Sunday, 13 April 2008

चल सखी मेट्रो में....( व्यंग्य)

जब से दिल्ली में मेट्रो रेलगाड़ी चल गोइल बिया दिल्ली में रहे वालन के जिनगी में बहार आ गोइल बा...कालेज जाइ ओली बबुनी के रोमांस करे के एगो नया जगह मिल गोइल बा...अब जब बबुनी के मोबाइल फोन टुनटुना ता त उ गते से कहेली...अभी फोन मत करे मेट्रो में भेंट होई...
रउया जैसे हीं मेट्रो रेलगाड़ी में घुसब सीढ़ी प बइठल कई गो लोग मिल जाइहन जे कान में मोबाइल फोन लगवले गते-गते अपना संघतियां संघे संवाद स्थापित करत होहन....रउआ आपन काम धाम निपटा के जब लौटत त देखब की दू घंटा बाद भी उ लइकी ओइजी बइठ के बतिया रहल बिया...अब का कइल जाए बहरी के धूप से इइजा निजात बा....जब दिल्ली यूनिवर्सिटी से मेट्रो केंद्रीय सचिवालय खातिर चलेले त ओमे न जाने केतना सौ दिल समा जाला...सबके एहिजा खुल के बतिआवे के मौका मिलेला...काल्ह कहां मिलल जाई इ सब कुछ भी आज तय हो जाला....पहले कतना दिकत हो रहे...याद करीं बस के धाका....आ उ लटकल भीड़....गरमी में त आतनी पसीना आवत रहे कि आधा घंटा में ही कपड़ा से टप टप पानी चूए लागत रहे....शीला जी दिल्ली के सब कोना में मेट्रो रेल चला के बडा उपकार कइले बाड़ी....अब केहु से मिले के टाइम तय करेके बा त बस इहे कह देता लोग कि फलाना मेट्रो स्टेशन के सीढ़ी पर मिल जइह ओहिजा से साथ हो लेल जाई....
एक दिन मेट्रो में एगो नउकी भौजाई चढ़ली....उनका मेट्रो के माहौल एतना निमन लागल एहिए भइया के साथ लिपटाए लगली....बार बार भइया से चिपकल जात रही...भला बस में चले में इस सुख कहां बा....क गो प्रेमी-प्रेमिका त मेट्रो के पहिला स्टेशन पर पर रेलगाड़ी बइठ जात बाड़न फिर लौट के दू घंटा बाद एहिजे आ जात बाडन...भला एकरा से सेफ जगह कहां बा...एगो गीत बा...नू....दो दिल मिल रहे हैं मगर चुपके चुपके....
लेकिन मेट्रो मे त .....दो दिल मिल रहे हैं जरा खुल के.......

आती है क्या खंडाला का भोजपुरी अनुवाद

ए चलबू का खंडाला...
का करब हम जाके खंडाला
घूमल जाई फिरल जाइ घूपचुप खाइल जाई अउर का....

-विद्युत प्रकाश
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4 comments:

Manas Path said...

वाह, अच्छी जानकारी.

झालकवि 'वियोगी' said...

बहूत नीक लिखे बाड़े स...आ हेतना नीक कईसे लिखे ला रऊआ? बबुनी सब के पीछे ही घूमे ल का?...

रवीन्द्र प्रभात said...

व्यंग्य मारक है , अच्छा लगा !

Vidyut Prakash Maurya said...

मधुसूदन जी अउर रवींद्र प्रभात के पढ़े आ कमेंट देवे खातिन धन्यवाद