Saturday, 12 December 2015

काशी के संगीत और जयपुर की कला को वैश्विक पहचान मिली

देश के दो प्राचीन शहरों वाराणसी और जयपुर के यूनेस्को के क्रिएटिव नेटवर्क शहरों की सूची में शामिल होने से यहां की संगीत परंपरा और कला शिल्प को वैश्विक पहचान मिली है। भारत के दो शहरों को पहली इस सूची में जगह मिलने से न सिर्फ इन शहरों पर्यटन को बढ़ावा मिलेगा बल्कि इससे सांस्कृति आदान-प्रदान को भी नया आयाम मिलेगा।
वाराणसी और संगीत
वाराणसी की संगीत परंपरा बहुत पुरानी है। शास्त्रीय संगीत का बनारस घराना जहां प्रसिद्ध है वहीं पूरबी अंग की ठुमरी के लिए काशी की पहचान है। गौहर जान, गोदई महाराज, किशन महराज, पंडित ओंकारनाथ ठाकुर, गिरिजा देवी, छन्नू लाल मिश्र, राजन साजन मिश्र से लेकर मालिनी अवस्थी तक तमाम प्रतिष्ठित नाम हैं जिन्होंने काशी की संगीत संगीत परंपरा को मजबूत बनाया है। आज भी बनारस की गलियां सुर और साज प्रतिध्वनित होता रहता है। अब उसे यूनेस्को से एक प्रमाण पत्र मिल गया है।
जयपुर का शिल्प
गुलाबी शहर के नाम से विख्यात जयपुर की पहचान उसकी कला शिल्प के लिए भी है। सवाई जयसिंह के जमाने में जयपुर ने मूर्तिकारों को शरण दिया और जयपुर की मूर्तिकला आज विश्व प्रसिद्ध है। शहर के खजानेवालों का रास्ता में बड़ी संख्या में मूर्तिकार रहते हैं जिन्होंने शहर को अंतरराष्ट्रीय पहचान दिलाई है। कला शिल्प को बढ़ावा देने के लिए शहर में जवाहर कला केंद्र की स्थापना की गई है। इसके अलावा जयपुर शहर की पहचान हस्तशिल्प और लोकरंग के लिए भी है।

सूची में शामिल होने से लाभ
- सृजनशीलता और सांस्कृतिक परंपरा से जुड़े उद्योगों को नई पहचान मिलेगी।
- सांस्कृतिक जीवन से जुड़े कार्यक्रम में सहभागिता का मौका मिलेगा
- शहरी विकास योजनाओं को लागू करने में मदद मिलेगी
- अंतराष्ट्रीय मंचों पर सांसकृतिक आदान प्रदान का बेहतर मौका मिलेगा।

सात श्रेणियों का है मानदंड
यूनेस्को की टीम हर साल अपनी बैठक में शहरों की समीक्षा करती है। शहरों के विशिष्ट गुण और उनकी परंपराओं का अध्ययन किया जाता है। सात तरह के मापदंड हैं - संगीत, फिल्म, कलाशिल्प, पाककला, डिजाइन, साहित्य और मीडिया आर्टस जिनके आधार पर नए शहरों को इस सूची में शामिल किया जाता है।
यूनेस्को क्रिएटिव सिटी नेटवर्क
69 शहर अभी तक शामिल थे क्रिएटिव शहरों की सूची में
2015 में भारत के दो शहरों के साथ कुल 47 शहर और जोड़े गए
22 देश ऐसे हैं नई सूची में जिनके शहरों को पहली बार जोड़ा गया है।
2016 के सितंबर में अगली बैठक में नए शहरों को लेकर समीक्षा होगी
32 स्थल शामिल हैं भारत के यूनेस्को के विश्व विरासत स्थलों की सूची में

विश्व विरासत शहर में भारतीय शहर नहीं
1993 में गठित यूनेस्को से संबद्ध संस्था आर्गनाइजेशन ऑफ वल्र्ड हेरिटेज सिटीज(ओडब्लूएचसी) विश्व विरासत के शहरों की सूची तैयार करता है।

250 शहरों को अब तक शामिल किया गया है विश्व विरासत शहरों की सूची में इस सूची में, पर भारत किसी शहर को जगह नहीं मिली है। जबकि नेपाल के भक्तापुर, काठमांडू और ललितपुर इस सूची में हैं। भारत से राजधानी दिल्ली के पुराने हिस्से शाहजहानाबाद ( दीवारों से घिर शहर) और तेलंगाना के वारंगल की दावेदारी इस सूची के लिए रही है। पर ये कई कारणों से शामिल नहीं किए जा सके। विश्व विरासत शहरों के मेयर को एक सालाना फीस देनी होती है। हर दो साल पर इन शहरों के मेयरों का सम्मेलन भी आयोजित होता है।




Thursday, 26 November 2015

डिग्री मत पूछो नेता की...

ये साल 1999-2000 की बात है जब मैं पंजाब में रिपोर्टिंग करता था। तब राज्य के तकनीकी शिक्षा मंत्री हुआ करते थे जगदीश सिंह गरचा। उनके कई कार्यक्रमों में जाने का मौका मिला. एनआईटी जालंधर जो आईआईटी के बाद देश के बड़े इंजीनियरिंग संस्थानों में शुमार है, के कार्यक्रम में गरचा साहब बोलने के लिए मंच पर रूबरू हुए- सानु तो तकनीक बारे कुछ पता नहीं हैगा. असी तो पांचवी पास हैंगे। बादल साहब नू मंत्री बना दित्ता तो असी बन गए... यानी वे साफगोई से कहते थे कि मैं पांचवी पास तकनीक के बारे में कुछ नहीं पता। प्रकाश सिंह बादल की मेहरबानी है कि मैं राज्य का तकनीकी शिक्षा मंत्री हूं। इसी तरह के दूसरे मंत्री थे पीडब्लूडी विभाग उनके जिम्मे था सुच्चासिंह लंगाह वे भी कम पढ़े लिखे थे। पर उनके मंत्रालय का कामकाज अच्छा था।


 आज बिहार में लालू के लाल तेजस्वी और तेज प्रताप के शिक्षा को लेकर चर्चा हो रही है। हम यहां पर पंजाब जैसे विकसित राज्य को याद कर रहे हैं जहां के मंत्रियों का ये हाल रहा है। देश की हालत कौन सी अच्छी है। देश की मानव संसाधन विकास मंत्री स्मृति ईरानी 12वीं पास हैं, पर वे आईआईटी आईआईएम और देश के नामचीन शोध संस्थाओं के कामकाज को देख रही हैं। वे कितनी सफल होंगी इसका मूल्यांकन पांच साल बाद करना ठीक रहेगा। उमा भारती पांचवी के आगे नहीं पढ़ी पर मध्य प्रदेश की मुख्यमंत्री बनीं, अटल जी की सरकार में युवा कार्यक्रम और खेल मंत्री बनीं। अब गंगा नदी को पवित्र करने की कोशिश में लगी हैं। तो लालू के लालों से इतनी ना उम्मीदी क्यों लगा रखी है आपने। आशावादी बने रहिए। संयोग है कि बिहार के शिक्षा मंत्री केंद्र की तरह नहीं हैं। वे ( अशोक चौधरी) पीएचडी तक उच्च शिक्षित हैं। तो मुतमईन रहिए सब कुछ अच्छा होगा। लालू के लाल जिन मंत्रालयों को संभाल रहे हैं वहां बड़े ही काबिल ब्यूरोक्रेट दिए गए हैं इसलिए वहां भी हालात बुरे नहीं होंगे।
K KAMRAJ
अब थोड़ा पीछे चलते हैं। देश के पहले प्रधानमंत्री पंडित नेहरू के मंत्रीमंडल में के कामराज नामक मंत्री थे।  तमिलनाडु के कामराज स्कूली कक्षा में कुछ दर्जे तक ही पढ़े थे। हिंदी और अंगरेजी नहीं आती थी। पर नेहरू के मंत्रीमंडल में नेहरू के बाद सबसे कद्दावर मंत्री थे। उनके कामराज प्लान ने बड़े बड़े नेताओं की छुट्टी कर दी थी। कहा यह भी जाता है कि अगर वे हिंदी जानते होते तो लाल बहादुर शास्त्री की जगह देश के अगले प्रधानमंत्री वही होते। मंच पर कामराज सिर्फ तमिल बोल पाते थे। प्रख्यात गांधीवादी एसएन सुब्बराव तब कामराज के साथ होते थे। वे उनके भाषणों का त्वरित तौर पर कन्नड या हिंदी में अनुवाद पेश करते थे।
डीएमके परिवार की बात करें तो करुणानिधि के बेटे अलागिरी को भी तमिल के बाद हिंदी या अंगरेजी नहीं आती। यूपीए की सरकार में मंत्री बने तो अपने किसी साथी मंत्री से भी बैठकों बात नहीं कर पाते थे। बड़ी मुश्किल से अंगरेजी का एक वाक्य सीखा टाक टू माई सेक्रेटरी। उससे उनके मंत्रालय का कामकाज बुरी तरह प्रभावित हो रहा था।  पर ये लोकतंत्र का करिश्मा है कि कोई कम पढ़ा लिखा आदमी केंद्रीय मंत्री तक बन जाता है। 
राष्ट्रपति की कुरसी तक पहुंच गए ज्ञानी जैल सिंह भी स्कूली शिक्षा तक ही पढ़े लिखे थे। लेकिन सिर्फ पढ़ाई से क्या होता है।
तमिलनाडु की मुख्यमंत्री जे जयललिता भी नौंवी क्लास से आगे नहीं पढ़ सकीं। पर वे हिंदी, अंगरेजी, तमिल और कन्नड फर्राटे से बोलती हैं। और कामकाज की बात करें तो वे देश की बेहतरीन मुख्यमंत्रियों में से हैं। उनकी तरह गरीब नवाज और जनता का दुख दर्द का ख्याल रखने वाला मुख्यमंत्री तो शायद ही देश में कोई दूसरा हो। क्या आपको शर्म नहीं आती जब देश का पढ़ा लिखा वित्त मंत्री ये कहता है  कि मध्यम वर्ग अपना ख्याल खुद रखे। ( यानी हमें बतौर सरकार मध्यम वर्ग से कोई सहानुभूति नहीं) सहानुभूति होगी भी भला क्यों.. जनता ने तो अमृतसर में जेटली को रिजेक्ट कर दिया था। हार कर भी मंत्री बन गए। बिहार में जो भी लोग फिलहाल मंत्री बने हैं उन्हें जनता ने चुनाव में विजयी बनाकर भेजा है। सबने अपने हलफनामे में अपनी डिग्री बताई थी। तो अब सवाल उठाने से क्या होता है। अभी तक एमएलए एमपी बनने के लिए देश में कोई न्यूनतम योग्यता तो तय नहीं की गई है। तो क्यों न हम इस करिश्माई लोकतंत्र को नमन करें।
दीये जले या बुझे...आफताब आएगा
तुम यकीं रखो....इन्क्लाब आएगा।
-         विद्युत प्रकाश मौर्य



Sunday, 8 November 2015

हिंदी पत्रकारिता में महिलाएं शीर्ष पदों पर क्यों नहीं


हिंदी पत्रकारिता में महिलाएं शीर्ष पदों पर क्यों नहीं
WHY WOMEN ARE NOT ON TOP IN HINDI PRINT MEDIA
-         विद्युत प्रकाश मौर्य, vidyutp@gmail.com

विषय प्रवेश -  इक्कीसवीं सदी को नारी की सदी कहा जा रहा है। राजनीति, कारपोरेट, मनोरंजन तमाम क्षेत्रों में महिलाएं शीर्ष पदों पर जा पहुंची हैं। अलग अलग क्षेत्रों में कुशलतापूर्वक नेतृत्व कर महिलाओं ने ये एहसास करा दिया है कि वे पुरूष वर्ग से किसी भी रूप में कम नहीं है। पर क्या कारण है कि पत्रकारिता और खास तौर पर हिंदी की मुख्य धारा की पत्रकारिता में महिलाएं शीर्ष पदों पर नहीं पहुंच पातीं। हिंदी पत्रकारिता में बड़े पदों पर अगर महिलाएं कहीं दिखाई भी दे जाती हैं तो वे ज्यादातर फीचर विभाग और महिला पत्रिकाओं के संपादक तौर पर ही दिखाई देती हैं। अखबारों के संपादक पद को सुशोभित करने वाली महिलाओं की संख्या कम ही है।

विस्तार के लिहाज से देखें तो ये हिन्दी समाचार पत्रों का उत्कर्ष काल है। आज हिंदी के बड़े अखबार बहु संस्करण वाले हैं। दैनिक भास्कर अपना 61वां संस्करण आरंभ कर चुका है। उसकी 12 राज्यों मं मौजूदगी है। वहीं दैनिक जागरण के 40 से ज्यादा संस्करण हैं। अमर उजाला और हिन्दुस्तान राजस्थान पत्रिका जैसे अखबारों  के 20-20 संस्करण हैं। इसके अलावा दर्जनों हिंदी के समाचार पत्र हैं जिनके एक से ज्यादा संस्करण प्रकाशित हो रहे हैं। पर इन सभी अखबारों पर नजर दौड़ाएं तो कहीं भी शीर्ष पर यानी मुख्य संपादक की कुरसी पर कोई महिला नहीं है। शीर्ष ही क्यों किसी समाचार पत्र किसी संस्करण की प्रभारी के तौर पर भी कोई महिला अपनी जिम्मेवारी निभाता हुई दिखाई नहीं दे रही है। देश भर में सभी बड़े अखबारों के सारे संस्करणों को देखें तो यह संख्या 300 के आसपास जा पहुंचती है। लेकिन इन 300 में कहीं नेतृत्व के स्तर पर कोई महिला नहीं है। आखिर ऐसा क्यों है।

कहा जाता है कि जनसंचार साधनों ने भारतीय नारियों को मुखर बनाया है। यही कारण है कि महिलाएं अलग क्षेत्रों में नेतृत्व करने के लिए संघर्ष में आगे आई हैं।  जेम्स स्टीफेन लिखते हैं 
‘’औरतें मर्दों से अधिक बुद्धिमती होती हैंक्योंकि वे जानती कमसमझती अधिक हैं।‘’
वास्तव में देखा जाएतो सभी महान् कार्यों के प्रारंभ में औरतों का हाथ रहा है 
There is a woman at the beginning of all great things.  -  Law Martina

पिछले दो दशक से हिन्दी पत्रकारिता में प्रशिक्षण प्राप्त कर नौकरी में आने का चलन बढ़ा है। यानी एक स्तर पर प्रोफेसनलिज्म का दौर आया है। इन पाठ्यक्रमों  में महिलाएं भी नामांकन ले रही हैं। वे संघर्ष करके नौकरियां भी प्राप्त कर रही हैं। पर बदलते समय के साथ वे संपादक की कुरसी तक नहीं पहुंच पा रही हैं। पत्रकारिताके सबसे बड़े प्रशिक्षण संस्थान भारतीय जन संचार संस्थान के पाठ्यक्रम में भी हर साल अच्छी संख्या में महिलाएं भी नामांकन लेती हैं। इनमें से बड़ी संख्या में प्रशिक्षित महिलाएं पत्रकारिता के क्षेत्र में सक्रिय भी होती हैं। पर हिंदी समाचार पत्रों में देखें तो वे रिपोर्टिंग और न्यूज रूम यानी डेस्क की पत्रकारिता में जगह बनाती हैं। हम यहां सिर्फ मुद्रित माध्यमों की बातकर रहे हैं तो रिपोर्टर के तौर पर हर समाचार पत्र में महिलाएं सक्रिय हैं। डेस्क यानी न्यूज रूम में भी उनकी भागीदारी है। पर ये भागीदारी कैसी है।
ज्यादातर संपादकों की मानसिकता है कि महिलाएं साफ्ट किस्म की पत्रकारिता के लिए फिट हैं यानी वे फैशन ग्लैमर माडलिंग जैसे पन्नों के लिए अच्छा काम कर सकती हैं।  लिहाजा वे अखबार के फीचर सेक्शन में काम करती दिखाई देती हैं। 

अगर महिलाएं संवाददाता के तौर पर काम करती हैं तो उन्हें साफ्ट बीट दिया जाता है। पर रिपोर्टिंग में महिलाओं ने इस मिथक को तोड़ा  है कि वे सिर्फ हल्की फुल्की पत्रकारिता ही कर सकती हैं। कई हिन्दी अखबारों के लोकल और नेशनल ब्यूरों में महिलाओं ने बेहतर रिपोर्टिंग की है। राजनैतिक बीट पर भी महिलाओं को सफलतापूर्वक रिपोर्टिंग करते हुए देखा गया है। अंग्रेजी अखबारों की तरह हिंदी में भी कई नाम हैं जिन्होंने राष्ट्रीय अखबारों में अपने काम का लोहा मनवाया है। हिन्दुस्तान हिंदी दैनिक में अलग अलग समय में मयूरी भारद्वाज,  स्मिता मिश्रा जैसी रिपोर्टर ने राजनैतिक बीट पर अच्छा काम किया है। स्वतंत्र भारत के नेशनल ब्यूरो में गीताश्री ने अपने काम का लोहा मनवाया है। वहीं दैनिक जागरण में माला दीक्षित, दैनिक भास्कर में अग्निमा दूबे और कई अलग अलग अखबारों में अरुणा सिंह ने अपने काम की बेहतर छाप छोड़ी है। हिन्दी अखबार में प्रेस फोटोग्राफर के तौर पर हिन्दुस्तान हिंदी  दैनिक में महिला फोटोग्राफर सर्वेश ने उत्कृष्ट काम करते हुए अवकाश प्राप्त किया।

हम एक बार फिर हिंदी अखबारों के न्यूज रूम की ओर लौटते हैं। यहां पर अगर महिला संपादकों की तलाश करें तो एक नाम ही समाने आता है। वह मृणाल पांडे का। वह कई सालों तक हिन्दुस्तान जैसे सम्मानित अखबार की सफल संपादक रहीं। इसी हिन्दुस्तान समाचार पत्र में सुषमा वर्मा जैसी महिला पत्रकार एसोसिएट एडिटर के पद तक पहुंची। अलग अलग समाचार पत्रों में मुख्य धारा की पत्रकारिता में बेहतर काम करने वालों में इरा झा का नाम भी प्रमुखता से लिया जा सकता है। पर अमर उजाला, दैनिक जागरण, दैनिक भास्कर, राजस्थान पत्रिका, नई दुनिया, पंजाब केसरी, जैसे तमाम बड़े अखबारों में कोई महिला कभी शीर्ष तक नहीं पहुंच पायी।

अगर हम समाचार डेस्क की बात करें तो यहां आधी आबादी की भागीदारी काफी कम है। एक अखबार के एक संस्करण के न्यूज रूम में 30 से 50 पत्रकार होते हैं। इनमें 10 फीसदी भी महिलाओं की संख्या दिखाई नहीं देती।  अलग-अलग राज्यों अलग समाचार पत्रो में मैंने खुद 10 संस्थानों का सफर किया है लेकिन कहीं महिलाओं की सम्मानजनक भागीदारी नहीं देखी।

आखिर क्यों। कुछ लोग तर्क देते हैं कि पत्रकारिता एक गैर पारंपरिक माध्यम है जहां काम करना मुश्किल होता है। पर आज महिलाएं कई बड़े बैंको की सीईओ बन चुकी हैं। कई बड़े व्यापारिक संस्थानों के मुखिया के तौर पर बेहतर काम कर रही हैं। सबसे बड़ी बात तो राजनीति से ज्यादा गैर पांरपरिक क्षेत्र कुछ भी नहीं होता। यहां सबसे ज्यादा अनिश्चितता कैरियर को लेकर होती है। पर राजनीति में महिलाओं का प्रतिनिधित्व भले ही प्रतिशत के लिहाज से सम्मानजनक न हो पर वहां महिलाएं बड़ी संख्या में शीर्ष पदों पर पहुंच चुकी हैं।  आज देश के चार बड़े राज्यों की मुख्यमंत्री महिलाएं हैं। हम राजस्थान, गुजरात, तमिलनाडु और पश्चिम बंगाल की ओर देख सकते हैं। यहां  वसुंधरा राजे, आनंदी बेन, जयललिता और ममता बनर्जी सफलतापूर्वक सरकार चला रही हैं। इसके अलावा उत्तर प्रदेश, दिल्ली, पंजाब, मध्य प्रदेश, बिहार जैसे कई राज्यों की मुख्यमंत्री महिला रह चुकी हैं। देश को की बागडोर लंबे समय तक इंदिरा गांधी जैसे महिला संभाल चुकी हैं। पर पत्रकारिता के शीर्ष पदों पर वे नहीं पहुंच सकी हैं।

आजकल संपादक बनने के लिए जरूरी योग्यता में खबरों का चयन, समाचार पत्र का कुशल प्रबंधन,  प्रतिस्पर्धी अखबारों से मुकाबले के लिए स्पष्ट दृष्टि के अलावा कूटनीतिक तौर पर सफल नेतृत्वकर्ता होने की अपेक्षा की जाती है। महिलाएं इन कसौटियों पर भी खरी उतरती हैं।

पर महिलाओं के संपादक न बन पाने का कारण ढूंढने पर हमारे पर एक वरिष्ठ पत्रकार साथी कहते हैं कि इसके समाजिक कारण ज्यादा हैं। अक्सर संपादक की नियुक्ति अखबार का प्रबंधक यानी मालिक करता है। पर ये प्रतीत होता कि उसे ज्यादातर मामलों में महिलाओं की योग्यता और कार्यक्षमता पर भरोसा नहीं पाता।
क्या महिलाएं पक्षपात का भी शिकार होती हैं। इस पर अगर महिला पत्रकारों की राय जानें तो उन्हें लगता है कि हां ऐसा खूब होता है। वे काम पूरी दक्षता और योग्यता से करती हैं। पर उन्हें अपने पुरूष साथियों की तरह प्रोन्नति नहीं मिलती। लिहाजा वे न्यूजरूम में समाचार संपादक जैसे पद तक कम ही पहुंच पाती हैं।

महिलाएं मौका मिले तो अपना दमखम दिखा सकती हैं। इसका उदाहरण मैं देश के सबसे बड़े अखबारों में से एक समाचार पत्र हिन्दुस्तान में देखता हूं। वहां मुख्य संपादक शशि शेखर ने महिलाओं को जनरल डेस्क पर अपनी प्रतिभा दिखाने का मौका दिया है। यहां अखबार के सेंट्रल डेस्क के प्रभारी के तौर पर एक महिला पत्रकार रावी द्विवेदी कई सालों से अपनी जिम्मेवारी बखूबी निभा रही हैं।  वहीं समाचार पत्र के न्यूज प्लानिंग विभाग के प्रभारी के तौर पर एक और महिला पत्रकार मीना त्रिवेदी भी कई सालों से अपनी काबिलियत का परिचय दे रही हैं। ये चंद उदाहरण हैं जिसके आधार पर कहा जा सकता है कि जहां महिलाओं को मौका मिला है उन्होंने अपनी योग्यता का परिचय दिया है। सबसे बड़ा सवाल है कि अगर मौका ही नहीं मिलेगा तो  किसी की काबिलियत का पता कैसे चलेगा।

एक महिला पत्रकार जाहिदा लिखती हैं – मीडिया में अब भी स्त्रियों के प्रति वर्षों पुरानी सोच पर कायम है। मीडिया आज भी स्त्रियों को घर-परिवार या बनाव-श्रृंगार तक ही सीमित मानती है। इलेक्ट्रॉनिक मीडिया, टेलीविजन धारावाहिकों, समाचार चैनलों  और टेलीविजन विज्ञापनों ने महिला की एक दूसरी छवि बनाई है। इनमें एक नई किस्म की महिलाओं को दिखलाया जाता है जो परंपरागत शोषण और उत्पीडन से तो मुक्त दिखती हैं, लेकिन वह स्वयं पुरुषवादी समाज के लिए उपभोग की वस्तु बन कर रह जाती हैं। इन दिनों हमारा इलेक्ट्रॉनिक मीडिया मुक्त महिला का जो रूप दिखाता हैवह उपभोक्ता महिला का ही रूप है जो सिगरेट पीती है शराब पीती है और जुआ खेलती है। इनमें अधिकतर उच्च मध्य वर्ग की महिलाओं की इसी छवि को दिखाया जाता है। मीडिया विज्ञापनों, धारावाहिकों और फिल्मों के भीतर महिला का निर्माण करते हुए यह भूल जाता है कि भारत की शोषित, दमित महिला की मुक्ति का लक्ष्य बाजार में साबुन बेचने वाली महिला नहीं हो सकती।

मीडिया संस्थानों में खासकर प्रिंट मीडिया में महिलाओं को अपनी नियुक्ति को लेकर अक्सर भेद-भाव का सामना करना पड़ता है। मीडिया संस्थानों के मालिक और संपादकों का माइन्ड सैट ही कुछ इस तरह का हो गया है कि वे लड़कियों को प्रिंट मीडिया के रिर्पोटिंग के काबिल ही नहीं समझते। यदि लड़कियां जैसे-तैसे अपनी काबिलियत की दम पर नौकरी में आ भी जाएं तो वे इन संस्थानों में सर्वोच्च पदों तक नहीं पहुंच पातीं।

कुछ साल पहले मीडिया स्टडीज ग्रुप के अनिल चमड़ियाजीतेन्द्र कुमार और सीएसडीएस के योगेन्द्र यादव ने हिन्दीअंग्रेजी राष्ट्रीय मीडिया के प्रमुख पदों पर कार्यरत लोगों की सामाजिक पृष्ठभूमि का सर्वे किया था। जिसके नतीजे बेहद चौंकाने वाले थे। इस रिपोर्ट के मुताबिक हिन्दीअंग्रेजीउर्दूप्रिंट व इलैक्ट्रानिक मीडिया में महज तीन फीसदी महिलाएं ही आला ओहदों तक पहुंच पाती हैं।

वरिष्ठ पत्रकार प्रवीण बागी सवाल पूछने के अंदाज में कहते हैं - मीडिया (इलेक्ट्रॉनिक्स और प्रिंट दोनों ) में नारी सशक्तिकरण की बहुत वकालत होती है लेकिन किसी संस्थान के सर्वोच्च पद पर महिला नजर नहीं आती। कई वर्ष पहले मृणाल पांडे हिंदुस्तान की संपादक बनी थीं उनके बाद फिर कोई नाम सुनाई नहीं दिया। ऐसा क्यों है अगर मैं भूल रहा हूँ तो कृपया सुधारें। अख़बारों के मुकाबले न्यूज़ चैनेलों में महिलाएं ज्यादा हैं लेकिन प्रभावी भूमिका में नहीं हैं। क्या महिलाएं इस योग्य नहीं है की उन्हें संस्थान का प्रमुख बनाया जा सके आपखासकर महिला पत्रकार इसपर क्या सोचती हैं ? ( प्रवीण बागी, प्रिंट और टीवी के वरिष्ठ पत्रकार,  ईटीवी, फेसबुक वाल पर)

नवभारत टाइम्स के ब्लाग पर पत्रकार रमेश यादव लिखते हैं - अधिकतर महिला पत्रकार और कर्मी करियर और भविष्य की चिंता में श्रम शोषण, दैहिक शोषण और यौन शोषण के खिलाफ खुला विद्रोह नहीं कर पातीं, जिस दिन उन्हें निष्पक्ष न्याय की गारंटी मिल जाये, उस दिन देखिएगा आश्चर्य जनक मामले सामने आएंगे। आसाराम-साईं जैसे। 

भारतीय मीडिया में जितने ब्रह्मचर्यवादी (महात्मा गांधी की तरह) प्रयोगवादी हैं, वे सब इन दिनों महिलाओं की अस्मिता, दैहिक शोषण, यौन शोषण-उत्पीड़न के ख़िलाफ उठ खड़े हुए हैं और त्वरित न्याय के लिए चिचिया रहे हैं। मर्दवादी मीडिया में महिलाओं के पक्ष में एक साथ इतने 'अजानआप कभी नहीं सुने होंगे। मर्दों का मर्दों के खिलाफ मंथन। मीडिया में बहस का यह अभियान भारतीय मर्दों का सेक्स और सेक्सुअल छायावाद के खिलाफ अपने तरह का बड़ा अभियान जान पड़ता है। इसमें जितने पुरूषनुमा पत्रकार और बहसबाज विशेषज्ञ शामिल हैं या हो रहे हैं या बयान दे रहे हैं, वो इस छायावाद से अलग दूसरे किस्म के 'छायावादके प्रवक्ता जान पड़ते हैं 

निष्कर्ष
हम यह देख रहे हैं कि हिन्दी पत्रकारिता की मुख्य धारा में पुरूषवादी मानसिकता महिलाओं को नेतृत्व के लिए आगे आने से रोकती है। ज्यादातर पुरूषवादी संपादक महिलाओं को जिम्मेवारी के पदों पर प्रोन्नति देने के बारे में नहीं सोचते। इस कारण से महिलाएं पत्रकारिता की नौकरी में प्रवेश तो पाती हैं पर उन्हें पुरूष पत्रकारों के समान प्रोन्नति नहीं मिल पाती है। इसके कारण प्रतिभाशाली महिला पत्रकार उच्च पदों पर नहीं पहुंच पातीं। ये एक ऐसा विषय है जिस पर कानून बनाकर नियमन नहीं किया जा सकता। पत्रकारिता में ज्यादातर पदों पर नियुक्तियां पारदर्शी तरीके से नहीं होती। यहां सूचना के अधिकार जैसा कोई कानून काम नहीं करता है। लिहाजा महिलाओं के पास अपने संघर्ष के लिए कोई कानूनी अधिकार नहीं होता। कई मामलों में तो वह वरिष्ठता की ओर अग्रसर होने के दौरान निराश होकर नौकरी छोड़ देती हैं और घर संभालने लगती हैं। बिना इस पुरूषवादी सोच के बदलाव के महिलाओं के उच्च पदों पर काबिज होने की बात नहीं सोची जा सकती।
REF-
1.   पुस्तक - महिला पत्रकारिता, सुधा शुक्ला, प्रभात प्रकाशन ( संस्करण 2012)
2.   पुस्तक - महिला पत्रकार और पत्रिकाएं – प्रेमनाथ चतुर्वेदी ( )
3.    लेख -मर्दवादी मीडिया,महिलाएं और मुद्दे- रमेश यादव -नवभारत टाइम्स ( रीडर्स ब्लाग) Friday December 13, 2013
4.    रिपोर्ट - STATUS OF WOMEN JOURNALISTS IN INDIA – Press Institute of India
5.    www.fcacebook.com  ( प्रवीण बागी की वाल से )

-         विद्युत प्रकाश मौर्य  Email – vidyutp@gmail.com
यह शोधपत्र 12 अगस्त 2015 को दिल्ली विश्वविद्यालय के दौलतराम कालेज और भारतीय जन संचार संघ की ओर से आयोजित राष्ट्रीय संगोष्ठी में पढ़ा गया आयोजन स्थल – जीटीबी कालेज सभागार. )

About Writer
Vidyut Prakash Maurya,  A journalist and Media teacher.

BA (Hons.) BHU, MA (History) BHU, PG DIPLOMA in Journalism from IIMC, Delhi, Master in Mass communication from GJU, Hisar, UGC NET in Mass communication.
19 years in Print , TV Media, Teaching and Research. Presently working as Chief  Content  Creator in HT Media Group, New Delhi.


  



Saturday, 15 August 2015

नागालैंड में असली सिरदर्द है खापलांग गुट

भले ही केंद्र सरकार ने 3 अगस्त को एनएससीएन आईएम के साथ शांति वार्ता का ऐलान कर वाहवाही लूट ली हो पर, नगालैंड में एनएससीएन (खापलांग) गुट असली सिरदर्द बना हुआ है। यह बेहद खतरनाक संगठन है। इसके पास 2000 उग्रवादी हैं और यह म्यांमार से संचालित हो रहा है। इसके नेता खापलांग फिलहाल यांगून में हैं।

एनएससीएन (आईएम) के साथ भले ही शांति समझौता हो गया है पर खापलांग गुट से कोई वार्ता नहीं हो सकी है। खापलांग गुट की स्थापना 30 अप्रैल, 1988 को हुई थी। यह संगठन मूल नागा अलगाववादी संगठन एनएससीएन में दो नागा जातीय समूहों- कोंयाक और तांग्खुल- में विवाद का परिणाम था। कोंयाक तबके ने खोले कोंयाक और एसएस खापलांग के नेतृत्व में एनएससीएन (के) बनाया।

27 मार्च 2015 को एनएससीएन (खापलांग गुट) ने संघर्ष विराम से अलग होने के ऐलान किया।

04 जून को एनएससीएन (के) ने असम राइफल्स पर हमला किया जिसमें 18 जवान शहीद हो गए।

07 जून 2015 को फिर एनएससीएन (के) के उग्रवादियों से असम राइफल्स के शिविर पर गोलीबारी की।

छह दशक पुरानी है नगा समस्या
नगालैंड के उग्रवादी संगठनों के साथ शांति वार्ता करके सरकार ने छह दशकों पुरानी समस्या को खत्म करने की कोशिश की है। पर ये वक्त बताएगा कि शांति की पहल को राज्य में सक्रिय सभी उग्रवादी संगठन कितनी शिद्दत से स्वीकार करते हैं।

1946 में नगा नेशनल काउंसिल को पंडित नेहरु ने भरोसा दिया था कि वे भारत में शामिल हों उनकी स्वायतत्ता का सम्मान किया जाएगा।
1956 में नगा जनजाति ने पहली बार विद्रोह किया। लेकिन ये जनजातियां जल्द ही नरमपंथी और उग्रपंथी में दलों में विभाजित हो गईं।
1957 में यह केंद्र शासित क्षेत्र बना इसे नगा हिल्स तुएनसांग कहा गया। असम के राज्यपाल इसका शासन देखते थे।
1963 नगालैंड राज्य का गठन हुआ। यह भारत का 16वां राज्य था।
16 प्रमुख जनजातियां रहतीं हैं नागालैंड में जो अपनी पहचान बनाए रखना चाहती हैं।
1950 के दशक से ही नगालैंड का क्षेत्र उग्रवाद का शिकार रहा है।
1997 अगस्त से युद्धविराम का पालन कर रहा था एनएससीएन (आई-एम), केंद्र सरकार से वार्ता के होने के बाद

सक्रिय उग्रवादी संगठन - एनएससीएन (आईएम)

नगालैंड का सबसे बड़ा उग्रवादी संगठन नेशनल सोशलिस्ट काउंसिल ऑफ नागालैंड  (आईएम) है। इसका गठन 1980 में हुआ। यह तांग्खुल तबके का प्रतिनिधित्व करता है इसके नेता आइजक चिसी स्वू और टी मुइवा हैं। ये दोनों नेता लंबे समय तक नीदरलैंड में रहकर राज्य में उग्रवादी गतिविधियों का संचालन करते रहे।

प्रमुख मांगें
2010 की वार्ता में टी मुइवा ने अपनी 30 सूत्री मांगों की सूची सौंपी थी।
ग्रेटर नगालैंड - एनएससीएन (आई-एम) और नागालैंड के कुछ अन्य संगठन उत्तरपूर्वी राज्यों के नागा इलाके के एकीकरण की मांग करते रहे हैं।  वे मणिपुर, असम और अरुणाचल के नागा-बहुल इलाकों को वर्तमान नागालैंड राज्य में मिलाकर ग्रेटर नागालिम के निर्माण की मांग करते रहे हैं। मणिपुर को इस मांग से खासतौर पर विरोध है क्योंकि उसका 60 फीसदी हिस्सा इसमें चला जाएगा।
टी मुईवा की प्रमुख मांगों में से एक है नगालैंड को संप्रभुत्ता और स्वायत्ता देने की। भारत सरकार संप्रभुत्ता पर विचार नहीं कर सकती।

असम से भी है सीमा विवाद – 1972 में नगालैंड और असम के बीच सीमा समझौता हुआ पर इसे नगा संगठन नहीं मानते।

वार्ता के प्रयास
2003 में नीदरलैंड की राजधानी एम्सटर्डम में एनएससीएन आईएम के नेताओं से भारत सरकार के प्रतिनिधिमंडल ने वार्ता की थी। इनके बाद ही नगा नेता इसाक चिसी स्वू और थ्येंगलांग मुईवा 36 साल बाद जनवरी 2003 में बातचीत के लिए सरकारी तौर पर दिल्ली आए। तीन दिनों तक आधिकारिक वार्ता में कुछ खास प्रगति नहीं हुई।

60 दौर से ज्यादा बातचीत हो चुकी है एनएससीएन-आईएम और भारत सरकार के प्रतिनिधिमंडल के बीच।
2005 में के बार टी मुईवा ने नगालैंड को स्वतंत्र संप्रभु देश बनाए जे की मांग एक इंटरव्यू में दुहराई।
2010 में मणिपुर सरकार द्वारा एनएससीएन (आइएम) के नेता मुइवा को अपने गांव जाने की इजाजत नहीं देने के कारण दो महीने तक नागा संगठनों ने राज्य की नाकेबंदी कर दी थी।

अवैध वसूली का नेटवर्क
नागलैंड में राज्य के संस्थानों की असफलता से उग्रवादी संगठनों ने अवैध वसूली का नेटवर्क तैयार कर लिया है। राज्य में बिना अंडरग्राउंड टैक्स के कारोबार नहीं किया जा सकता। स्थानीय लोगों के बीच हिंसा का सहारा लेकर उग्रवादी संगठनों ने अपनी पैठ मजबूत कर ली है।

- vidyutp@gmail.com
( NAGALAND, NSCN IM ) 


Friday, 14 August 2015

प्रिंट मीडिया में महिलाओं की भागीदारी पर सार्थक चर्चा

खालसा कालेज, दिल्ली विश्वविद्यालय में राष्ट्रीय सेमिनार

भारतीय जन संचार संघ और दौलतराम कालेज दिल्ली विश्वविद्यालय की ओर से एक राष्ट्रीय सेमिनार का आयोजन दिल्ली विश्वविद्यालय के खालसा कालेज सभागार में 12 अगस्त को कराया गया। इस सेमिनार में देश के अलग अलग राज्यों से 40 से ज्यादा विद्वानों, जन संचार के शिक्षकों और पत्रकारों ने अपने विचार रखे।
कार्यक्रम के उदघाटन सत्र में माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता विश्वविद्यालय, भोपाल के कुलपति प्रो.बीके कुठियाला, लोकसभा के महासचिव पीडी अचारी, आकाशवाणी के पूर्व समाचार वाचक कृष्ण कुमार भार्गव, महामंडलेश्वर संत स्वामी मार्तंड पुरी, प्रो. कुमद शर्मा, दिल्ली विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग के अध्यक्ष प्रो. हरिमोहन शर्मा, हंसराज महाविद्यालय की प्रिंसिपल डा. रमा शर्मा, दौलतराम कालेज की प्रिंसिपल सविता राय वरिष्ठ महिला पत्रकार अपर्णा द्विवेदी ने अपने विचार रखे। 

भारतीय जन संचार संघ के निदेशक प्रो. रामजीलाल जांगिड ने विषय प्रवेश करते हुए कहा कि ईश्वर ने महिलाएं अपनी भूमिका को लेकर रामायण काल से ही सवाल उठाती रही हैं। लक्ष्मण जब सीता को वन में छोड़ने जा रहे थे तब सीता ने भी राम से कई सवाल किए थे। आज मुद्रित माध्यम में महिलाओं की भागीदारी पर सवाल उठना भी लाजिमी है।

प्रो. बीके कुठियाला ने कहा कि विज्ञान कहता है कि महिलाओं में संकटकाल में संघर्ष करने की क्षमता महिलाओं में पुरुषों से ज्यादा है। यानी महिलाओं को प्रकृति ने ही पुरुषों से बेहतर बनाया है। आज मीडिया में महिलाओं की भागीदारी बढ़ रही है। इलेक्ट्रानिक मीडिया में जहां 40 फीसदी महिलाएं काम कर रही हैं वहीं प्रिंट मीडिया में 22 फीसदी महिलाएं काम कर रही हैं।

 वहीं स्वामी मार्तंड पुरी ने कहा कि महिलाएं पुरुषों से हर मामले में श्रेष्ठ हैं। उन्होंने प्रसंगवश जिक्र किया कि मैंने सुप्रीम कोर्ट में एक जनहित याचिका लगा रखी है जिसमें हर दस्वावेज में माता का नाम अनिवार्य रूप से लिखे जाने की मांग की गई है। स्वामी मार्तंड पुरी ने कहा कि मां होने जहां सत्य है वहीं पिता का होना एक विश्वास है।
सेमिनार में दिल्ली, हरियाणा, पंजाब, चंडीगढ़, मुंबई, उत्तर प्रदेश समेत देश के अलग अलग हिस्सों से 40 से अधिक लोगों ने अपने शोध पत्र प्रस्तुत किए।

भारतीय जन संचार संघ और दौलत राम कालेज का आयोजन

सेमिनार में प्रो. शिल्पी झा ने महिलाओं के नाम टीवी और अखबारों में होने वाली पत्रकारिता के संदर्भ में कहा कि महिलाओं के मुद्दे पर सनसनी फैलाने वाले या फिर उनके प्रति सहानुभूति जताने वाली पत्रकारिता नहीं होनी चाहिए। बल्कि पत्रकारिता को हमेशा सच के साथ रहना चाहिए।अगर महिला भी अपराधी है तो हमें वहीं चेहरा दिखाना चाहिए। इसी क्रम में निभा सिन्हा ने महिला पत्रिकाओं के संदर्भ सामग्री का पाठकों की नजरों से तुलनात्मक विश्लेषण पेश किया। 


विद्युत प्रकाश मौर्य ने अपने शोध पत्र में मुद्रित माध्यम में महिला पत्रकारों की समाचार पत्रों में उच्च पदों पर कम भागीदारी होने पर चिंता जताई। उनके मुताबिक मुद्रित माध्यम में बड़े पदों पर महिलाओं को मौके कम मिलते हैं। जहां मौका मिला है महिलाओं ने बेहतर काम करके अपनी उच्च दक्षता का परिचय दिया है। 

कार्यक्रम में धन्यवाद ज्ञापन करते हुए प्रो. प्रदीप माथुर ने मीडिया में भाषा के गिरते स्तर पर चिंता जताई। उन्होंने कहा कि हमें महिला उत्पीडन और बलात्कार जैसे मामलों की खबरों में संवदेनशील होना चाहिए।सेमिनार के दौरान पंजाब यूनिवर्सिटी चंडीगढ़ के गुरमीत सिंह, गुरनानक देव यूनीवर्सिटी अमृतसर की नवजोत ढिल्लन ने अपने शोध पत्रों में ज्वलंत मुद्दों को उठाया।

सेमिनार की संयोजक डा. साक्षी चावला थीं, जबकि डा. सीमा रानी, डा. वंदना त्रिपाठी, श्रीमती गीतांजलि कुमार ने आयोजन में सक्रिय भागीदारी निभाई। भारतीय जन संचार संघ के अध्यक्ष डा.रामजीलाल जांगिड ने बताया कि सेमिनार में प्रस्तुत सभी शोध पत्रों को पुस्तक रुप में प्रकाशित किया जाएगा।

- रिपोर्ट – माधवी रंजना  

Sunday, 12 July 2015

मैजिक का मैजिक ( व्ंयग्य)

ये टाटा वालों ने बहुत शानदार गाड़ी बनाई है मैजिक। इसमें बैठी सवारियों को देखकर लगता है इसका नाम मैजिक बड़ा ही मुफिद है। कहने को तो यह सेवेन सीटर है। पर इसमें सात की जगह 17 लोग कैसे बिठाए जा सकते हैं ये समझना है तो आपको एक बार सशरीर मैजिक में सफर करना ही पडेगा। महानगर में सफर करने वाले कई लोगों ने मैजिक का जादू देखा होगा। तीन की सीट वाली जगह पर चार सवारी बैठते हैं। गाडी के आंतरिक सज्जा में थोड़ा बदलाव कर बीच में दो सीटें और लगा दी गई हैं। तो जनाब छह की जगह आठ हो गए। दो अतिरिक्त सीटों पर पांच लोग तो इस तरह हो गए 13 लोग। 

गिनते जाईए। आगे की सीट पर एक सीट पर दो लोग तो हो गए ना 15 और ड्राइवर क बगल में एक और लटक गया तो हो गए ड्राइवर समेत 17 ना। अभी इसमें खालासी भी साथ होता है तो वह गेट पर लटककर सवारी को रास्ते में आवाज लगाता हुआ चलता है। इस तरह 17 लोगों को शान से लेकर लुढकती हुई चलती है टाटा की मैजिक अपनी मंजिल की ओर। कई बार खाते पीते घरों की तंदुरुस्त महिलाएं ( मोटी नहीं कहेंगे अपमान होगा) आ जाती हैं तो तीन की जगह 4 के बैठने में एतराज करती हैं तो खालासी उन्हें कहता है कि या तो दो सवारी के पैसे दो या फिर अगली मैजिक का इंतजार करो। अब क्या करें मोहतरमा को बैठना ही पड़ता है। 

मैजिक खूब मेल कराती है। अनजान सवारियों को भी काफी एक दूसरे से चिपकर बैठना पड़ता है। मानो फेविकोल का मजबूत जोड़ हो। ये मंजिल आने के बाद ही अलग हो पाता है। तब तक आप किसी नामचीन ब्रांड के परफ्यूम का आनंद ले सकते हैं। हां कई बार सह सवारी की पसीने की बदबू भी मिल सकती है। ये आपकी किस्मत पर निर्भर करता है। इस बात पर भी निर्भर करता है कि सुबह किसता मुंह देखकर उठे थे। मैजिक वालों का बस चले तो ये छत पर भी सवारी बिठा सकते हैं। पर वे ऐसा नहीं कर पाते। मैजिक के मुकाबले कई गाड़ियां आईं पर वे मैजिक को चुनौती नहीं दे सकीं। क्योंकि जो बात मैजिक में है वह किसी और में कहां।
सात की जगह 17 सवारियां बिठाने के कारण मैजिक ड्राइवरों के घर की तिजोरी भर रही है। भला नाम मैजिक है तो मैजिक तो होगा ही न। ड्राइवर लोग रोज रतन टाटा को ऐसी नायाब गाड़ी के लिए धन्यवाद देते हैं। अगर आपकी जिंदगी बोरिंग है, और आप चाहते हैं कि थोड़ा तूफानी हो तो दिल्ली में तो जरूर किसी मैजिक की सवारी करें। हो सकता है आपको किसी मोहतरमा साहचर्य मिल जाए। और आपकी जिंदगी में भी आ जाए मैजिक। हां मगर अपनी जेब संभाल कर रखिएगा।
- विद्युत प्रकाश मौर्य ( vidyutp@gmail.com)




Tuesday, 26 May 2015

काश मेरा भी खाता स्विस बैंक में होता ( व्यंग्य)

क्या आपका स्विस बैंक में खाता है। अगर खाता ही नहीं है तो आप इस देश के सम्मानित नागरिक कैसे हो सकते हैं। इधर स्विस बैंक ने लगातार उन लोगों के नामों का खुलासा शुरू कर दिया है जिन्होंने अपना अतिरिक्त धन ( मैं काला नहीं कहूंगा) ले जाकर उनके पास जमा कराया था। मैं सोच रहा हूं काश इसमें मेरा भी नाम होता। जब सारे लोग जाकर वहां खाता खोल रहे थे मैं नहीं जा पाया था। वरना आज मेरा नाम भी मीडिया में उछल रहा होता। पर अब पछताए क्या होत जब चिड़िया जुग गई खेत। कभी किसी साहनी, किसी गुप्ता, किसी चड्ढा किसी बिरला किसी कोचर, किसी शर्मा किसी मसूद का नाम आ रहा है तो मुझे रस्क होता है कि इन लोगों की सूची में मेरा नाम क्यों नहीं। मैं इंतजार कर रहा हूं कि स्विस बैंक खाताधारियों की सूची में किसी मौर्य का भी नाम आ जाए तो मैं कह दूंगा कि वह मेरा रिश्तेदार है। मैं न सही तो रिश्तेदार ही सही। मेरा थोड़ा सा मान तो बढ़ेगा ही ना।


मेरे बेटे ने पूछा कि पापा स्विस बैंक में खाता क्यों खोलने गए ये लोग। अपने देश में भी तो बहुत से बैंक हैं। मैंने समझाया उनके पास इतना ज्यादा पैसा हो गया था कि हमारे देश के बैंकों ने रखने से इनकार कर दिया। अब हमारी गगरी तो इतनी कभी भरी ही नहीं कि देश के बैंक पैसा जमा करने से इनकार कर दें। दुनिया का स्वर्ग है स्विटजरलैंड। तो वहां के बैंक भी जरूर शानदार होंगे। तो वहां खाता खोलना और पैसा जमा कराना तो निश्चय ही गर्व की बात होगी।

आज उन उद्योगपतियों के बच्चे ये कह कर अपने दोस्तों के बीच गर्व करते होंगे कि मेरे दादा जी का फलां स्विस बैंक में खाता निकला। क्या तुम्हारे पुरखों ने क्या वहां खाता खोला था कभी। जिन लोगों के स्विस बैंक में खाते का खुलासा हो रहा है वे लोग अचानक खास हो गए हैं। उनके घर रिश्ता करने वाले लड़के वालों की लाइन लगने लगी है। भला दहेज में बोरी भर भर कर नोट मिलने की संभावना है। बहू आएगी उसका भी हो सकता है स्विस बैंक में खाता हो। सोचिए समाज में उनका कितना सम्मान बढ़ गया है। स्विस बैंकों में जिसका खाता जितना पुराना हो वह उतना ही सम्मानित व्यक्ति है। मेरे दादाजी तो किसान थे उनका बैंक खाता खुला ही नहीं था। उस समय ये प्रधानमंत्री जनधन योजना भी नहीं थी खाता खुलवाते भी तो कैसे। मैं शर्म के मारे छोटा हुआ जा रहा हूं कि मेरे परिवार या दूर-दूर तक रिश्तोंदारों में किसी ने स्विस बैंक में खाता नहीं खुलवाया।

-         विद्युत प्रकाश मौर्य

Tuesday, 19 May 2015

आठ लाख की घड़ी 40 हजार का जूता

दस लाख के कोट के बाद अब आग गई है आठ लाख की घड़ी और 40 हजार का जूता। मोदी सरकार के ग्रामीण विकास मंत्री हैं चौधरी वीरेंद्र सिंह। उन्होंने यूपी के अमरोहा में अपनी अमीरी का बखान सरेआम मंच से किया। और बताया कि वे इतनी मंहगी घड़ी और जूते पहनते हैं। मंत्री जी उस विभाग के हैं जो देश के किसानों से जुडा है। उनके पास जिम्मेवारी देश में हर रोज आत्महत्या कर रहे किसानों के जख्मों पर मरहम लगाने की है। वैसे भी मोदी जी ने वादा किया था मेरी सरकार आएगी तो कोई किसान आत्महत्या नहीं करेगा। पर ये मंत्री जी तो किसानों के बीच जाकर मंच से अपनी अमीरी का बखान कर रहे हैं। आठ लाख की घड़ी। कितने होते हैं आठ लाख। एक गरीब किसान का परिवार इस आठ लाख से आठ से दस साल तक अपने परिवार का पेट भर सकता है मंत्री जी।

आज बापू की आत्मा रो रही होगी। आजाद भारत में 70 साल बाद मंत्री आठ लाख की घड़ी पहनते हैं। बापू तो अपनी धोती फट जाने पर गमछा बनाते थे फिर गमछे के फटने पर रुमाल। मंत्री जी का मंत्रालय उसी महात्मा गांधी के नाम पर किसानों को राहत देने वाला मनरेगा कार्यक्रम चलाता है। सवाल है कि क्या इस देश में इतना शाहखर्च मंत्री होना चाहिए तो आठ लाख की घड़ी और 40 हजार के जूते पहने और सार्वजनिक तौर इसका दिखावा भी करे।

एक पुरानी कहावत है कि जब रोम जल रहा था तो नीरो बंसरी बजा रहा था। क्या हम इतने संवेदनहीन हो गए हैं कि किसान आत्महत्या कर रहे हैं और हम उन्हें अपनी कलाई पर बंधी 8 लाख की घड़ी दिखा रहे हैं। ये हमारी गरीबी का विद्रूप मजाक है मंत्री जी।  किसी शायर ने कहा है-
तुम शौक से मनाओ जश्ने बहार यारों ...इस रोशनी में लेकिन कुछ घर जल रहे हैं...
चौधरी साहब आप भी अपनी घड़ी और जूते नीलाम कर दीजिए...इससे सैकड़ो किसानों के घरों में महीनों चूल्हा जल सकता है...