Sunday, 4 April 2021

शशिकला – हिंदी फिल्मों की बुरी औरत

शशिकला का 4 अप्रैल 2021 को मुंबई में निधन हो गया। हिंदी फिल्मों में शशिकला की पहचान एक खलनायिका और नृत्यांगना के तौर पर थी। उन्होंने ज्यादातर नकारात्मक किरदार निभाये पर उनकी निजी जीवन भी काफी चुनौतियों भरा रहा। वह एक मराठी परिवार से आती थीं। बॉलीवुड में सौ से ज्यादा फिल्मों में काम करने वाली शशिकला का पूरा नाम शशिकला जावलकर था। उनका जन्म 4 अगस्त 1932 को महाराष्ट्र के शहर सोलापुर में हुआ था। उन्होंने 70 के दशक में कुछ हिंदी फिल्में में हीरोइन का किरदार भी निभाया था।

सन 1945 में फिल्म जीनत में उन्हें पहली बार छोटी सी भूमिका मिली, जो अभिनेत्री नूरजहां ने दिलवाई थी। इस फिल्म के लिए उन्हें 25 रुपये पारिश्रमिक मिला था। साल 2004 में आई सलमान खान की फिल्म मुझसे शादी करोगी में दादी की भूमिका में उन्हें काफी पसंद किया गया था।


मुश्किलों भरा जीवन - शशिकला का निजी जीवन मुश्किलों भरा रहा। पिता को कारोबार में घाटा होने के बाद उन्होंने मुंबई आकर कम उम्र में ही काम करना शुरू कर दिया था ताकि वह अपने परिवार का भार उठा सके। उन्होंने दो बार शादी की पर वैवाहिक जीवन भी ज्यादा सफल नहीं रहा। अपने आखिरी समय में वे अपनी छोटी बेटी और दामाद के साथ मुंबई में रहती थीं।

आध्यात्म की ओर – हिंदी फिल्मों उनकी इमेज बुरी औरत वाली बन गई थी। नब्बे के दशक में उनका झुकाव आध्यात्म की ओर हो गया था। उन्होंने विपश्यना का सहारा लिया। कई आश्रमों में जाकर रहीं। फिर मदर टेरेसा की संस्था के लिए काम करने लगीं।


टीवी पर भी नजर आईं - फिल्मों के साथ-साथ शशिकला ने टीवी में भी काम किया था। वह मशहूर सीरियल सोन परी में फ्रूटी की दादी के रोल में नजर आई थीं।

प्रमुख फिल्में – हरियाली और रास्ता, हिमालय की गोद में, सुजाता, गुमराह, फूल और पत्थर, अनुपमा, सरगम, दुल्हन वही जो पिया मन भाए, क्रांति, तवायफ, अनोखा बंधन, कभी खुशी कभी गम

 

2007 में उन्हें भारत सरकार ने पद्मश्री पुरस्कार से नवाजा था

100 से ज्यादा हिंदी फिल्मों में काम किया

09 साल तक मदर टेरेसा के साथ रहकर गरीबों के लिए काम किया

 

 

Friday, 5 March 2021

पहाड़ों की सैर कराती पुस्तक - हिमालय की वादियों में

बहुत पहले एक फिल्म आई थी हिमालय की गोद में। मनोज कुमार माला सिन्हा की इस फिल्म की शूटिंग हिमाचल की वादियों में हुई थी। अब एक नई पुस्तक मेरे हाथ में है – हिमालय की वादियों में। यात्रा वृतांत श्रेणी की इस पुस्तक के रचयिता है डॉक्टर सुखनंदन सिंह। आध्यात्मिक पृष्ठभूमि वाले शोधार्थी सुखनंदन सिंह की कलम से हिमालय को महसूस करना करना एक अलग किस्म का आनंदित करने वाला अनुभव है।

कुल 243 पृष्ठों की पुस्तक आपको उत्तराखंड और हिमाचल प्रदेश के कई अनछूए और अपेक्षाकृत कम लोकप्रिय स्थलों की सैर पर ले जाती है। कोई भी व्यक्ति चाहकर भी सभी स्थलों का भ्रमण तो नहीं कर सकता न। तो कई बार दूसरे लेखकों की यात्राओं को पढ़ना भी बड़ा सुखकर लगता है।

लेखक खुद हिमाचल के रहने वाले हैं। कुल्लू की वादियों में उनका बचपन गुजरा। पर पुस्तक की शुरुआत उत्तराखंड के कुमायूं क्षेत्र की उनकी कुछ यात्राओं से ही होती है।

लेखक ने ऋषिकेश के पास स्थित नीलकंठ की तो कई बार यात्राएं की हैं। वे नीलकंठ के जाने के चार मार्गों के अनुभव साझा करते हैं। आमतौर पर हम दो मार्ग के बारे में ही जानते हैं। श्री हेमकुंड साहिब और फूलों की घाटी की यात्रा का वृतांत काफी सुंदर हैं। ये यात्रा थोड़ी मुश्किल भी है।

पुस्तक को पढ़ते हुए ये पता चलता है कि लेखक ने पहाडों पर ट्रैकिंग करने के लिए बेसिक कोर्स भी किया है। हिमाचल प्रदेश में लेखक पाराशर झील की यात्रा भी काफी रोमांचित करती है। पुस्तक के आखिरी हिस्से में लेखक हमें कुल्लू की हसीन वादियों में ले जाते हैं। यहां वे कुल्ले के चप्पे-चप्पे के बारे में बताते हैं। लेखक डॉक्टर सुखनंदन सिंह देव संस्कृति विश्वविद्यालय में प्रोफेसर हैं। उनकी कई यात्राएं छात्रों के समूह के साथ की गई हैं। वे न सिर्फ खुद अनवरत यात्री हैं बल्कि अपने छात्रों को भी यात्राओं के लिए प्रेरित करते हैं।

पुस्तक – हिमालय की वादियों में

लेखक – डॉक्टर सुखनंदन सिंह

प्रकाशक – ईवीन्सपब पब्लिकेशनंस

मूल्य -   369 रुपये, पृष्ठ – 243

पुस्तक विभिन्न प्लेटफार्म से ऑनलाइन मंगाई जा सकती है।

 

Evincepub: https://evincepub.com/.../himaalay-ki-vaadiyon-mein.../

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Tuesday, 2 March 2021

बहुत याद आएंगे- ओम गुप्ता


वरिष्ठ पत्रकार ओम गुप्ता, 28 फरवरी 2021 को 73 वर्ष की उम्र में इस दुनिया को अलविदा कह गए। उनका जन्म 25 नवम्बर,1948 को हुआ था। वे मेरी पहली नौकरी के तीसरे संपादक थे। कुबेर टाइम्स में घनश्याम पंकज उन्हें दिल्ली संस्करण के संपादक के तौर पर लेकर आए थे। तब मुझे उनके साथ काम करने का मौका मिला था। सन 1998-99 के दौर में उनके साथ काफी कुछ सीखने समझने का मौका मिला। एक बार उनके साथ वरिष्ठ आईएएस अधिकारी उमेश सहगल से मिलने जाना हुआ था। उमेश सहगल उनके दोस्त थे। वे बाद में दिल्ली के मुख्य सचिव बने। पर उनकी रूचि दूरदर्शन के लिए टीवी कार्यक्रम बनाने में हुआ करती थी।

ओम गुप्ता देश के उन दुर्लभ पत्रकारों में थे जिनका अंग्रेजी और हिंदी दोनों भाषाओं  पर समान अधिकार था।वे अंग्रेजी व हिंदी के कई अखबारों के सम्पादक रहे। वे अपने पीछे पत्नी आरती थापा, पुत्र संजोग, संकल्प और पुत्री सिया छोड़ गए हैं।

ओम गुप्ता मूलतः फ़िल्म के पत्रकार थे पर राजनीति की खोजी खबरों ने उन्हें शिखर का पत्रकार बनाया। वे शर्मिला टैगोर द्वारा प्रकाशित की गई टेक 2 व सुपर जैसी फिल्मी पत्रिका के संपादक रहे। वे मिड डे (दिल्ली) के सम्पादक रहे। वे इंडिया टुडे, टाइम्स ऑफ इंडिया, इंडियन एक्सप्रेस, पायनियर, कैरेवान आदि में वरिष्ठ पदों पर काम कर चुके थे। वे हिंदी में दिनमान टाइम्स व कुबेर टाइम्स के दिल्ली संस्करण के सम्पादक रहे। दिल्ली में स्वतंत्र भारत समाचार पत्र के ब्यूरो चीफ भी रहे। उनका पूरा नाम ओम प्रकाश गुप्ता था। पर इंडिया टूडे में उनके नाम का संक्षिप्तीकरण होकर ओम गुप्ता रह गया। 

बाद में वे पत्रकारिता के अध्यापन से जुड़ गए और मीडिया व मैनेजमेंट के चार विद्यालयों में वे डीन रहे। उन्होने एशियन एकेडमी ऑफ फिल्म एंड टेलीविजन, नोएडा फिल्म सिटी, जिम्स, वाईएमसीए, भारतीय विद्या भवन जैसे संस्थानों में पढाया। उनके पढ़ाए हुए छात्रों की एक लंबी फेहरिस्त है जो अलग अलग विधाओं के सफल पत्रकार हैं।

ओम गुप्ता ने ' धूप की लकीरें'  और 'पूर्वी वसंती'  जैसे टीवी कार्यक्रमों का निर्देशन भी किया। वे मनोहर श्याम जोशी के लोकप्रिय धारावाहिक हमलोग के सह लेखक भी हुआ करते थे। पत्रकारिता पर उनकी 23 किताबें प्रकाशित हुईं। इनमें मीडिया और सृजन, मीडिया और विचार व मेरे 15 नाटक जैसी पुस्तकें खासी लोकप्रिय हैं। उनका एक व्यंग्य संग्रह प्रधानमंत्री की धोबन भी काफी लोकप्रिय हुआ था।

कई सालों बाद ओम गुप्ता सर से अचानक मिलना हुआ 2010 में जब मैं फिल्म सिटी में महुआ चैनल में बतौर प्रोड्यूसर कार्यरत था। वे इसी भवन में एशियन अकादमी में पढ़ाने आया करते थे। उसके बाद कभी कभी फोन पर बात हुआ करती थी। कई बार घर बुलाया पर मैं मिलने नहीं जा सका। पर अब तो कभी मुलाकात नहीं हो सकेगी।   

- विद्युत प्रकाश मौर्य- vidyutp@gmail.com 

( OM GUPTA, JOURNALIST, KUBER TIMES ) 

 


Saturday, 13 February 2021

साल 2021 में आई अर्थपूर्ण फिल्म है आखेट


साल 2021 में आई अर्थपूर्ण फिल्म है आखेट। फिल्म की कहानी बाघ संरक्षण जैसे संवेदनशील विषय को छूती है। फिल्म की कहानी का प्रवाह और निर्देशन का कमाल कुछ इस तरह का है कि कुल एक घंटे 20 मिनट की फिल्म को देखते हुए आपकी रोचकता बनी रहती है। तो कहानी शुरू होती है झारखंड के पलामू जिले के एक डाकघर से। नेपाल सिंह इस बार अपनी दशहरे छुट्टियां यादगार बनाना चाहते हैं। वे अपने पुरखों की बंदूक उठाकर जंगल में शिकार के लिए निकल पड़ते हैं। आगे की कहानी बेतला के जंगलों में बाघ के शिकार के इर्द गिर्द घूमती है। नेपाल सिहं की बंदूक किसी बाघ को तो नहीं मार पाती पर जंगल के इस प्रसंग में उनकी सोच में बहुत बड़ा बदलाव आता है।


जंगल में शिकार के इस प्रसंग को निर्देशक रवि बुले के बेहतरीन निर्देशन और नेपाल सिंह के रूप में आशुतोष पाठक के अभिनय ने काफी जीवंत बनाया है।

इस फिल्म में दो यादगार चरित्र हैं  मुर्शीद मियां और जुल्फिया।  मुर्शिद मिंया लोकल गाइड हैं तो जुल्फिया उनकी पत्नी.  फिल्म का अंत का संदेश अत्यंत सार्थक है जो देश के जंगलों खत्म हो रहे बाघ के बारे में गंभीर संदेश देता है।  जो आपको भावुक भी कर देता है। पर इतने गंभीर विषय पर बनी फिल्म आपको कहानी के साथ लगातार बांधे रखती है। पात्र कहीं भी बोर नहीं करते.  कहानी तेज गति से आगे बढ़ती है। रवि बुले की निर्देशन पक पकड़ लगातार बनी हुई दिखाई देती है। वैसे तो डेढ़ घंटे के फिल्म में गाने की ज्यादा गुंजाइश नहीं रहती.  पर अनुपम ओझा की लिखी ठुमरी.. सैंया शिकारी शिकार पर गए.... अदभुत बन पड़ी है।


आखेट एक अंतर राष्ट्रीय स्तर की फिल्म है जो आपको कुरेदती है,  झकझोरती है और सोचने को भी मजबूर करती है।  फिल्म को ओटीटी प्लेटफॉर्म पर देखा जा सकता है ।  यह हंगामा,  वोडाफोन,  एयरटेल आदि पर उपलब्ध है। 

- विद्युत प्रकाश मौर्य vidyutp@gmail.com

 


Monday, 8 February 2021

हमें कम्युनिकेशन वायलेंस से भी बचना होगा

प्रख्यात गांधीवादी और सर्वोदयी कार्यकर्ता एसएन सुब्बाराव ने 7 फरवरी 2021 को अपना 93वां जन्मदिन मनाया। जीवन में संयम की वजह से इस उम्र में भी वे काफी स्वस्थ हैं। उनके जन्मदिन पर गांधी भवन बेंगलुरू में एक छोटा सा आयोजन हुआ। इसमें देश भर से कुछ गांधीवादी और सर्वोदय से जुड़े कार्यकर्ता पहुंचे। इस मौके पर सुब्बराव जी के सबसे योग्य शिष्य पीवी राजगोपाल ने अपने संबोधन में बहुत बड़ी बात कही। उन्होंने कहा, अहिंसा के महत्व पर प्रकाश डालते हुए कहा कि हमें आज कम्युनिकेशन वायलेंस से भी बचने की जरूरत है। 

दरअसल हम आक्रोश में, गुस्से में,  चिल्लाकर शोर मचाकर और ऊंची आवाज में जब अपनी बात रखते हैं तो यह भी एक तरह की हिंसा है जो सुनने वालों को परेशान और विचलित करती है। हम चाहें तो हर हालात में अपनी बातों को विनम्रता से बिना शोर के कह सकते हैं। बापू के अहिंसा का ये मर्म है। इसे सुब्बराव जी ने जीवन भर अपनाया है। वे कभी ऊंची आवाज में नहीं बोलते। मुश्किल हालात में भी बड़े सहज ढंग से संवाद करते हैं। चिल्लाना और सामने वाले को अपनी वाणी से परेशान कर देना ही कम्युनिकेशन वायलेंस है। हमारी वाणी में विनम्रता हो इसका मतलब कायरता या कमजोरी तो कतई नहीं है। 
आप विनम्र रहकर भी अपने निश्यच पर दृढ रह सकते हैं। आपने तय कर लिया है कि आपको कोई आपके निश्चय से डिगा नहीं सकता है तो आप लगातार अपनी बातों विनम्र रहकर भी कायम रह सकते हैं। विनम्र रहने के कई फायदे भी हैं।  इससे आप आवेश में आकर कोई गलती नहीं करते। होश में जोश नहीं खोते। हम एक ऐसे समाज में रह रहे हैं जहां अपनी बातों को रखने के लिए लोग समझते हैं कि चिल्लाना जरूरी है। पर ये सत्य नहीं है। किसी शायर ने कहा है - 
कैसे कैसे मंजर सामने आने लगे हैं
गाते गाते लोग चिल्लाने लगे हैं।
बापू पूरे जीवन अपने संभाषण में अपनी वाणी की विनम्रता पर कायम रहे, पर उनके विरोधी कभी उनको उनके निश्चय से डिगा नहीं सके। तो हमें सच्चे अर्थों में अहिंसा को जीवन में अपनाना होगा। 

सुब्बाराव जी के 93वें जन्मदिन समारोह में मैं शामिल नहीं हो सका। पर कार्यक्रम का लाइव वीडियो मधुभाई ( मधुसूदन दास, ओडिशा ) के सौजन्य से सुनने को मिल पाया। उनका आभार। देश भर से 17 राज्यों के युवा इस समारोह में बेंगलुरू पहुंच गए थे। हमारा सुब्बराव जी से मिलना दिसंबर 2019 में हुआ था। कोराना काल में साल 2020 में सुब्बराव जी लगातार बेंगुलुरू में ही रहे। उम्मीद है हालात और बेहतर होने पर फिर वे शिविरों में शिरकत कर पाएंगे। 
- विद्युत प्रकाश मौर्य - vidyutp@gmail.com 

Thursday, 21 January 2021

नहीं रहे भाषा विज्ञानी डॉक्टर बद्रीनाथ कपूर

विनम्र कपूर ने सूचित किया है कि उनके दादा डॉक्टर बद्रीनाथ कपूर का 21 जनवरी 2021 को 89 साल की अवस्था में निधन हो गया है। वाराणसी में सन 1994-95 के दौर में हिंदी प्रचारक संस्थान में काम करते हुए मेरी डॉक्टर बद्रीनाथ कपूर से कई मुलाकातें थीं। उनके घर जाकर उनका साक्षात्कार करने का भी मौका मिला था।

डॉक्टर बद्रीनाथ कपूर जन्म 16 सितंबर 1932 को अकालगढ़, जिला - गुजरांवाला में (अब पाकिस्तान) में हुआ था। वे देश आजाद होने के बाद मुश्किल परिस्थियों में 14 साल का उम्र में अकेले गुजरांवाला से अमृतसर, दिल्ली होते हुए वाराणसी पहुंचे। माता पिता की हत्या हो चुकी थी। वाराणसी में मामा रामचंद्र वर्मा के सानिध्य में पढ़ाई शुरू की। वे हरिश्चंद्र कॉलेज के छात्र रहे।  उन्होंने एमए और पीएचडी तक शिक्षा प्राप्त की ।

डॉ. कपूर ने अपना सारा जीवन हिंदी भाषा, व्याकरण और कोश प्रणयन के क्षेत्र में लगा दिया। डॉक्टर कपूर 1956 से 1965 तक हिंदी साहित्य सम्मेलन, प्रयाग द्वारा प्रकाशित मानक हिंदी कोशपर सहायक सम्पादक के रूप में काम करते रहे। डॉ. कपूर ने आचार्य रामचंद्र वर्मा के तीन महत्त्वपूर्ण कोशों का संशोधन-परिवर्द्धन कर उनकी स्मृति और अवदान को अक्षुण्ण बनाए रखने का स्थायी महत्त्व का कार्य किया है। 

कोश कला के आचार्य रामचंद्र वर्मा के सुयोग्य शिष्य डॉक्टर बदरीनाथ कपूर हिंदी की शब्द सामर्थ्य को प्रकट और प्रतिष्‍ठापित करने के अनुष्‍ठान में बड़ा योगदान रहा। उनकी 32 से ज्यादा पुस्तकें प्रकाशित हुईं। इनसे अधिकांश शब्दकोश,  तीन जीवनियां और पांच अनुवाद ग्रंथ हैं। 

बाद में जापान सरकार के आमंत्रण पर टोक्यो विश्वविद्यालय में 1983 से 1986 तक  अतिथि प्रोफेसर के रूप में सेवा प्रदान की। 

प्रकाशन : प्रभात बृहत् अंग्रेजी-हिंदी कोश, प्रभात व्यावहारिक अंग्रेजी-हिंदी कोश, प्रभात व्यावहारिक हिंदी-अंग्रेजी कोश, प्रभात विद्यार्थी हिंदी-अंग्रेजी कोश, प्रभात विद्यार्थी अंग्रेजी-हिंदी कोश, बेसिक हिंदी, हिंदी पर्यायों का भाषागत अध्ययन, वैज्ञानिक परिभाषा कोश, आजकल की हिंदी, अंग्रेजी-हिंदी पर्यायवाची कोश, शब्द-परिवार कोश, हिंदी अक्षरी, लोकभारती मुहावरा कोश, परिष्कृत हिंदी व्याकरण, सहज हिंदी व्याकरण, नूतन पर्यायवाची कोश, लिपि वर्तनी और भाषा, हिंदी व्याकरण की सरल पद्धति, आधुनिक हिंदी प्रयोग कोश, बृहत् अंग्रेजी-हिंदी कोश, व्यावहारिक अंग्रेजी-हिंदी कोश, मुहावरा तथा लोकोक्ति कोश, व्याकरण- मंजूषा, हिंदी प्रयोग कोश आदि।

सम्मान और अलंकरण : डॉक्टर कपूर की अनेक पुस्तकें उत्तर प्रदेश शासन द्वारा पुरस्कार मिला। 2019 में उन्हें उत्तर प्रदेश शासन ने हिंदी गौरव सम्मान मिला। इससे पूर्व उन्हें श्री अन्नपूर्णानन्द वर्मा अलंकरण’ 1997, ‘सौहार्द सम्मान’ 1997, ‘काशी रत्न’ 1998, ‘महामना मदनमोहन मालवीय सम्मान’ 1999 एवं विद्या भूषण सम्मान’ 2000  मिल चुके हैं।

Monday, 18 January 2021

मूरतें - माटी और सोने की...

 हिंदी साहित्य में संस्मरण एक विलुप्त होती विधा है। हरसाल बहुत कम किताबें इस विधा पर प्रकाशित होती हैं। पर संस्मरण ऐतिहासिक दस्तावेज होते हैं। ये न सिर्फ आपके ज्ञान में अभिवृद्धि करते हैं बल्कि तमाम महान हस्तियों से जुड़े प्रसंगों और ऐतिहासिक तथ्यों को कई बार रोचक अंदाज में पेश करते हैं।

अभी हाल में मुझे एक पुस्तक पढ़ने को मिली - मूरतें माटी और सोने की... पुस्तक के लेखक हिंदी के जाने माने आलोचक नंद किशोर नवल हैं। अपने जीवन का लंबा समय पटना में गुजारने वाले नवल जी का मूल ग्राम वैशाली जिले का चांदपुरा था। संयोग से मेरा भी बचपन वैशाली जिले में गुजरा है। पुस्तक का शुरुआती हिस्सा उनके गांव और बचपन के पात्रों से होकर गुजरता है जो किसी उपन्यास सदृश प्रतीत होता है। वे अपने बचपन के मित्र सिद्धिनाथ मिश्र को पुस्तक में बार बार याद करते हैं। उन्ही सिद्धिनाथ मिश्र से जिनसे मैं हाजीपुर की सड़कों पर बार बार मिलता था, पर तब मैं उनकी महानता और साहित्य में गहरी अभिरूचि के बारे में नहीं जानता था।

पुस्तक के आगे अध्याय में बाबा नागार्जुन, डॉक्टर रामविलास शर्मा, त्रिलोचन शास्त्री , प्रोफेसर नलिन विलोचन शर्मा और डॉक्टर नामवर सिंह के बारे में लेखक के संस्मरण हैं। ये सभी संस्मरण अनमोल हैं। इनमें ऐसी जानकारियां और लेखकों के व्यक्तित्व के ऐसे पहलुओं के बारे में लिखा गया है जो कोई बहुत करीबी ही जानता होगा। इन तमाम प्रसंगों को लेखक ने सुंदर शब्दों में पिरोया है। हर हिंदी के अध्येता के लिए ये ज्ञान बढ़ाने वाली पुस्तक है। बीच बीच में पुस्तक में कई और साहित्यिक पात्रों से भी आपका मिलना होता है।  लेखक और आलोचक नंद किशोर नवल का 13 मई 2020 को पटना में 83 वर्ष की अवस्था में निधन हो गया। यह संभवतः उनकी अंतिम पुस्तक होगी। 

- विद्युत प्रकाश मौर्य - vidyutp@gmail.com 

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पुस्तक - मूरतें - माटी और सोने की 

लेखक - नंद किशोर नवल 

प्रकाशक - राजकमल प्रकाशन , 2017, मूल्य - 495 रु. हार्ड बाउंड




Sunday, 10 January 2021

क्रूर कोरोना ने जिन्हें हमसे छीन लिया

साल 2020 मे क्रूर कोरोना ने कई आत्मीय जनों को हमसे छीन लिया है। हमलोग जब 2007 में दूसरी बार दिल्ली आए तो हमारे फेमिली चिकित्सक बने डॉक्टर एन के मल्लिक। डाक्टर साहब का क्लिनिक वैशाली सेक्टर तीन में महागुन मेट्रो मॉल के पीछे था। उनका होमियोपैथी में 40 से ज्यादा का अनुभव था। बहुत कम धनराशि में मिलने वाली उनकी दवाएं हमें मुफीद बैठती थीं। इसलिए वे आसपास के गरीबों में भी काफी लोकप्रिय थे। कोरोना काल में भी सावधानी बरतते हुए मरीज देखते रहे। पर सितंबर के अंत में अचानक उन्होंने लोगों से मिलना जुलना बंद कर दिया। उनके परिवार के लोग हमें उनके बारे में भ्रमित करते रहे। पर एक महीने बाद पता चला कि अक्तूबर महीने में नवरात्र के दौरान कोरोना ने उन्हें हमसे छीन लिया। उनकी उम्र 71 वर्ष थी। वे काफी स्वस्थ भी दिखाई देते थे। अभी बीस साल और वे अपने मरीजों को चंगा कर सकते थे। पर उनका इस तरह जाना हमें काफी दुखी कर गया।

वह 30 दिसबंर की मनहूस रात थी जब पंजाब नेशनल बैंक में उच्चाधिकारी अनिल कुमार सिंह को भी पोस्ट कोरोना की परेशानियों ने हमसे हमेशा के लिए दूर कर दिया। अनिल जी मेरी श्रीमती जी माधवी के फूफा जी थे। वे ओरिंटयल बैंक ऑफ कामर्स में जालंधर के रेलवे रोड शाखा में कुछ साल तक मैनेजर भी रहे।

उनके जैसे निहायत सज्जन लोग बहुत कम मिलते हैं। अभी उम्र भी ज्यादा नहीं थी। बैंकिंग के क्षेत्र में खास तौर पर वे आईटी और नेटवर्किगं के विशेषज्ञ थे। लंबे समय तक ओरिएंटल बैंक ऑफ कॉमर्स में रहे। बाद में यह बैंक पीएनबी में समाहित हो गया। काम में लगन ऐसी थी कि 16 से 18 घंटे तक बैंको को अपनी सेवाएं देते रहते थे। 

उनका मूल घर बिहार के वैशाली जिले में महनार के पास एक गांव में था। दिल्ली में वे हमारे सबसे निकट के रिश्तेदार थे जिनके घर आना जाना लगा रहता था। ईश्वर संगीता बुआ को मजबूत बनाए और अनिल जी की यादों सहारे जीने की शक्ति दे।

और नवीन भाई भी चले गए - तीसरी मनहूस खबर हमें 16 दिसंबर की रात को सुनने को मिली। हैदराबाद साल 2007 मे मेरे मकान मालिक रहे एन रत्नाराव के बड़े बेटे नवीन को भी कोरोना से ठीक होने के बाद ईश्वर ने हमसे छीन लिया। साल 2012 में नवीन की शादी में हम सारे लोग गए थे। दरअसल रत्नाराव जी के परिवार से हमारा लगाव ऐसा बन गया कि उनके तीनों बेटों की शादी में हम दिल्ली से हैदराबाद गए। 


पहले मुन्ना (नवीन) की शादी में उसके बाद चिन्ना (बाल गंगाधर) की शादी में फिर मुन्ना ( वेंकट ) के विवाह में। बड़े बेटे के निधन से रत्नाराव चाचा जी के मनःस्थिति पर बड़ा गहरा असर पड़ा है। नवीन मेरी पत्नी माधवी के मुंह बोले भाई थे। वह हर साल उन्हे राखी भेजती थीं।

हमें मजबूत बनना होगा। दिल से दिमाग से और शरीर से तभी हम इस कोरोना से लड़ पाएंगे। कोरोना ने महान गांधीवादी एसएन सुब्बाराव को भी जकड़ लिया था, दो अक्तूबर को। पर वे 92 साल की उम्र में कोरोना को मात देकर विजयी हुए और अभी स्वस्थ हैं। आप भी अपने खानेपीने का ख्याल रखें और स्वस्थ रहें।

- विद्युत प्रकाश मौर्य - vidyutp@gmail.com 

Thursday, 19 November 2020

डॉक्टर राधाकृष्ण सिंह - फ्रेंड, फिलास्फर और गाइड का चले जाना

 एक दिन अचानक वे इस तरह चले जाएंगे इसका अंदेशा न था। डॉक्टर राधाकृष्ण सिंह पटना से साहित्य, पत्रकारिता और राजनीति के महत्वपूर्ण हस्ताक्षर थे। मेरे लिए वे फ्रेंड, फिलास्फर गाइड जैसे थे। बड़े भाई भी, प्रशिक्षक भी मार्गदर्शक भी। पर कितना दुखद रहा कि उनके न रहने की खबर मुझे देर से मिली। 23 अगस्त 2020 रविवार को दिन बड़ा मनहूस था, 58 साल की उम्र में उनका अचानक हृदय गति रुकने से निधन हो गया। कुछ दिन पहले ही तो उन्होंने फोन करके मेरा हाल चाल पूछा था। 

राधाकृष्ण सिंह की शुरुआत पटना विश्वविद्यालय के जुझारू छात्र नेता के तौर पर हुई। उन्होंने पटना नवभारत टाइम्स में शिक्षा प्रतिनिधि के तौर पर काम किया। उन्होंने हिंदी के प्रकांड विद्वान प्रोफेसर निशांतकेतु के अधीन हिंदी भाषा में ओशो साहित्य पर शोध किया था। 

मेरा उनसे परिचय कुछ यूं हुआ कि वे तीसरी आंख नामक पत्रिका का संपादन करते थे। मैं उस पत्रिका में डाक से अपनी रचनाएं भेजता था। तब मैं कविताएँ लिखता था। पत्र व्यवहार के बाद उनसे मिलना हुआ। तब पटना के महेंद्रू मुहल्ले में पीडी लेन में एक मकान में वे रहते थे। वहीं पहली बार उनसे मिलना हुआ था। उनसे एक परिचय के बाद तमाम लोगों से उनके कारण परिचय हुआ। उनके पड़ोसी प्रकाश चंद्र ठाकुर, प्रकाश पंचम, डॉक्टर सचिदानंद सिंह साथी, डॉक्टर ध्रुव कुमार। जब मैं काशी हिंदू विश्वविद्यालय में अध्ययन रत था तो एक दिन राधाजी का पत्र लेकर मेरे कमरे में राघवेंद्र सिंह आए। उनकी कोई परीक्षा थी बनारस में। बाद में राघवेंद्र जी भी बिहार की राजनीति में सक्रिय हो गए। 

राधाकृष्ण शुरुआत के दौर में कांग्रेस में सक्रिय थे। एक बार कांग्रेस के टिकट पर चुनाव लड़े। बाद में राष्ट्रीय जनता दल में आए। साल 2005 में राजद के टिकट पर चेरिया बरियारपुर से चुनाव लड़े। अच्छी चुनौती दी पर जीत नहीं सके। कभी वे लालू परिवार के बहुत करीबी थे, उन्होंने एक किताब लिखी थी - राबड़ी देवी का राज्यारोहण। काफी समय वे राजद के प्रवक्ता भी रहे। वे प्रोफेसर रामबचन राय के साथ हुआ करते थे। 

नव भारत टाइम्स, आज, प्रभात खबर,  राष्ट्रीय नवीन मेल जैसे अखबारों में संवाददाता के तौर पर काम करने के बाद वे अध्यापन के क्षेत्र में आ गए। मतलब वे पत्रकार, साहित्यकार, राजनेता और शिक्षाविद सब कुछ थे।  बाद में पटना ट्रेनिंग कॉलेज में शिक्षक हो गए। वहां बीएड के छात्र पढ़ते थे। उसके बाद वे पावापुरी में वीरायतन बीएड कॉलेज में प्राचार्य हो गए। इसके बाद पटना के मुंडेश्वरी बीएड कॉलेज के प्राचार्य हुए। आखिरी दिनों में आरएल महतो ट्रेनिंग कॉलेज दलसिंहसराय के प्राचार्य थे। राधाकृष्ण मंच के अच्छे वक्ता होने के साथ कलम के धनी थे। उनकी लेखनी बड़ी सुंदर थी। शब्द विन्यास के धनी थे। पटना के तमाम नवोदित पत्रकारों को वे प्रेस रिलीज बनाना सिखाते थे।   

संयोग से पटना में ही 2003 फरवरी में मेरा विवाह हुआ तब वे मेरी शादी में अपनी पत्नी के साथ आए थे। हर साल कुछ मौकों पर उनसे मिलना हो जाता था। अपने जीवन के आखिरी  दिनों में पटना के कांटी फैक्टरी रोड में बुद्धा डेंटल कॉलेज के पास रहते थे। वे मूल रूप से बेगुसराय जिले के वीरपुर प्रखंड का गाड़ा गांव के निवासी थे। 

जब मैं पटना में हूं तो उनके साथ किसी न किसी साहित्यिक या राजनीतिक आयोजन में जाने का मौका जरूर मिलता था। भले वे विधानसभा या विधान परिषद में नहीं जा सके, पर राजनीति के गलियारे में उनका काफी सम्मान था। जाने के लिए 58 साल की उम्र ज्यादा नहीं होती, पर ईश्वर को यही मंजूर था। कुछ साल पहले उनका किडनी ट्रांसप्लांट हुआ था। उसके बाद वे थोड़े कमजोर जरूर हो गए थे पर जिजीविषा में कोई कमी नहीं थी। एक दिन उनके नंबर फोन किया। छोटे भाई प्रफुल्ल ने फोन उठाया, बोेल भैया तो नहीं रहे। जिससे आपने लिखने, बोलने के तरीके सीखे हों उसका यूं चले जाना सुनकर बड़ा झटका लगा। पर सिर्फ शरीर साथ छोड़ जाता है। आत्मा तो अमर है ना। वे अच्छी आत्माएं अपनों को प्रेरित करती रहती हैं। तो उनका भी मार्गदर्शन हमें मिलता रहेगा। ऐसा प्रतीत होता है। हम आपको अलविदा नहीं कह सकते। 

- विद्युत प्रकाश मौर्य - vidyutp@gmail.com 


 


Friday, 13 November 2020

हर इंसान को धनवान बना देता है पांच तरह का धन

धन का अर्थ काफी व्यापक है। इसका अभिप्राय सिर्फ कागज के नोट या मुद्रा से नहीं है। धन वह वह जो आपको सुखी बनाए। शास्त्रों में पांच प्रकार के धन बताए गए हैं - शिक्षा, सेहत, गोधन, पशुधन, रतन यानी मुद्रा। इनमें विद्या को सर्वोत्तम धन माना गया है। आइए धनतेरस के अवसर पर बात करते हैं पांच प्रकार के धन की।

 

शिक्षा व्यये कृते वर्धत एव नित्यम् , विद्या धनं सर्व धनम् प्रधानम्  ( सुभाषितानि) यानी शिक्षा या विद्या ऐसा धन है जो खर्च करने पर रोज बढ़ती है। विद्या धन सभी धनों में प्रधान है।

 

सदगुण गुणा: सर्वत्र पूज्यन्ते न महत्योअपि सम्पद:। पूर्णेन्दु किं तथा वन्द्यो निष्कलंको यथा कृश:। (चाणक्यनीति)  यानी जिस प्रकार पूर्णिमा के चांद के स्थान पर द्वितीय का छोटा चांद पूजा जाता हैउसी प्रकार सद्गुणों से युक्त इंसान निर्धन एवं नीच कुल से संबंधित होते हुए भी पूजनीय होता है।

 

स्वास्थ्य -   शरीरमाद्यं खलु धर्मसाधनम् ( कुमारसंभव, कालिदास) यानी शरीर ही सभी धर्मों को पूरा करने का साधन है। धन संपदा शक्ति का स्रोत स्वस्थ शरीर ही है। दार्शनिक इमर्सन कहते हैं पहला धन स्वास्थ्य है। महात्मा गांधी कहते हैं स्वास्थ्य असली धन है न कि सोने चांदी के टुकड़े।

 

संतोष अन्तो नास्ति पिपासायाः संतोषः परमं  सुखं। तस्मात्संतोषमेवेह धनं पश्यन्ति पण्डिताः। (सुभाषितानि) आर्थात, मानव मन में तृष्णा का  कोई अंत नहीं है। इसलिए जो उपलब्ध हो उस पर संतोष करना ही परम सुख है। विद्वान संतोष को ही असली धन कहते हैं। वहीं गौतम बुद्ध कहते हैं - स्वास्थ्य सबसे बड़ा उपहार है तो संतोष सबसे बड़ा धन है।

 

शील विदेशेषु धनं विद्या, व्यसनेषु धनं मति, परलोके धनं धर्म, शीलं सर्वत्र वै धनम्। ( सुभाषितानि) मतलब शील यानी संस्कार या चरित्र सभी जगह धन का काम करता है। दार्शनिक बिली ग्राहम कहते हैं - जब धन खोया तो कुछ भी नहीं खोयाजब स्वास्थ्य खोया तो कुछ खोयाजब चरित्र खोया तो सब खो दिया।