हिंदी पत्रकारिता में महिलाएं शीर्ष पदों पर क्यों नहीं
WHY WOMEN ARE NOT ON TOP IN HINDI PRINT MEDIA
- विद्युत प्रकाश मौर्य, vidyutp@gmail.com
विषय प्रवेश - इक्कीसवीं सदी को नारी की सदी कहा जा रहा है। राजनीति, कारपोरेट, मनोरंजन तमाम क्षेत्रों में महिलाएं शीर्ष पदों पर जा पहुंची हैं। अलग अलग क्षेत्रों में कुशलतापूर्वक नेतृत्व कर महिलाओं ने ये एहसास करा दिया है कि वे पुरूष वर्ग से किसी भी रूप में कम नहीं है। पर क्या कारण है कि पत्रकारिता और खास तौर पर हिंदी की मुख्य धारा की पत्रकारिता में महिलाएं शीर्ष पदों पर नहीं पहुंच पातीं। हिंदी पत्रकारिता में बड़े पदों पर अगर महिलाएं कहीं दिखाई भी दे जाती हैं तो वे ज्यादातर फीचर विभाग और महिला पत्रिकाओं के संपादक तौर पर ही दिखाई देती हैं। अखबारों के संपादक पद को सुशोभित करने वाली महिलाओं की संख्या कम ही है।
विस्तार के लिहाज से देखें तो ये हिन्दी समाचार पत्रों का उत्कर्ष काल है। आज हिंदी के बड़े अखबार बहु संस्करण वाले हैं। दैनिक भास्कर अपना 61वां संस्करण आरंभ कर चुका है। उसकी 12 राज्यों मं मौजूदगी है। वहीं दैनिक जागरण के 40 से ज्यादा संस्करण हैं। अमर उजाला और हिन्दुस्तान राजस्थान पत्रिका जैसे अखबारों के 20-20 संस्करण हैं। इसके अलावा दर्जनों हिंदी के समाचार पत्र हैं जिनके एक से ज्यादा संस्करण प्रकाशित हो रहे हैं। पर इन सभी अखबारों पर नजर दौड़ाएं तो कहीं भी शीर्ष पर यानी मुख्य संपादक की कुरसी पर कोई महिला नहीं है। शीर्ष ही क्यों किसी समाचार पत्र किसी संस्करण की प्रभारी के तौर पर भी कोई महिला अपनी जिम्मेवारी निभाता हुई दिखाई नहीं दे रही है। देश भर में सभी बड़े अखबारों के सारे संस्करणों को देखें तो यह संख्या 300 के आसपास जा पहुंचती है। लेकिन इन 300 में कहीं नेतृत्व के स्तर पर कोई महिला नहीं है। आखिर ऐसा क्यों है।
कहा जाता है कि जनसंचार साधनों ने भारतीय नारियों को मुखर बनाया है। यही कारण है कि महिलाएं अलग क्षेत्रों में नेतृत्व करने के लिए संघर्ष में आगे आई हैं। जेम्स स्टीफेन लिखते हैं –
‘’औरतें मर्दों से अधिक बुद्धिमती होती हैं, क्योंकि वे जानती कम, समझती अधिक हैं।‘’
वास्तव में देखा जाएतो सभी महान् कार्यों के प्रारंभ में औरतों का हाथ रहा है –
There is a woman at the beginning of all great things. - Law Martina
पिछले दो दशक से हिन्दी पत्रकारिता में प्रशिक्षण प्राप्त कर नौकरी में आने का चलन बढ़ा है। यानी एक स्तर पर प्रोफेसनलिज्म का दौर आया है। इन पाठ्यक्रमों में महिलाएं भी नामांकन ले रही हैं। वे संघर्ष करके नौकरियां भी प्राप्त कर रही हैं। पर बदलते समय के साथ वे संपादक की कुरसी तक नहीं पहुंच पा रही हैं। पत्रकारिताके सबसे बड़े प्रशिक्षण संस्थान भारतीय जन संचार संस्थान के पाठ्यक्रम में भी हर साल अच्छी संख्या में महिलाएं भी नामांकन लेती हैं। इनमें से बड़ी संख्या में प्रशिक्षित महिलाएं पत्रकारिता के क्षेत्र में सक्रिय भी होती हैं। पर हिंदी समाचार पत्रों में देखें तो वे रिपोर्टिंग और न्यूज रूम यानी डेस्क की पत्रकारिता में जगह बनाती हैं। हम यहां सिर्फ मुद्रित माध्यमों की बातकर रहे हैं तो रिपोर्टर के तौर पर हर समाचार पत्र में महिलाएं सक्रिय हैं। डेस्क यानी न्यूज रूम में भी उनकी भागीदारी है। पर ये भागीदारी कैसी है।
ज्यादातर संपादकों की मानसिकता है कि महिलाएं साफ्ट किस्म की पत्रकारिता के लिए फिट हैं यानी वे फैशन ग्लैमर माडलिंग जैसे पन्नों के लिए अच्छा काम कर सकती हैं। लिहाजा वे अखबार के फीचर सेक्शन में काम करती दिखाई देती हैं।
अगर महिलाएं संवाददाता के तौर पर काम करती हैं तो उन्हें साफ्ट बीट दिया जाता है। पर रिपोर्टिंग में महिलाओं ने इस मिथक को तोड़ा है कि वे सिर्फ हल्की फुल्की पत्रकारिता ही कर सकती हैं। कई हिन्दी अखबारों के लोकल और नेशनल ब्यूरों में महिलाओं ने बेहतर रिपोर्टिंग की है। राजनैतिक बीट पर भी महिलाओं को सफलतापूर्वक रिपोर्टिंग करते हुए देखा गया है। अंग्रेजी अखबारों की तरह हिंदी में भी कई नाम हैं जिन्होंने राष्ट्रीय अखबारों में अपने काम का लोहा मनवाया है। हिन्दुस्तान हिंदी दैनिक में अलग अलग समय में मयूरी भारद्वाज, स्मिता मिश्रा जैसी रिपोर्टर ने राजनैतिक बीट पर अच्छा काम किया है। स्वतंत्र भारत के नेशनल ब्यूरो में गीताश्री ने अपने काम का लोहा मनवाया है। वहीं दैनिक जागरण में माला दीक्षित, दैनिक भास्कर में अग्निमा दूबे और कई अलग अलग अखबारों में अरुणा सिंह ने अपने काम की बेहतर छाप छोड़ी है। हिन्दी अखबार में प्रेस फोटोग्राफर के तौर पर हिन्दुस्तान हिंदी दैनिक में महिला फोटोग्राफर सर्वेश ने उत्कृष्ट काम करते हुए अवकाश प्राप्त किया।
हम एक बार फिर हिंदी अखबारों के न्यूज रूम की ओर लौटते हैं। यहां पर अगर महिला संपादकों की तलाश करें तो एक नाम ही समाने आता है। वह मृणाल पांडे का। वह कई सालों तक हिन्दुस्तान जैसे सम्मानित अखबार की सफल संपादक रहीं। इसी हिन्दुस्तान समाचार पत्र में सुषमा वर्मा जैसी महिला पत्रकार एसोसिएट एडिटर के पद तक पहुंची। अलग अलग समाचार पत्रों में मुख्य धारा की पत्रकारिता में बेहतर काम करने वालों में इरा झा का नाम भी प्रमुखता से लिया जा सकता है। पर अमर उजाला, दैनिक जागरण, दैनिक भास्कर, राजस्थान पत्रिका, नई दुनिया, पंजाब केसरी, जैसे तमाम बड़े अखबारों में कोई महिला कभी शीर्ष तक नहीं पहुंच पायी।
अगर हम समाचार डेस्क की बात करें तो यहां आधी आबादी की भागीदारी काफी कम है। एक अखबार के एक संस्करण के न्यूज रूम में 30 से 50 पत्रकार होते हैं। इनमें 10 फीसदी भी महिलाओं की संख्या दिखाई नहीं देती। अलग-अलग राज्यों अलग समाचार पत्रो में मैंने खुद 10 संस्थानों का सफर किया है लेकिन कहीं महिलाओं की सम्मानजनक भागीदारी नहीं देखी।
आखिर क्यों। कुछ लोग तर्क देते हैं कि पत्रकारिता एक गैर पारंपरिक माध्यम है जहां काम करना मुश्किल होता है। पर आज महिलाएं कई बड़े बैंको की सीईओ बन चुकी हैं। कई बड़े व्यापारिक संस्थानों के मुखिया के तौर पर बेहतर काम कर रही हैं। सबसे बड़ी बात तो राजनीति से ज्यादा गैर पांरपरिक क्षेत्र कुछ भी नहीं होता। यहां सबसे ज्यादा अनिश्चितता कैरियर को लेकर होती है। पर राजनीति में महिलाओं का प्रतिनिधित्व भले ही प्रतिशत के लिहाज से सम्मानजनक न हो पर वहां महिलाएं बड़ी संख्या में शीर्ष पदों पर पहुंच चुकी हैं। आज देश के चार बड़े राज्यों की मुख्यमंत्री महिलाएं हैं। हम राजस्थान, गुजरात, तमिलनाडु और पश्चिम बंगाल की ओर देख सकते हैं। यहां वसुंधरा राजे, आनंदी बेन, जयललिता और ममता बनर्जी सफलतापूर्वक सरकार चला रही हैं। इसके अलावा उत्तर प्रदेश, दिल्ली, पंजाब, मध्य प्रदेश, बिहार जैसे कई राज्यों की मुख्यमंत्री महिला रह चुकी हैं। देश को की बागडोर लंबे समय तक इंदिरा गांधी जैसे महिला संभाल चुकी हैं। पर पत्रकारिता के शीर्ष पदों पर वे नहीं पहुंच सकी हैं।
आजकल संपादक बनने के लिए जरूरी योग्यता में खबरों का चयन, समाचार पत्र का कुशल प्रबंधन, प्रतिस्पर्धी अखबारों से मुकाबले के लिए स्पष्ट दृष्टि के अलावा कूटनीतिक तौर पर सफल नेतृत्वकर्ता होने की अपेक्षा की जाती है। महिलाएं इन कसौटियों पर भी खरी उतरती हैं।
पर महिलाओं के संपादक न बन पाने का कारण ढूंढने पर हमारे पर एक वरिष्ठ पत्रकार साथी कहते हैं कि इसके समाजिक कारण ज्यादा हैं। अक्सर संपादक की नियुक्ति अखबार का प्रबंधक यानी मालिक करता है। पर ये प्रतीत होता कि उसे ज्यादातर मामलों में महिलाओं की योग्यता और कार्यक्षमता पर भरोसा नहीं पाता।
क्या महिलाएं पक्षपात का भी शिकार होती हैं। इस पर अगर महिला पत्रकारों की राय जानें तो उन्हें लगता है कि हां ऐसा खूब होता है। वे काम पूरी दक्षता और योग्यता से करती हैं। पर उन्हें अपने पुरूष साथियों की तरह प्रोन्नति नहीं मिलती। लिहाजा वे न्यूजरूम में समाचार संपादक जैसे पद तक कम ही पहुंच पाती हैं।
महिलाएं मौका मिले तो अपना दमखम दिखा सकती हैं। इसका उदाहरण मैं देश के सबसे बड़े अखबारों में से एक समाचार पत्र हिन्दुस्तान में देखता हूं। वहां मुख्य संपादक शशि शेखर ने महिलाओं को जनरल डेस्क पर अपनी प्रतिभा दिखाने का मौका दिया है। यहां अखबार के सेंट्रल डेस्क के प्रभारी के तौर पर एक महिला पत्रकार रावी द्विवेदी कई सालों से अपनी जिम्मेवारी बखूबी निभा रही हैं। वहीं समाचार पत्र के न्यूज प्लानिंग विभाग के प्रभारी के तौर पर एक और महिला पत्रकार मीना त्रिवेदी भी कई सालों से अपनी काबिलियत का परिचय दे रही हैं। ये चंद उदाहरण हैं जिसके आधार पर कहा जा सकता है कि जहां महिलाओं को मौका मिला है उन्होंने अपनी योग्यता का परिचय दिया है। सबसे बड़ा सवाल है कि अगर मौका ही नहीं मिलेगा तो किसी की काबिलियत का पता कैसे चलेगा।
एक महिला पत्रकार जाहिदा लिखती हैं – मीडिया में अब भी स्त्रियों के प्रति वर्षों पुरानी सोच पर कायम है। मीडिया आज भी स्त्रियों को घर-परिवार या बनाव-श्रृंगार तक ही सीमित मानती है। इलेक्ट्रॉनिक मीडिया, टेलीविजन धारावाहिकों, समाचार चैनलों और टेलीविजन विज्ञापनों ने महिला की एक दूसरी छवि बनाई है। इनमें एक नई किस्म की महिलाओं को दिखलाया जाता है जो परंपरागत शोषण और उत्पीडन से तो मुक्त दिखती हैं, लेकिन वह स्वयं पुरुषवादी समाज के लिए उपभोग की वस्तु बन कर रह जाती हैं। इन दिनों हमारा इलेक्ट्रॉनिक मीडिया मुक्त महिला का जो रूप दिखाता है, वह उपभोक्ता महिला का ही रूप है जो सिगरेट पीती है शराब पीती है और जुआ खेलती है। इनमें अधिकतर उच्च मध्य वर्ग की महिलाओं की इसी छवि को दिखाया जाता है। मीडिया विज्ञापनों, धारावाहिकों और फिल्मों के भीतर महिला का निर्माण करते हुए यह भूल जाता है कि भारत की शोषित, दमित महिला की मुक्ति का लक्ष्य बाजार में साबुन बेचने वाली महिला नहीं हो सकती।
मीडिया संस्थानों में खासकर प्रिंट मीडिया में महिलाओं को अपनी नियुक्ति को लेकर अक्सर भेद-भाव का सामना करना पड़ता है। मीडिया संस्थानों के मालिक और संपादकों का माइन्ड सैट ही कुछ इस तरह का हो गया है कि वे लड़कियों को प्रिंट मीडिया के रिर्पोटिंग के काबिल ही नहीं समझते। यदि लड़कियां जैसे-तैसे अपनी काबिलियत की दम पर नौकरी में आ भी जाएं तो वे इन संस्थानों में सर्वोच्च पदों तक नहीं पहुंच पातीं।
कुछ साल पहले मीडिया स्टडीज ग्रुप के अनिल चमड़िया, जीतेन्द्र कुमार और सीएसडीएस के योगेन्द्र यादव ने हिन्दी, अंग्रेजी राष्ट्रीय मीडिया के प्रमुख पदों पर कार्यरत लोगों की सामाजिक पृष्ठभूमि का सर्वे किया था। जिसके नतीजे बेहद चौंकाने वाले थे। इस रिपोर्ट के मुताबिक हिन्दी, अंग्रेजी, उर्दू, प्रिंट व इलैक्ट्रानिक मीडिया में महज तीन फीसदी महिलाएं ही आला ओहदों तक पहुंच पाती हैं।
वरिष्ठ पत्रकार प्रवीण बागी सवाल पूछने के अंदाज में कहते हैं - मीडिया (इलेक्ट्रॉनिक्स और प्रिंट दोनों ) में नारी सशक्तिकरण की बहुत वकालत होती है लेकिन किसी संस्थान के सर्वोच्च पद पर महिला नजर नहीं आती। कई वर्ष पहले मृणाल पांडे हिंदुस्तान की संपादक बनी थीं , उनके बाद फिर कोई नाम सुनाई नहीं दिया। ऐसा क्यों है ? अगर मैं भूल रहा हूँ तो कृपया सुधारें। अख़बारों के मुकाबले न्यूज़ चैनेलों में महिलाएं ज्यादा हैं लेकिन प्रभावी भूमिका में नहीं हैं। क्या महिलाएं इस योग्य नहीं है की उन्हें संस्थान का प्रमुख बनाया जा सके ? आप, खासकर महिला पत्रकार इसपर क्या सोचती हैं ? ( प्रवीण बागी, प्रिंट और टीवी के वरिष्ठ पत्रकार, ईटीवी, फेसबुक वाल पर)
नवभारत टाइम्स के ब्लाग पर पत्रकार रमेश यादव लिखते हैं - अधिकतर महिला पत्रकार और कर्मी करियर और भविष्य की चिंता में श्रम शोषण, दैहिक शोषण और यौन शोषण के खिलाफ खुला विद्रोह नहीं कर पातीं, जिस दिन उन्हें निष्पक्ष न्याय की गारंटी मिल जाये, उस दिन देखिएगा आश्चर्य जनक मामले सामने आएंगे। आसाराम-साईं जैसे।
भारतीय मीडिया में जितने ब्रह्मचर्यवादी (महात्मा गांधी की तरह) प्रयोगवादी हैं, वे सब इन दिनों महिलाओं की अस्मिता, दैहिक शोषण, यौन शोषण-उत्पीड़न के ख़िलाफ उठ खड़े हुए हैं और त्वरित न्याय के लिए चिचिया रहे हैं। मर्दवादी मीडिया में महिलाओं के पक्ष में एक साथ इतने 'अजान' आप कभी नहीं सुने होंगे। मर्दों का मर्दों के खिलाफ मंथन। मीडिया में बहस का यह अभियान भारतीय मर्दों का सेक्स और सेक्सुअल छायावाद के खिलाफ अपने तरह का बड़ा अभियान जान पड़ता है। इसमें जितने पुरूषनुमा पत्रकार और बहसबाज विशेषज्ञ शामिल हैं या हो रहे हैं या बयान दे रहे हैं, वो इस छायावाद से अलग दूसरे किस्म के 'छायावाद' के प्रवक्ता जान पड़ते हैं ?
निष्कर्ष
हम यह देख रहे हैं कि हिन्दी पत्रकारिता की मुख्य धारा में पुरूषवादी मानसिकता महिलाओं को नेतृत्व के लिए आगे आने से रोकती है। ज्यादातर पुरूषवादी संपादक महिलाओं को जिम्मेवारी के पदों पर प्रोन्नति देने के बारे में नहीं सोचते। इस कारण से महिलाएं पत्रकारिता की नौकरी में प्रवेश तो पाती हैं पर उन्हें पुरूष पत्रकारों के समान प्रोन्नति नहीं मिल पाती है। इसके कारण प्रतिभाशाली महिला पत्रकार उच्च पदों पर नहीं पहुंच पातीं। ये एक ऐसा विषय है जिस पर कानून बनाकर नियमन नहीं किया जा सकता। पत्रकारिता में ज्यादातर पदों पर नियुक्तियां पारदर्शी तरीके से नहीं होती। यहां सूचना के अधिकार जैसा कोई कानून काम नहीं करता है। लिहाजा महिलाओं के पास अपने संघर्ष के लिए कोई कानूनी अधिकार नहीं होता। कई मामलों में तो वह वरिष्ठता की ओर अग्रसर होने के दौरान निराश होकर नौकरी छोड़ देती हैं और घर संभालने लगती हैं। बिना इस पुरूषवादी सोच के बदलाव के महिलाओं के उच्च पदों पर काबिज होने की बात नहीं सोची जा सकती।
REF-
1. पुस्तक - महिला पत्रकारिता, सुधा शुक्ला, प्रभात प्रकाशन ( संस्करण 2012)
2. पुस्तक - महिला पत्रकार और पत्रिकाएं – प्रेमनाथ चतुर्वेदी ( )
3. लेख -मर्दवादी मीडिया,महिलाएं और मुद्दे- रमेश यादव -नवभारत टाइम्स ( रीडर्स ब्लाग) Friday December 13, 2013
4. रिपोर्ट - STATUS OF WOMEN JOURNALISTS IN INDIA – Press Institute of India
( यह शोधपत्र 12 अगस्त 2015 को दिल्ली विश्वविद्यालय के दौलतराम कालेज और भारतीय जन संचार संघ की ओर से आयोजित राष्ट्रीय संगोष्ठी में पढ़ा गया आयोजन स्थल – जीटीबी कालेज सभागार. )
About Writer
Vidyut Prakash Maurya, A journalist and Media teacher.
BA (Hons.) BHU, MA (History) BHU, PG DIPLOMA in Journalism from IIMC, Delhi, Master in Mass communication from GJU, Hisar, UGC NET in Mass communication.
19 years in Print , TV Media, Teaching and Research. Presently working as Chief Content Creator in HT Media Group, New Delhi.