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( 1947 में प्रकाशित उपन्यास धरती के देवता में प्रकाशित तस्वीर) |
हिंदी
फिल्मों के मशहूर पत्रकार संपत लाल पुरोहित से ये साक्षात्कार 1996 में लिया गया
था। ये साक्षात्कार भारतीय जन संचार संस्थान की पत्रिका संचार माध्यम के जनवरी
मार्च 1997 अंक में प्रकाशित हुआ। बुजुर्ग होने पर पुरोहित जी का स्वास्थ्य ज्यादा
ठीक नहीं रहता था। वे ज्यादा देर तक बोल नहीं पाते थे। इसलिए यह साक्षात्कार उनके
दरियागंज स्थित आवास में दो बैठकों में पूरा हुआ। अपने आखिरी दिनों में वे 7 बटा
21 दरियागंज में एक विशाल भवन के आंगन वाले कमरे में किराये पर रहते थे। पुरोहित जी सन 1998 में चल बसे, पर उनकी यादें शेष हैं।
पत्रकारिता
की विभिन्न विधाओं में फिल्म पत्रकारिता का महत्वपूर्ण स्थान है। फिल्म पत्रकारिता
को पत्रकारिता के क्षेत्र में कभी उतनी गंभीरता से नहीं लिया गया जितना लिया जाना
चाहिए था, जबकि फिल्मों का समाज पर व्यापक प्रभाव होता है। ऐसा मानना है कई दशकों
तक फिल्म पत्रकारिता कर चुके विख्यात हिंदी पत्रकार संपत लाल पुरोहित का। संपत लाल
पुरोहित फिल्म पत्रकारिता के क्षेत्र में एक सम्मानित नाम है। आजादी से चार पहले 1943
में फिल्म पत्रकारिता से जुड़े श्री पुरोहित लगभग चार दशक तक अपनी फिल्म पत्रिका युग
छाया का संपादन करते रहे।
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( फोटो सौजन्य - दीपक दुआ ) |
इसके
बाद वे लंबे समय तक देश के प्रमुख हिंदी समाचार पत्रों में फिल्म पर कॉलम लिखते
रहे। इनमें नवभारत टाइम्स, सांध्य टाइम्स, जनसत्ता, हिन्दुस्तान, अमर उजाला, कुबेर
टाइम्स जैसे अखबार प्रमुख हैं। वे फिल्मी दुनिया पत्रिका के लिए लेखन करते रहे। वे
मिस्टर संपत और फिल्म ज्ञानी नाम से कुछ पत्रिकाओं मे पाठकों के फिल्मी सवालों
जवाब भी देते रहे।
जीवन
के 75 वसंत देख चुकने के बाद भी संपत लाल पुरोहित फिल्म पर लेखन में सतत सक्रिय
रहे। प्रस्तुत है संपत लाल पुरोहित से उनकी फिल्म पत्रकारिता पर एक बातचीत।
आपका बचपन
कैसा था, कहां किन परिस्थितियों में गुजरा...
मैं
मध्य प्रदेश धार एस्टेट के एक गांव में पैदा हुआ था। धार अब जिला बन चुका है। मेरा
बचपन अमोदिया ग्राम ( रतलाम के पास ) में गुजरा। मेरा जन्म 1 जून 1922 को हुआ था।
मुझे याद आता है कि प्राथमिक विद्यालय जाने के लिए मुझे प्रतिदिन तीन मिल पैदल
चलना पड़ता था। जब मैं बहुत छोटा सा था तभी पिताजी का देहांत हो गया। माता जी का
भी देहांत हो गया जब मैं तीसरी कक्षा में पढ़ रहा था। भाई बहनों में मैं अकेला था।
तो मेरी पैत्रिक जमीन की देखभाल मेरे मामाजी करने लगे। उन्होंने ही मेरा पालन पोषण
भी किया। चौथी कक्षा की परीक्षा में मैं 11-12 विद्यालयों की संयुक्त परीक्षा में
पहले नंबर पर आया।
उसके
बाद आगे की पढ़ाई के लिए मैं बदनावर चला गया। यह धार जिले का छोटा सा कस्बा है।
वहीं से मैंने मिड्ल पास किया। मेरी नियमित पढ़ाई इंटरमिडिएट यानी 12वीं तक ही
हुई। उसके बाद मैंने प्रभाकर की परीक्षा स्वंतत्र रूप से उत्तीर्ण की।
बचपन
में क्या बनने की सोचते थे...
मुझे
बचपन में गाने और बजाने का खूब शौक था। गांव में छोटी जाति के लोगों की गाने बजाने
की मंडली होती थी, उसमें जाकर मैं शामिल हो जाता था। नौटंकी देखने में मैं सबसे
आगे बैठता था। एक बार हमारे यहां अमर सिंह राठौर की नौटंकी आई। इसमें मैंने हाड़ी
रानी का रोल किया। मेरी माता जी को यह बहुत पुरा लगा। इसके बाद गाने बजाने का साथ छूट गया।
फिल्मों
से लगाव कब हुआ...
मैट्रिक
का इम्तहान देने के बाद जब मैं इंदौर गया तब पहली बार बोलती फिल्म कंगन देखी। इसमें
अशोक कुमार और लीला चिटनिस थे। उससे पहले पहली बार बदनावर में ही चंद्रहास नामक
मूक फिल्म देखी थी।
वह कौन
सी घटना थी जिससे आपका जीवन बदल गया...
बदनाव
में मैं एक डॉक्टर साहब के पास रहता था। एक दिन उनके पास एक सज्जन बैठे थे। उनका
नाम था रामचंद्र द्विवेदी उर्फ कवि प्रदीप। उसी समय नित्यानंद जी महाराज हरिद्वार
में प्रणव मंदिर बनवा रहे थे। इस मंदिर के उद्यापन समारोह में हमलोग भाग लेने कवि
प्रदीप के साथ चले गए। दरअसल वहां समारोह में बड़ी संख्या में पंडितों की आवश्यकता
थी। मैं भी पंडित के रूप में इस समारोह में शामिल हुआ। इस समारोह में शामिल होन के
लिए हम जिस ट्रेन से हरिद्वार जा रहे थे, उसमें कवि प्रदीप मथुरा में हमारे साथ
चढ़े। हरिद्वार में कवि प्रदीप रोज रात में नित्यानंद जी महाराज के दरबार में
कविता पढ़ते थे। कवि प्रदीप के साथ एक माह हरिद्वार में रहने का मेरा अनुभव काफी
प्रेरक रहा। उसके बाद मैं बदनावर लौट आया।
लेखन
के प्रति कैसे झुकाव हुआ...
जो
मैंने पहली बोलती फिल्म कंगन देखी थी उसमें कवि प्रदीप ने ही गीत लिखे थे। उसके
बाद फिल्मों से मेरा झुकाव बढ़ता गया। इसी दौरान मैंने कविताएं और कहानियां भी
लिखनी शुरू कर दीं। उन दिनो मुंबई से दो फिल्म पत्रिकाएं आती थीं। एक गुजराती की
मौजमजा हुआ करती थी। मैं इनका नियमित पाठक बन गया। इंदौर हिंदी साहित्य सम्मेलन की
पत्रिका निकलती थी। इसके संपादक कालिका प्रसाद कुसुमाकर दीक्षित थे। साल 1938 में
वीणा पत्रिका में मेरी पहली कविता प्रकाशित हुई।
फिल्म
पत्रकारिता की तरफ झुकाव कैसे हुआ...
बदनावर
में रहते हुए दिल्ली से प्रकाशित प्रथम फिल्म पत्रिका चित्रपट का नियमित पाठक बन
गया। इस दौरान मेरे ऊपर फिल्मों का काफी प्रभाव बढ़ गया था। मैं रंग बिरंगे कपड़े
पहनकर फिल्म सितारों की नकल किया करता था। फिल्म स्टार मजहर खान धार के रहने वाले
थे। उन्होंने पड़ोसी फिल्म में काफी अच्छी भूमिका निभाई थी। एक बार उनके धार आने
पर मैं उनसे जाकर मिला। मैंने बताया कि मैं चित्रपट में नियमित लिखता हूं और आपका
साक्षात्कार लेना चाहता हूं। वे इंटरव्यू देने को तैयार हो गए। इस प्रकार मेरा
पहला फिल्मी साक्षात्कार सन 1938 में चित्रपट में प्रकाशित हुआ। तब मेरी सिर्फ 16
साल की थी। इस प्रकार मेरी फिल्म पत्रकारिता की शुरुआत हुई। इससे पहले मैंने
प्रेमचंद का सारा साहित्य पढ़ डाला था। कवि गोष्ठियों में हिस्सा लेने लगा था।
उन किन
लोगों का नाम लेना चाहेंगे जो आपके लेखक पत्रकार निर्माण में सहायक रहे...
इसमें मैं कवि प्रदीप पहला नाम लेना चाहूंगा। उनके सानिध्य में रहकर काफी कुछ सीखने को मिला। प्रेमचंद साहित्य का मैंने काफी अध्ययन किया था, इसलिए उनकी लेखनी से प्रभावित रहा। धार में रहते हुए मैं कांग्रेस सेवा दल का सक्रिय सदस्य बन गया था। सेवा
दल में काम करते हुए उसकी समाजसेवा से जुड़ी गतिविधियों से भी प्रेरणा मिली।
आपका धार से दिल्ली
कैसे आना हुआ ...
लंबे
समय से मैं दिल्ली से प्रकाशित चित्रपट पत्रिका के लिए लिख रहा था। एक दिन चित्रपट पत्रिका की ओर से एक तार मिला
की आप दिल्ली आ जाएं। लिखा था, आपको हम संपादकीय विभाग में बहाल करना चाहते हैं। 1933 से प्रकाशित हो रही इस पत्रिका को ऋषभ चरण जैन ने निकाला था। यह देश की सम्मानित फिल्म पत्रिका थी। बस मैंने
दिल्ली का टिकट खरीदा और ट्रेन में सवार होकर पहुंच गया देश की राजधानी में। दिल्ली
में लंबे समय तक मैं 1092 सतघरा, धर्मपुरा मुहल्ले में रहा।
आज
मीडिया जगत फिल्म पत्रकारिता को जितना महत्व दिया जा रहा है वह पर्याप्त है या फिर
और स्थान मिलना चाहिए...
इस समय
भी या इससे पहले भी फिल्म पत्रकारिता को कभी ज्यादा महत्व नहीं मिला। फिल्म
पत्रकारिता में बहुत से लोग ऐसे हैं जो अपने विषय का गहरा ज्ञान नहीं रखते। परंतु
लिखते जा रहे हैं। ऐसे लोगों ने फिल्म पत्रकारिता को बड़ा अहित पहुंचाया है।
अगर आप
फिल्म समीक्षक हैं तो आपको कैमरा मूवमेंट, लाइट, लोकेशन जैसी तकनीकी समझ भी होनी
चाहिए। कहानी पक्ष का ज्ञान होना चाहिए। फिल्म देखते समय उन बातों को उजागर करना
जरूरी है जो निर्देशक और कलाकार के दिमाग में नहीं आई हो।
फिल्मों
की अच्छी समीक्षा कैसी होनी चाहिए...
अच्छी
समीक्षा के लिए निष्पक्ष दृष्टिकोण का होना आवश्यक है। निर्माता निर्देशक कलाकार
सबके प्रति आपकी दृष्टि साफ होनी चाहिए। कथाकार, संवाद लेखक, गीतकार आदि के विषय
में भी निष्पक्ष भाव होना चाहिए। ऐसा नहीं होना चाहिए कि फलां प्रोड्यूसर या
आर्टिस्ट मेरा दोस्त है तो उसके लिए अच्छा नहीं लिखा तो वह नाराज हो जाएगा।
रामानंद
सागर से मेरी अच्छी दोस्ती रही. पर मैंने कभी उनके लिए आशक्त होकर समीक्षा नहीं
लिखी। सबसे महत्वपूर्ण है कि फिल्म की कहानी का देश और समाज पर क्या प्रभाव पड़ता
है, यह बताना जरूरी है।
फिल्म
पत्रकारिता आजकल जन संपर्क (पीआर) बनकर रह गई है। इस पर आपके क्या विचार हैं...
मैं इस
विचार से काफी हद तक सहमत हूं। आज जन संपर्क अधिकार प्रकार के लोग फिल्मी पत्रकारों पर हावी
होने की स्थिति में हैं। पत्रकारों के पास अपने स्रोत नहीं है। वे इस मामले में
पीआरओ पर आश्रित हैं। जब आप पीआरओ से सुविधाएं प्राप्त करेंगे तो वह आपसे अपेक्षा रखेगा
कि आप वैसा ही लिखो जैसा कि वह चाहता है।
फिल्म
पत्रकारिता में गॉसिप का क्या महत्व है...
बिना
आग के धुआं नही होता। और बिना धुआं के भी आग का आभास हो जाता है। चीजें होती हैं, और
अखबारों में आती हैं। उसका प्रोफेशन से संबंध नहीं होता। जैसे उसका उससे रोमांस चल
रहा है। दोनों साथ देखे गए हैं। कुछ बातें होती हैं। कुछ बातें पत्रकारों द्वारा
गढ़ ली जाती हैं। अतः फिल्मी पत्रिकाओं में काफी कुछ गॉसिप प्रकाशित होता रहता है।
चूंकि आम आदमी को अपने हीरो के व्यक्तिगत जीवन के बारे में भी जानने की इच्छा रहती
है। इसलिए यह सब कुछ मजे लेकर पढ़ा जाता है।
कई बार
कलाकार खुद दूसरे कलाकार पर इस तरह के आरोप लगाते हैं। इन सब चीजों को सरासर गप
नहीं कहा जा सकता। जब दुर्गा खोटे और मुबारक साथ-साथ रहते और घूमते थे तो उनके
बारे में लोगों ने खूब लिखा। परंतु तील का ताड़ बना लिया जाना भी उचित नहीं कहा जा
सकता।
अब तक
के जीवन में जो कार्य किए हैं उनमें से
कौन सा ऐसा कार्य है जिसे करके आपको सर्वाधिक संतोष हुआ है..
चित्रपट के संपादकीय टीम से अलग होकर मैंने
अपनी फिल्म पत्रिका युग छाया निकाली। वह 1947 का साल था, जब देश आजाद हुआ था। यह पत्रिका 1980 तक प्रकाशित होती रही। इसमें
बड़े-बड़े फिल्मी कलाकारों के इंटरव्यू प्रकाशित होते थे। वे फिल्मी सितारे दिल्ली आते थे
तो मुझसे मिलने आते थे। फिल्म स्टार धर्मेंद्र ने तो मेरे लिए दिल्ली में पार्टी का
आयोजन कर मुझे सम्मानित भी किया था। मैंने पूरे जीवन में जो कार्य किए हैं उसे पाठक
भी और फिल्म पत्रकार भी महत्व प्रदान करते हैं। यही सबसे बड़ा सुख है।
इतनी
लंबी साधना में कभी आपका जी उबा है...
जी तो
कभी नहीं उबा। कुछ दुख की घड़ियां आईं पर जिंदगी अपनी रफ्तार से चलती रही। हां, कभी-कभी वित्तीय संकट जरूर आया, जिससे थोड़ी घबराहट हुई, लेकिन फिर सब ठीक होता गया।
फिल्म
पत्रकारिता से जुड़े कुछ यादगार संस्मरण साझा करना चाहेंगे...
राजेंद्र
कुमार और रामानंद सागर से मेरी बड़ी अच्छी दोस्ती थी। जब राजेंद्र कुमार ने लव
स्टोरी फिल्म बनानी शुरू की तो अपनी पूरी टीम के साथ बेटे कुमार गौरव को लेकर
हमारे पास आए। राजेंद्र कुमार ने बेटे का परिचय कराते हुए कहा, ये संपत लाल
पुरोहित जी हैं, मेरे स्टार होने में इनका बड़ा योगदान है। तुम इनके पांव छुओ।
परंतु आजकल के लड़के पांव कहां छू पाते हैं।
एक और
वाकया। जब राज कपूर की बॉबी रीलिज हुई तो कई दिल्ली के पत्रकारों ने बॉबी की अच्छी
समीक्षा नहीं लिखी। इससे बॉबी के सह निर्माता रहे शशि कपूर गुस्सा था। दिल्ली की
एक प्रेस कान्फ्रेंस में शशि कपूर साहब बाहें चढाते हुए बोले, किस किस ने हमारी बॉबी
के खिलाफ लिखा है... हमलोग अवाक थे। अचानक हम बोल पड़े हमने भी कोई चूड़ियां नहीं
पहन रखी है... इस बीच राजकपूर साहब आ गए और मामला शांत हुआ।
कभी
फिल्मों के लिए लिखा...
फिल्मों
के लिए तो कभी नहीं लिखा। परंतु मैंने कई उपन्यास जरूर लिखे थे। जो कई दशक पूर्व
प्रकाशित हुए थे। वे थे – धरती के देवता, मजहब और ईमान, ऊपर नीचे, मालवा की माटी,
भ्रष्टाचार और दो कदम आगे। इन सब उपन्यासों को मैंने अपने प्रकाशन से ही छापा था।
अंधी उपासना नामक उपन्यास एक अन्य प्रकाशन ने छापी थी।
हिंदी
फिल्मों के इतिहास में आप सबसे अच्छा शो
मैन किसे मानते हैं...
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अभिनेता मोतीलाल राजवंश |
शो मैन के तौर पर निर्विवाद
रूप से मैं राज कपूर का ही नाम लूंगा। हां अच्छे निर्देशकों की बात करें तो महबूब
और शांताराम के नाम लूंगा। महबूब खान की 1942 में आई फिल्म रोटी को मैं बेहतरीन फिल्मों में गिनता हूं। फिल्म कहानी पूंजीवाद पर गहरी चोट करती है। इस फिल्म में चंद्रमोहन, शेख मुख्तार और सितारा, अख्तरीबाई फैजाबादी की प्रमुख भूमिकाएं थीं।
आपकी नजर में सबसे अच्छे अभिनेता कौन हैं...
आप अच्छे एक्टर की बात करें तो मोतीलाल का नाम लूंगा। मेरी नजर में तो मोतीलाल अकेले ऐसे एक्टर हुए जिन्होंने भारत में स्वतंत्र और स्वाभाविक अभिनय किया। ( अभिनेता मोतीलाल राजवंश का जन्म 1910 में शिमला में हुआ था , उनका निधन 1965 में हुआ ) दिलीप कुमार ने भी मोतीलाल की नकल की। आगे दिलीप कुमार की नकल अमिताभ बच्चन ने की।
अभिनेत्रियों में सरदार अख्तर जबरदस्त थीं। ( अभिनेत्री सरदार
अख्तर का जन्म 1915 में लाहौर में हुआ था। उन्होंने निर्माता महबूब खान से विवाह
किया था। उनका निधन 1984 में अमेरिका में हुआ। ) वहीं धार्मिक पिक्चरों की बात करें तो इनमें शोभना समर्थ
अच्छी थीं।
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सरदार अख्तर अभिनेत्री |
फिल्मों
और फिल्म पत्रकारिता का भविष्य कैसा लगता है...
देखिए
फिल्मोंका भविष्य फिल्मकारों के हाथ में है। और फिल्म पत्रकारिता का भविष्य फिल्म
पत्रकारों के हाथ में है। वही उसको बना सकते हैं। वही बिगाड़ सकते हैं। फिल्म
पत्रकार ही इसके लिए जिम्मेवार हैं कि वे ऐसा लिखें जो समाज के लिए अभिप्रेरक हो।
अब जब इलेक्ट्रानिक मीडिया का प्रसार हुआ है फिल्म पत्रकार के सामने चुनौतियां
बढ़ी हैं। फिल्म पत्रकारिता में ईमानदारी की बहुत जरूरत है। नए पत्रकारों को चाहिए
कि वे खूब अध्ययन करें और काफी सोच समझकर लिखें। फिल्म निर्माता और पत्रकार दोनों को
अंतररात्मा की आवाज सुननी चाहिए।
----- ( संचार माध्यम के जनवरी मार्च 1997 अंक में प्रकाशित, भारतीय जन संचार संस्थान, नई दिल्ली का प्रकाशन )
पोस्ट स्क्रिट - कुछ लोग दावा करते हैं कि संपत
लाल पुरोहित के उपन्यास - दो कदम आगे की कहानी पर हिंदी फिल्म एक फूल दो माली (1969) बनी थी। यह फिल्म सुपर हिट हुई थी। हालांकि इस फिल्म की कास्टिंग
में कहानी में मुस्ताक जलाली का नाम दिया गया है। पर पुरोहित जी ने मुझसे बातचीत में एक फूल दो माली को लेकर कोई दावा नहीं किया था।
जब मैंने 1996 में कुबेर टाइम्स हिंदी दैनिक में फिल्म, टीवी मनोरंजन के पन्नों पर नौकरी शुरू की तब दिल्ली में तीन वयोवृद्ध फिल्म पत्रकार थे जो कभी भी मिलते थे। वे थे - बच्चन श्रीवास्तव, ब्रजेश्वर मदान और संपतलाल पुरोहित। पुरोहित जी का कालम हमारे अखबार में हर हफ्ते छपता था। यह कालम लेने हमारे दफ्तर का एक चपरासी हर हफ्ते जाया करता था। एक बार वह चपरासी छुट्टी पर था। दफ्तर में पुरोहित जी का फोन आया कॉलम ले जाने के लिए। मैंने फोन उठाया, मैंने कहा, कोई बात नहीं संदेशवाहक नहीं है मैं खुद आ रहा हूं। मैं पहुंच गया दरियागंज के उनके आवास में। लेख प्राप्त करने के बाद पुरोहित जी से थोड़ी बातचीत हुई। उसके बाद चपरासी की ड्यूटी खत्म। हर हफ्ते पुरोहित जी के पास कॉलम लेने मैं खुद जाने लगा। इसके कई फायदे हुए। हर हफ्ते में पुरोहित जी के पास आधे घंटे बैठता। बहुत सारी फिल्म जगत की जानकारियां उनसे मिलतीं। उनके अलबम में फिल्मी पार्टियों की पुरानी तस्वीरें देखता। उनका नेपाली सहायक मुझे चाय के साथ सैंडविच पेश किया करता।
वैसे पुरोहित जी के जीवन में और कई गम थे। बुढ़ापे में अकेले रहते थे। उनके दो बेटों का निधन हो चुका था। बेटी और दामाद थे जो उनसे कभी कभी मिलने आते थे। आखिरी दिनों में प्रेस कान्फ्रेंस में जाना उन्होंने छोड़ दिया था। पर प्रेस शो में फिल्में देखने जाया करते थे। हमने होटल ब्राडवे में फिल्म अभिनय का प्रशिक्षण देने वाली आशा चंद्रा की प्रेस कान्फ्रेंस आयोजित की थी। उसमें मेरे विशेष आग्रह पर पुरोहित जी पहुंचे थे। सात बटा 21 का वह कमरा किराये का था। उस पर भी मकान मालिक से मुकदमा चल रहा था। पर जब तक जीेये पूरी जिंदादिली से रहे।
- विद्युत प्रकाश मौर्य - vidyutp@gmail.com
( SAMPAT LAL PUROHIT, FILM JOURNALIST, DARIYAGANJ, YUGCHAYA MAGZINE, CHITRAPAT MAGZINE )