Monday, 30 November 2009

भोजपुरी फिल्मों का बढ़ता बाजार

सुपर स्टार अमिताभ बच्चन जब लंबी बीमारी केबाद स्वस्थ हुए तो उन्होंने सबसे पहले कौन सी शूटिंग में हिस्सा लिया। वह एक भोजपुरी फिल्म गंगा थी जो उनके मेकअप मैन दीपक सावंत बना रहे हैं। अमिताभ इससे पहले भी एक भोजपुरी फिल्म पान खाएं सैंया हमार में अतिथि भूमिका कर चुके हैं। एक दशक के कैप के बाद भोजपुरी फिल्मों का बाजार एक बार फिर गरमा चुका है। 

भोजपुरी फिल्में अब सिर्फ बिहार या उत्तर प्रदेश तक ही सीमित नहीं है। इनका दायरा बढ़कर दिल्लीमुंबई, पंजाबगुजरात मध्य प्रदेशछत्तीसगढ़ व राजस्थान तक हो गया है। पिछले दिनों मुंबई में जब मनोज तिवारी की ताजी फिल्म रीलिज हुई तो वहां दर्शकों का हुजुम बाक्स आफिस पर टूट पड़ा। अब पटनाहाजीपुर और उसके आसपास हर हप्ते किसी न किसी भोजपुरी फिल्म की शूटिंग चल रही होती है। किसी जमाने में भोजपुरी फिल्मों के स्टार रहे अभिनेता फिर से भोजपुरी फिल्मों की ओर वापस आ रहे हैं। भोजपुरी फिल्मों को इस नए दौर की शुरूआत के स्टार है भभुआ के मनोज तिवारी और रवि किशन और ललितेश झा। रवि किशन की फिल्म पंडित जी बताईं ना बियाह कब होई सुपर हिट रही है। अब वे अपने नाम की ही फिल्म रवि किशनगंगाहमार घरवाली जैसी फिल्मों में काम कर रहे हैं।
सिर्फ दीपक सावंत ही नहीं भोजपुरी फिल्म निर्माण के क्षेत्र में कूद पड़े हैं और कई बड़े नाम। दिलीप कुमार की पत्नी सायरा बानू, डांस डाइरेक्टर सरोज खान तो शराब और एयरलाइन का बिजनेस करने वाले विजय माल्या भी भोजपुरी फिल्म बना रहे हैं। सायरा बानू की भोजपुरी फिल्म है अब त बन जा सजनवा हमार। कई बड़े नामों का भोजपुरी फिल्म निर्माण के क्षेत्र में आना इस भाषा के लिए सुखद स्थिति है। किसी समय में राकेश पांडे और पद्मा खान भोजपुरी फिल्मों के हिट जोड़ी रही है। अब राकेश पांडे एक बार फिर से भोजपुरी फिल्मों में चरित्र भूमिकाएं करने के लिए आ गए हैं। हालांकि पद्मा खन्ना आजकल लंदन में डांस स्कूल चला रही हैं। पर दक्षिण की नायिका नगमा को आजकल भोजपुरी फिल्मों में खूब भूमिकाएं मिल रही हैं। वे एक साथ कई फिल्मों में काम कर रही हैं।
यह भोजपुरी फिल्मों के विकास का दूसरा दौर है जो आर्थिक और व्यवसायिक रुप से पहले दौर की तुलना में ज्यादा सुनहरा दिखाई दे रहा है। भोजपुरी फिल्मों के पटकथा लेखक और पत्रकार आलोक रंजन कहते हैं कि भोजपुरी भाषा के लिए यह एक अच्छे दौर की शुरूआत जरूर है पर इसमें एक खतरा है। एक दशक पहले भोजपुरी फिल्में एकदम से बननी इसलिए बंद हो गई क्योंकि इस क्षेत्र में दूसरी भाषा के लोग सिर्फ पैसा बनाने की चाह लेकर आ गए थे। उन्होंने इस भाषा का बड़ा अनिष्ट किया। पर अब एक भाषा जो देश में 20 करोड़ से ज्यादा लोग बोलते और समझते हैं उसको लेकर सावधान रहने की जरूरत है फिर कहीं वैसी ही आवृति न हो। क्योंकि इस बार बड़ी संख्या मराठी, गुजराती और अन्य राज्यों के लोग भोजपुरी फिल्मों के निर्माण के क्षेत्र में सिर्फ इसलिए आ रहे हैं कि उन्हें कम लागात में ज्यादा लाभ होता हुआ दिखाई दे रहा है। जरूरत इस बात की है कि भोजपुरी में ऐसे लोग आएं जिनका इस भाषा के प्रति अपनेपन भरा लगाव भी हो तथा भाषा को आगे बढ़ाने के लिए समर्पण का भाव भी। तभी हम अन्य भाषायी फिल्मों की तरह भोजपुरी को भी आगे बढ़ता हुआ देख सकते हैं।
- विद्युत प्रकाश मौर्य ( 2007) 



Wednesday, 25 November 2009

लालू जी हम भी गरीब हैं (व्यंग्य)

लालू जी बड़े गरीब नवाज हैं। जहां भी रहते हैं गरीबों की सुध लेते हैं। गरीबों को सपने दिखाने में उनका कोई सानी नहीं है। लिहाजा उन्होंने रेलवे में भी गरीबों के लिए नई रेलगाड़ी शुरू कर दी है। गरीब रथ। इस गरीब रथ में देश की जनता जनार्दन वातानुकुलित कोच में चलने का आनंद उठा सकेगी वह भी सस्ते में। 
इस रेलगाड़ी में चलने के लिए आपको यह घोषणा करनी पड़ेगी कि आप गरीब हैं तभी आप गरीब रथ में सवार हो सकेंगे। पर क्या यह रेलगाड़ी गरीबों की गरीबी का मजाक उड़ाती नहीं प्रतीत होती है। आखिर आज के दौर में कौन खुद को गरीब कहलाना पसंद करता है। सभी लोग अमीर बनना चाहते हैं। भले ही कोई जेब से फकीर हो पर वह नहीं चाहता है कि उसे कोई गरीब कहे। अगर किसी ने गरीब रथ में यात्रा कर ली तो अब उसके नाम के आगे तो मार्का ही लग जाएगा कि वह गरीब है। किसी गरीब को अगर आप याद दिलाएं कि वह गरीब है तो वह इसे अपने आत्मसम्मान पर ले लेता है। भला तुम कौन होते हो मुझे गरीब कहने वाले। क्या है तुमसे मांग कर खाते हैं।
गरीब भले ही गरीब हो पर वह अपने आत्मसम्मान के साथ कोई समझौता नहीं करेगा। वह फिर उसी सेकेंड क्लास के डिब्बे में जलालत और गरमी के बीच यात्रा करना चाहेगा पर खुद को गरीब डिक्लियर करके गरीब रथ के वातानुकूलित कोच में नहीं बैठेगा। वहीं जो लोग चालू पुर्जा किस्म के हैं, भले ही उनके पास पैन कार्ड हो इनकम टैक्स भी जमा करते हों पर सस्ती यात्रा करने के लिए थोड़ी देर के लिए गरीब बन जाएंगे। कई अमीर लोग हमेशा गरीब ही बने रहना चाहते हैं। वे अपनी असली आमदनी का खुलासा नहीं करना चाहते। वे अमीर की चादर में गरीबी की पेबंद लगाकर सोना चाहते हैं। वे ऐसा करके देश के गरीबों को और सरकार को धोखा देते हैं। वे आयकर विभाग को चकमा देकर चूना लगाते हैं। तो भला ऐसे लोगों को रेलवे को चकमा देने में कौन सी देर लगेगी। कहेंगे लो जी हम भी गरीब हैं। हमें भी गरीब रथ का टिकट दे दो। इस तरह अमीर भी लूटेंगे सस्ते में गरीबी का मजा। पर यह क्या लालू जी आप तो गरीबों की आदत बिगाड़ रहे हैं। 

गरीबों के घर में तो अभी तक बिजली भी नहीं पहुंची है। पंखे भी नहीं लगे हुए हैं। जिनके घर में पंखे लगे हुए हैं वे भी भला कौन सा हमेशा पंखे में सो पाते हैं। क्या करें बिजली रानी ही नहीं आतीं। अब भला जिन्हें पंखे भी नसीब नहीं हैं वे कुछ घंटे के लिए अगर गरीब रथ के वातानूकुलित डिब्बे में सफर कर लेंगे तो उनकी आदत नहीं बिगड़ जाएगी। वे फिर घर वापस आएंगे तो उसी मुफलिसी का सामना करना पड़ेगा। कहेंगे अरे बापू ट्रेन में बड़ी प्यारी नींद आई थी। गरमी के दिन में भी ठंडी ठंडी हवा चल रही थी। अब गांव वापस आने पर फिर से सूरज की गरमी से चमड़ी जल रही है। यह गरीबों की गरीबी का मजाक नहीं तो और क्या है। थोड़ी देर के लिए उनको ठंडी ठंडी हवा में सपने दिखा देते हो। अगर असली गरीबों के हमदर्द हो तो पहले उनके घरों को वातानूकुलित करने की योजना बनाओ न। तुम तो सिर्फ सपने दिखाने में लगे हुए हैं। गरीब रथ में सफर करके लौटने के बात एक तो अपनी गरीबी का एहसास हो ही जाता है। उपर से अपनी गरीबी पर बड़ा रोना भी आता है। किसी शायर ने कहा है-
आधी-आधी रात को चुपके से कोई जब मेरे घर में आ जाता है।
कसम गरीबी की अपने गरीब खाने पर बड़ा तरस आता है।
 इसलिए लालू जी कुछ ऐसा इंतजाम कीजिए कि एक अदद एयर कंडीशनर हमारे गरीबखाने में भी लग जाए।
- vidyutp@gmail.com


Friday, 20 November 2009

रेलवे और सस्ते एयरलाइनों में टकराव

कई सस्ते एयरलाइनर जिन्हें हम लो कास्ट एयरलाइन कहते हैं अब रेलवे के एसी 2 टीयर के बराबर किराे में हवाई यात्रा का सुख दे रहे हैं। ऐसे में भारतीय रेल को प्रतियोगिता का सामना करना पड़ रहा है। जैसे आपको दिल्ली से मुंबई या चेन्नई जाना है तो आपको लो कास्ट एयर लाइन का टिकट 2500 से 4000 रुपए में मिल जाता है। वहीं रेलवे के एसी 2 टीयर में भी 2500 रुपए तक किराया देना पड़ता है। ऐसे में रेलवे के उच्च वर्ग में सफर करने वाले लोगों पर लो कास्ट एयर लाइनों की नजर है। वहीं एयर डेक्कन जैसे एयर लाइनों का सूत्र वाक्य है कि लोगों को पहली बार हवाई यात्रा के ख्वाब दिखाना। एक मध्यम वर्ग का आदमी एक बार हवाई यात्रा कर लेगा तो शायद बार बार करना चाहेगा।


अभी आसमान में एयर डेक्कन, स्पाइस जेट, गो एयर, इंडिगो सहारा और पैरामाउंट एयरवेज जैसे हवाई संचालक लोगों को सस्ते में उड़ने के सपने दिखा रहे हैं। इन विमान सेवाओं ने प्राइवेट रेल टिकट बुक करने वालों को हवाई टिकट बुक करने के लिए कुछ इंसेटिव देना भी आरंभ कर दिया है। यानी आप रेल टिकट बुक कराने जाएंगे तो आपका एजेंट आपको हवाई जहाज से चले जाने के फायदे बताएगा।
अब स्पाइस जेट और एयर डेक्कन आदि एयरलाइनरों ने रेलवे के राजधानी और शताब्दी एक्सप्रेस के डिब्बों में अपने विज्ञापन देने की नीति भी अपनाई है। जिससे इस क्लास के लोगों को हवाई यात्रा करने के लिए आकर्षित किया जा सके। एक सर्वे के अनुसार रेलवे के 3 फीसदी यात्री उच्च वर्ग के लोग हैं। वे बड़े आराम से हवाई यात्रा में लो कास्ट एयरलाइन को अपना सकते हैं। अगर इनमें से एक फीसदी भी हवाई यात्रा करने लगे हो हवाई यात्रियों में 35 फीसदी का इजाफा हो सकता है। कुछ एयरलाइन कंपनियां पंपलेट पोस्टर और विज्ञापनों से रेलवे के यात्रियों को अपनी ओर आकर्षित करने की कोशिश में लगे हुए हैं।
अब रेलवे भी अपने यात्रियों का आधार खोना नहीं चाहती है इसलिए वह हर रेल बजट में रेल यात्रियों के लिए कुछ आकर्षक आफर लेकर आती है। पिछले साल रेलवेके एसी 2 टीयर में सफर करने वाले यात्रियों के लिए भारतीय स्टेट बैंक के साथ लांच शुभयात्रा क्रेडिट कार्ड में डिस्काउंट की पेशकश की गई है। इस साल के रेल बजट में उम्मीद की जा रही है राजधानी और शताब्दी जैसी रेल गाडि़यों में कई तरह के डिस्काउंट की घोषणा की जा सकती है। पिछले साल रेलवे ने अपग्रेडेशन प्रणाली आरंभ की है जिसके उत्साहजनक परिणाम सामने आए हैं। वहीं सस्ते में वातानूकुलित क्लास में यात्रा की परिकल्पना को साकार करने वाली गरीब रथ ट्रेन को भी लोगों ने अपनाना आरंभ कर दिया है। अगले रेल बजट में कुछ और नए मार्ग पर भी गरीब रथ जैसी रेल गाडियों की घोषणा हो सकती है या फिर कुछ पुरानी गाडि़यों को पूरी तरह वातानुकूलित बनाने की योजना पेश की जा सकती है।
अगर आप दिल्ली से चेन्नई रेल से जाते हैं तो दो दिन लग जाते हैं वहीं आप हवाई जहाज से यही सफर मात्र दो घंटे में तय कर लेते हैं। इस तरह आपके दो दिन की बजत होती है। अगर आपकी एक दिन की आमदनी एक हजार रुपए है तो आप हवाई सफर करके आप दो हजार रुपए की बजत भी करते हैं। इस अर्थशास्त्र को समझें तो हवाई यात्रा करना आपके लिए सस्ता भी हो सकता है।



Sunday, 15 November 2009

कैमरा फोन से फिल्म बनाएं

टीवी पर ऐसी फिल्म का प्रदर्शन हो चुका है जो कैमरा फोन से बनाई गई है। यह प्रयोग के एक नए दौर की शुरूआत है। दक्षिण अफ्रीका के जोहंसबर्ग में फिल्माई गई इस फिल्म में आठ कैमरा युक्त मोबाइल फोन की मदद ली गई। एक दक्षिण अफ्रीकी निर्देशक के मन में यह आइडिया आया कि क्यों न हम मोबाइल फोन की मदद से ही फिल्म बनाएं। आजकल ऐसे मोबाइल फोन आ गए हैं जिनमें दो घंटे तक की वीडियो शूट की सुविधा उपलब्ध है। जब
मोबाइल फोन में कैमरा की सुविधा का आगमन हुआ तब यह लोगों के मजाकिया इस्तेमाल में ही आ रहा था। पर जल्द ही मोबाइल फोनों में उन्नत किस्म के कैमरों का इस्तेमाल होने लगा। अब मोबाइल फोन में 1.2 मेगा पिक्सेल से ज्य़ादा क्षमता वाले कैमरे आ गए हैं। इनके रिजल्ट का व्यवसायिक इस्तेमाल हो सकता है। इससे आगे बढ़ते हुए ऐसे मोबाइल फोन आ गए जिसमें कैमरे के अलावा वीडियो शूट की सुविधा उपलब्ध है। अगर आपके पास आधे घंटे से दो घंटे के वीडियो शूट का कैमरा उपलब्ध है तो कई जगह अपने काम की फिल्म बना सकते हैं। इसका सबसे बड़ा फायदा है कि बड़ा वीडियो कैमरा लेकर कहीं जाने की जरूरत नहीं है। अगर आपको कहीं भी आते-जाते कोई खास विजुअल नजर आता है जिसका कोई इस्तेमाल हो सकता है तो आप उसकी वीडियो फुटेज तैयार कर सकते हैं।
अब इसका फायदा टीवी चैनलों को भी खूब हो रहा है। वे दर्शकों को आमंत्रित करते हैं कि आपके आसपास कोई घटना होती है तो आपकी उसकी वीडियो फुटेज हमें भेजिए। मुंबई में आई बाढ़ के दौरान काफी लोगों ने अपने घर और आसपास के हालात के वीडियो बना कर लोगों के भेजा। इससे चैनलों को यह लाभ हुआ कि उनको मौके की जाती तस्वीरें मिल गईं। यह सत्य है कि हर जगह टीवी चैनलों के संवाददाता तो हर जगह पहुंच नहीं सकते। मीडिया में सिटीजन जनर्लिस्ट की जो परिकल्पा शुरु हुई है उसमें मोबाइल कैमरा और मोबाइल वीडियो का बड़ा योगदान है।
अब मोबाइल फोन के इससे भी बढ़कर अभिनव प्रयोग आरंभ हो चुके हैं। यानी मोबाइल फोन से ही लघु फिल्म बनाने का। जोहंसबर्ग के उन उत्साही युवाओं के इस प्रयास की तारीफ की जानी चाहिए जिन्होंने इस तरह का प्रयोग किया। इस टीम ने पहले एक स्क्रिप्ट बनाई। उसके बाद आठ मोबाइल फोन कैमरों का इस्तेमाल किया। एसएमएस शुगर मैन नामक इस फिल्म की शूटिंग 11 दिनों में की गई। इसमे कुल तीन कलाकारों ने काम किया। यह फिल्म दो उच्चवर्ग की वेश्याओं की कहानी है। बाद में इस फिल्म को 35 एमएम के फीचर फिल्म के आकार में शिफ्ट किया गया। यह फिल्म लो बजट की फिल्म का आदर्श उदाहरण बन गई है। हो सकता है दुनिया के अन्य देशों के लोग भी इससे कुछ प्रेरणा ले सकें।

-    विद्युत प्रकाश मौर्य


Tuesday, 10 November 2009

सफलता की गारंटी है गाने

आजकल कई धारावाहिकों को फिल्मी गाने देखने को मिल रहे हैं। किसी सीरियल को सफल बनाने के लिए उसमें किसी हिट फिल्म के गाने को पिक्चराइज करना एक नए मसाले की तरह इस्तेमाल में आ रहा है। खास तौर पर एकता कपूर के धारावाहिकों में। हम यह तो देख ही रहे हैं कि स्टार प्लस या जी टीवी के धारावाहिक हाई प्रोफाइल परिवारों की कहानियां ही दिखाते हैं। टीवी पर मध्यम वर्ग का परिवार और उसकी समस्या नदारद हैं। इन हाई प्रोफाइल परिवारों में पनपने वाले अवैध संबंध और इगो टकराहट धारावाहिकों की कथानक का मुख्य सांगोपांग होता है।

विज्ञापनदाताओं का दबाव - किसी भी धारावाहिक को ध्यान से देखें तो पाएंगे कि उसमें अभिनेत्रियां महंगी साड़ियां और गहने पहनती हैं। पुरूष डिजाइनर वस्त्र में सजेधजे रहते हैं। वे जिन कंपनियों की साड़ियां और गहने पहनती हैं धारावाहिक के आगे पीछे उन्हीं कंपनियों के विज्ञापन भी आते हैं। यानी हर धारावाहिक की कहानी में बड़ी चालाकी से बाजार को घुसाया गया है जिसे आप आसानी से समझ नहीं पाते हैं। टीवी धारावाहिक बनाने वाले एक निर्देशक का कहना है कि हमें 23 मिनट के धारावाहिक में काफी कुछ दिखाना पड़ता है। एक एक दृश्य में बाजार की जरूरत के हिसाब से एलीमेंट डालने का दबाव होता है। यानी ये धारावाहिक विज्ञापनदाताओं के दबाव में अपनी कहानी बनाते हैं। विज्ञापनदाताओं के दबाव में ही पात्रों के परिधानों का चयन भी करवाते हैं। इन सबके पीछे एक गहरी साजिश चल रही है जिससे टीवी के सामने बैठा दर्शक अनजान ही है।
त्योहारों का सेलिब्रेशन - अब धारावाहिकों को भव्य और मनोरंजक बनाने के लिए उसमें सेलिब्रेशन का एलीमेंट फीट किया जा रहा है। इसके तहत कई सालों से ये परंपरा चल पड़ी है कि अंतहीन कथानक वाले मेगा धारावाहिकों में होली, दीवाली, रक्षा बंधन, क्रिसमस जैसे सभी त्योहार मनाए जाते हैं। ये त्योहार उस साल पड़ने वाले त्योहारों की वास्तविक तारीख के बीच ही पड़ते हैं। इन त्योहारों के साथ भी कई तरह के उपभोक्ता वस्तुओं की मार्केटिंग होती है। इसलिए धारावाहिक की कहानी में त्योहारों का प्रसंग रखना भी जरूरी है। वैसे भी अतंहीन धारावाहिकों के लेखक के पास किसी नए विषय वस्तु का अभाव होता है। उसे तो कोई बहाना चाहिए जिससे धारावाहिक के कुछ एपीसोड आगे खींचे जा सकें।

कुछ नहीं तो गाने सही - कुछ फिल्मों में किसी पुराने फिल्मी गाने के एक अंतरे को या मुखड़े को रीपिट किया गया था। पर धारावाहिक आजकल कई लोकप्रिय गानों को अपने सेट पर रीशूट कर रहे हैं। गाना वही म्यूजिक वही बस उस पर थिरकने वाले पात्र बदलते हैं। यह सब कुछ बहुत आसान भी है। शादी विवाह समारोहों अधिकांश घरों में लोग लोकप्रिय गानों की धुन पर नाचते हुए देखे जाते हैं। यानी इस काम के लिए कोई ज्यादा मेहनत नहीं करनी पड़ती है। बस धारावाहिक के सभी पात्र एक जगह जुट कर कमर हिलाना शुरू कर देते हैं। इसके साथ ही कहानी में म्यूजिक डालने का एक बहना मिल जाता है। शूटिंग में सेट पर भी थोड़ी मौजमस्ती हो जाती है। इन सबके बीच आम दर्शकों को गाना बजाना देखने को मिल जाता है। मौका मिले तो ड्राइंग रूम में टीवी देख रहे लोग भी नाचने लगते हैं।
 vidyutp@gmail.com



Thursday, 5 November 2009

तो तुम्हें साथ-साथ रहने की आजादी चाहिए...

भला किसी को किसी के साथ रहने के से कौन रोक सकता है। अमृतसर में ऐसे दो मामले सामने आ चुके हैं जब दो लड़कियों ने आपस में शादी रचा ली। इसी तरह का एक मामला हाल के दिनों में मेरठ में सामने आया है। इस बारे में देश के कानून भी मौन हैं। वास्तव में दो लोगों के साथ साथ रहने को लेकर कोई कानून बनाना भी मुश्किल काम है। किसी को अगर किसी का साथ अच्छा लगता है तो इसमें भला कानून कर भी क्या सकता है। मेरठ में ऐसे सह जीवन (इसे विवाह तो कह नहीं सकते) के खिलाफ वहां की कुछ सामाजिक संस्थाओं ने विरोध प्रदर्शन भी किया। बकौल कुछ समाज सेवक यह सब कुछ ठीक नहीं है। पर यह किसी की अभिव्यक्ति या जीवन जीने के पद्धति की आजादी छीनने जैसा नहीं है। किन्ही दो लोगों का जीवन जब तक समाज को प्रभावित नहीं कर रहा हो तब तक समाज के लोगों को इस पर छींटाकशी करने या विरोध करने का कोई मतलब नहीं होना चाहिए। देश में ऐसे मामले तो हमेशा से सामने आते रहे हैं जब दो पुरूष साथ साथ रहते हों। जब दो पुरूष साथ रहते हों तो आमतौर पर लोगों को यह शक भी नहीं होता है कि उनके बीच कोई शारीरिक संबंध भी हो सकता है। पर जब दो लड़कियां साथ रहने की सार्वजनिक तौर पर घोषणा करती हैं तो बवाल मचता है। हो सकता है दो स्त्रियों में भी भावनात्मक संबंध इतना मजबूत हो कि वे साथ साथ रहना चाहती हों। अभी हाल में हरियाणा के एक जिले में भी ननद भौजाई ने साथ साथ रहने की घोषणा कर डाली।
हमें यह मान कर चलना चाहिए कोई भी समाज हो वहां कुछ अनकनवेंशनल रिश्ते हो सकते हैं। ऐसा हमेशा से होता आया है। जब तक ऐसे रिश्ते दूसरों को हानि न पहुंचाते हों, हाय तौबा मचाने का क्या फायदा। कोई अपने बाथरूम में कपड़े पहन कर नहाता हो या नंगा होकर क्या फर्क पड़ता है। जब वह सड़क पर नंगा नहाने लगे तो आप उसे पत्थर जरूर मारिए। कहिए कि ऐसा मत करो हमारे बच्चों पर बुरा असर पड़ रहा है।
कई ऐसे लोग साथ-साथ रहने का फैसला कर लेते हैं जिनके बीच उम्र का बहुत बड़ा अंतर होता है। ऐसे संबंधों पर कुछ टीवी कार्यक्रम भी बने हैं। केस स्टडी भी की गई है। पर ऐसे मामलों तो तूल देना हवा देना प्रचारित करना शायद गलत होगा। पर अगर किसी भी उम्र, जाति अथवा लिंग के लोगों को अगर साथ अच्छा लगता हो तो लगने दीजिए। उसपर समाज की ढेर सारी बंदिशें मत लगाइए। न उम्र की सीमा हो न जन्म का हो बंधन, जब प्यार करे कोई तो देखे केवल मन। यह मन माने की बात है भाई। किसी शायर ने लिखा है- आंसूओं से धुली खुशी की तरह रिश्ते होते हैं शायरी की तरह।


-    विद्यत प्रकाश मौर्य