Tuesday, 22 May 2018

बालश्रम (लघु कथा )

चौक पर अचानक राय साहब मिल गए। उन्होंने छूटते ही कहा जल्दी से बाल श्रम पर एक लेख लिखकर देदो मैं मैगजीन का अगला अंक बाल श्रम विशेषांक निकाल रहा हूं। मैंने कहा ठीक है शीघ्र ही एक लेख साथ आपकी सेवा में उपस्थित होउंगा। कुछ दिनों बाद मैं नीयत समय पर लेख लेकर राय साहब के आवास पर मौजूद था। लेकिन उस समय उनके कमरे का नजारा बदला हुआ था। राय साहब मोटे से हंटर से दनादन अपने नौकर को पीटे जा रहे थे। कदाचित उनकी रात की शराब का नशा अभी तक उतरा नहीं था। वे अपने दस साल के नौकर से मुखातिब थे। साले जानते नहीं हो मैं कितना हरामी आदमी हूं। जब मेरे अंदर का जानवर जाग उठता है तो मैं किसी को भी नहीं पहचानता हूं। मैंने बीच बचाव की कोशिश की। उन्होने कहा नहीं, मुझे जरा इसकी ठीक से खबर लेने दो। इसने आज मेरा नास्ता बनाकर देने में पांच मिनट की देरी की है।

मैंने मन ही मन सोचा इतनी छोटी सी गलती के लिए इतनी पिटाई। मुझे उस छोटे से बच्चे पर तरस आ रहा था। अपने नौकर निवृत होने के बाद राय साहब मेरी ओर मुखातिब हुए। उन्होंने पूछा कहां है तुम्हारा आलेख?  तब तक मैं अपने लेख को अपने हाथों में मोड़ कर टुकड़े टुकड़े कर चुका था। मैंने प्रकट रूप में जवाब दिया- लेख तो फिर से लिखना पड़ेगा, मुझे कुछ नए संदर्भ याद आ गए हैं।
-    विद्युत प्रकाश मौर्य ( 1996) 
 (BALSHARAM, SHORT STORY ) 

Sunday, 20 May 2018

रद्दीवाला ( लघु कथा )

बाबू जी रद्दी होगी क्या...हमने कहा हां है। मैंने देखा रद्दीवाले की उम्र 13-14साल के बीच होगी। उसने अपना साइकिल मेरे बरामदे में लगाया और हमारे साथ कई महीने से जमा अखबारों को तौलने लगा। मैंने पूछा इस उम्र में रद्दी खरीदते हो स्कूल क्यों नहीं जाते। क्या बताऊं बाबू जी पांचवी में पढता था तभी मेरी किताबें एक दिन चोरी हो गईं। उसके बाद घर वालों ने दुबारा किताबें नहीं खरीदीं । फिर मैंने रद्दी खरीदने का काम शुरू कर दिया।

घर में मेरी तीन बहनें हैं, पर कमाने वाला कोई नहीं। बापू दारू पीकर पड़ा रहता है। एक बड़े भाई ने पढ़ाई की है। पर ग्रेज्यूएट होने के बाद भी उसे कोई नौकरी नहीं मिली। वह भी घर में बैठकर रोटी तोड़ता है। भला मैं भी काम न करूं तो घर कैसे चलेगा। मैं रद्दी बेचकर 75 से 100 रूपये रोज कमा लेता हूं। मैं अपने पढे लिखे भाई से तो अच्छा हूं। अगर पढ़लिखकर बेरोजगार ही रहना है तो ऐसी पढ़ाई से क्या फायदा ?

बताते हुए रद्दीवाला अपना काम करता जा रहा था। बाबू जी कोई पुराना लोहा तो भी दे दो। रद्दीवाले की व्यापारिक बुद्धि को मेरे घर की हर चीज में रद्दी की बू आ रही थी। उसने पूछा बाबूजी आप काम क्या करते हो। मैंने कहा ये जो रद्दी तुम खरीद रहे हो उसे मैं बनाता हूं। मुझे इस सच्चाई का एहसास हुआ कि जो अखबार मैं बनाता हूं वह भी तो एक दिन बाद रद्दी में चला जाता है। उस रद्दी वाले की तीक्ष्ण बिजनेस बुद्धि के बीच मुझे अपना काम तुच्छ नजर आने लगा। सचमुच ढेर सारी पढ़ाई के बाद अगर रोजगार न मिले तो ऐसी पढाई का क्या फायदा।

रद्दीवाला बता रहा था कि पिछले दिनों उसका रेहड़ा चोरी हो गया जिससे उसका धंधा प्रभावित हुआ है। हमारी सारी रद्दी उठाकर साइकिल पर लादकर वह तेजी से रवाना हो गया। नई रद्दी की तलाश में। मुझे लगा कि ये रद्दीवाला बड़ा दार्शनिक है। उसे पता है कि हर चीज एक दिन रद्दी हो जानी है। फिर रद्दी से मोह कैसा। रद्दीवाले की मेहनत और लगन उसके पढ़े लेके बेरोजगार भाई के मुंह पर तमाचा जरूर मारती होगी।
-       विद्युत प्रकाश मौर्य ( 2005 )  ( SHORT STORY ) 

Saturday, 19 May 2018

येदियुरप्पा - दूसरे सबसे कम दिन के मुख्यमंत्री

कर्नाटक में बीएस येदियुरप्पा को तीसरे दिन ही मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा देना पड़ा। इस तरह येदियुरप्पा के नाम दूसरे सबसे छोटे कार्यकाल वाले मुख्यमंत्री बनने का रिकॉर्ड जुड़ गया है। सबसे छोटे कार्यकाल वाले सीएम का रिकॉर्ड जगदंबिका पाल के नाम है। इससे पहले कर्नाटक में ही यही बी एस येदियुरप्पा 12 नवंबर 2007 से 19 नवंबर 2007 तक सात दिन के मुख्यमंत्री भी रह चुके हैं। कई राज्यों में पहले भी ऐसा हुआ है जब मुख्यमंत्रियों को समर्थन के अभाव में कुछ दिनों में ही इस्तीफा देना पड़ा।

जगदंबिका पाल - 1 दिन
सबसे कम दिन के लिए मुख्यमंत्री बनने का रिकॉर्ड यूपी के नेता जगदंबिका पाल का है। 21 फरवरी 1998 को राज्यपाल रोमेश भंडारी ने कल्याण सिंह की सरकार को बर्खास्त कर जगदंबिका पाल को सीएम की शपथ दिलाई थीलेकिन अगले ही दिन गवर्नर के फैसले को हाईकोर्ट में चुनौती दी गई। हाईकोर्ट ने गवर्नर का आदेश बदल दिया।

सतीश प्रसाद सिंह - 5 दिन
सतीश प्रसाद सिंह बिहार में 28 जनवरी 1968 में मुख्यमंत्री बने थेलेकिन उन्हें 5दिन के बाद ही यानी 1 फरवरी को इस्तीफा देना पड़ा था। वे बिहार के पहले मुख्यमंत्री थे जो पिछड़ी जाति से आते थे।

ओम प्रकाश चौटाला ( 5 दिन, 16 दिन )
हरियाणा में ओम प्रकाश चौटाला के दो कार्यकाल अत्यंत छोटे रहे। वे 1990 में महज पांच दिन (12 जुलाई से 17 जुलाई)और एक बार फिर 1991 में ( 22 मार्च से 6अप्रैल ) 16 दिनों के लिए मुख्यमंत्री रह पाए थे।

नीतीश कुमार - 8 दिन
सन 2000 में 3 मार्च को बिहार में समता पार्टी से नीतीश कुमार मुख्यमंत्री बने। पर पर्याप्त अंक संख्या नहीं होने के कारण उन्हें 10 मार्च को ही इस्तीफा देना पड़ा। अपने पहले कार्यकाल में नीतीश महज 8 दिन ही मुख्यमंत्री रह सके।

शिबू सोरेन - 10 दिन
मार्च, 2005 को झारखंड में झामुमो प्रमुख शिबू सोरेन ने अल्पमत में होते हुए भी मुख्यमंत्री पद की शपथ दिलाई गई। बहुमत के लिए पर्याप्त संख्या नहीं जुगाड़ कर पाने पर शक्ति परीक्षण से पहले ही 12 मार्च को शिबू सोरेन को इस्तीफा देना पड़ा।

एससी मारक - 12 दिन
पूर्वोत्तर के राज्य मेघालय में कांग्रेस के नेता एससी मारक को भी अपने दूसरे कार्यकाल में सिर्फ 12 दिन यानी 27 फरवरी 1998 से 10 मार्च 1998 के लिए मुख्यमंत्री बनने का मौका मिला था। 

केंद्र में 13 दिन के प्रधानमंत्री
1996 में हुए लोकसभा चुनाव में भाजपा देश की अकेली सबसे बड़ी पार्टी बनी। लेकिन अंकों के लिहाज से बहुमत से पीछे रह गई। उस समय अटल बिहारी वाजपेयी ने विश्वास मत पेश करते हुए अपने भाषण के आखिर में अपने इस्तीफे का एलान किया था। वाजपेयी 16 मई 1996 को प्रधानमंत्री बने और 28 मई 1996 को 13 दिनों बाद उन्होंने इस्तीफा सौंप दिया।



Friday, 18 May 2018

नेता जी की बकरी ( व्यंग्य )

गांधी जी बकरी पालते थे। अब पूर्व प्रधानमंत्री वीपी सिंह की आंखें भी खुल गई हैं। वे अभी अब अपने मांडा स्टेट के पुराने किले में बकरी पालने की योजना बना रहे हैं। उन्हें एक विशेषज्ञ की यह सलाह पसंद आ गईहै कि बकरियां किसी चलते फिरते बैंक की तरह हैं। आप जब चाहे अपनी छोटी-मोटी जरूरतों के लिए बकरियों को बेच सकते हैं।
भला बकरे की मां कब तक खैर मनाएगी। गांधी जी को तो बकरी के ज्यादा फायदे नहीं मालूम थे। वे सिर्फ बकरी का दूध ही पीते थे। पर अब लोगों को बकरी के कई फायदे नजर आने लगे हैं। आप बकरे के मांस का व्यवसाय भी कर सकते हैं। बकरी पालन की शुरूआत भी थोड़ी सी पूंजी से ही की जा सकती है। दुनिया के कई महापुरूषों न बकरी चराने का काम किया है। हम ही बकरी के महत्व को समझ नहीं पाए और इसे निकृष्ट किस्म का पेशा समझते रहे। अब वीपी सिंह जैसे विशिष्ट व्यक्ति के बकरी पालने से इस पेशे की भी ख्याति बढ़ेगी। पूरी दुनिया ने गांधी से न जाने क्या क्या सीखने की कोशिश की पर उनसे बकरी पालन का गुण नहीं सीखा।
वैसे सुनने में आता है कि गांधी जी बकरी बड़ी वीआईपी थी। वह काजूकिसमिस और बादाम भी खाती थी। तो फिर वह दूध भी जरूर उम्दा किस्म का देती होगी। हालांकि डाक्टर बकरी के दूध को ज्यादा पौष्टिक नहीं मानते। पर गांधी जी ने डाक्टरों की बात कभी नहीं मानी वे बकरी का दूध ही पीते रहे। अब वीपी सिंह के दिव्य चक्षु बुढ़ापे में खुल गए हैं। वे बकरी पालन का ब्रांड एंबेस्डर बनने को तैयार हो गए हैं। यह विचार उनके दिमाग में स्वतः स्फूर्त ही आया है। भारत जैसे गरीब देश के लिए जहां लोगों की क्रय क्षमता अधिक नहीं है बकिरयां आदर्श हो सकती हैं। भला अब गाय और भैंस खरीदकर पालना सबके बस की बात कहां है। वहीं बकरी कोई भी खरीद सकता है। एक मजदूर भी। बकरी को रखने के लिए ज्यादा जगह भी नहीं चाहिए। भले ही हिंदुस्तानी लोग गाय को मां समान मानते हों पर हर हिंदुस्तानी गाय नहीं खरीद सकता। पर बकरी हर कोई खरीद सकता है। मुझे लगता है कि वीपी सिंह आने वाले चुनाव में जिस राजनीतिक दल में हो उन्हें अपना चुनाव चिन्ह भी बकरी लेना चाहिए। बकरी ही सच्चे समाजवाद का प्रतीक है।
आजकल लोगों की पाचन शक्ति भी ज्यादा मजबूत नहीं होती। इसलिए गाय या भैंस का दूध पीकर पचा पाना हर किसी के बस का रोग नहीं है। इसलिए सबको बकरी का दूध ही पीना चाहिए। अभी राजस्थान सरकार ऊंटनी के दूध के मार्केटिंग की योजना बना रही है। यूपी व बिहार सरकार को बकरी के दूध की मार्केटिंग की योजना बनानी चाहिए। वह ज्यादा कारगर सिद्ध हो सकती है। वह जब पूर्व प्रधानमंत्री के स्तर के लोग ऐसे प्रोडक्ट के ब्रांड एंबेस्डर हों तो क्या कहना।
अगर इस विंदु पर ठीक से काम हुआ तो देश में समाजवाद बकरी पर चढ़कर अवतरित हो सकता है। जेपी आंदोलन के बाद खुद को सच्चे समाजवादी का दावा करने वाले लोग धीरे-धीरे तो पूंजीवादी होते चले गए पर अब बकरी आंदोलन से फिर से सच्चे समाजवाद की शुरूआत की जा सकती है। देश के आजाद होने के बाद हमसे दो भारी भूलें हुई। हमने गांधी को तो भूला ही दिया। उनकी बकरी को भी याद नहीं रखा। अगर हम सिर्फ उनकी बकरी को ही सही ढंग से याद रखते तो देश में सच्चा समाजवाद कब का आ चुका होता। खैर अभी भी देर नहीं हुई है। जब जागो तभी सवेरा।
-विद्युत प्रकाश मौर्य




Monday, 14 May 2018

पूर्व सांसद बाल कवि बैरागी की यादें

बालकवि बैरागी न सिर्फ राजनीति में सक्रिय रहे बल्कि उन्होंने युवाओं को जागृत करने वाले अति लोकप्रिय गीत लिखे। सुब्बराव जी द्वारा राष्ट्रीय युवा योजना में गाया जाने वाला जागरण गीत – नौ जवान आओ रे नौ जवान गाओ रे ... उन्होंने लिखा था। 1993 में  सुब्बराव जी के आग्रह पर उन्होंने  - एक दुलारा देश हमारा प्यारा हिंदुस्तान रे... लिखा।

कवि एवं लेखक और पूर्व सांसद बालकवि बैरागी का निधन 13 मई 2018 को उनके गृह नगर मनासा में हो गया। वह 87 वर्ष के थे। उनके पुत्र गोरकी ने बताया कि दोपहर में एक कार्यक्रम में शामिल होने के बाद वह घर लौटे। इसके बाद वह आराम करने के लिए अपने कमरे में चले गए। उन्होंने बताया कि नींद में ही उनका निधन हो गया।

बैरागी अपने जीवन के आखिरी दिनों में नीमच जिले के मनासा इलाके में रहते थे। उनका जन्म मध्यप्रदेश के मंदसौर जिले की मनासा तहसील के रामपुरा गांव में 10 फरवरी 1931 को हुआ था। उनके जन्म का नाम नंदराम दास बैरागी था।
तू चंदा मैं चांदनी तू तरुवर मैं शाख रे  ( लिंक चटका कर यू ट्यूब पर सुनें) 
बालकवि बैरागी ने बॉलीवुड की फिल्मों के लिए 25 से अधिक गीत लिखे, जिनमें से फिल्म रेशमा और शेरा का गीत तू चंदा मैं चांदनी, तू तरुवर मैं शाख रेशामिल है। इसे लता मंगेश्कर ने गाया था। यह राग मांड पर आधारित बहुत ही सुमधुर गीत है। उन्होंने कई हिंदी कविताएं भी लिखीं, जिनमें से झर गए पात बिसर गए टहनीप्रसिद्ध है। उन्होंने कई युवा गीतों की भी रचना की। 

मध्य प्रदेश सरकार में मंत्री रहे
बालकवि बैरागी वर्ष 1980 से 1984 तक मध्यप्रदेश के मंत्री रहे और वर्ष 1984 से 1989 तक लोकसभा के सदस्य रहे। वह बाद में राज्यसभा के सदस्य भी रहे। वे 1945 से कांग्रेस में सक्रिय रहे। 1967 में उन्होंने विधानसभा चुनाव में प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री सुंदरलाल पटवा को शिकस्त दी थी। 1969 से 1972 तक पंडित श्यामाचरण शुक्ल के मंत्रिमंडल में राज्यमंत्री रहे। वे 1980 में मनासा से दोबारा विधायक निर्वाचित हुए। अर्जुन सिंह की सरकार में भी वे मंत्री रहे। 1984 तक लोकसभा में रहे। 1995-96 में अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी में संयुक्त सचिव रहे। 1998 में मध्य प्रदेश से राज्यसभा में गए। 29 जून 2004 तक वे निरंतर राज्यसभा सदस्य रहे। 2004 में उन्हें राजस्थान प्रदेश कांग्रेस के आंतरिक संगठनात्मक चुनावों के लिए उन्हें चुनाव प्राधिकरण का अध्यक्ष बनाया गया। 2008 से 2011 तक मध्य प्रदेश कांग्रेस में उपाध्यक्ष रहे। मध्य प्रदेश कांग्रेस चुनाव समिति के अध्यक्ष भी रहे हैं। वर्तमान में वे केंद्रीय हिंदी सलाहकार समिति के सदस्य थे।
 - श्रद्धांजलि - 
अनेक कविताएं रचकर लोगों के हृदय में बस जाने वाले प्रसिद्ध कवि, जन सेवक श्रद्धेय बालकवि बैरागी जी का निधन प्रदेश के लिए अपूरणीय क्षति है। ईश्वर से दिवंगत आत्मा की शांति और परिजनों को संबल प्रदान करने की प्रार्थना करता हूं।
- शिवराज सिंह चौहान, मुख्यमंत्री, मध्य प्रदेश

बालकवि बैरागी संघर्षशील, व्यक्तित्व के धनी थे। वे अपनी कविताओं व लेखनी के माध्यम से सदैव समाज में जागृति लाने का प्रयास करते थे। भावभीनी श्रद्धांजलि।
- कमलनाथ, अध्यक्ष, मप्र कांग्रेस

बचपन से ही कविताएं लिखने लगे थे
बैरागी ने नन्ही उम्र से ही कविताएं लिखना शुरू कर दिया था। इसलिए उन्हें बालकवि कहा जाने लगा। विक्रम विश्वविद्यालय से हिंदी में स्नातकोत्तर करने वाले कवि बैरागी ने छात्र जीवन से ही राजनीति में हिस्सा लेना शुरू कर दिया था।
1998 में बैरागी जी से वे मुलाकातें
बैरागी बड़े ही सरल और सहज स्वभाव के थे। साल 1998 में कुबेर टाइम्स मेंकार्यकरने के दौरान बैरागी जी से दो बार मिलना हुआ। उनका एक साक्षात्कार प्रकाशित करने के सिलसिले में दिल्ली के चाणक्यपुरी स्थित मध्य प्रदेश सदन में उनसे मुलाकात हुई। इस दौरान वहीं वरिष्ठ पत्रकार विनोद वर्मा से भी मुलाकात हुई। बाद में साक्षात्कार प्रकाशित होने पर मैं उन्हें अखबार की प्रति पहुंचाने गया। इन मुलाकातों के दौरान उनका आत्मीय व्यवहार मन पर अमिट छाप छोड़ गया।
-        - विद्युत प्रकाश मौर्य

Thursday, 10 May 2018

दीपिका सिंह राजावत - साहसी वकील और मानवाधिकार कार्यकर्ता

दीपिका सिंह राजावत वह साहसी वकील हैं जो कठुआ की रेप पीड़ित बालिका का मुकदमा लड रही हैं। वे कश्मीर में गरीब और जरूरतमंदों की आवाज बनकर उभरी हैं।
मूल रूप से कुपवाड़ा जिले के कारीहामा गांव की रहने वाली 38 साल की दीपिका थुसू की शादी राजस्थानी राजावत परिवार में हुई है। उन्होंने नेशनल लॉ यूनीवर्सिटी जोधपुर से 2008 में एलएलबी की पढ़ाई पूरी की । दीपिकामानवाधिकारों के लिए भी काम करती हैं। उनके पति सेना में रह चुके हैं। उनकी एक पांच साल की बेटी भी है।
खुद लिया केस
दीपिका ने बताया कि पीड़ित लड़की के माता-पिता बहुत गरीब हैं। इसलिए मैंने उनके माता-पिता से संपर्क किया, और यह केस खुद लड़ने के लिए लिया।
जरूरतमंदों की आवाज बनीं
दीपिका एक एनजीओ वायस फॉर राइट्स चलाती हैं। वह इस एनजीओ कीचेयरपर्सन हैं। यह एनजीओ जरूरतमंद बच्चों और महिला अधिकारों के लिए काम करता है। जम्मू कश्मीर में ऐसे लोगों के लिए एनजीओ ने एक टोल फ्री नंबर भी जारी किया है। दीपिका बच्चों के लिए काम करने वाले संगठन क्राई और चरखा फाउंडेशन से भी जुड़ी रही हैं।
बारुदी सुरंग में घायल बच्चों को मुआवजा दिलवाया
दीपिका ने साल 2012 में एक जनहित याचिका दायर कर कोर्ट से ये मांग की थी कि वे ऐसे बारूदी सुरंग के हमलों में घायल बच्चों की गिनती करवाए और उन्हें पर्याप्त मुआवजा दे। इस पीआईएल की वजह से बारूदी सुरंग से घायल होने वाले बच्चों को दो-दो लाख रुपये की सहायता मिल रही है।
इंदिरा जय सिंह के साथ काम किया
दीपिका को 2014-15 में महिला अधिकारों पर काम करने के लिए चुना गया था। इस दौरान उन्होंने भारत की पूर्व अडिशनल सॉलिसिटर जनरल इंदिरा जयसिंह के साथ काम किया। दीपिका कहती हैं मुझे हिंदू और राष्ट्रवादी होने पर गर्व है। पर जब हम वकील का गाउन पहनते हैं तो हमारा लक्ष्य जाति धर्म से ऊपर उठकर सुविधाविहीन लोगों को न्याय दिलाना होना चाहिए।
बार एसोसिएशन  की नाराजगी झेली
2012 में दीपिका एक 12 साल की कामवाली के लापता होने का केस लड़ रही थी, तब उन्हें वकीलों की नाराजगी झेलनी पड़ी थी। तब उनकी जम्मू बार एसोसिएशन की सदस्यता खत्म कर दी गई थी।
 - प्रस्तुति - विद्युत प्रकाश मौर्य