अल्ल सुबह सूटकेस और बैग लिए नई दिल्ली रेलवे स्टेशन पर उतरा। ये पता लगाना कठिन था कि मेरी अपेक्षित बस पहाड़गंज इलाके से मिलेगी या फिर अजमेरी गेट साइड से। लिहाजा मैं अजमेरी गेट की तरफ ही आ गया। लंबी यात्रा करके आया था सो भूख लगी थी।
एक फुटपाथ के होटल को सस्ता समझकर उसमें खाने बैठ गया। दो पराठे खाए..बिल आया महज 44 रूपये। जब मैंने दुकानदार से पूछा तो उसने कहा 4 रूपये तो पराठे के 40 रूपये भुर्जी के। दुकानदार ने पराठे के साथ बिना पूछे जो भुर्जी डाल थी वह 40 रूपये की हो सकती है। तब जीवन में शिक्षा मिली बिना होटल वाले साफ साफ मीनू पूछे दिल्ली में कहीं कुछ भी खाना मत। क्या पता खाने के बाद वहीं प्लेटें साफ करने की भी नौबत आ जाए।
खैर घंटे पर कई लोगों से पूछने के बाद अपनी सही बस से टकरा सका। चाणक्यापुरी में एंबेसियों की आलीशान अट्टालिकाओं के बीच किसी तरह अपने यूथ हास्टल पहुंच सका। वहां अच्छा व्यवहार और रहने की सुविधा दोनो मिल गई। दो दिन के भोजन का खर्च सिर्फ सुबह के नास्ते में गवां चुकने के बाद मैंने दिन भर उपवास करने की निश्चय किया। क्या हुआ गांधी जी भी अक्सर उपवास किया करते थे। धौलाकुआं पहुंच कर दिल्ली विश्वविद्यालय दक्षिणी परिसर का पता पूछता रहा लेकिन कोई बता नहीं पा रहा था. वहां के दुकानदारों को भी अपने पास के महत्वपूर्ण संस्थान के बारे में पता नहीं था। खैर किसी तरह विश्वविद्यालय पहुंच पाया। वहां हिंदी विभाग के लोगों ने नितांत आत्मीय व्यवहार किया।
अब मैंने दिल्ली में अपने कुछ आत्मीय मित्रों से मिलने की सोची। दिल्ली की रेड लाइन बस का सफर तो अविस्मरणीय होता है। एक बस में चलते हुए मैं जैसे ही लालकिले के सामने उतरा, मेरी जेब से मेरा बटुआ गायब था। कुल सात सौ रूपये थे सफर की कुल जमा पूंजी। अब मात्र एक सिक्का बच रहा था जेब में। अभी तीन दिन और रहना और वापसी का टिकट भी बनवाना था। हमारे बुझे मन और बुझे चेहरे का अंदाजा आप बखूबी लगा सकते हैं। दिल्ली इससे पहले भी तीन बार आ चुका था लेकिन पहली बार चांदनी चौक की शाम उदास लगी। सारे मुस्कुराते चेहरे मजाक उड़ाते लगे। अतीव खूबसूरत, मांसल, कोमलांगी नव यौवनाएं धक्का देती निकल गईं। कोई और वक्त होता तो उस खुशबू को थोड़ी देर याद करते। परंतु अभी वे सब विष कन्याएं प्रतीत हो रही थीं। मां पिताजी की याद आई। लोकप्रिय शायर का शेर याद आया—
एक फुटपाथ के होटल को सस्ता समझकर उसमें खाने बैठ गया। दो पराठे खाए..बिल आया महज 44 रूपये। जब मैंने दुकानदार से पूछा तो उसने कहा 4 रूपये तो पराठे के 40 रूपये भुर्जी के। दुकानदार ने पराठे के साथ बिना पूछे जो भुर्जी डाल थी वह 40 रूपये की हो सकती है। तब जीवन में शिक्षा मिली बिना होटल वाले साफ साफ मीनू पूछे दिल्ली में कहीं कुछ भी खाना मत। क्या पता खाने के बाद वहीं प्लेटें साफ करने की भी नौबत आ जाए।
खैर घंटे पर कई लोगों से पूछने के बाद अपनी सही बस से टकरा सका। चाणक्यापुरी में एंबेसियों की आलीशान अट्टालिकाओं के बीच किसी तरह अपने यूथ हास्टल पहुंच सका। वहां अच्छा व्यवहार और रहने की सुविधा दोनो मिल गई। दो दिन के भोजन का खर्च सिर्फ सुबह के नास्ते में गवां चुकने के बाद मैंने दिन भर उपवास करने की निश्चय किया। क्या हुआ गांधी जी भी अक्सर उपवास किया करते थे। धौलाकुआं पहुंच कर दिल्ली विश्वविद्यालय दक्षिणी परिसर का पता पूछता रहा लेकिन कोई बता नहीं पा रहा था. वहां के दुकानदारों को भी अपने पास के महत्वपूर्ण संस्थान के बारे में पता नहीं था। खैर किसी तरह विश्वविद्यालय पहुंच पाया। वहां हिंदी विभाग के लोगों ने नितांत आत्मीय व्यवहार किया।
अब मैंने दिल्ली में अपने कुछ आत्मीय मित्रों से मिलने की सोची। दिल्ली की रेड लाइन बस का सफर तो अविस्मरणीय होता है। एक बस में चलते हुए मैं जैसे ही लालकिले के सामने उतरा, मेरी जेब से मेरा बटुआ गायब था। कुल सात सौ रूपये थे सफर की कुल जमा पूंजी। अब मात्र एक सिक्का बच रहा था जेब में। अभी तीन दिन और रहना और वापसी का टिकट भी बनवाना था। हमारे बुझे मन और बुझे चेहरे का अंदाजा आप बखूबी लगा सकते हैं। दिल्ली इससे पहले भी तीन बार आ चुका था लेकिन पहली बार चांदनी चौक की शाम उदास लगी। सारे मुस्कुराते चेहरे मजाक उड़ाते लगे। अतीव खूबसूरत, मांसल, कोमलांगी नव यौवनाएं धक्का देती निकल गईं। कोई और वक्त होता तो उस खुशबू को थोड़ी देर याद करते। परंतु अभी वे सब विष कन्याएं प्रतीत हो रही थीं। मां पिताजी की याद आई। लोकप्रिय शायर का शेर याद आया—
मैं रोया परदेस में, भींगा मां का प्यार
दुख ने दुख से बात की बिन चिट्ठी बिन तार
अचानक भारतीय साथी संगठन के हमारे साथी सतीश भारती की याद आई। वे चांदनी चौक में ही रहते है। संयोग से दिमाग पर जोर डाला तो संकट काल में उनका पता याद आ गया। 2590 गली पीपल पानदरीबा, चांदनी चौक। मैं चलता हुआ उनके घर पहुंच गया। ये महज इत्तिफाक था कि हमेशा अति व्यस्त और भ्रमणशील जीवन जीने वाले सतीश भाई घर में ही मिल गए। शायद हमारी मदद के लिए उसी दिन वे बाहर से दिल्ली लौटे थे। मेरी रामकहानी सुनकर उन्होने तसल्ली दिलाने की कोशिश की और मेरी पर्याप्त आर्थिक सहायता की। वहां से निकल कर वाराणसी के लिए वापसी की टिकट बनवाया। लेकिन दिल्ली ये दिल्लगी हमेशा याद रहेगी।
- विद्युत प्रकाश मौर्य
( जेवीजी टाइम्स में प्रकाशित , 1996 )
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