Sunday 20 May 2018

रद्दीवाला ( लघु कथा )

बाबू जी रद्दी होगी क्या...हमने कहा हां है। मैंने देखा रद्दीवाले की उम्र 13-14साल के बीच होगी। उसने अपना साइकिल मेरे बरामदे में लगाया और हमारे साथ कई महीने से जमा अखबारों को तौलने लगा। मैंने पूछा इस उम्र में रद्दी खरीदते हो स्कूल क्यों नहीं जाते। क्या बताऊं बाबू जी पांचवी में पढता था तभी मेरी किताबें एक दिन चोरी हो गईं। उसके बाद घर वालों ने दुबारा किताबें नहीं खरीदीं । फिर मैंने रद्दी खरीदने का काम शुरू कर दिया।

घर में मेरी तीन बहनें हैं, पर कमाने वाला कोई नहीं। बापू दारू पीकर पड़ा रहता है। एक बड़े भाई ने पढ़ाई की है। पर ग्रेज्यूएट होने के बाद भी उसे कोई नौकरी नहीं मिली। वह भी घर में बैठकर रोटी तोड़ता है। भला मैं भी काम न करूं तो घर कैसे चलेगा। मैं रद्दी बेचकर 75 से 100 रूपये रोज कमा लेता हूं। मैं अपने पढे लिखे भाई से तो अच्छा हूं। अगर पढ़लिखकर बेरोजगार ही रहना है तो ऐसी पढ़ाई से क्या फायदा ?

बताते हुए रद्दीवाला अपना काम करता जा रहा था। बाबू जी कोई पुराना लोहा तो भी दे दो। रद्दीवाले की व्यापारिक बुद्धि को मेरे घर की हर चीज में रद्दी की बू आ रही थी। उसने पूछा बाबूजी आप काम क्या करते हो। मैंने कहा ये जो रद्दी तुम खरीद रहे हो उसे मैं बनाता हूं। मुझे इस सच्चाई का एहसास हुआ कि जो अखबार मैं बनाता हूं वह भी तो एक दिन बाद रद्दी में चला जाता है। उस रद्दी वाले की तीक्ष्ण बिजनेस बुद्धि के बीच मुझे अपना काम तुच्छ नजर आने लगा। सचमुच ढेर सारी पढ़ाई के बाद अगर रोजगार न मिले तो ऐसी पढाई का क्या फायदा।

रद्दीवाला बता रहा था कि पिछले दिनों उसका रेहड़ा चोरी हो गया जिससे उसका धंधा प्रभावित हुआ है। हमारी सारी रद्दी उठाकर साइकिल पर लादकर वह तेजी से रवाना हो गया। नई रद्दी की तलाश में। मुझे लगा कि ये रद्दीवाला बड़ा दार्शनिक है। उसे पता है कि हर चीज एक दिन रद्दी हो जानी है। फिर रद्दी से मोह कैसा। रद्दीवाले की मेहनत और लगन उसके पढ़े लेके बेरोजगार भाई के मुंह पर तमाचा जरूर मारती होगी।
-       विद्युत प्रकाश मौर्य ( 2005 )  ( SHORT STORY ) 

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