एक और साल गुजर गया...गुजरे हुए साल के टेलीविजन स्क्रीन पर नजर डालें तो समाचार चैनलों पर दो खबरें छाई रहीं, आरूषि मर्डर केस और मुंबई आतंकी हमले की लाइव कवरेज। भारत में 24 घंटे लाइव समाचार चैनलों का इतिहास अब एक दशक से ज्यादा का समय तय कर चुका है। इस एक दशक में परिपक्वता तो आई है लेकिन ये परिपक्वता किस तरह की है, इसके बारे में सोचना जरूरी है। क्या भारत के समाचार चैनल जिम्मेवार चौथे खंबे की भूमिका निभा रहे हैं।
अगर हम आरूषि मर्डर केस की बात करें तो तमाम टीवी चैनल जिनके दफ्तर नोएडा या दिल्ली में हैं उन्हें दिल पर हाथ रखकर पूछना चाहिए कि क्या आरूषि मर्डर केस जैसी घटना जबलपुर या रांची में हुई होती तो वे घटना को उतनी ही कवरेज देते। सच्चाई तो यही थी कि चैनल दफ्तर के पास एक क्राइम की खबर मिली थी, सबकों अपने अपने तरीके से कयास लगाने का पूरा मौका मिला। केस का इतना मीडिया ट्रायल हुआ जो इससे पहले बहुत कम केस में हुआ होगा। देश के नामचीन चैनलों ने मिलकर आरूषि और उसके परिवार को इतना बदनाम किया कि सदियों तक आत्मालोचना करने के बाद भी आरूषि की आत्मा उन्हें कभी माफ नहीं कर पाएगी।
सवाल यह है कि किसी भी टीवी चैनल को किसी परिवार की इज्जत को सरेबाजार उछालने का हक किसने दिया है। जाने माने संचारक ने कहा था कि मैसेज से ज्यादा जरूरी है मसाज। तो जनाब समाचार चैनल किसी एक खबर को इतनी बार इतने तरीके से मसाज करते हैं कि वह हर किसी के जेहन में किसी दु:स्पन की तरह अंकित हो जाता है। मैं अपने तीन साल के नन्हें पुत्र को उत्तर देने में खुद को असमर्थ पाता हूं जब वह समाचार चैनल देखकर कई तरह की जिज्ञासाएं ज्ञापित करता है। तब मेरा पत्रकारीय कौशल जवाब दे जाता है। सवाल एक नन्हीं सी जान का ही नहीं है। सवाल इस बात का है कि हम नई पीढ़ी को क्या उत्तर देंगे।
अब बात मुंबई धमाकों के लाइव कवरेज की। जिस चैनल के पास जितनी उन्नत तकनीक थी उस हिसाब से आंतकी के सफाया अभियान का जीवंत प्रसारण दिखाने की कोशिश की। लेकिन बाद में पता चला कि इसका हमें भारी घाटा उठाना पड़ा। आतंकी टीवी चैनलों की मदद से सब कुछ आनलाइन समझने की कोशिश कर रहे थे। लेकिन हम देश को तीन दिन तक क्या दिखा रहे थे। टीवी के सुधी दर्शकों ने अपने अपने तरीके से खबर को देखा होगा, लेकिन एक बार फिर अपने तीन साल नन्हे बेटे के शब्दों की ओर आना चाहूंगा।
मेरा बेटा जो धीरे धीरे दुनिया को समझने की कोशिश कर रहा है, अक्सर कहा करता था कि पापा मैं बड़ा होकर पुलिस वाला बनना चाहता हूं। उसकी नजर में पुलिस वाले बहादुर होते हैं। पर 59 घंटे आतंकी सफाए की लाइव कवरेज देखने के बाद मेरे बेटे मानस पटल जो कुछ समझने की कोशिश की उसके मुताबकि अब वह पुलिस बनने का इरादा त्याग रहा है, उसने कहा कि पापा अब मैं पुलिस नहीं बनूंगा. अब तो मैं आतंकवादी बनना चाहता हूं। हां आतंकवादी इसलिए कि वे पुलिस वालों से भी ज्यादा बहादुर होते हैं। आतंकवादी पुलिस वालों को मार डालते हैं। ....ये था 59 घंटे टीवी चैनलों की लाइव कवरेज का असर। मैं अपने बेटे को एक बार फिर कुछ समझा पाने में खुद को असमर्थ पा रहा हूं।
जाहिर सी बात है कि टीवी चैनल खबरों को मांजने को लेकर अभी शैशवावस्था की में है। हम खबर को ढोल पीटकर दिखाना चाहते हैं। कोई अगर हमारे चैनल पर ठहरना नहीं चाहता है तो हम हर वो हथकंडे अपनाना चाहते हैं जिससे कि कोई रिमोट का बटन बदल कर किसी और चैनल की ओर स्वीच न करे। हालांकि सारे चैनलों के वरिष्ट पत्रकार दावा तो इसी बात का करते हैं कि वे जिम्मेवार पत्रकारिता ही कर रहे हैं लेकिन इस तथाकथित जिम्मेवार पत्रकारिता का लाखों करोड़ो लोगों पर कैसा असर हो रहा है....
तुम शौक से मनाओ जश्ने बहार यारों
इस रोशनी मे लेकिन कुछ घर जल रहे हैं...
हमें वाकयी दिल पर हाथ रखकर सोचना चाहिए कि हम जो कुछ करने जा रहे हैं उसका समाज पर क्या असर पडेगा। जब मीडिया के उपर कोर्ट की या सूचना प्रसारण मंत्रालय की चाबुक पड़ती है तब तब याद आता है कि हमें संभल जाना चाहिए। लेकिन हम अगर पहले से ही सब कुछ समझते रहें तो क्या बुराई है। सबसे पहले समाचार चैनलों ने प्राइम टाइम में अपराध दिखा दिखा कर टीआरपी गेन करने की कोशिश की थी। अब अपराध का बुखार उतर चुका है तो समाचार चैनल ज्यादातर समय अब मनोरंजन और मशाला परोस कर टीआरपी को अपने पक्ष में रोक कर रखना चाहते हैं। धर्म को बेचने का खेल भी अब फुस्स हो चुका है।
वैसे इतना तो तय है कि आने वाले सालों में फिर से खबरों की वापसी होगी। खबर के नाम पर आतंक, भय जैसा हाइप क्रिएट करने का दौर निश्चित तौर पर खत्म हो जाएगा। लेकिन वो सुबह भारतीय टीवी चैनल के इतिहास में शायद देर से आएगी, लेकिन आएगी जरूर....
- -विद्युत प्रकाश मौर्य
अगर हम आरूषि मर्डर केस की बात करें तो तमाम टीवी चैनल जिनके दफ्तर नोएडा या दिल्ली में हैं उन्हें दिल पर हाथ रखकर पूछना चाहिए कि क्या आरूषि मर्डर केस जैसी घटना जबलपुर या रांची में हुई होती तो वे घटना को उतनी ही कवरेज देते। सच्चाई तो यही थी कि चैनल दफ्तर के पास एक क्राइम की खबर मिली थी, सबकों अपने अपने तरीके से कयास लगाने का पूरा मौका मिला। केस का इतना मीडिया ट्रायल हुआ जो इससे पहले बहुत कम केस में हुआ होगा। देश के नामचीन चैनलों ने मिलकर आरूषि और उसके परिवार को इतना बदनाम किया कि सदियों तक आत्मालोचना करने के बाद भी आरूषि की आत्मा उन्हें कभी माफ नहीं कर पाएगी।
सवाल यह है कि किसी भी टीवी चैनल को किसी परिवार की इज्जत को सरेबाजार उछालने का हक किसने दिया है। जाने माने संचारक ने कहा था कि मैसेज से ज्यादा जरूरी है मसाज। तो जनाब समाचार चैनल किसी एक खबर को इतनी बार इतने तरीके से मसाज करते हैं कि वह हर किसी के जेहन में किसी दु:स्पन की तरह अंकित हो जाता है। मैं अपने तीन साल के नन्हें पुत्र को उत्तर देने में खुद को असमर्थ पाता हूं जब वह समाचार चैनल देखकर कई तरह की जिज्ञासाएं ज्ञापित करता है। तब मेरा पत्रकारीय कौशल जवाब दे जाता है। सवाल एक नन्हीं सी जान का ही नहीं है। सवाल इस बात का है कि हम नई पीढ़ी को क्या उत्तर देंगे।
अब बात मुंबई धमाकों के लाइव कवरेज की। जिस चैनल के पास जितनी उन्नत तकनीक थी उस हिसाब से आंतकी के सफाया अभियान का जीवंत प्रसारण दिखाने की कोशिश की। लेकिन बाद में पता चला कि इसका हमें भारी घाटा उठाना पड़ा। आतंकी टीवी चैनलों की मदद से सब कुछ आनलाइन समझने की कोशिश कर रहे थे। लेकिन हम देश को तीन दिन तक क्या दिखा रहे थे। टीवी के सुधी दर्शकों ने अपने अपने तरीके से खबर को देखा होगा, लेकिन एक बार फिर अपने तीन साल नन्हे बेटे के शब्दों की ओर आना चाहूंगा।
मेरा बेटा जो धीरे धीरे दुनिया को समझने की कोशिश कर रहा है, अक्सर कहा करता था कि पापा मैं बड़ा होकर पुलिस वाला बनना चाहता हूं। उसकी नजर में पुलिस वाले बहादुर होते हैं। पर 59 घंटे आतंकी सफाए की लाइव कवरेज देखने के बाद मेरे बेटे मानस पटल जो कुछ समझने की कोशिश की उसके मुताबकि अब वह पुलिस बनने का इरादा त्याग रहा है, उसने कहा कि पापा अब मैं पुलिस नहीं बनूंगा. अब तो मैं आतंकवादी बनना चाहता हूं। हां आतंकवादी इसलिए कि वे पुलिस वालों से भी ज्यादा बहादुर होते हैं। आतंकवादी पुलिस वालों को मार डालते हैं। ....ये था 59 घंटे टीवी चैनलों की लाइव कवरेज का असर। मैं अपने बेटे को एक बार फिर कुछ समझा पाने में खुद को असमर्थ पा रहा हूं।
जाहिर सी बात है कि टीवी चैनल खबरों को मांजने को लेकर अभी शैशवावस्था की में है। हम खबर को ढोल पीटकर दिखाना चाहते हैं। कोई अगर हमारे चैनल पर ठहरना नहीं चाहता है तो हम हर वो हथकंडे अपनाना चाहते हैं जिससे कि कोई रिमोट का बटन बदल कर किसी और चैनल की ओर स्वीच न करे। हालांकि सारे चैनलों के वरिष्ट पत्रकार दावा तो इसी बात का करते हैं कि वे जिम्मेवार पत्रकारिता ही कर रहे हैं लेकिन इस तथाकथित जिम्मेवार पत्रकारिता का लाखों करोड़ो लोगों पर कैसा असर हो रहा है....
तुम शौक से मनाओ जश्ने बहार यारों
इस रोशनी मे लेकिन कुछ घर जल रहे हैं...
हमें वाकयी दिल पर हाथ रखकर सोचना चाहिए कि हम जो कुछ करने जा रहे हैं उसका समाज पर क्या असर पडेगा। जब मीडिया के उपर कोर्ट की या सूचना प्रसारण मंत्रालय की चाबुक पड़ती है तब तब याद आता है कि हमें संभल जाना चाहिए। लेकिन हम अगर पहले से ही सब कुछ समझते रहें तो क्या बुराई है। सबसे पहले समाचार चैनलों ने प्राइम टाइम में अपराध दिखा दिखा कर टीआरपी गेन करने की कोशिश की थी। अब अपराध का बुखार उतर चुका है तो समाचार चैनल ज्यादातर समय अब मनोरंजन और मशाला परोस कर टीआरपी को अपने पक्ष में रोक कर रखना चाहते हैं। धर्म को बेचने का खेल भी अब फुस्स हो चुका है।
वैसे इतना तो तय है कि आने वाले सालों में फिर से खबरों की वापसी होगी। खबर के नाम पर आतंक, भय जैसा हाइप क्रिएट करने का दौर निश्चित तौर पर खत्म हो जाएगा। लेकिन वो सुबह भारतीय टीवी चैनल के इतिहास में शायद देर से आएगी, लेकिन आएगी जरूर....
- -विद्युत प्रकाश मौर्य