पापू नहीं रहे। हां उनके बच्चे और उनसे करीब से जुड़े हुए लोग उन्हे इसी
नाम से जानते थे। पापू यानी रॉबिन शॉ पुष्प। 30 अक्तूबर 2014 को उन्होंने अपने
तमाम चाहने वालों का साथ छोड़ दिया। लेकिन पापू जैसे शब्द शिल्पी कभी इस दुनिया से
जाते हैं भला। नहीं जाते। क्योंकि शब्द मरा नहीं करते।
रॉबिन शॉ पुष्प के साथ पटना में। ( 1999) |
मैं जब बड़ा हो रहा तो पटना से निकलने वाली पत्रिका आनंद डाइजेस्ट में
उनकी कहानी पढी थी यहां चाहने से क्या होता है..उनकी कुछ और रचनाएं पढ़ी थी। इसलिए
मेरे जेहन में उनका नाम एक कहानीकार के तौर पर था। फणिश्वरनाथ रेणु के निधन पर
उन्होंने अदभुत श्रद्धांजलि लिखी थी उनके लिए – सोने के कलम वाला हीरामन। 1995 के साल
में जब भारतीय जन संचार संस्थान में पढ़ाई करने आया तो हमारे सहपाठी बने सुमित
ऑजमांड शॉ। दोस्ती होने पर इस शॉ पर मैं चौंका। बाद में पता चला कि सुमित रॉबिन शॉ
पुष्प के छोटे बेटे हैं।
मुंगेर से आने के बाद रॉबिन शॉ पुष्प का लंबा वक्त पटना के सब्जीबाग में
किराये के घर में गुजरा। इस रविंद्रांगन में सैकड़ो साहित्यकार आए गए होंगे जो
अपनी स्मृतियां बयां करते हैं। पुष्प जी के सानिध्य में बिहार के तमाम
साहित्यकारों ने उनके आशीर्वाद से काफी कुछ सीखा। उनका मृदुल चेहरा....बातों में
वातस्लय का का भाव...चाहे कोई भी मिलने पहुंचे वे उतनी ही आत्मीयता उड़ेलते
थे...हर युवा लेखक साहित्यकार के साथ वैसा ही प्रेम जैसे अपने बच्चों से। ऐसे
साहित्यकार कथा शिल्पी मिलते हैं भला। आसानी से नहीं मिलते।
वे जीवनभर अनवरत कुछ नया लिखते रहे। कहानी की विधा में महारत हासिल थी।
उनकी स्टोरी टेलिंग का एक अपना स्टाइल था जो उन्हें बाकी कथाकारों से काफी अलग
करता था। वे कभी पुरस्कारों और छपने की होड़ में शामिल नहीं हुए। पूरे जीवन कभी
कथाकारों साहित्यकारों के गुट में नहीं रहे। पर 1957 के बाद हर साल उनकी कहानियां
देश के प्रतिष्ठित पत्र पत्रिकाओं में जगह पाती रहीं।
उनकी जीवन संघर्ष से भरा रहा। मुंगेर में भी जिंदगी आर्थिक तंगी में गुजरी।
पूरी जिंदगी उन्होंने कोई नौकरी नहीं की। फ्रीलांसर के तौर पर जीवन। कभी रेडियो से
आने वाला चेक तो कभी कहानियों का पारिश्रमिक। पटना के महात्मा गांधी नगर में घर तो
बना पर उसमें गीता जी का सहयोग रहा जो कॉलेज में प्रोफेसर थीं। उनके दोनों बेटे
जीवन में सफलता की सीढ़िया लगातार चढ़ रहे हैं। बड़े बेटे संजय ओनिल शॉ मौसम विभाग
में अधिकारी हैं तो छोटे सुमित फिल्म निर्माण के क्षेत्र में।
1999 में जब उन्हें बिहार सरकार राजभाषा विभाग से फणीश्वर नाथ रेणु
सम्मान मिला तो मैं पूरे समय उनके साथ था। सत्तर पार कर चुके थे तो हार्ट अटैक भी
हो चुके थे। पर कई बार वे बचपन में लौट आते थे। निश्चल खिलखिलाहट... पटना में उनके
आवास पर कई बार उनसे मिलना हुआ। तमाम आत्मीय बातें करते थे। कई समस्याएं भी थीं, लेकिन
कभी निराश होते नहीं देखा। भले ही अब वे सशरीर इस दुनिया में न हों...पर शब्द तो
यहीं कहीं हैं...आसपास...उनके रचना संसार के तमाम पात्र भी यहीं हैं...आसपास...तभी
तो कहता हूं... पापू यहीं कहीं हैं...क्योंकि शब्द रहते हैं हमेशा जिंदा...
- विद्युत प्रकाश
मौर्य ( 31 अक्तूबर 2014)
1 comment:
सचमुच पापू यहीं कहीं हैं ... मैं भी मुंगेर का हूँ, परन्तु पापू से कभी मिल नहीं पाया . उनके घर की और से कई-कई बार गुजरा, लेकिन मिल न सका . शायद शब्दों में ही न मिल पाने की कसक सालती रही ...
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