दिल्ली के बहुमंजिले इमारत के छोटे से
फ्लैट में कैद होना...
ये किसी कारावास की तरह ही तो है...
आप खिड़की से झांक सकते हैं
पर बाहर कदम नहीं रख सकते।
इस अकेलेपन के बीच
बचपन का गांव खूब याद आया
नहर के किनारे का पीपल का पेड़
जेठ की दुपहरी में जिसकी छांव
भली लगती थी
कुएं के किनारे वो नीम का पेड़ भी
अब भी वहीं खड़ा है...
पर हम चाह कर भी
अभी वहां नहीं जा सकते।
गांव में चाचा से बात हुई फोन पर
उन्होंने कहा, सब ठीक है बबुआ
यहां कोई परेशानी नहीं है
आंगन की धूप में बैठो या फिर खेत खलिहान में
घूम के आ जाओ
अपना हाल सुनाओ
कैसे हाल सुनाऊं
मेरे पास आज शब्दों की दरिद्रता है...
भाव शून्य हैं...
मैं ही बड़ा गरीब हूं
चाचा तुम ही अमीर हो...
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--- विद्युत प्रकाश मौर्य
2 comments:
सुन्दर सृजन। सही कहा आपने अभी जो गाँव में है उसी के पास आज़ादी की सम्पत्ति है। उम्मीद है जल्द ही हम इस महामारी से उभरेंगे।
हां उम्मीद है
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