्रोजेक्ट – कई लोगों को समूह मिल कर ऐसे प्रोजेक्ट बनाकर ज्ञान का आदान प्रदान करता है जैसे वीकिपिडिया। वेजेटेरियन रेस्टोरेंट्स डाट नेट
2.       वेब लॉग या ब्लॉग- लोकप्रिय तरीके ब्लागर डाट काम या वर्ड प्रेस, बिग अड्डा आदि पर
3.      माइक्रो ब्लॉगिंग साइट्स – जैसे ट्विटर
4.      कंटेट कम्यूनिटी साइटस – यू ट्यूब, जूम इन, पिकासा
5.      सोशल साइट्स – फेसबुक, लिंकड इन
6.      समूह – याहू ग्रूप, गूगल प्लस

शामिल होने के तरीके –
संदेश भेजना, ट्विट करना, ई मेल करना, फोटो शेयर करना, वीडियो शेयर करना,
जरूरत –
इंटरनेट रेडी कंप्यूटर या लैपटाप, टैबलेट आदि या फिर इंटरनेट रेडी मोबाइल फोन।

- विद्युत प्रकाश मौर्य

( This paper presented in National seminar held at Govt college, Kaithal, Haryana ( Kurukshetra Univ) on 20 march 2012) 

Sunday, 13 May 2012

कैरियर में बने रहें लगातार एक्टिव

कैरियर के बीच में कई बार ऐसा समय आ जाता है जब आपको नौकरी ढूंढने में दिक्कत होती है या वर्तमान स्थान पर खुद को एडजस्ट करने में परेशानी होती है। ऐसी दिक्कतों से थोड़ी कोशिश करके निपटा जा सकता है। आप अपनी नौकरी भी बदल सकते हैं, परेशानी दूर कर सकते हैं और जीवन खुशहाल बना सकते हैं। अक्सर देखा गया है कि कुछ लोग किसी भी पड़ाव पर जॉब बदल लेते हैं, लेकिन कुछ लोग अंतिम विकल्प के रूप में ही अपनी नौकरी बदलते हैं। इसका कारण लीडरशिप क्वालिटी में अंतर का होना है। जो लोग कैरियर में लगातार एक्टिव बने रहते हैं उन्हें ज्यादा दिक्कतों का सामना नहीं करना पड़ता है वहीं जो लोग ज्यादा एक्टिव नहीं रहते हैं उन्हें परेशानी पेश आती है। 


जीवन में सार्थक मिशन बनाएं
अक्सर करियर के मध्यकाल में लोग आपके काम अर्थ को लेकर ज्यादा सवाल उठाते हैं, साथ ही कंपनी के मिशन की वैल्यू, नौकरी में आजादी और अपने योगदान आदि के बारे में ज्यादा सोचा जाता है। कई बार ऐसा भी होता है कि इस स्तर पर आकर खुद को कंपनी के साथ जोड़कर रखना मुश्किल लगने लगता है। 


ऐसे में लोगों का अपनी वर्तमान जगह और नौकरी, दोनों से मोह टूटने लगता है। काम करने में मन नहीं लगता है और व्यक्ति तनावग्रस्त हो जाता है। कई बार ऐसा तब होता है जब आपके जीवन में कोई मिशन नहीं हो। अगर आप जीवन में मिशन लेकर चल रहे हैं तो करियर में बोरियत भरा नहीं होता। 


दीर्घकालिक योजना बनाएं 
कभी भी करियर को एक दो महीनों या साल में नहीं बल्कि लंबी अंतराल के रूप में देखना चाहिए और इसी के हिसाब से योजना बनानी चाहिए। करियर का लक्ष्य तय करते समय लंबी अवधि के विकल्प पर विचार करना चाहिए। इसके साथ ही करियर में हमेशा पारदर्शिता बरतनी चाहिए। इससे एक तरफ जहां कार्य स्थल में आपकी विश्वसनीयता बढ़ेगी वहीं दूसरी तरफ खुद आपका आत्मविश्वास भी बना रहेगा। 




खुद को नया बनाएं
समय कुछ नया करने का है। चाहे कोई भी क्षेत्र हो अगर आगे बढऩा है तो हमेशा कुछ नए की जरूरत होती है। इसलिए हमेशा इस बात की कोशिश करते रहना चाहिए जो कुछ भी नया हो रहा है उसे सीखा जाए और अच्छे से अपनाया जाए। हर प्रोफेशनल क्षेत्र में विशेष रूप से लागू होता है। कुछ लोग करियर के शुरुआत में जो सीखते हैं उससे आगे कुछ नया नहीं सीखना चाहते हैं। 

Sunday, 15 April 2012

ये ब्रांड का दौर है....हाट बाजार पर खतरा

अब किसी महानगर में जब बाजार को जाएं तो सब कुछ आप किसी ब्रांडेड शाप से खरीद सकते हैं। हो सकता है आने वाले दिनों में महानगरों से हाट बाजार जैसी चीजें विलुप्त हो जाएं। जी हां अब आप आलू प्यार माचिस और चटनी बनाने के लिए धनिया का पत्ता सब कुछ किसी वातानुकूलित मॉल से खरीद सकते हैं।

मजे की बात कि वहां से आप एक रुपये का सामान भी खरीद सकते हैं। यानी की परंपरागत सब्जी बाजार जिसे उत्तर भारत में हाट या दक्षिण में रायतु बाजार बोलते हैं इस पर बड़े उद्योगपतियों का तेजी से कब्जा हो रहा है। इससे बाजार की तस्वीर तेजी से बदल रही है। अब जब आप सब्जी खरीदने जाते हैं तो बाजार की भीड़भाड़ गंदगी से आपको निजात मिलती है।

वातानुकूलित चमचमती रिलायंस की दुकान रिलायंस फ्रेश पर आपका स्वागत किया जाता है और आप हर प्रकार की सब्जियां और फल अपनी मर्जी के वजन से खरीद सकते हैं। यहां परंपरागत हाट की तरह मोलजोल करने की कोई जरूरत नहीं है। अगर आपके पास रुपए नहीं हैं तो आप भुगतान क्रेडिट कार्ड से भी कर सकते हैं। माल का स्टाफ आपका सामान आपकी कार तक ले जाकर रख आएगा। 

रिलायंस फ्रेश की शुरआत हैदराबाद से हुई पर उसने अब देश की राजधानी दिल्ली में दस्तक दे दी है। हैदराबाद शहर में तो सिर्फ रिलायंस ही नहीं कई और ब्रांडेड शाप शहर के हर हिस्से में खुल चुके हैं जो बाजार के लगभग हर हिस्से पर कब्जा जमा चुके हैं। यहां दक्षिण की सबसे पुरानी त्रिनेत्रा डिपार्मेंटल स्टोर की चेन है जो अब आदित्य विक्रम बिड़ला समूह का हिस्सा बन चुकी है।

वहीं शुभिक्षा, फूड लैंड, हेरिटेज, फूड लैंड जैसे स्टोरों की चेन हर जगह खुल चुकी है। यहां दवाएं, घरेलू राशन और सब्जियां तथा क्राकरी आदि सब कुछ उपलब्ध है। बिग बाजार और स्पेंसर की तुलना में इनकी उपस्थिति महानगर के बाहर इलाकों और विकसित हो रही कालोनियों में भी है।

लोगों का एक बड़ा वर्ग इनसे शापिंग कर रहा है। ये दुकानें जहां अपने नियमित ग्राहकों को लायल्टी प्वाइंट प्रदान करती हैं वहीं किसी ने मुफ्त में स्वास्थ्य बीमा देने का आफर भी आरंभ किया है। विभिन्न प्रकार के सामन को कम कीमत पर बेजने के लेकर इनके बीच एक प्रतिस्पर्धा भी देखने को मिल रही है। जाहिर है कि इसका फायदा ग्राहकों को ही मिलता है। परंपरागत किराना के दुकानदारों के लिए इन बड़े ब्रांडेड स्टोरों के सामने टिकपाना मुश्किल हो रहा है। वहीं अब सब्जी के हाट में जाने वाले ग्राहक भी बड़े रिटेल स्टोरों के चेन की ओर ही रुख कर रहे हैं। महानगरों में किराने की दुकान चलाने वाले कई दुकानों की रोजाना की सेल में गिरावट आने लगी है वहीं उनमें से कई अपना शटर गिराने की भी सोचने लगे हैं।

अगर हम किराना के दुकानों के मामले में देखें तो इस तरह की खरीददारी में ग्राहकों को लाभ है क्योंकि उसे कई तरह के सामान पहले की तुलना में सस्ती दरों पर मिल रहे हैं। वहीं बड़े रिटेल स्टोर ग्राहकों को कई बड़े सामान के साथ छोटे सामान मुफ्त का भी आफर मिलता रहता है। फिर भी ग्राहकों को किसी रिटेल चेन से सामान खरीदने से पहले दूसरे रिटेल स्टोर से दरों की तुलना करते रहना चाहिए। वहीं हमेशा किसी एक स्टोर से खरीददारी करने के बजाए कभी कभी दूसरे स्टोर में जाकर वहां के दरों की भी तुलना करते रहना चाहिए। कई बार अलग अलग स्टोरों में एक ही सामान के रेट में अंतर हो सकता है। इसलिए यहां से आंखें बंद करके खरीददारी करना उचित नहीं है।
- विद्युत प्रकाश मौर्य  ( साल 2007 ) 



Sunday, 25 March 2012

सस्ते चीनी मोबाइल...

-आखिर मोबाइल फोन कितना सस्ता हो सकता है। कई साल पहले इंट्री लेवल के हैंडसेट तीन-चार हजार रुपये से कम के नहीं थे। पर अब लगभग सभी ब्रांडेड कंपनियों ने एक हजार रुपये में इंट्री लेवेल के मोबाइल हैंडसेट उतार दिए हैं। कई कंपनियां तो एक हजार रुपये में रंगीन स्क्रीन वाले हैंडसेट आफर कर रही हैं। वहीं ग्राहकों के लुभाने के लिए एक हजार से 1200 रुपये में लाइफ टाइम कनेक्सन के साथ मोबाइल हैंडसेट आफर किए जा रहे हैं। अब हम इंट्री लेवेल के मोबाइल फोन के इससे भी सस्ता होने की बात नहीं सोच सकते। हां अगर कोई सेकेंड हैंड मार्केट में जाए तो उसे 500 रुपये वाले मोबाइल फोन भी मिल सकते हैं बिल्कुल चालू हालत में।


वहीं बाजार दूसरी ओर सस्ते चीनी मोबाइल फोनों से भी पटा पड़ा है। भारतीय बाजार में आपको बड़े आराम से जगह जगह चीनी फोन बिकते हुए मिल जाएंगे। आमतौर पर ये चीनी मोबाइल फोन नान ब्रांडेड होते हैं। पर इनमें उपलब्ध सुविधाओं की बात करें तो ये बड़े बडे दावे के साथ आते हैं। जैसे आपको 1.3 मेगा पिक्सेल कैमरा वाले मोबाइल फोन महज ढाई हजार रुपये तक में मिल जाएंगे। इसमें सांग डाउनलोड मेमोरी जैसी सुविधा तो होगी ही। यही नहीं तीन हजार से 3500 रुपये के रेंज में दो मेगा पिक्सेल के कैमरे वाले मोबाइल फोन मिल जाते हैं। इतनी सुविधा वाला मोबाइल फोन अगर आप किसी ब्रांडेड कंपनी का खरीदने जाएं तो सात हजार रुपये तक देने पड़ सकते हैं। यही चीनी कंपनियों का कमाल है कि वे इतने सस्ते में टेक्नोलाजी उपलब्ध करा रही हैं।
अब आपके जेहन में सवाल उठ सकता है कि आखिर सस्ता है तो कितना टिकाऊ हो सकता है। जाहिर सी बात है सस्ता है तो कोई गांरटी-वारंटी नहीं है। लेकिन शौक पूरा करने वाली नई पीढी गांरटी वारंटी की बात भी नहीं करती। भले गारंटी नहीं है पर ऐसा भी नहीं है कि ये मोबाइल फोन यू एंड थ्रो वाले हैं। देश के सबसे बड़े मोबाइल फोन बाजार यानी दिल्ली के करोलबाग का गफ्फार मार्केट का एक दुकानदार कहता है कि जैसे ब्रांडेड मोबाइल फोन की मरम्मत हो जाती है उसी तरह इन सस्ते मोबाइल फोन की भी मरम्मत हो जाती है। यह अलग बात है कि बहुत जटिल सुविधाओं वाले मोबाइल फोन के मरम्मत करने वाले हर छोटे शहर में नहीं मिलते हैं।
अगर आप शौक पूरा करने के लिए कोई सस्ता और बहुत सारी सुविधाओं से लैस मोबाइल फोन खरीदते हैं तो अपने जोखिम पर खरीदें। ऐसे मोबाइल खरीदने के बाद आपको मरम्मत के लिए परेशान होना पड़ सकता है। कई बार ऐसा भी हो सकता है कि आपका मोबाइल फोन मरम्मत कराते कराते किसी ब्रांडेड कंपनी के मोबाइल फोन के बराबर ही जा बैठे। लेकिन आप मोबाइल फोन में तेजी से आ रही सुविधाओं के लिहाज से देखते हैं और सस्ते में ढेर सुविधाएं भी चाहते हैं तो बेशक कोई चाइनीज मोबाइल फोन आजमा सकते हैं। सिर्फ दिल्ली ही नहीं बल्कि लगभग सभी महानगरों में ऐसे चीनी मोबाइल फोन का बाजार पहुंच चुका है। पर नोकिया जैसे किसी ब्रांडेड कंपनी के मोबाइल की तरह ये फोन सालों साल साथ निभाने वाले नहीं हैं, ये बात आपको अपने दिमाग में पहले से बिठा लेना चाहिए।
विद्युत प्रकाश मौर्य



Saturday, 17 March 2012

खुले बोरवेल बच्चों के लिए खतरा....

पहले कुरुक्षेत्र का प्रिंस और और आगरा की नन्हीं सी जान वंदना कुशवाहा। भले ही इन दोनों को बड़ी कोशिश करके बचा लिया गया। पर बोरवेल में बच्चों का गिर जाना कोई पहला हादसा नहीं है। ऐसे हादसे आए दिन देश के किसी न किसी कोने में हो रहे हैं। इसमें कुछ खुशकिस्मत बच्चे हैं जो समय पर सहायता मिल जाने के कारण बच जा रहे हैं। पर कई ऐसे हादसे में नन्हें मुन्नों को अपनी जान से हाथ धोना भी पड़ा है। ऐसे में जरूरत इस बात की है, हम ऐसे खुले बोरवेल से सावधान रहे हैं। साथ ही जरूरत खत्म होने के बाद ऐसे बोरवेल को तुरंत बंद किया जा जिससे की बोरवेल और नौनिहालों की जान नहीं ले सकें। प्रिंस और वंदना के मामले में सेना का धन्यवाद करना पड़ेगा कि जवानो ने मुस्तैदी दिखाकर इन बच्चों को बचा लिया। पर हमें यह भी देखना पड़ेगा कि ऐसे आपरेशन में कितनी बड़ी राशि खर्च हो जाती है। सेना और प्रशासन के लोगों को कई दिनों तक बाकी के काम छोड़कर इसी में लगे रहना पड़ता है।

अगर हम प्रिंस या वंदना की बात करें तो उनकी जान बच गई इसमें उनकी जीजिविषा और जैसे हालात में वे जीवन गुजारते हैं वह भी खूब जिम्मेवार है। वर्ना बिना कुछ खाए पीए एक दिन से ज्यादा संकरे से बोरवेल में पड़े रहना कितना मुश्किल हो सकता है। कई लोगों की जान तो ऐसी जगह पर पड़े पड़े ही जा सकती है। प्रिंस के बारे में कहा गया कि वह गरीब का बच्चा था इसलिए बच गया। गरीब के बच्चे को कई कई घंटे तक खाना नहीं मिलता तो भी जीते रहते हैं। ऐसी हालात में उनकी भूखे रहने की क्षमता में इजाफा हो जाता है। अगर वे किसी मिड्ल क्लास या अमीर के बच्चे हों तो उनका ऐसे में बच पाना ज्यादा मुश्किल हो जाता है। ऐसे में हमें खुले बोरवेल को लेकर ज्यादा सावधान रहने की जरूरत है। जो लोग कच्चे बोरवेल की खुदाई करते हों उन्हें चाहिए वे काम खत्म होने के बाद इस बोरवेल को अच्छी तरह ढक दें।
अगर हम इस मामले में मीडिया की बात करते हैं तो उन्हें ऐसी किसी खबर के समय लाइव शो करने का अच्छा मौका मिल जाता है। ऐसे लाइव शो दिखाकर अच्छी खासी टीआरपी गेन करने की संभावना बढ़ जाती हैं। जब कुरूक्षेत्र में प्रिंस गड्ढे के नीचे गिरा था तब सभी चैनलों ने अपने ओबी वैन घटनास्थल पर लगा दिए और लाइव शो दिखाना शुरू कर दिया। सारे देश का ध्यान अपनी ओर खींच लिया। ऐसी किसी खबर के समय लोग अन्य चैनल भी देखना छोड़कर समाचार चैनलों की ओर ही स्विच कर लेते हैं। हालांकि प्रिंस या वंदना को गड्ढे से निकाल पाने में इन समाचार चैनलों की कोई भूमिका नहीं होती। पर ऐसा लाइव ड्रामा दिखाने का मौका कोई चूकना नहीं चाहता।
 प्रिंस के समय में भी और आगरा की वंदना कुशवाहा के समय भी सभी चैनलों ने पल पल की लाइव खबर दिखाकर खूब टीआरपी बटोरी। प्रिंस को तो कुछ चैनलों ने बड़ा बहादुर लड़का घोषित किया और उसे मुंबई लेकर गए और बड़े बड़े सितारों से ले जाकर मिलवाया। यह सब कुछ प्रिंस के परिवार वालों के लिए किसी सपने जैसा था। अब प्रिंस की पढ़ाई लिखाई भी अच्छे स्कूल में हो रही है। पर देश में लाखों करोड़ो गरीब परिवारों के बच्चों के साथ ऐसा नहीं होता, जो विपरीत परिस्थितियों में धीरे-धीरे बड़े होते जाते हैं। लोगों की रूचि किसी लाइव ड्रामा में तो जरूर है, पर गरीब के बच्चों से असली संवेदना किसे है....किसी शायर ने लिखा है...
बहुत बेशकिमती है आपके बदन का लिबास, किसी गरीब के बच्चे को प्यार मत करना....

-विद्युत प्रकाश मौर्य vidyutp@gmail.com