Friday, 23 November 2012

तुम खुद को इतना मासूम मत समझो ( व्यंग्य)

उनके नाम 13 लाख रुपए किसी ने यूं ही लिफाफे में रखकर भेज दिए। वह भी दूर देश से। सात समंदर पार से। हमारे पास तो किसी ने आजतक 13 रुपए भी नहीं भेजे। हमारी भोली भाली ऐश्वर्या को यह भी नहीं मालूम कि किसने उसके नाम यह 13 लाख रुपयों का पैकेट भेज दिया। लोग गरीबों को अठन्नी देने से भी कतराते हैं पर अमीरों पर लाखों न्योक्षावर करते हैं। मैं यह नहीं कहता कि उस व्यक्ति ने ऐश्वर्या को 13 लाख रुपए भेजकर कोई गलती की। इन रुपयों को वह दरिद्र नारायण पर भी न्योछावर कर सकता था। जैसा कि विदेशों के कुछ अमीर कर रहे हैं।
एक विदेशी महिला ने बनारस के गरीबों पर धन लुटाना शुरू किया है। उसका कहना है कि छप्पन प्रकार के भोग सिर्फ अमीर लोग ही क्यों खाएं। गरीबों को जूठे पत्तल का खाना ही क्यों नसीब हो। इसलिए वे बनारस दश्वाश्वमेध घाट पर गरीबों के लिए सुस्वादु व्यंजनों का लंगर लगाने जा रही हैं। वे हर साल क्रिसमस पर ऐसा करती हैं।
अब ऐश्वर्या राय को रुपए की थैली भेजने वाला निश्चय ही इतना गरीबों के लिए हमदर्द नहीं होगा। उसने ऐश्वर्या की भोली सी हंसी पर ही रुपए लुटाने की ठान ली होगी। पर आखिर उसने ये रुपए चोरी छुपे क्यों भेजे। वह चाहता तो इसे कानूनी तरीके से डंके चोट पर भेज सकता था। वह चाहता तो रुपए के बदले में कोई गिफ्ट सामग्री आदि भेज सकता था। दुनिया में कई खिलाड़ियों और सितारों के ऐसे गुमनाम प्रशंसक हुए हैं जो अपने चहेते सितारों को इनाम भेजते रहे हैं। पर यह भेजने वाला गुमनाम नहीं है। उसने अपना नाम बताते हुए भेजा है। पर उसने रुपयों को इलेक्ट्रानिक उपकरण में चोरी से छुपाया है। कहतें है वह इवेंट आरगनाइजर है। वह कई सितारों को पहले भी पैसे देता रहा होगा। यह भी कहा जाता है कि कुछ सितारे चोरी चुपके पैसे लेते हैं जिससे टैक्स की बचत हो सके। पर हमारी ऐश्वर्या तो सबसे ज्यादा टैक्स भरने वालों में से हैवह भला चोरी चुपके पैसे क्यों लेगी।
कस्टम अधिकारियों ने ऐश्वर्या से पूछा। पर उसने बड़े भोलेपन से कहा मुझे तो उस रुपए के बारे में कुछ नहीं मालूम। कस्टम वाले भी पूर्व मिस वर्ल्ड की बातों में आ ही गए। अब ऐश्वर्या खुद जानना चाहती हैं कि यह रुपया उनके पास क्यों भेजा गया है। कुछ लोगों का मानना है कि उन्हें बदनाम करने के लिए ही यह रुपया किसी ने भेज दिया है। मैं कहता हूं कि देश के कुछ और लोगो को बदनाम करने के लिए इसी तरह के पैकेट भेजे जाएं विदेशों से। बड़ा अच्छा होगा। इसी बहाने हमारे पास यूरो को बरसात तो होगी न। पर ऐश्वर्या भले ही 33 साल की हो गई हों पर वे बड़ी भोली हैं। उन्हें तो जी भर कर खिलखिलाने के अलावा दुनियादारी की बातें कुछ भी नहीं मालूम है। वे जमकर रुपए कमाती हैं और टैक्स भरती हैं। पर उनको रुपए के लेनदेन के बारे में ज्यादा नहीं मालूम है। एक शायर ने लिखा है -
तुम खुद को इतना मासूम मत समझोतुम पर भी इलजाम बहुत हैं।
भले ही हमारी ऐश्वर्या पर कई तरह के इल्जाम लग गए हों। पहले भी वे रुपए के लेनदेन के मामले में चर्चा में आई हों पर वे फिर भी भोली भाली हैं। वे हमेशा भोली भाली रहेंगी। कोई भी उनकी बातें सुनकर उन्हें क्लीन चीट ही दे देगा। हां हमारी भोली सी ऐश्वर्या ।
- विद्युत प्रकाश 

Tuesday, 17 July 2012

कहां है आम आदमी का घर....

बाजार में मंदी है। बड़ी प्रापर्टी के दाम में तेजी से गिरावट आ रही है। मुंबई, गुड़गांव नोयडा जैसे शहरों में महंगी प्रोपर्टी के खरीददार नहीं मिल रहे हैं। फिर नई कंपनियां 80-90 लाख और करोड़ों के अपार्टमेंट और पेंट हाउस बनाने का ऐलान कर रही हैं। आम आदमी के लिए या मध्यम वर्ग के लिए घर का ऐलान को भी बिल्डर नहीं कर रहा है। टाटा जैसा समूह जो एक ओर आम आदमी के लिए कार नैनो को बाजार में लांच कर रहा है, उसने हाउसिंग प्रोजेक्ट के क्षेत्र में भी कदम रख दिया है। पर टाटा ने हाउसिंग के क्षेत्र में आम आदमी के लिए घर का ऐलान नहीं किया है। टाटा ने भी रहेजा समूह के साथ मिलकर उच्च आय वर्ग के लोगों के लिए महंगे और लक्जरी आवास बनाने का ऐलान किया है। खास कर दिल्ली और उसके आसपास के शहरों में देखा जाए तो यहां मध्यम वर्ग और निम्न आय वर्ग के लोगों के लिए घर बहुत कम हैं। एक ओर जहां इसको लेकर सरकार उदासीन है वहीं निजी बिल्डर भी महंगे मकानों को ही प्राथमिकता दे रहे हैं।

 कई साल बाद दिल्ली विकास प्राधिकरण ( डीडीए) ने अपनी आवासीय योजना का ऐलान किया है जिसमें आम आदमी के लिए घर हैं। पर घर हैं सिर्फ पांच हजार और आवेदन होने की उम्मीद है पांच लाख। डीडीए की योजनाएं कई-कई सालों बाद निकलती हैं। डीडीए जितने फ्लैट्स बनाती वह लोगों की जरूरत के हिसाब से देखा जाए तो ऊंट के मुंह में जीरा जैसा साबित होता है। लाखों लोग दिल्ली जैसे महानगर में जिंदगी गुजार देते हैं पर वे अपना फ्लैट नहीं खरीद पाते क्योंकि उनके लिए मिड्ल क्लास प्रोजेक्ट कहीं निकलते ही नही हैं। आम आदमी को कार का सपना दिखाने वाली कंपनी टाटा को चाहिए कि वह आम आदमी के घर का प्रोजेक्ट भी लांच करे। आजकल ज्यादा परिवार छोटे हो रहे हैं। ऐसे में एक कमरे और दो कमरे वाले घरों की जबरदस्त मांग है। अगर निजी ब्लिडर इस तरह के बहुमंजिले अपार्मेंट्स का निर्माण करें तो उसके ग्राहक तेजी से मिलेंगे। जैसी मंदी इन दिनों प्रोपर्टी के बाजार में आई है उसमें महंगे और लक्जरी अपार्टमेंट के ग्राहक बहुत कम मिल रहे हैं, जिससे मजबूर होकर बड़े बिल्डरों को महंगे घरों का दाम कम करना पड़ रहा है। जिस तरह एफएमसीजी गुड्स के मामले में पांच-दस रूपये की चीजें बड़ी तेजी से बिकती हैं उसी तरह अगर पांच दस लाख रुपये के घर बनाए जाएं तो उसके भी ग्राहक बड़ी संख्या में मिलेंगे। इस मामले में सरकार को और सभी प्रमुख बिल्डरों को गंभीरता से सोचना होगा। ऐसी सस्ती परियोजनाओं के आने से आम आदमी के घर का सपना साकार हो सकेगा।
अगर हम दिल्ली, नोयडा, फऱीदाबाद, गुड़गांव, गाजियाबाद की प्रोपर्टी पर नजर डालें तो वहां वन रूम और टू रूम के प्रोजेक्ट बहुत कम हैं। ऐसे में कम आय वाले व्यक्ति के पास लोन लेकर घर खरीदने का विकल्प नहीं रह जाता है। ऐसा नहीं है कि छोटे आवासीय यूनिट बनाने में बिल्डरों को कोई लाभ नहीं होता है, पर मोटे लाभ की उम्मीद में बिल्डर ज्यादातर बड़े घर बनाते हैं। ऐसे मामले में सरकार को पालिसी बनानी चाहिए कि बिल्डर एक ही आवासीय प्रोजेक्ट में हर आय वर्ग के लोगों के लिए घर बनाएं। अगर हम दिल्ली की तुलना में मुंबई को देखें तो वहां छोटे आवासीय अपार्टमेंट बडी़ संख्या में बने हैं, ऐसे में वहां पर एक फ्लैट खरीदना दिल्ली की तुलना में आसान है।



Sunday, 17 June 2012

शॉपिंग मॉल्स भी घाटे में

देश के सबसे बड़े रिटेल नेटवर्क में से एक स्पेंसर को अपने 40 स्टोर बंद करने का निर्णय लेना पड़ा है। स्पेंसर आरपीजी रिटेल द्वारा प्रवर्तित स्टोर का नेटवर्क है। वहीं किशोर बियानी का बिग बाजार भी इससे अछूता नहीं है। यानी की पिछले कुछ सालों में जिस तरह तेजी से बिग बाजार जैसे बड़े रिटेल स्टोर खुले हैं वहां सब कुछ हरा भरा नहीं है। इन बड़े स्टोरों के चेन में खुले कई शहरों स्टोर घाटे में भी जा रहे हैं। जाहिर बड़ी कंपनी के 100 में से कुछ स्टोर घाटे में भी हों तो वह घाटे को एक समय तक बर्दास्त कर सकती है, पर लंबे समय तक ऐसा नहीं कर सकती है। इसलिए अब कई बड़े शापिंग माल्स भी अपने स्टोरों को बंद करने का निर्णय ले रहे हैं। स्टोर को डेकोरेट करने में आई बड़ी लागात और उसके बाद बड़ा बिजली बिल, मंहगा किराया और स्टाफ के वेतन के बाद बिक्री का आंकड़ा कम हो तो घाटा हो सकता है। इस घाटे से उबरने के लिए बड़े स्टोर समय समय पर डिस्काउंट की घोषणा भी करते हैं। 

पर बड़ा से बड़ा व्यापारी भी लंबे समय क घाटे का खेल नहीं खेल सकता है। इसलिए उन्हें स्टोंरों को बंद करने का भी निर्णय लेना पड़ रहा है। हालांकि ऐसी कंपनियों ने अपनी विस्तार योजना को कोई रोक नहीं लगाई है, पर वे अब सोच समझ कर ऐसी जगहों पर ही स्टोर खोलने जा रहे हैं जहां अच्छी बिक्री की उम्मीद हो। बिग बाजार के प्रवर्तक किशोर बियानी ने तो छोटे रिटेलरों को चुनौती देने के लिए गली मुहल्ले और व्यस्त बाजारों के बीच में एक हजार स्क्वायर फीट में केबीज सबका बाजार खोलना शुरू कर दिया है। यह बिल्कुल किसी परंपरागत किराना दुकान की तरह ही है। ऐसे स्टोरों के घाटे में चलने की उम्मीद कम ही है।

आखिर क्या कारण है जिससे माल्स में खुले कई बड़े स्टोर घाटे में जा रहे हैं। दरअसल बड़े स्टोर खोलने में जितनी बड़ी लागत आती है, उसी वाल्यूम में वहां ग्राहक नहीं मिलते हैं, जिसके कारण घाटा उठाना पड़ता है। दूसरी बात यह भी हुई है कि परंपरागत दुकानदार भी इन बड़े स्टोरों से मुकाबले को लेकर सचेत हुए हैं। उन्होंने क्रेडिट कार्ड मशीने लगानी शुरू कर दी हैं। ग्राहकों को लुभाने के लिए डिस्काउंट और उधार देना भी शुरू कर दिया है। कई छोटे दुकानदारों ने भी अपने रेट्स को प्रतिस्पर्धी बनाना शुरू कर दिया है। मतलब कि जिस रेट में राशन आपको किसी बड़े रिटेल स्टोर में मिलता है उससे कम में समान्य किराना की दुकानों में भी मिल रहा है ऐसे में लोग अपने मुहल्ले की दुकान से राशन खरीद लेन अक्लमंदी समझ रहे हैं।
कई छोटे और मझोले शहरों में जितना बड़ा उपभोक्ता वर्ग है उसकी तुलना में शापिंग माल्स ज्यादा संख्या में खुल गए हैं, इस कारण से माल्स में ग्राहकों का टोटा पड़ने लगा है। जैसे पानीपत और हिसार जैसे शहरों में पांच पांच माल्स खुल रहे हैं। कई इसमें चालू भी हो गए हैं। अगर पांच लाख आबादी वाले शहर में पांच बड़े माल्स होंगे तो जाहिर है कि कुछ माल्स की दुकानें दिन भर ग्राहकों का इंतजार करेंगी। हालांकि बिग बाजार जैसे स्टोर अधिकांश शहरों में सफल हो रहे हैं क्योंकि यहां एक ही स्टोर में सब कुछ मिलता है। सब्जी भाजी से लेकर कपड़े तक। पर ज्यादा परेशानी वैसे स्टोरों के साथ है जो किसी एक सिगमेंट पर केंद्रित हैं। जैसे कई रेडीमेड गारमेंट के कंपनी शो रुम बंद होने के कागार पर हैं।
- vidyutp@gmail.com




Sunday, 20 May 2012

SOCIAL MEDIA A NEW ARM



सोशल मीडिया - एक नया हथियार 

कुछ साल पहले छोटे समूहों के पास अपनी बातें कहने का एक मात्र तरीका था लघु पत्रिकाएं निकालना, अनियतकालीन पत्रिकाएं निकालना या छोटे अखबार निकालना। लेकिन इसके साथ एक समस्या थी इसे देश-विदेश में बड़े समूह तक पहुंचाना आसान नहीं था। इसके साथ ही ये एक खर्चीली प्रक्रिया भी थी। पत्रिका निकालने या अखबार निकालने के लिए रजिस्ट्रेशन की प्रक्रिया से गुजरना पड़ता है। छपाई और लोगों तक पहुंचाने के खर्चे अलग पड़ते हैं। लेकिन अब सोशल मीडिया ने हर किसी को अपनी बात एक बड़े समूह तक साझा करने के लिए एक बड़ा मंच प्रदान कर दिया है।
याहू ग्रुप, आरकुट, फेसबुक, लिंकड इन, गूगल प्लस, ट्विटर, यू ट्यूब जैसे कई मंच इंटरनेट की खिड़की खुलने के साथ लोगों को मिले हैं। ब्लॉगिंग और माइक्रो ब्लॉगिंग के जरिए न सिर्फ खास बल्कि आम लोग भी खुल कर अपनी बात कह सकते हैं। दुनिया के किसी भी कोने में हजारों लाखों लोगों तक अपनी आवाज पहुंचा सकते हैं। 
अपनी बात कहने की आजादी
अमिताभ बच्चन यानी सदी के महानायक। एक बड़े फिल्म स्टार। मीडिया से अपनी बात कहना चाहते हैं। जाहिर एक प्रेस कान्फ्रेंस बुलानी पड़ेगी। पत्रकारों को न्योता भेजना किसी फाइव स्टार होटल में खाने पीने का इंतजाम। इसमें खर्चा दो लाख रुपये के आसपास। इसके बाद भी गांरटी नहीं कि वे जो कुछ बोलेंगे कल के अखबारों में सब कुछ वैसा ही छपेगा या उन्हें स्पेश मिलेगा भी या नहीं। लेकिन अब सोशल मीडिया ने उन्हे एक शानदार विकल्प दे दिया है। वे कहीं नहीं जाएंगे। घर बैठे या कार में घूमते हुए अपनी बात अपने टिवटर एकाउंट या बिग अड्डा के ब्लाग पर लिख देंगे। उनकी बातों को सभी जाने माने अखबार और टीवी चैनल लपक कर उठा लेंगे। न हर्रे लगा न फिटकरी रंग चोखा हो जाए। न सिर्फ अमिताभ बच्चन बल्कि आमिर खान और दूसरे कई फिल्म स्टार भी फेसबुक, ट्विटर जैसी सोशल नेटवर्किंग साइट्स का इस्तेमाल कर रहे हैं। उभरती हुई माडल पूनम पांडे का उदाहरण हमारे समाने है जो यू ट्यूब पर अपना एक एक कर ताजा वीडियो अपलोड पर चर्चा में हैं। अगर सोशल मीडिया का अविर्भाव नहीं हुआ होता तो बिग बी, आमिर खान या पूनम पांडे को अपनी बात लोगों तक पहुंचाने में बड़ी मुश्किल आतीं। टीवी और फिल्मों के कम लोकप्रिय सितारे भी अपने प्रशंसकों से सीधा संबंध बना रहे हैं सोशल नेटवर्किंग साइट्स के सहारे। कई साल पहले अखबार या पत्रिकाओं में सितारों के पते छपते थे फिर फैन्स उन्हें चिट्ठियां लिखते थे। लेकिन अब दूरियां घट गई हैं। समय सिमट गया है। अब सीधा संवाद का जमाना है। आज फिल्म प्रोड्यूसर अपनी नई फिल्म का प्रचार सोशल मीडिया के सहारे कर रहे हैं। हर नई रीलीज होने वाले फिल्म का फेसबुक पर पेज खोला जाता है। फिल्मों की पब्लिसिटी में बड़ा बड़ा बजट खर्च होता है लेकिन सोशल मीडिया ने कम बजट वाले निर्माताओं के लिए राह आसान कर दी है।
न सिर्फ फिल्मी सितारों का बल्कि राजनेताओं का भी अपने समर्थकों से सीधा संवाद करने का जरिया बन गए हैं सोशल नेटवर्किंग साइट्स। यूपी के चुनाव  से पहले समाजवादी पार्टी जैसी परंपरागत पार्टी ने देश के बडे अखबार में अंग्रेजी में अपना विज्ञापन दिया और उसमें लिखा फालो अस ऑन फेसबुक एंड ट्विटर। जाहिर ये सब कुछ युवा वर्ग को अपने साथ जोड़ने के लिए था। चाहे छोटे राजनैतिक विचार समूह हों या बड़े राजनीतिक दल सबके लिए फेसबुक, ट्विटर जैसे साइट जनता तक पहुंचने का आसान और सस्ता जरिया बन चुके हैं। पीएम के मीडिया सलाहकार पंकज पचौरी के बनने के बाद प्रधानमंत्री कार्यालय भी ट्विटर पर आ चुका है। इसके पहले फारूक अब्दुल्ला, शशि थरूर जैसे राजनेता माइक्रो ब्लागिंग साइट ट्विटर और फेसबुक का इस्तेमाल लगातार लोगों तक अपनी बातें रखने के लिए कर रहे थे। लेकिन अब बीजेपी की सुषमा स्वराज भी सोशल नेटवर्किंग साइट का इस्तेमाल कर रही हैं तो तमाम छोटे दलों के लिए सोशल मीडिया सस्ता और माकूल हथियार बन चुका है। कांग्रेस के नेता दिग्विजय सिंह किसी भी मुद्दे पर अपने विचार ट्विटर पर लिखते हैं और टीवी चैनलों और अखबारों के लिए बड़ी खबर बन जाती है। पहले ऐसे विचारों को अखबारों में जगह दिलाने के लिए पत्रकारों और संपादकों की मनुहार करनी पड़ती थी, राजनेता लाखों खर्च करके प्रेस वार्ताएं बुलाई जाती थीं, महंगे गिफ्ट बांटे जाते थे, शराब परोसी जाती थी लेकिन कई बार फिर भी अखबारों में उनकी खबर नहीं छपती थी। लेकिन सोशल मीडिया ने हालात बदल दिए हैं अगर आप कुछ नई या विवादास्पद बात करेंगे तो मीडिया के लिए सुर्खी बनाना अब मजबूरी बन जाती है। अब किस राजनेता ने ट्विटर पर क्या विचार दिया फेसबुक पर क्या कमेंट किया ये सब कुछ अखबारों में आसानी से छप जाता है। अगर अखबार नहीं छापता है तो भी राजनेताओं के फालोअर तक उनके विचार फर्स्ट परसन में पहुंच जाते हैं। इसमें कोई मिलावट नहीं होती।
राजनेता तो फेसबुक का इस्तेमाल अपने फैन मेल बढ़ाने या फिर अपने समर्थकों तक अपनी बात पहुंचाने के लिए खूब कर रहे हैं। यूपी के पूर्व मुख्यमंत्री जगदंबिका पाल, कांग्रेस सांसद और एससी एसटी कमीशन के चेयरमैन पीएल पुनिया, केंद्रीय कोयला मंत्री श्री प्रकाश जायसवाल, केंद्रीय मंत्री राजीव शुक्ला सभी फेसबुक और ट्विटर जैसी सोशल मीडिया की ताकत को अच्छी तरह पहचान चुके हैं। बिहार के कांग्रेस नेता प्रेमचंद मिश्रा, एलजेपी नेता राघवेंद्र सिंह कुशवाहा अपने राजनैतिक विचार और प्रतिक्रियाएं लगभग रोज अपने समर्थकों से साझा करते हैं। ये इस नए मीडिया की ही तो ताकत है।     
न सिर्फ नेता अभिनेता और सामाजिक संगठन बल्कि सरकारी महकमा भी सोशल मीडिया का इस्तेमाल लोगों से जुड़ने के लिए कर रहा है। दिल्ली पुलिस का भी फेसबुक पर पेज है। जिस पर शिकायतें दर्ज की जा सकती हैं। ट्रैफिक नियमों के उल्लंघन के फोटो अपलोड किए जा सकते हैं। ऐसी कई तस्वीरों के भेजे जाने पर कार्रवाई भी हुई है। आम लोगों की ओर से आई फेस बुक पर शिकायतके बाद दिल्ली पुलिस ने ट्रैफिक नियम के उल्लंघन के मामले में बड़े नेताओं का भी चालान काट दिया है। सिर्फ दिल्ली पुलिस ही नहीं बल्कि कई और सरकारी विभाग फेसबुक के सहारे लोगों तक पहुंचने की कोशिश में हैं। भारतीय रेल ने नई दिल्ली स्टेशन पर ट्रेनों की आवाजाही का ताजा अपडेट फेसबुक पर अपने पेज पर देने की शुरूआत कर दी है।
न सिर्फ सरकारी महकमे बल्कि बड़े अखबारों और टीवी चैनलों ने सोशल मीडिया की ताकत को पहचाना है। आज देश में नंबर होने का दावा करने वाले अंग्रेजी और हिंदी के अखबार भी अपनी खबरों को लोगों तक पहुंचाने के लिए फेसबुक और ट्विटर पर अपने फालोअर का सहारा ले रहे हैं। अंग्रेजी में हिंदुस्तान टाइम्स, टाइम्स आफ इंडिया तो हिंदी में दैनिक भास्कर और अमर उजाला जैसे अखबारों की मौजूदगी फेसबुक पर देखी जा सकती है। कई क्षेत्रीय भाषाओं के मीडिया समूह भी तेजी से सोशल मीडिया पर अपना एकाउंट बना रहे हैं। हालांकि सोशल मीडिया की शुरूआत बड़े मीडिया के समूहों के विकल्प के रूप में हुई थी लेकिन आज सोशल मीडिया की ताकत में इतना इजाफा हो चुका है कि बड़े मीडिया समूह भी इसका लाभ उठाने में बिल्कुल हिचक नहीं रहे हैं।
विज्ञापन के लिए सोशल मीडिया का इस्तेमाल –
जब आप अखबारों में किसी प्राडक्ट का विज्ञापन देखते हैं तो उसमें नीचे कई बार लिखा मिलता है फालो अस आन ट्विटर और फेसबुक । तमाम बड़ी कारपोरेट कंपनियां अपने प्रोडक्ट की ब्रांडिंग के लिए फेसबुक और ट्विटर पर एकाउंट खोल रही हैं।  चाहे रिब़ॉक के जूते हों या कार और बाइक कंपनियां सभी ने सोशल मीडिया पर अपने एकाउंट खोले हैं और अपने टारगेट आडिएंस को अपने फालोअर के रूप में जोड़ा है। यह विज्ञापन करने का एक सस्ता और सटीक तरीका है। जब  कोई ब्रांड अपना विज्ञापन किसी अखबार या टीवी चैलन में देता है तो उसके लिए लाखों करोड़ों खर्च करने पड़ते हैं। जबकि फेसबुक या ट्विटर पर मुफ्त में एकाउंट बनाया जा सकता है। दूसरा सबसे बड़ा फायदा है कि यहां वही लोग सीधा जुड़ते हैं जिनका किसी खास ब्रांड से कोई लगाव हो या फिर वे उस ब्रांड को खरीदने इस्तेमाल करने में रूचि रखते हों। हां ये जरूर है कि सोशल मीडिया का विज्ञापन एकाउंट सिर्फ वही लोग देख सकते हैं जो नियमित इंटरनेट के उपयोक्ता हैं।
वंचित समाज को अपनी बात रखने का मौका -
विचारों को लोगों तक पहुंचाने के लिए समाजिक संगठन और जन आंदोलन खड़ा करने वाले संगठन भी सोशल मीडिया की ताकत का बखूबी इस्तेमाल कर रहे हैं। भ्रष्टाचार के खिलाफ देश व्यापी आंदोलन खड़ा करने वाले संगठन इंडिया एगेन्स्ट करप्शन ने सोशल मीडिया का बखूबी इस्तेमाल कर लोगों को जोड़ने और आंदोलन को धार देने का काम किया। दुनिया के कई देशों में फेसबुक और ट्विटर से क्रांति भी हो चुकी है। भारत आबादी में बड़ा देश है। हर राज्य में अलग अलग भाषाएं बोली जाती हैंलेकिन महानगरोंछोटे और मझोले शहरों में इंटरनेट के बढ़ते इस्तेमाल ने आम जनता को सोशल मीडिया के रूप में एक बड़ा हथियार दिया है। भले ही फेसबुक जैसे साइट्स की शुरूआत नए पूराने दोस्तों को एक कड़ी के रूप में जोड़ने के लिए हुई थी लेकिन अब ये महज दोस्तों का साझा मंच भर नहीं रह गया है। बड़ी संख्या में पत्रकार, साहित्यकार, टेक्नोक्रैट, राजनेता, छात्र, अलग अलग क्म्यूनिटी के लोग फेसबुक का इस्तेमाल एक दूसरे से जुड़े रहने के लिए कर रहे हैं। लेकिन फेसबुक जैसे सोशल मीडिया ने एक मंच दिया है अपनी बातें कहने का। आप वो सब कुछ यहां कह सकते हैं जिसे लोग सुनने के लिए तैयार नहीं हैं। आपके कहने के बाद जिन जिन लोगों को जरूरत होगी आपकी बात को वे लोग सुन लेंगे।

फेसबुक ने लोगों को मौका दिया है वंचित समाज के लोगों को अपनी बात रखने का। अपना समूह बनाने का। आजकल सोशल मीडिया पर पर कई तरह के विचार समूह चलाए जा रहे हैं तो कई तरह दबाव समूह चलाए भी जा रहे हैं। कई तरह के साहित्यिक विचारधारा के लोग अपनी बातें साझा कर रहे हैं। कोई नया पुराना लेखक अपनी नई किताब के बारे में लोगों को बता रहा है। किताब का प्रथम पृष्ठ फेसबुक पर जारी कर देता है। किताब के विमोचन समारोह की जानकारी देता है। विमोचन होने के बाद उसकी खबर और फोटोग्राफ भी फेसबुक पर जारी कर देता है। कई बार वे खबरें जो काफी कोशिश करके भी अखबारों ने हीं छप पाती थीं उन्हें सोशल मीडिया पर आप चाहें तो प्रकाशित कर सकते हैं और उन लोगों तक आसानी से पहुंचा सकते हैं जो आपके लक्षित श्रोता समूह में आते हैं। भले ही आप दिल्ली या फिर छत्तीसगढ़ के बस्तर में रहते हों आपकी बात आपकी खबरें आपके विचार न सिर्फ कश्मीर से लेकर कन्याकुमारी तक बल्कि जर्मनी और आस्ट्रेलिया में बैठे आपके दोस्तों तक भी पहुंच जाती है। वह भी बिना किसी खर्च के। सिर्फ खबर तस्वीर या विचार की ही बात क्यों करें आप अपने कार्यक्रम की वीडियो भी सोशल मीडिया पर अपलोड कर सकते हैं जिसे दुनिया के किसी कोने में बैठा व्यक्ति देख सकता है।
न सिर्फ साहित्यिक या फिर समाजिक समूह बल्कि सोशल मीडिया का इस्तेमाल आजकल जन आंदोलन से जुड़े संगठन वंचित समाज के संगठन, अपने अधिकारों के लिए लड़ने वाले संगठन भी कर रहे हैं। अगर किसी संगठन के पांच से या हजार दो हजार कार्यकर्ता देश के अलग अलग इलाकों में फैले हुए हैं तो उन सबके बीच संदेश, साहित्य, विचारों के आदान प्रदान के लिए सोशल मीडिया ने एक सस्ता, शानदार और तेजी से पहुंचने वाला मंच प्रदान किया है। पहले इसके लिए अखबारों में खबर छपवाना या फिर कई सौ, हजार चिट्ठियां लिखने के लिए अलावा कोई विकल्प नहीं था। आज फेसबुक पर दलित मत, आदिवासियों से जुड़े संगठन, अलग अलग जातियों के संगठन, अलग अलग धार्मिक विचारों के संगठनों की समूह देखे जा सकते हैं जो अपने विचारों का आदान प्रदान करते नजर आते हैं। ऐसे संगठन आन लाइन नए लोगों को अपने विचारों से जोड़ने और प्रभावित करने की कोशिश में भी लगे नजर आते हैं। कई लोग अपने से मिलते जुलते विचारों के लोगों से सोशल मीडिया के जरिए जुड़ भी रहे हैं।
जो लोग अपनी पत्रिका नहीं निकाल सकते हैं या अपनी वेबसाइट बनाने का खर्च नहीं उठा सकते हैं वे कम्यूनिटी ब्लॉग बनाकर, याहू ग्रूप पर अपना समहू बनाकर या फेसबुक पर अपने संगठन का पेज बनाकर अपनी बातों को लोगों तक पहुंचाने  लगे हैं।
सोशल मीडिया के खतरे –
 सोशल मीडिया भले ही एक हथियार के रूप में लोगों के लिए वरदान बन कर आया हो लेकिन इसके अपने खतरे भी हैं। पहले तरह का खतरा शारीरिक और मनोवैज्ञानिक है। लगातार कई घंटे मोबाइल या कंप्यूटर से फेसबुक पर जुड़े रहने से जहां वक्त की बर्बादी होती है वहीं कई तरह की बीमारियों का भी खतरा है जो कंप्यूटर जन्य बीमारियां हो सकती हैं। दूसरा बड़ा खतरा मनोवैज्ञानिक है लगातार इंटरनेट की आभासी दुनिया में खोया रहने वाला व्यक्ति अपने आसपास के लोगों से अड़ोस-पड़ोस से कई बार कट जाता है। भले ही आप दुनिया से जुड़े होते हैं लेकिन आपके पड़ोसी का घर आपसे दूर होता जाता है।
  सोशल मीडिया पर अश्लीलता परोसने के भी आरोप लगते रहे हैं क्योंकि यहां कोई सेंसरशिप नहीं है। कोई अपनी बात कैसे भी शब्दों में रख सकता है कोई किसी भी तरह की तस्वीर या वीडियो अपलोड कर सकता है। इसमें कई बार शब्द अपना जनक और तस्वीर या वीडियो शालीनता की सीमा से परे हो सकते हैं। इसलिए कई बार ऐसे मीडिया पर सेंसरशिप की बात उठी है। सरकार सोशल मीडिया की सेवाएं प्रदान करने वाली साइटों को कंटेट की जानकारी देने की बात करती है। सोशल मीडिया पर सेल्फ सेंसरशिप की बात करना भी बहुत मुश्किल है। माडल पूनम पांडे अपना बाथरूम वीडियो अपने फैन्स को परोसती हैं। अगली बार वे अपना कम अंधेरे में लिया गया न्यूड वीडियो भी पेश करने की बात करती हैं। उनको अपने इन कदमों से काफी पब्लिसिटी मिलती है लेकिन ऐसी हरकतों पर नियंत्रण रखने के लिए हमारे पास माकूल हथियार नहीं है। कुछ लोगों की बेजा हरकतों के कारण कई बार ऐसी साइटों को पूरी तरह प्रतिबंधित करने की बात भी उठती है। यू ट्यूब ने एक नीति अपनाई जब किसी वीडियो के बारे में अश्लील होने की शिकायत की जाती है तब यू ट्यूब ऐसे वीडियो को अपनी साइट से हटा देती है। कुछ लोग फेसबुक पर कुछ भी अनाप सनाप लिखने के बाद ये तर्क देते नजर आते हैं कि हमने ये बात तो सिर्फ अपने दोस्तों में कही है कोई सार्वजनिक तौर पर थोड़े ही कही। लेकिन ऐसा तर्क देना फिजुल है। मान लिजिए फेसबुक पर आपके पांच सौ दोस्त हैं। उन पांच सौ दोस्तों के पांच पांच सौ दोस्त हैं। जब आप कोई विचार, तस्वीर या वीडियो शेयर करते हैं तो वह तुरंत हजारों लाखों लोगों तक पहुंच जाता है। न सिर्फ आपके दोस्त बल्कि आपके दोस्तों के दोस्त तक भी पोस्ट की हुई सामग्री पहुंच जाती है। इसलिए सोशल मीडिया एक सार्वजनिक मंच है न कि कोई निजी तौर पर साझा किया जाने वाले मंच। हाल के दिनों में राजनेताओं के मार्फिंग कि हुई आपत्तिजनक तस्वीरें सोशल मीडिया पर देखने को मिली। ये तस्वीरें जिन लोगों से जुड़ी हुई हैं उन्हें गुस्सा आना या आपत्ति जताना लाजिमी है। हमारी आजादी वहीं तक है जहां तक दूसरे की आजादी या निजता का हनन नहीं होता हो।  


कैसे- कैसे सोशल मीडिया –
1.      समन्यवय प्रोजेक्ट – कई लोगों को समूह मिल कर ऐसे प्रोजेक्ट बनाकर ज्ञान का आदान प्रदान करता है जैसे वीकिपिडिया। वेजेटेरियन रेस्टोरेंट्स डाट नेट
2.       वेब लॉग या ब्लॉग- लोकप्रिय तरीके ब्लागर डाट काम या वर्ड प्रेस, बिग अड्डा आदि पर
3.      माइक्रो ब्लॉगिंग साइट्स – जैसे ट्विटर
4.      कंटेट कम्यूनिटी साइटस – यू ट्यूब, जूम इन, पिकासा
5.      सोशल साइट्स – फेसबुक, लिंकड इन
6.      समूह – याहू ग्रूप, गूगल प्लस

शामिल होने के तरीके –
संदेश भेजना, ट्विट करना, ई मेल करना, फोटो शेयर करना, वीडियो शेयर करना,
जरूरत –
इंटरनेट रेडी कंप्यूटर या लैपटाप, टैबलेट आदि या फिर इंटरनेट रेडी मोबाइल फोन।

- विद्युत प्रकाश मौर्य

( This paper presented in National seminar held at Govt college, Kaithal, Haryana ( Kurukshetra Univ) on 20 march 2012) 

Sunday, 13 May 2012

कैरियर में बने रहें लगातार एक्टिव

कैरियर के बीच में कई बार ऐसा समय आ जाता है जब आपको नौकरी ढूंढने में दिक्कत होती है या वर्तमान स्थान पर खुद को एडजस्ट करने में परेशानी होती है। ऐसी दिक्कतों से थोड़ी कोशिश करके निपटा जा सकता है। आप अपनी नौकरी भी बदल सकते हैं, परेशानी दूर कर सकते हैं और जीवन खुशहाल बना सकते हैं। अक्सर देखा गया है कि कुछ लोग किसी भी पड़ाव पर जॉब बदल लेते हैं, लेकिन कुछ लोग अंतिम विकल्प के रूप में ही अपनी नौकरी बदलते हैं। इसका कारण लीडरशिप क्वालिटी में अंतर का होना है। जो लोग कैरियर में लगातार एक्टिव बने रहते हैं उन्हें ज्यादा दिक्कतों का सामना नहीं करना पड़ता है वहीं जो लोग ज्यादा एक्टिव नहीं रहते हैं उन्हें परेशानी पेश आती है। 


जीवन में सार्थक मिशन बनाएं
अक्सर करियर के मध्यकाल में लोग आपके काम अर्थ को लेकर ज्यादा सवाल उठाते हैं, साथ ही कंपनी के मिशन की वैल्यू, नौकरी में आजादी और अपने योगदान आदि के बारे में ज्यादा सोचा जाता है। कई बार ऐसा भी होता है कि इस स्तर पर आकर खुद को कंपनी के साथ जोड़कर रखना मुश्किल लगने लगता है। 


ऐसे में लोगों का अपनी वर्तमान जगह और नौकरी, दोनों से मोह टूटने लगता है। काम करने में मन नहीं लगता है और व्यक्ति तनावग्रस्त हो जाता है। कई बार ऐसा तब होता है जब आपके जीवन में कोई मिशन नहीं हो। अगर आप जीवन में मिशन लेकर चल रहे हैं तो करियर में बोरियत भरा नहीं होता। 


दीर्घकालिक योजना बनाएं 
कभी भी करियर को एक दो महीनों या साल में नहीं बल्कि लंबी अंतराल के रूप में देखना चाहिए और इसी के हिसाब से योजना बनानी चाहिए। करियर का लक्ष्य तय करते समय लंबी अवधि के विकल्प पर विचार करना चाहिए। इसके साथ ही करियर में हमेशा पारदर्शिता बरतनी चाहिए। इससे एक तरफ जहां कार्य स्थल में आपकी विश्वसनीयता बढ़ेगी वहीं दूसरी तरफ खुद आपका आत्मविश्वास भी बना रहेगा। 




खुद को नया बनाएं
समय कुछ नया करने का है। चाहे कोई भी क्षेत्र हो अगर आगे बढऩा है तो हमेशा कुछ नए की जरूरत होती है। इसलिए हमेशा इस बात की कोशिश करते रहना चाहिए जो कुछ भी नया हो रहा है उसे सीखा जाए और अच्छे से अपनाया जाए। हर प्रोफेशनल क्षेत्र में विशेष रूप से लागू होता है। कुछ लोग करियर के शुरुआत में जो सीखते हैं उससे आगे कुछ नया नहीं सीखना चाहते हैं। 

Sunday, 15 April 2012

ये ब्रांड का दौर है....हाट बाजार पर खतरा

अब किसी महानगर में जब बाजार को जाएं तो सब कुछ आप किसी ब्रांडेड शाप से खरीद सकते हैं। हो सकता है आने वाले दिनों में महानगरों से हाट बाजार जैसी चीजें विलुप्त हो जाएं। जी हां अब आप आलू प्यार माचिस और चटनी बनाने के लिए धनिया का पत्ता सब कुछ किसी वातानुकूलित मॉल से खरीद सकते हैं।

मजे की बात कि वहां से आप एक रुपये का सामान भी खरीद सकते हैं। यानी की परंपरागत सब्जी बाजार जिसे उत्तर भारत में हाट या दक्षिण में रायतु बाजार बोलते हैं इस पर बड़े उद्योगपतियों का तेजी से कब्जा हो रहा है। इससे बाजार की तस्वीर तेजी से बदल रही है। अब जब आप सब्जी खरीदने जाते हैं तो बाजार की भीड़भाड़ गंदगी से आपको निजात मिलती है।

वातानुकूलित चमचमती रिलायंस की दुकान रिलायंस फ्रेश पर आपका स्वागत किया जाता है और आप हर प्रकार की सब्जियां और फल अपनी मर्जी के वजन से खरीद सकते हैं। यहां परंपरागत हाट की तरह मोलजोल करने की कोई जरूरत नहीं है। अगर आपके पास रुपए नहीं हैं तो आप भुगतान क्रेडिट कार्ड से भी कर सकते हैं। माल का स्टाफ आपका सामान आपकी कार तक ले जाकर रख आएगा। 

रिलायंस फ्रेश की शुरआत हैदराबाद से हुई पर उसने अब देश की राजधानी दिल्ली में दस्तक दे दी है। हैदराबाद शहर में तो सिर्फ रिलायंस ही नहीं कई और ब्रांडेड शाप शहर के हर हिस्से में खुल चुके हैं जो बाजार के लगभग हर हिस्से पर कब्जा जमा चुके हैं। यहां दक्षिण की सबसे पुरानी त्रिनेत्रा डिपार्मेंटल स्टोर की चेन है जो अब आदित्य विक्रम बिड़ला समूह का हिस्सा बन चुकी है।

वहीं शुभिक्षा, फूड लैंड, हेरिटेज, फूड लैंड जैसे स्टोरों की चेन हर जगह खुल चुकी है। यहां दवाएं, घरेलू राशन और सब्जियां तथा क्राकरी आदि सब कुछ उपलब्ध है। बिग बाजार और स्पेंसर की तुलना में इनकी उपस्थिति महानगर के बाहर इलाकों और विकसित हो रही कालोनियों में भी है।

लोगों का एक बड़ा वर्ग इनसे शापिंग कर रहा है। ये दुकानें जहां अपने नियमित ग्राहकों को लायल्टी प्वाइंट प्रदान करती हैं वहीं किसी ने मुफ्त में स्वास्थ्य बीमा देने का आफर भी आरंभ किया है। विभिन्न प्रकार के सामन को कम कीमत पर बेजने के लेकर इनके बीच एक प्रतिस्पर्धा भी देखने को मिल रही है। जाहिर है कि इसका फायदा ग्राहकों को ही मिलता है। परंपरागत किराना के दुकानदारों के लिए इन बड़े ब्रांडेड स्टोरों के सामने टिकपाना मुश्किल हो रहा है। वहीं अब सब्जी के हाट में जाने वाले ग्राहक भी बड़े रिटेल स्टोरों के चेन की ओर ही रुख कर रहे हैं। महानगरों में किराने की दुकान चलाने वाले कई दुकानों की रोजाना की सेल में गिरावट आने लगी है वहीं उनमें से कई अपना शटर गिराने की भी सोचने लगे हैं।

अगर हम किराना के दुकानों के मामले में देखें तो इस तरह की खरीददारी में ग्राहकों को लाभ है क्योंकि उसे कई तरह के सामान पहले की तुलना में सस्ती दरों पर मिल रहे हैं। वहीं बड़े रिटेल स्टोर ग्राहकों को कई बड़े सामान के साथ छोटे सामान मुफ्त का भी आफर मिलता रहता है। फिर भी ग्राहकों को किसी रिटेल चेन से सामान खरीदने से पहले दूसरे रिटेल स्टोर से दरों की तुलना करते रहना चाहिए। वहीं हमेशा किसी एक स्टोर से खरीददारी करने के बजाए कभी कभी दूसरे स्टोर में जाकर वहां के दरों की भी तुलना करते रहना चाहिए। कई बार अलग अलग स्टोरों में एक ही सामान के रेट में अंतर हो सकता है। इसलिए यहां से आंखें बंद करके खरीददारी करना उचित नहीं है।
- विद्युत प्रकाश मौर्य  ( साल 2007 ) 



Sunday, 25 March 2012

सस्ते चीनी मोबाइल...

-आखिर मोबाइल फोन कितना सस्ता हो सकता है। कई साल पहले इंट्री लेवल के हैंडसेट तीन-चार हजार रुपये से कम के नहीं थे। पर अब लगभग सभी ब्रांडेड कंपनियों ने एक हजार रुपये में इंट्री लेवेल के मोबाइल हैंडसेट उतार दिए हैं। कई कंपनियां तो एक हजार रुपये में रंगीन स्क्रीन वाले हैंडसेट आफर कर रही हैं। वहीं ग्राहकों के लुभाने के लिए एक हजार से 1200 रुपये में लाइफ टाइम कनेक्सन के साथ मोबाइल हैंडसेट आफर किए जा रहे हैं। अब हम इंट्री लेवेल के मोबाइल फोन के इससे भी सस्ता होने की बात नहीं सोच सकते। हां अगर कोई सेकेंड हैंड मार्केट में जाए तो उसे 500 रुपये वाले मोबाइल फोन भी मिल सकते हैं बिल्कुल चालू हालत में।


वहीं बाजार दूसरी ओर सस्ते चीनी मोबाइल फोनों से भी पटा पड़ा है। भारतीय बाजार में आपको बड़े आराम से जगह जगह चीनी फोन बिकते हुए मिल जाएंगे। आमतौर पर ये चीनी मोबाइल फोन नान ब्रांडेड होते हैं। पर इनमें उपलब्ध सुविधाओं की बात करें तो ये बड़े बडे दावे के साथ आते हैं। जैसे आपको 1.3 मेगा पिक्सेल कैमरा वाले मोबाइल फोन महज ढाई हजार रुपये तक में मिल जाएंगे। इसमें सांग डाउनलोड मेमोरी जैसी सुविधा तो होगी ही। यही नहीं तीन हजार से 3500 रुपये के रेंज में दो मेगा पिक्सेल के कैमरे वाले मोबाइल फोन मिल जाते हैं। इतनी सुविधा वाला मोबाइल फोन अगर आप किसी ब्रांडेड कंपनी का खरीदने जाएं तो सात हजार रुपये तक देने पड़ सकते हैं। यही चीनी कंपनियों का कमाल है कि वे इतने सस्ते में टेक्नोलाजी उपलब्ध करा रही हैं।
अब आपके जेहन में सवाल उठ सकता है कि आखिर सस्ता है तो कितना टिकाऊ हो सकता है। जाहिर सी बात है सस्ता है तो कोई गांरटी-वारंटी नहीं है। लेकिन शौक पूरा करने वाली नई पीढी गांरटी वारंटी की बात भी नहीं करती। भले गारंटी नहीं है पर ऐसा भी नहीं है कि ये मोबाइल फोन यू एंड थ्रो वाले हैं। देश के सबसे बड़े मोबाइल फोन बाजार यानी दिल्ली के करोलबाग का गफ्फार मार्केट का एक दुकानदार कहता है कि जैसे ब्रांडेड मोबाइल फोन की मरम्मत हो जाती है उसी तरह इन सस्ते मोबाइल फोन की भी मरम्मत हो जाती है। यह अलग बात है कि बहुत जटिल सुविधाओं वाले मोबाइल फोन के मरम्मत करने वाले हर छोटे शहर में नहीं मिलते हैं।
अगर आप शौक पूरा करने के लिए कोई सस्ता और बहुत सारी सुविधाओं से लैस मोबाइल फोन खरीदते हैं तो अपने जोखिम पर खरीदें। ऐसे मोबाइल खरीदने के बाद आपको मरम्मत के लिए परेशान होना पड़ सकता है। कई बार ऐसा भी हो सकता है कि आपका मोबाइल फोन मरम्मत कराते कराते किसी ब्रांडेड कंपनी के मोबाइल फोन के बराबर ही जा बैठे। लेकिन आप मोबाइल फोन में तेजी से आ रही सुविधाओं के लिहाज से देखते हैं और सस्ते में ढेर सुविधाएं भी चाहते हैं तो बेशक कोई चाइनीज मोबाइल फोन आजमा सकते हैं। सिर्फ दिल्ली ही नहीं बल्कि लगभग सभी महानगरों में ऐसे चीनी मोबाइल फोन का बाजार पहुंच चुका है। पर नोकिया जैसे किसी ब्रांडेड कंपनी के मोबाइल की तरह ये फोन सालों साल साथ निभाने वाले नहीं हैं, ये बात आपको अपने दिमाग में पहले से बिठा लेना चाहिए।
विद्युत प्रकाश मौर्य



Saturday, 17 March 2012

खुले बोरवेल बच्चों के लिए खतरा....

पहले कुरुक्षेत्र का प्रिंस और और आगरा की नन्हीं सी जान वंदना कुशवाहा। भले ही इन दोनों को बड़ी कोशिश करके बचा लिया गया। पर बोरवेल में बच्चों का गिर जाना कोई पहला हादसा नहीं है। ऐसे हादसे आए दिन देश के किसी न किसी कोने में हो रहे हैं। इसमें कुछ खुशकिस्मत बच्चे हैं जो समय पर सहायता मिल जाने के कारण बच जा रहे हैं। पर कई ऐसे हादसे में नन्हें मुन्नों को अपनी जान से हाथ धोना भी पड़ा है। ऐसे में जरूरत इस बात की है, हम ऐसे खुले बोरवेल से सावधान रहे हैं। साथ ही जरूरत खत्म होने के बाद ऐसे बोरवेल को तुरंत बंद किया जा जिससे की बोरवेल और नौनिहालों की जान नहीं ले सकें। प्रिंस और वंदना के मामले में सेना का धन्यवाद करना पड़ेगा कि जवानो ने मुस्तैदी दिखाकर इन बच्चों को बचा लिया। पर हमें यह भी देखना पड़ेगा कि ऐसे आपरेशन में कितनी बड़ी राशि खर्च हो जाती है। सेना और प्रशासन के लोगों को कई दिनों तक बाकी के काम छोड़कर इसी में लगे रहना पड़ता है।

अगर हम प्रिंस या वंदना की बात करें तो उनकी जान बच गई इसमें उनकी जीजिविषा और जैसे हालात में वे जीवन गुजारते हैं वह भी खूब जिम्मेवार है। वर्ना बिना कुछ खाए पीए एक दिन से ज्यादा संकरे से बोरवेल में पड़े रहना कितना मुश्किल हो सकता है। कई लोगों की जान तो ऐसी जगह पर पड़े पड़े ही जा सकती है। प्रिंस के बारे में कहा गया कि वह गरीब का बच्चा था इसलिए बच गया। गरीब के बच्चे को कई कई घंटे तक खाना नहीं मिलता तो भी जीते रहते हैं। ऐसी हालात में उनकी भूखे रहने की क्षमता में इजाफा हो जाता है। अगर वे किसी मिड्ल क्लास या अमीर के बच्चे हों तो उनका ऐसे में बच पाना ज्यादा मुश्किल हो जाता है। ऐसे में हमें खुले बोरवेल को लेकर ज्यादा सावधान रहने की जरूरत है। जो लोग कच्चे बोरवेल की खुदाई करते हों उन्हें चाहिए वे काम खत्म होने के बाद इस बोरवेल को अच्छी तरह ढक दें।
अगर हम इस मामले में मीडिया की बात करते हैं तो उन्हें ऐसी किसी खबर के समय लाइव शो करने का अच्छा मौका मिल जाता है। ऐसे लाइव शो दिखाकर अच्छी खासी टीआरपी गेन करने की संभावना बढ़ जाती हैं। जब कुरूक्षेत्र में प्रिंस गड्ढे के नीचे गिरा था तब सभी चैनलों ने अपने ओबी वैन घटनास्थल पर लगा दिए और लाइव शो दिखाना शुरू कर दिया। सारे देश का ध्यान अपनी ओर खींच लिया। ऐसी किसी खबर के समय लोग अन्य चैनल भी देखना छोड़कर समाचार चैनलों की ओर ही स्विच कर लेते हैं। हालांकि प्रिंस या वंदना को गड्ढे से निकाल पाने में इन समाचार चैनलों की कोई भूमिका नहीं होती। पर ऐसा लाइव ड्रामा दिखाने का मौका कोई चूकना नहीं चाहता।
 प्रिंस के समय में भी और आगरा की वंदना कुशवाहा के समय भी सभी चैनलों ने पल पल की लाइव खबर दिखाकर खूब टीआरपी बटोरी। प्रिंस को तो कुछ चैनलों ने बड़ा बहादुर लड़का घोषित किया और उसे मुंबई लेकर गए और बड़े बड़े सितारों से ले जाकर मिलवाया। यह सब कुछ प्रिंस के परिवार वालों के लिए किसी सपने जैसा था। अब प्रिंस की पढ़ाई लिखाई भी अच्छे स्कूल में हो रही है। पर देश में लाखों करोड़ो गरीब परिवारों के बच्चों के साथ ऐसा नहीं होता, जो विपरीत परिस्थितियों में धीरे-धीरे बड़े होते जाते हैं। लोगों की रूचि किसी लाइव ड्रामा में तो जरूर है, पर गरीब के बच्चों से असली संवेदना किसे है....किसी शायर ने लिखा है...
बहुत बेशकिमती है आपके बदन का लिबास, किसी गरीब के बच्चे को प्यार मत करना....

-विद्युत प्रकाश मौर्य vidyutp@gmail.com

Wednesday, 14 March 2012

टैक्स बचत की अप्रैल से ही करें प्लानिंग

आमतौर पर फरवरी और मार्च में नौकरी पेशा लोग काफी परेशान दिखाई देते हैं। उन्हें यह परेशानी होती है कि आखिर रुपया कहां लगाएं जिससे की कर बचत की जा सके। कई लोगों की हालत होती है कि मार्च का पूरा वेतन कर देने से बचने के लिए सेविंग में चला जाता है। कई लोगों का तो दो महीने का वेतन भी टैक्स में चला जाता है। अगर नहीं भी जाए तो फरवरी मार्च में उनके परिवार का बजट जरूर खराब हो जाता है। अगर आपने किसी तरह लोन ले रखा है तो उसकी किस्त देने में और भी हालत बुरी हो जाती है। इन सबसे बचा जा सकता है अगर आप थोड़ी अक्लमंदी से काम लें। आप नया वित्तीय वर्ष आरंभ होने के समय ही यह जांच कर लें कि आपका इस साल का सालाना वेतन या कुल आमदनी कितनी बनेगी इस पर टैक्स कितना देना पड़ेगा। इसके साथ ही यह गणना करवाएं कितना रुपया आप अमूमन साल भर में बचत कर सकते हैं। उसके बाद कितना राशि बचती है जिस पर आप सरकार को कर अदा करना चाहते हैं।
कर बचाएं या अदा करें-
कर बचाने के लिए बचत का सीधे अर्थों में यह फंडा है कि आप जितना टैक्स बचाना चाहते हैं उसका पांच गुना रुपया आपको टैक्स सेविंग स्कीम में बचत करनी पड़ती है। यह राशि विभिन्न सरकारी योजनाओं में जाती है। इसमें आमतौर पर आठ से नौ फीसदी तक ब्याज होता है साथ ही इस राशि का लाक इन पीरियड भी होता है। इसलिए आप यह भी देखें की कर के लिए रुपया बचाना अच्छा है यह उस राशि पर कर अदा कर देना ही अच्छा है। आमतौर पर हर व्यक्ति को साल में कुछ राशि कर के रुप में भी अदा करनी चाहिए। कर के लिए आप जो रुपया बचाते हैं वह राशि आपको आठ साल बाद दुगुनी होकर मिलती है। पर महंगाई की दर से देखें तो उस राशि की क्रय शक्ति उस समय कम हो जाती है।
हर महीने करें बचत

टैक्स बचत के लिए आप जो रुपया विभिन्न सेविंग स्कीम में लगाना चाहते हैं उसे आप फरवरी मार्च के महीने में भी न लगाकर हर महीने बचत की योजना पर काम करें। आप अप्रैल से अगले मार्च महीने तक 12 महीने तक कर बचाने के लिए बचत करें। इससे आपके बजट पर बोझ नहीं पड़ेगा। जैसे आपको वेतन के साथ करने वाले ईपीएफ या जीपीएफ से मिलने वाली कर रियायत, मकान किराया, बच्चों की फीस आदि के बाद आपको 40 हजार रुपए साल में टैक्स सेविंग स्कीम में लगाने की जरूरत पड़ती है। इसमें पहला तरीका यह हो सकता है कि फरवरी या मार्च में आप 40 हजार रुपए किसी एक योजना में लगाएं। दूसरा तरीका यह हो सकता है कि आप हर महीने साढ़े तीन हजार रुपए किसी एक योजना में लगाएं।
अगर आपने जीवन बीमा करा रखा है तो उसमें की जाने वाली बचत से मिलने वाले कर लाभ का भी लाभ उठाएं। मकान खऱीदने के लिए मिलने वाले लोन पर भी कर रियायत मिलती है। इस बारे में भी अपने कर सलाहकार से राय लें।
अब महत्वपूर्ण तथ्य की कर बचाने के लिए किन योजनाओं में पैसा लगाएं। अब राष्ट्रीय बचत पत्र (एनएससी) खरीदना अच्छे विकल्पों में नहीं है। आप हर महीने आवर्ती जमा की तरह पीपीएफ में पैसा जमा कर सकते हैं या फिर इक्विटी लिंक्ड सेविंग स्कीम( इएलएसएस) यानी म्युचुअल फंड में भी पैसा लगा सकते हैं।
- विद्युत प्रकाश मौर्य 


Monday, 12 March 2012

मैनेजमेंट गुरू से राजनीति का सफर

अभिषेक मिश्रा यूपी में समाजवादी पार्टी के बदलते हुए चेहरे के प्रतीक हैं। लखनऊ उत्तर से चुनाव जीत कर विधान सभा में कदम रखने वाले अभिषेक मिश्रा आईआईएम अहमदाबाद में प्रोफेसर की नौकरी छोड़कर आए हैं। 

भले ही कुछ लोग समाजवादी पार्टी को गुंडों और जेल से चुनाव लड़ने वाले नेताओं की पार्टी मानते हैं लेकिन अब समाजवादी पार्टी तेजी से बदल रही है। मुलायम सिंह यादव के बेटे अखिलेश खुद भी विदेशी विश्वविद्यालयों से ऊंची पढ़ाई पढ़कर राजनीति में आए हैं। 


बताया जा रहा है कि आईआईएम में पढ़ा रहे अभिषेक को अखिलेश यादव ने दो साल पहले समाजवादी पार्टी से जोड़ा। पार्टी की नीतियां बनाने में इस मैनेजमेंट गुरू की बड़ी भूमिका रही है।

 समाजवादी पार्टी के घोषणा पत्र में छात्रों को मुफ्त में लैपटॉप और टैबलेट देने की बात हो या फिर बेरोजगारी भत्ता और शिक्षा को लेकर नई योजनाएं इन सबके पीछे थींक टैंक के रूप में अभिषेक मिश्रा काम कर रहे थे। ये अभिषेक और अखिलेश द्वारा बनाई गई चुनावी रणनीति का एक भाग है, जिसे पार्टी पूरा करने के हर संभव प्रयास करेगी। इतना ही नहीं प्रचार प्रसार के लिए अखिलेश यादव ने वही तरीके अपनाए, जो अभिषेक मिश्रा ने उन्हें  सुझाया। हालांकि अभिषेक पार्टी के थींक टैंक ही बने रहना चाहते थे लेकिन बताया जा रहा है कि अखिलेश यादव ने अभिषेक को चुनाव लड़ने के लिए तैयार किया।

अभिषेक मिश्रा आईआईएम में मैनेजमेंट के छात्रों को बिजनेस पॉलिसी पढ़ाते थे। वे पूर्व आईएएस जेएस मिश्र के बेटे हैं लेकिन अब मैनजमेंट की क्लास छोड़कर राजनीति की रपटीली राहों पर चल पड़े हैं। अभिषेक जैसे चेहरे से उम्मीद की जा सकती है कि यूपी की राजनीति का चेहरा जरूर बदलेगा। साथ ही वे समाजवादी पार्टी की छवि को भी बदलने में सहायक होंगे जिसे आमतौर पर यूपी में लाठी भांजने वालों की पार्टी माना जाता है। उम्मीद है अखिलेश यादव उनका बेहतर उपयोग करेंगे और दोनों युवा मिलकर यूपी में नई इबारत लिखेंगे।

- विद्युत प्रकाश मौर्य

Friday, 9 March 2012

छोटे परदे पर ये कैसे कैसे गुरू....

भारतीय संस्कृति में गुरू की तुलना ऐसे कुम्हार से की गई है जो घड़े के अंदर हाथ डालता और बाहर धीरे धीरे चोट मारता है जिससे घड़ा सुंदर आकार ले पाता है। ठीक उसी तरह गुरु भी शिष्य के अंदर की तमाम अच्छाईयों को बाहर लाता है और उसे सुंदर बनाता है, ठीक उसी कुम्हार की तरह जो घड़े को सुंदर बनाता है। पर समय के अनुसार गुरूओं की नई पीढ़ी आ रही है।


आजकल टीवी पर संगीत प्रतियोगिताओं में गुरूओं का नया रुप देखने को मिल रहा है। ये गुरु अपने शिष्यों की अच्छाई और बुराई का मंच पर ही छिद्रान्वेषण करते हैं। इस दौरान अगर तारीफ की जा रही है तो शिष्य बड़े खुश होता हैं उनका सीना गर्व से चौड़ा हो जाता है, पर अगर गुरू उनकी निंदा करने लगे तो वे आंखों में आंसू ले आते हैं। मजे की बात एक गुरू तारीफ करता है तो दूसरा टांग खींचता है..यह सब कुछ चलता रहता है और देश दुनिया के करोडो लोग इस शो को देख रहे होते हैं। लोगों को यह सब कुछ बड़ा नेचुरल सा लगता है। यह ठीक उसी तरह होता है जैसे किसी बडे मामले पर फैसला करने के लिए अदालत में जूरी बैठती है। ये गुरू भी कुछ कुछ जूरी के मेंबरों की तरह ही तो होते हैं। पर अदालत में जो जूरी बैठती वह बंद कमरे में होती है। पर यहां पर गुरू करोड़ों लोगों को अपने अपने अंतर्विरोध दिखाते हैं। अगर आप संगीत प्रतियोगिताओं में होने वाली वास्तविक मानते हैं तो आप किसी गलतफहमी में जी रहे हैं। दरअसल यह सब कुछ एक हाई प्रोफाइल नाटक की तरह होता है। ऐसा लगता है मंच पर दो संगीत के जानकार किसी बात को लेकर लड़ रहे हैं। पर यह लड़ाई एक दम नाटकीय होती है। लोगों को तो लगता है कि एक शिष्य को लेकर दो गुरू लड़ रहे हैं पर यह लड़ाई महज धारावाहिक को सेलेबल बनाने के लिए होता है। दर्शकों का ध्यान खींचने के लिए होता है। कोई संगीतकार किसी टैलेंट को लेकर कहता है कि तुमने इतना खराब गाया कि उम्मीद ही नहीं थी। तुम बिल्कुल चल नहीं पाओगे....जैसे बिल्कुल हतोत्साहित करने वाले शब्दों का इस्तेमाल ये गुरु करते हैं। यह सब कुछ मंच पर किसी को अपमानित करने के जैसा ही होता है। अगर किसी की गायकी में कमी है तो उसके बारे में सरेआम मंच पर बताने की क्या जरूरत है।

मजे की बात है इन संगीत प्रतियोगिताओं में जज हैं सभी भारतीय शास्त्रीय संगीत की महान परंपराओं से अवगत है। जहां पर गुरू शिष्य़ का इतना सम्मान करता है कि उनका जितनी बार नाम लेता है उतनी बार कान को उंगली लगता है। वहीं पर शिष्य भी अपने गुरू का काफी सम्मान करता है। दोनों कभी किसी की सार्वजनिक रूप से निंदा नहीं करते हैं। रिश्तों को नाटकीय नहीं बनाते हैं। पर यहां चीजों को नेचुरल टच देने के नाम पर एक अजीब सा नाटक किया जा रहा है। मजे की बात है कि ऐसे संगीत प्रतियोगिताओं में जावेद अख्तर, इला अरूण, उदित नारायण, अनु मलिक जैसे लोग जज हैं। पर सभी इन धारावाहिकों को कामर्सियल रुप से सफल बनाने की कोशिश में लगे हुए हैं।

यह जान पाना मुश्किल है कि वे संगीत प्रतियोगिताओं में जज की कुरसी पर बैठ कर जो कुछ एक्सपर्ट कमेंट देते हैं उनमें कितनी असलियत होती है। पर कई बड़े मनोरंजन चैनलों पर नाटक का यह सिलसिला जारी है। चूंकि इन संगीत सितारों की खोज के साथ चल रहा एसएमएस और अन्य तरीके से लोगों को जोड़कर रखने का सिल। इसलिए इन गुरुओं को भी नाटक करने को कहा जाता है...और ये गुरू व्यावसायिकता की होड़ में गुरू जैसी पवित्र संस्था को कलंकित कर रहे हैं।


Wednesday, 7 March 2012

छोटे निवेशक बाजार पर रखें नजर....

आप छोटे निवेशक हैं तो भी आपको बाजार पर नजर रखना चाहिए। शेयर बाजार में पैसा लगाना और धन कमाना अच्छी चीज है पर आपके आंख और कान खुले होने चाहिए। आम तौर पर बाजार में दो तरह के निवेशक हैं एक वे जो पैसा लंबे समय के लिए लगाते हैं और एक वे जो पैसा लगाकर तुरंत लाभ कमाना चाहते हैं। जो लोग पैसा लगाकर तुरंत लाभ कमाना चाहते हैं उन्हें और भी सावधान रहना चाहिए। बाजार से तुरंत लाभ कमाना जोखिम भरा है। यह एक तरह का जुआ भी है।


रोज लाभ कमाना जुआ- कुछ लोग शेयर में निवेश करते हैं और रोज लाभ कमाते हैं। सुबह एक लाख रूपया किसी शेयर में निवेश किया और चार घंटे बाद अगर दो रूपये प्रति शेयर का लाभ होता दिखाई दिया तो बेच दिया। इसमें कई बार लाभ होता है तो कई बार घाटा भी हो जाता है। जो लोग पहली बार निवेश करते हैं और उन्हें घाटा हो जाता है तो वे बाजार से बहुत निराश हो जाते हैं। साथ बहुत बड़ी राशि निवेश करने वालों को भी बाजार कई बार बड़ा घाटा देता है। पर ऐसे लोग ये भूल जाते हैं कि इसी बाजार ने उन्हे कई बार बहुत बड़ा फायदा भी कराया है। 

निवेश में संयम बरतें - बाजार के नियमित निवेशकों को बाजार के ऐसे उतार-चढ़ाव के समय संयम बरतना चाहिए। जो लोग बाजार में यह सोच कर आते हैं कि उन्हें अपने धन से तुरंत कोई बड़ा लाभ हो जाएगा तो कई बार उन्हें लाभ हो जाता है पर कई बार उन्हें इसमें बड़ा घाटा भी हो जाता है।

दीर्घकालिक निवेश में फायदा - अगर हम बाजार के लंबे ट्रैक रिकार्ड को देखें तो यह पाएंगे कि जिन लोगों ने अपना धन लंबे समय के लिए निवेश किया है उन्हें बाजार से कोई घाटा नहीं हुआ है। अगर आपका पैसा म्चुअल फंडों में तीन साल या उससे ज्यादा समय के लिए जमा रहा है तो आमतौर पर यह बहुत फायदा देकर गया है। अगर कोई 15 साल से शेयर बाजार में नियमित निवेश करता आ रहा है तो उसे भी बाजार से कोई घाटा नहीं हुआ है। 

अगर हम बाजार में हर्षद मेहता और केतन पारिख जैसे बड़े घोटालों पर भी नजर डालें तो भी बाजार इन सबसे उबर कर फिर से उठ खड़ा हुआ है और लंबे समय से धन का निवेश करने वालों को कोई घाटा नहीं हुआ है। जनवरी 2008 में एक बार फिर बाजार में तेज गिरावट आई है। दुनिया की कई बड़ी कंपनियों के घाटे के कारण भारत के शेयर बाजार अचानक 25 से 30 फीसदी तक नीचे गिरा है। पर इसके आधार पर ऐसा नहीं कहा जा सकता है कि हमें भारतीय शेयर बाजार से निराश होने की जरूर है। दरअसल बांबे स्टाक एक्सचेंज के सेंसेक्स ने एक साल में 13 हजार से 21 हजार तक का सफर तय कर लिया तो लोगों को लगने के लगा कि बाजार में बढ़त इसी गति से हमेशा जारी रहेगी। पर हमेशा ऐसा नहीं होता। अगर बैंक के फिक्स डिपाजिट या अन्य जमा योजनाओं में आपका रूपया आठ फीसदी की गति से बढ़ता है तो शेयर बाजार में आपका रुपया 20 से 25 फीसदी की गति से भी बढ़े तो इसको बहुत अच्छा रिटर्न मानना चाहिए। पर शेयर और म्यूचुअल फंड कई बार साल में 50 से 100 फीसदी तक रिटर्न दे जाते हैं। पर इसमें जब तेजी से गिरावट आती है तो निवेशकों के दिल की धड़कन तेज होने लगती है।

शेयर बाजार में निवेश करने वालों को यह बात अच्छी तरह याद रखनी चाहिए कि बाजार में निवेश में जोखिम है। जनवरी फरवरी में बाजार में बड़ी गिरावट आने के बाद भी जिन लोगों ने आठ दस महीने पहले बाजार में पैसा लगाया है उन्हें कोई नुकसान नहीं हुआ है।
- vidyutp@gmail.com 



Sunday, 4 March 2012

डीटीएच कंपनी का फर्जीवाड़ा

मैं कभी अपने डीटीएच पर मूवी बुक करके फिल्में नहीं देखता। लेकिन एक दिन मेरे मोबाइल पर अचानक मैसेज आता है कि आपके डीटीएच पर चैनल नंबर 155 और 156 पर दो मूवी बुक कर दी गई हैं। आपके खाते से सौ रूपये भी काट लिए गए हैं। यही संदेश अगले दिन भी आता है। यानी मेरे खाते में दौ सौ रूपये का डाका। जबकि मैंने फोन या एसएमएस किसी भी तरीके से कोई मूवी बुक ही नहीं कराई थी। मैंने अपने डीटीएच काल सेंटर को फोन लगाकर शिकायत दर्ज कराई। डीटीएच सेवा की काल एडेंट करने वाली बाला का व्यवहार बड़ा ही बदतमीजी भरा था। उसने कहा कि ऐसा हो ही नहीं सकता। आपने जरूर मूवी बुक कराई होगी। मैंने जवाब दिया न तो आनलाइन या फिर मोबाइल या एसएमएस से मैंने कोई मूवी बुक ही नहीं कराई। लेकिन काल सेंटर की एक्जक्यूटिव मेरा तर्क मानने को तैयार नहीं। मैंने कहा मेरे खाते से जो रूपये कटे हैं उसे रिवर्ट कराओ। लेकिन वे इसका रास्ता भी बताने को तैयार नहीं। खैर काफी बकझक के बाद भी मेरी समस्या का समाधान नहीं हुआ। तब मैंने कंपनी के नोडल आफिसर का नंबर मांगा। नोडल आफिसर को काल किया सारी परेशानी फिर से बताई। नोडल आफिसर ने मेरी समस्या को समझा और कंपनी की गलती मानी। मेरे खाते से कटे 200 रूपये अगले 24 घंटे में वापस आ गए। मुझे परेशानी हुई ये एक मुद्दा है। 

लेकिन सबसे बड़ा मुद्दा है कि कई डीटीएच कंपनियां अपनी कमाई बढ़ाने के लिए इस तरह का फर्जीवाड़ा बड़े पैमाने पर कर रही हैं। अगर आपने गंभीरता से अपना एसएमएस नहीं देखा तो आपके खाते से रूपये कटे। इस तरह लाखों कस्टमर के साथ धोखाध़ड़ी करके कंपनी ने करोड़ो कमा लिए। ये है उपभोक्ताओं को लूटने का एक तरीका। ये सब कुछ करने वाली कंपनी है एयरटेल डिजिटल। अगर आपके खाते में भी इस तरह का फर्जीवाड़ा हुआ है तो चुप मत बैठिए आवाज उठाइए...

-    विद्युत प्रकाश मौर्य

Friday, 24 February 2012

शाबास ललितपुर...बना डाला रिकार्ड

यूपी का ललितपुर जिला। नक्शे में देखें तो तीन तरफ से मध्य प्रदेश से घिरा हुआ। लेकिन विधान सभा चुनाव 2012 के पांचवें चरण में यहां मतदाताओं ने दिखाया है सबसे ज्यादा जोश। ललितपुर में 71 फीसदी लोगों ने वोट डाले। तो कानपुर जैसे यूपी से सबसे बडे शहर में महज 55 फीसदी मतदान हुआ है।  ललितपुर विधान सभा में रिकार्ड 72.16 फीसदी वोट पडे हैं जबकि मेहरोनी में थोड़ा कम। लेकिन ललितपुर के मतदाताओं ने इतिहास रच दिया है। आजादी के बाद कभी इतनी बड़ी संख्या में किसी जिले में वोटर बाहर नहीं निकले। ये चुनाव आयोग के कंपेन का असर है या लोकतंत्र को लेकर गांव  गिरांव के वोटरों की जागरूकता। ये चुनाव का परिणाम आने पर बेहतर समझा जा सकेगा। लेकिन इतना तय है कि इस बार शहरी मतदाता की तुलना में गांव के मतदाता लोकतंत्र के प्रति ज्यादा जागरूकता दिखा रहे हैं। इससे पहले के मतदान मे भी देखें तो गोरखपुर शहर से ज्यादा मतदान उसके आसपास के ग्रामीण क्षेत्रों में हुआ है। वाराणसी से ज्यादा मतदान नक्सल प्रभावित सोनभद्र, चंदौली और मिर्जापुर जिलों में हुआ। लखनऊ शहर से ज्यादा मतदान उसके आसपास के जिलों में हुआ।
चुनाव आयोग कहता है कि यूपी में वर्ष 2007 में हुए पिछले विधानसभा चुनाव के पांचवें चरण में कुल 47.57 प्रतिशत मतदान हुआ था। इस बार पांचवें चरण में 13 जिलों का मतदान प्रतिशत 59.2 फीसदी है। हिसाब लगाएं तो इस बार अपेक्षाकृत 24.44 प्रतिशत अधिक मतदान हुआ है। यूपी का मतदाता हर चरण में 2007 की तुलना में ज्यादा मतदान कर रहा है। पहले चरण में 8 फरवरी को 62 फीसदी मतदान हुआ था। आजादी के बाद पहली बार मतदान फीसदी में इतना इजाफा देखा गया। दूसरे चरण में भी 59 फीसदी वोट पड़े। तीसरे चरण में 57 फीसदी वोट पड़े तो चौथे चरण में भी 57 फीसदी मतदान हुआ।
बात एक बार फिर ललितपुर की करें तो बुंदेलखण्ड के इस अति पिछड़े जनपद में इस चुनाव में किसी दल विशेष की बयार नहीं दिखाई दे रही थी। जिले में दो विधानसभा क्षेत्र ललितपुर सदर व महरौनी हैं। नए परिसीमन में महरौनी को अनुसूचित वर्ग के लिए आरक्षित किया गया। सदर में 3,84607 कुल मतदाता हैं, जिनमें 1,80163 महिला मतदाता हैं। इसी प्रकार महरौनी में कुल मतदाताओं की संख्या 3,59612 है, यहां महिलाओं की संख्या 1,70069 है। अगर ललितपुर जिले में 72 फीसदी तक मतदान हुआ है तो वह किसके पक्ष में ये आकलन अभी मुश्किल हो सकता है। हांलाकि पिछले चुनाव में जिले की दोनो ही सीटें बीएसपी के पास थीं। पिछले चुनाव में दोनों सीटों पर बीएसपी के उम्मीदवार जीते थे। सदर में बसपा के नाथूराम कुशवाहा ने वीरेन्द्र सिंह बुंदेला को हराया तो महरौनी में उनके चचेरे भाई पूरन सिंह बुंदेला बसपा के ही रामकुमार तिवारी से चुनाव हार गए थे।

--- विद्युत प्रकाश   

Monday, 13 February 2012

कैब सेवा – महानगर के लिए सुविधाजनक


अगर आप को कभी कभी कार से चलने की जरूरत पड़ती हो तो कोई जरूरी नहीं कि आप खरीदें। इसके लिए आप कैब सर्विस की सेवाएं ले सकते हैं। जैसे कि आपको स्टेशन या एयरपोर्ट जाना है तो आप समय से पहले की कैब बुक कर लें। इससे आपकी एन वक्त पर गाड़ी ढूंढने की समस्या भी खत्म हो सकती है। अब महानगरों में 24 घंटे कैब बुक करने की सुविधा उपलब्ध है। जब आप किसी कैब कंपनी को कैब के लिए फोन करते हैं तो ये काल रेडियो फ्रिक्वेंसी से आपके आसपास मौजूद कंपनी के सभी कैब वालों तक जाती है। थोड़ी देर में ही आपके मोबाइल पर संदेश आ जाता है कि आपको कौन सी कैब, उसका नंबर क्या है, ड्राइवर का नंबर क्या है कितनी देर में आपके पास पहुंच जाएगी।
कैब सेवाएं कभी कभी कार का सफर करने वालों से सुरक्षित और सस्ती हैं। आपको अगर हफ्ते में एक दिन ही कार की जरूरत पड़ती है तो आप कार खरीदने के बजाए कैब की सेवा लें तो ये आपके लिए बेहतर विकल्प हो सकता है। आप अगर नई कार खरीदते हैं तो उसके रख रखाव में अच्छा खासा खर्च करना पड़ता है। साथ ही कार की सुरक्षा की चिंता भी रहती है। अगर आपने तीन लाख रूपये एक कार में निवेश किया है तो उसकी कीमत भी घटती रहती है। भले ही कार कम ही क्यों न चलती हो। मान लिजिए किसी काम से आपको कुछ दिनों के लिए दूसरे शहर में जाना हो तो चाह कर भी आप अपनी कार से स्टेशन नहीं जा सकते। क्योंकि आपकी कार को स्टेशन से वापस कौन लाएगा। ऐसी हालत में आप टैक्सी सेवा का ही सहारा लेते हैं। महानगरों में शुरू हुई कैब सर्विस ने परंपरागत टैक्सी स्टैंड की टैक्सी सेवा से बेहतर सेवा देनी शुरू कर दी है। यहां प्रति किलोमीटर रेट फिक्स है। ड्राइवर आपको बिल देता है। बिलिंग में पूरी तरह पारदर्शिता है। कैब सेवाओं के पास छोटी बड़ी हर तरह की टैक्सियां उपलब्ध हैं। अमूमन दिन हो या रात कभी भी कैब बुक कर सकते हैं। दिल्ली जैसे महानगर में कुछ टैक्सी सेवाएं 10 रूपये प्रति किलोमीटर तो कुछ 15 तो कुछ 20 रूपये प्रति किलोमीटर के रेट में सेवाएं उपलब्ध करा रही हैं। रात्रि सेवा और इंतजार के लिए अलग शुल्क है।   
हम आपको दिल्ली की कुछप्रमुख कैब सेवाएं को नंबर बता रहे हैं।  
टैक्सी सिंडिकेट – 011- 6767-6767
मेगा कैब       011-4141-4141
आइरिश        011-44334433
एयर कैब       011-48484848
इजी कैब       011-43434343
क्विक कैब      011-4533-3333
मेरू कैब       011-4422-4422
आरएस कैब     011-4433-4433
वान कैब       011-4800-0000
दिल्ली कैब     011-4433-3222

Tuesday, 7 February 2012

जमाने के साथ बदलती घड़ियां...

अब भला घड़ियां कौन पहनता है। मोबाइल फोन ने घड़ियों की जरूरत को खत्म कर दिया है। अगर सिर्फ समय देखना है तो अलग से घड़ी पहन कर चलने की क्या जरूरत है। मोबाइल फोन ने घड़ी और एड्रेस बुक साथ लेकर चलने की जरूरत को खत्म कर दिया है। ऐसे दौर में लोग आम तौर मोबाइल फोन साथ होने पर घड़ी पहनकर चलना जरूरी नहीं समझते। पर नहीं जनाब अभी भी घड़ियां आउटडेटेड नहीं हुई हैं। घड़ी बनाने वाली कंपनियां अब घड़ियों को भी नया रूप देकर उसे बहुउपयोगी बनाने में लगी हैं। अगर घड़ी में समय देखने के अलावा आपको कुछ और सुविधाएं भी मिलें तो निश्चय ही आप घड़ी पहनना पसंद करेंगे। अगर हम घड़ियों की पिछली पीढ़ी की बात करें तो मेकेनिकल घड़ियों में तारीख और महीना देखने की सुविधा उपलब्ध होती थी। क्वार्टज घड़ियों में भी इस तरह की सुविधा उपलब्ध थी। पर इनमें एक मुश्किल थी की महीना बदलने पर तारीख एडजस्ट करना पड़ता था। उसके बाद डिजिटल घड़ियों का दौर आया। ऐसी घड़ियों में तारीखेंकैलेंडर आदि अपने आप एडजस्ट हो जाता था। पर डिजिटल घड़ियां अपनी ड्यूरेब्लिटी और वाटर रेजिस्टेंस नहीं होने के कारण लोगों की पसंद नहीं बन सकीं।

पर दुनिया की कई जानी मानी कंपनियां घड़ियों में नित नए रिसर्च कर घड़ियों के बाजार को नया आयाम देने की कोशिश में लगी हुई हैं। जिस तरह कार के बाजार में महंगी कारों का सिगमेंट है। उसी तरह महंगी घड़ियों के सिगमेंट में कई तरह की सुविधाओं से सज्जित घड़ियां बाजार में आई हैं। फिनलैंड की जानी-मानी घड़ियों की कंपनी सुनोटो ने एबीसी सीरिज की घड़ियां लांच की है। एबीसी यानी इस घड़ी में समय देखने के अलावा एलमीटर, बैरोमीटर और कंपास जैसी सुविधाएं हैं। यह घड़ी सूर्योदय और सूर्यास्त का समय भी बताती है। घड़ी का मेनू चार भाषाओं में उपलब्ध है।
घड़ी में ड्यूल टाइम, काउंट डाउन टाइमर जैसी सुविधाएं मौजूद हैं। सुनोटो की घड़ियां अक्सर हवाई जहाज की यात्रा करने वालों, पर्वतारोहियों और पूरी दुनिया का भ्रमण करने वाले लोगों को लिए उपयोगी हो सकती हैं। सुनोटो की घड़ी अपने आप में एक वेदर स्टेशन की तरह है। घड़ी में बैरोमीटर है जो हवा दबाव, मौसम का ग्राफिक्स बताता है। मौसम खराब होने के समय आपको चेतावनी भी देता है। जब आप हवाई यात्रा कर रहे होते हैं तो 10 हजार मीटर की ऊंचाई तक घड़ी में मौजूद एलटीमीटर वहां के एलीवेशन की आपको जानकारी देता है।
गोताखोरी से जुड़े लोग, पहाड़ों पर चढ़ाई करने वाले, स्कीईंग और नौका चलाने वाले लोगों गोल्फ के खिलाड़ियों के लिए इस तरह की घड़ी बहुत उपयोगी है जो एक साथ कई तरह के समाधान प्रदान करती है। यानी अगर आप भविष्य में अधिक सुविधायुक्त घड़ी खरीदने की बात सोच रहे हैं तो सुनोटो के छह माडलों के बारे में भी सोच सकते हैं। हम यह भी कह सकते हैं लैपटाप और मोबाइल के जमाने में घड़ियां पूरी तरह आउटडेटेड नहीं हुई हैं।

-विद्युत प्रकाश मौर्य vidyutp@gmail.com