झारखंड के छऊ नृत्य गुरू पद्मश्री
मकरध्वज दारोगा का लंबी बीमारी के बाद निधन हो गया। 81 वर्षीय दारोगा ने सरायकेला में अपने
आवास पर रविवार 16 फरवरी को देर रात करीब 12:30 बजे अंतिम सांस ली।
उनके परिवार में पत्नी, दो बेटे और तीन पुत्रियां हैं। दारोगा
को छऊ नृत्य के सरायकेला प्रारूप को बढ़ावा देने में योगदान के लिए 2011 में
पद्मश्री से नवाजा गया था। उनके पुत्र दीपक ने कहा, मेरे पिता कोल्हन क्षेत्र के खासतौर पर पश्चिम
सिंहभूम और सरायकेला-खरसावां इलाके के शिष्यों को प्रशिक्षण देते थे। दारोगा का
अंतिम संस्कार सरायकेला में कर दिया गया। उनकी अंतिम यात्रा में बड़ी संख्या में
सभी वर्ग के लोगों ने भाग लिया।
विदेशों तक पहुंचाया छऊ को : पद्मश्री
मकरध्वज दारोगा ने छऊ नृत्य को देश की सीमा से बाहर विदेशों तक पहुंचाया। उनके 150
के करीब ऐसे विदेशी शिष्य थे जिन्होंने सरायकेला आकर छऊ नृत्य सीखा और इस नृत्य को
सात समंदर पार ले गए।
छऊ नृत्य में कंठ-संगीत गौण होता है और वाद्य-संगीत का
प्रधानता होती है। यह नृत्य केरल के कथककली नृत्य शैली की तरह है। चटख रंग के
कपड़े पहनना तथा मुखौटा धारण करना इस नृत्य के लिए आवश्यक होता है। मंच पर नर्तकों की
उर्जा और उनकी लयबद्धता देखते ही बनती है। छऊ नृत्य नाटिका पश्चिम बंगाल, बिहार और उड़ीसा के पडोसी राज्यों में प्रचलन में हैं। सैन्य अंदाज के हाव भाव पर आधारित छऊ नृत्य की तीन शैलियां सरायकेला (बिहार), पुरूलिया (पश्चिमी बंगाल) और मयूरभंज (ओडिशा)
प्रचलित है।
साल 2009 में यूनेस्को की विश्व के
अतुल धरोहरों में झारखंड के छऊ नृत्य को
शामिल होने गौरव का प्राप्त हुआ। छऊ नृत्य का संवर्धन तथा विकास सरायकेला-सांवा के राजपरिवार
द्वारा किया गया। सरायकेला राजपरिवार के लोग इस नृत्य के संरक्षक ही
नहीं रहे बल्कि इसमें प्रस्तोता के तौर पर शामिल भी हुए। शंकरदयाल सिंह अपनी
पुस्तक बिहार एक सांस्कृतिक वैभव में लिखते हैं कि राजकुमार सुधेंद्रनारायण सिंह
देव और केदारनाथ सिंह को इसके लिए सम्मानित किया गया।
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