Wednesday, 30 December 2009

बच्चों के बदलते खिलौने

मैं तो चांद खिलौना लूंगा। अब यह कहावत पुरानी पड़ चुकी है। बच्चे बदलते जमाने के साथ नए ढंग के खिलौने के संग खेलना चाहते हैं। अब उन्हें मिट्टी की गाड़ी देकर बहलाया नहीं जा सकता। आजकल छोटे बच्चों में मोबाइल फोन खिलौने के रूप में काफी लोकप्रिय हो रहा है। गांवों में और खासतौर पर पुराने समय में बच्चों के बीच मिट्टी का खिलौना काफी लोकप्रिय होता था। बच्चों को मिट्टी की बनी हाथी मिट्टी के बने घोड़े आदि खेलने के लिए दिए जाते थे। खिलौने बनाने वाला कुम्हार इन्हें आकर्षक रंगों से रंग भी देता था। ये मिट्टी के खिलौन पटकने पर टूट जाते थे। खिलौने के टूटने पर बच्चा रुठ जाता है। किसी शायर ने लिखा है-
और ले आएंगे बाजार से जो टूट गया, चांदी के खिलौने से मेरा मिट्टी का खिलौना अच्छा।

मिट्टी और लकड़ी का गया दौर - पर अब मिट्टी की जगह प्लास्टिक के बने खिलौनों ने ले ली है। ये खिलौने जल्दी टूटते भी नहीं हैं। बीच में लकड़ी के बने खिलौनों का भी दौर रहा। अभी भी भारत के कुछ शहरों में बच्चों के लिए लकड़ी के बने खिलौने मिलते हैं। खिलौने के इस बदलते स्वरुप के साथ बच्चों की मांग भी बदलती जा रही है। पहले बच्चे मिट्टी के हाथी मांगने की जिद करते थे। हाथी मिल जाए तो मिट्टी का गुल्लक मांगते थे। आसमान में चंदा मामा को देखर बच्चे चांद को खिलौने के रुप में मांगने की जिद पर भी आ जाते थे। मैं चांद खिलौने लेहों यह कहावत बहुत मशहूर हुआ। पर अब यह कहावत नए रुप में कही जानी चाहिए- मैं मोबाइल खिलौना लेहों....अब बड़ों के पास हर जगह हाथों में मोबाइल देखकर बच्चे मोबाइल फोन को ही खिलौने के रुप में मांगते हैं। बाजार चीन के बने हुए मोबाइल खिलौने से पटा पड़ा है। बीस रुपए में मिलने वाले मोबाइल खिलौने में बैटरी भी लगी होती है। इसमें कई तरह के रिंग टोन भी होते हैं। बिल्कुल असली मोबाइल के तरह ही। इसे देखकर बच्चे को अपने पास असली मोबाइल होने का भ्रम होता है। जो बजते बजते बैटरी खत्म हो गई तो बैटरी बजल डालिए। पर छोटा सा बच्चा अपने गले मोबाइल फोन देखकर गर्वान्वित महसूस करता है।

उम्र के अनुरूप दें खिलौने - वैसे बाजार में बच्चों की उम्र के हिसाब से कई तरह के खिलौने मौजूद हैं। कई खिलौना कंपनियां बच्चों की उम्र और उसके द्वारा उपयोग किए जाने वाले दिमाग को ध्यान में रखकर खिलौने बनाती हैं। जैसे नन्हें बच्चों को रंग पहचानने वाले खिलौने दिए जाते हैं। बच्चा थोड़ा बड़ा हो जाए तो उसे गिनती गिनने वाले खिलौने दिए जाते हैं। बच्चों को जानवरों और फलों की पहचान कराने के लिए उनकी प्रतिकृति खिलौने के रुप में दी जाती है। जब आप बाजार में अपने बच्चे के लिए खिलौने खरीदने जाएं तो उनकी उम्र का ख्याल रखें और उसके अनुरूप ही खिलौने लाकर उन्हें दें। इसके साथ ही बच्चों के साथ बैठकर उन्हें खिलौने के संग खेलना भी सीखाएं।

छोटे बच्चों को बहुत बड़े आकार के खिलौने न दें। कई बार बच्चे इस तरह के खिलौने से डर जाते हैं। बच्चों को ऐसे खिलौने ही दें जिन्हें वे अपना दोस्त समझें न कि उनके मन में किसी तरह का डर बैठ जाए। बच्चे म्यूजिकल खिलौने भी पसंद करते हैं। आप उनकी रुचि को समझकर ऐसा कोई चयन कर सकते हैं। आप अपने बच्चे की पसंद नापसंद का सूक्ष्मता से अध्ययन करें। उसके अनुरूप ही उसके लिए खिलौनों का चयन करें तो बेहतर होगा।
-माधवी रंजना madhavi.ranjana@gmail.com




Friday, 25 December 2009

ई मेल पर बढ़ती जगह

जब आप अपना ई मेल आईडी बनाते हैं इस बात की परेशानी आती है कि आपके मेल बाक्स पर ज्यादा स्पेश नहीं है। इससे आप जरूरी फाइलें आनलाइन नहीं रख पाते हैं। पर अब कई वेबसाइटों पर आपको प्रचूर मात्रा में स्पेश मिलता है। इससे आप अपनी जरूरी फाइलें साथ ही फोटोग्राफ आनलाइन रख सकते हैं। वह भी बिना कोई शुल्क दिए। आरंभ के दिनों में आमतौर पर कोई भी ईमेल सर्विस प्रोवाइडर अपने उपभोक्ताओं को 5 एमबी तक स्पेश मुफ्त में उपलब्ध कराता था। पर अब हालात बदल गए हैं। अब कई ईमेल सेवा प्रदाता कम से कम एक जीबी स्पेश मुफ्त में उपलब्ध करा रहे हैं वहीं कहीं कहीं तो तीन जीबी तक स्पेश भी उपलब्ध है वह भी मुफ्त में।
कुछ साल पहले जब ईमेल सेवा की शुरूआत हुई तब इसके सेवा प्रदाताओं को उम्मीद थी कि वे इसे जल्द ही पेड सेवा में बदल देंगे। यानी की सेवा के बदले में ग्राहकों से शुल्क वसूल करेंगे। इस क्रम में यूएसए डाट नेट ने प्रयास भी किए। वहीं रेडिफ मेल ने अपने ज्यादा स्पेश वाली सेवाओं के लिए शुल्क तय किए। पर शुल्क वाली सेवाएं लोगों में लोकप्रिय नहीं हुईं। जब लोगों को कहीं न कहीं मुफ्त में स्पेश उपलब्ध हो ही रहा था भला इसके लिए वे शुल्क क्यों दें। लिहाजा पेड सेवा प्रदान करने वालों के मंसूबों पर पानी फिर गया। फिलहाल इंटरनेट का इस्तेमाल करने वालों के लिए ईमेल पर बहुतायत स्पेश फ्री में ही उपलब्ध है। इसी क्रम में कुछ ईमेल सेवा प्रदाताओं ने अपनी सेवा को लोकप्रिय बनाने के लिए मेल बाक्स में स्पेश में अभिवृद्धि करनी आरंभ की। इस क्रम में गूगल ने अपने उपयोक्ताओं को अनलिमिटेड स्पेश देना आरंभ कर दिया। आमतौर पर हर जीमेल एकाउंट में उपयोक्ताओं को 3 जीबी तक जगह मिलती है। यह जगह आपके उपयोग के अनुसार बढ़ती जाती है। जीमेल की खास बात है कि फिलहाल यहां कोई विज्ञापन नहीं आता है। साथ ही विज्ञापन वाले ईमेल भी नहीं आते। इसलिए जीमेल लोगों में तेजी से लोकप्रिय हो रहा है।
जीमेल की लोकप्रियता को देखते हुए याहू, रेडिफ और हाटमेल ने भी अपने उपयोक्ताओं के लिए 1 जीबी तक स्पेश देना आरंभ कर दिया है। आने वाले दिनों मे वही ईमेल सेवाएं लोकप्रिय हो सकेंगी जो अपने उपयोक्ताओं को ज्यादा से ज्यादा स्पेश उपलब्ध कराएंगी। क्योंकि अब ईमेल उपयोग करने वालों की जरूरतें बढ़ी हैं। वे अपनी बहुत सी फाइलें आनलाइन रखना चाहते हैं जिससे वे कभी भी कहीं उसे एक्सेस कर सकें। साथ ही अब लोग इमेल पर अपनी फोटोग्राफ भी रखना चाहते हैं। 

फोटो के लिए ज्यादा जगह चाहिए तो ईमेल पर ज्यादा स्पेश भी चाहिए। ऐसे में ज्यादा स्पेश देने वाली ईमेल सेवाएं ही लोकप्रिय हो सकेंगी। इंटरनेट पर ईमेल सेवा प्रदान करने वाली सैकड़ों साइटें हैं पर उनमें से कुछ साइटें ही लोकप्रिय हैं। जाहिर है वहीं साइटें लोकप्रिय हो सकती हैं जिनमें स्पेश भी ज्यादा हो साथ ही उनपर विज्ञापन भी कम आते हों।
फिलहाल मुफ्त में- यह उम्मीद की जानी चाहिए कि लोगों को ईमेल सेवा आने वाले कुछ सालों तक मुफ्त में ही प्राप्त होती रहेगी। कई सेवा प्रदाताओं को कंप्टिशन के दौर में यह आशंका कम नजर आती है कि सेवा प्रदाता इन सेवाओं को पेड करने की कोशिश करेंगे। इसलिए फिलहाल ईमेल यूजरों को निश्चिंत रहना चाहिए।

-विद्युत प्रकाश vidyutp@gmail.com



Sunday, 20 December 2009

गांव की ओर पहुंचे कालोनाइजर

अब तक आप मकान बनाने वाले प्राइवेट बिल्डर या कालोनाइजरों के बड़े महानगरों में होने की बात सुनते आए होंगे पर अब कालोनाइजरों ने गांव की ओर भी रुख करना शुरू कर दिया है। यानी निजी बिल्डर गांव में भी घर बनाकर लोगों को देंगे। जब आप शहरों में लगातार बढ़ रहे प्रदूषण और भीड़-भाड़ से दूर रहने की योजना बनाते हैं तो आपकी इच्छा गांव में रहने की होती है। शहरी माहौल में होने वाली कई तरह की बीमरियों से बचने के लिए लोग प्राकृतिक निवास की ओर रुख कर रहे हैं इसमें ख्याल आता है गांव में रहने का। अब आपको गांव में भी शहरों की तरह ही बनी बनाई कालोनी रहने के लि मिले तो फिर क्या बात है।

हम चलते हैं दिल्ली के लगभग 125 किलोमीटर दूर करनाल शहर को।
दिल्ली से यहां आने में डेढ़ घंटे का समय लगता है अगर आपके पास अपनी कार हो। करनाल सेक्टरों में विकसित शहर है। पर यहां लोगों की मांग को देखते हुए एक निजी बिल्डर द्वारा ऐसी कालोनी विकसित की जा रही है जो पूरी तरह गांव की तरह होगी। यहां अच्छी सड़कें और हरियाली तो होगी ही साथ ही गांव की चौपाल भी होगी। पर यह गांव होगा हाईटेक। यानी यहां बिजली, कंप्यूटर इंटरनेट, स्कूल, क्लब, स्विमिंग पूल, अस्पताल आदि सब कुछ होगा।
अब अगर गांव में शहर जैसी सारी सुविधाएं हो तो भला गांव से शहर जाने की क्या जरूरत होगी। यह गांव शहर से 10 किलोमीटर की दूरी पर बसाया जा रहा है। यानी जब आपको जरूरत हो दस मिनट में शहर आ जाएं। कई बड़े महानगरों के आसपास के गांव इतने समृद्ध और सुविधा संपन्न हैं कि वहां के लोगों को शहर जाकर रहने की जरूरत नहीं पड़ती। अब गांवों में ऐसी कालोनियां विकसित की जा रही हैं जहां आप घर खरीदकर रह सकें। खासकर बड़ी नौकरियों से अवकाश प्राप्त करने वाले लोगों की नजर ऐसी कालोनियों पर है। वे अपना बाकी समय चैन से ऐसे गांवों में गुजारना चाहते हैं जहां उन्हें सारी मूलभूत सुविधाएं प्राप्त हो सकें। साथ ही ऐसे गांव देश में विलेज टूरिज्म को भी बढ़ावा दे सकेंगे। विदेशों से आने वाले पर्यटकों को ऐसे गांव में ठहराया जा सकेगा। यह विदेशी मुद्रा अर्जित करने का बेहतर स्रोत सिद्ध होने वाला है। इतना ही नहीं वैसे अनिवासी भारतीय जो भारत में आकर रहना चाहते हैं उनके लिए भी ऐसे गांव पसंद बनते जा रहे हैं। हरिद्वार और देहरादून की बीच भी कुछ बिल्डर लोगों को प्राकृतिक आवास उपलब्ध कराने का दावा कर रहे हैं। हालांकि ये आवास गांव के घरों की तरह नहीं हैं बल्कि फ्लैट की शक्ल में हैं।
हरियाणा सरकार की आवासीय सेक्टर विकसित करने वाली एजेंसी हुडा भी गांवों सेक्टर विकसित करने लगी है। वह गांवों के लोगों की जरूरतों के हिसाब से उनके लिए घर बना रही है। इसके लिए उसने कई गांवों की पहचान की है। यानी कि गांव के लोगों को भी प्लानिंग के हिसाब से बने हुए घर मिलेंगे। इसके कई फायदे हैं। आमतौर पर गांवों कोई घर अच्छा बनावा ले तो वहां की गलियां व सड़कें योजना के हिसाब से नहीं बनती हैं। अब अगर गांव भी योजना के अनुसार बनवाए जाएं तो वे देखने में ज्यादा सुंदर लग सकते हैं। यह योजना पंजाब, हरियाणा, गुजरात जैसे कुछ समृद्ध राज्यों में लागू हो सकती है। पर इससे अन्य राज्यों के रहने वाले लोग प्रेरणा ले सकते हैं। इस योजना के तहत जहां नए गांव विकसित किए जा सकते हैं वही पुराने गांवों की योजना में सुधार भी लाया जा सकता है। इससे किसी भी गांव की सुंदरता में चार चांद लग सकते हैं।
------  विद्युत प्रकाश मौर्य


Tuesday, 15 December 2009

अब दिल्ली से मुंबई लोकल

एक जून करोड़ों लोगो के लिए सौगात लेकर आया। अब आप दिल्ली से मुंबई लोकल दरों पर बातें कर सकते हैं। ठीक उसी तरह जैसे पड़ोस में बातें करते हैं। यानी 1.20 रुपए में तीन मिनट की काल। ऐसा एमटीएनएल की नई काल दर के कारण संभव हो पाया है। हालांकि दिल्ली से मुंबई की दूरी दो हजार किलोमीटर है। फिर भी दोनों शहरों के बीच अब लोकल काल करने की सुविधा बहाल हो गई है। यह दूर संचार के इतिहास में एक क्रांतिकारी कदम है। एसटीडी में सस्ती काल दरें एनएलडी ( नेशनल लांग डिस्टेंस) में भी कई खिलाड़ियों के आने के बाद संभव हो सका है। पहले इस क्षेत्र में सिर्फ भारत संचार निगम लि. का एकाधिकार था। इस बार एमटीएनएल ने दिल्ली से मुंबई काल भेजने के लिए विदेश संचार निगम लि. (वीएसएनएल) को कैरियर के रुप में चुना है जो टाटा के स्वामित्व वाली कंपनी है। अब हर टेलकाम आपरेटर को अधिकार है कि वह एसटीडी या आईएसडी कालों के लिए किसी भी कंपनी को कैरियर के रुप में चुने। इसका लाभ ग्राहकों को मिलने वाला है। सिर्फ मुंबई ही नहीं दिल्ली व मुंबई में काम कर रही महानगर टेलीफोन निगम लि. बाकी बचे देश के लिए भी एसटीडी काल की दरें कम करने वाली है। इसके लिए भी उसने कई कंपनियों से आफर मांगे हैं। उम्मीद की जाती है इसके बाद लोगों को 40 पैसे से 70 पैसे प्रति मिनट तक मात्र एसटीडी दर के रुप में चुकाना होगा। वास्तव में दरों में रेशनेलाइजेशन भी होना चाहिए। अभी दिल्ली से मुंबई 40 पैसे मिनट की दर लागू हो चुकी है। जबकि दिल्ली से मुंबई की दूरी 2000 किलोमीटर है। ऐसी स्थिति में बिहार और बंगाल के लोगों ने कौन सा अपराध किया है कि उन्हें कम दूरी के बावजूद 2.40 रुपए प्रति मिनट की दर चुकाना पड़े। अब अगर एमटीएनएल अपनी एसटीडी काल दरें गिराता है तो दूसरी कंपनियों के लिए चुनौती होगी। क्योंकि दिल्ली मुंबई से जाने वाली काल तो सस्ती हो जाएगी जबकि उधर से आने वाली काल महंगी ही रहेगी। ऐसी स्थिति में एक अराजकता का महौल बन जाएगा। जाहिर है बीएसएनएल सहित बाकी कंपनियों को भी अपनी एसटीडी काल दरें कम करनी ही पड़ेंगी।
बीएसएनएल ने जो इंडिया वन का पैकेज पेश किया है उसमें एक राष्ट्रीय काल एक रुपये में एक मिनट की अवश्य पड़ती है पर उसके लिए भारी भरकम मासिक किराया भी चुकाना पड़ता है। हालांकि इसी तरह का पैकेज हर कंपनी ने पेश किया है। पर अब दौर वास्तव में एसटीडी में काल दरें गिरने का आ रहा है। अभी मोबाइल पर देश व्यापी काल की दरें 2 रुपए मिनट के पास है। पर अब हम ऐसे दौर की कल्पना कर सकते हैं जो जब एसटीडी और लोकल काल की दरों मे कोई खास अंतर नहीं रह जाएगा यानी जैसा दिल्ली व मुंबई के बीच हुआ है वैसा कुछ सारे देश में हो सकेगा। ऐसी हालात में वास्तव में कश्मीर से कन्याकुमारी तक के लोग एक दर पर बातें कर सकेंगे।
फिलहाल सभी कंपनियां अपने नेटवर्क पर ग्राहकों को कम दर पर काल करने की सुविधा दे रही हैं। अभी तुलनात्मक रुप से टेलकाम सेक्टर में सबसे देर से प्रवेश करने वाली कंपनी टाटा सबसे कम दर पर काल करने की सुविधा दे रही है। आने वाले कुछ महीनों में टाटा एसटीडी काल दरों में कुछ और धमाका करने वाली है। बस देखते रहिए आगे आगे होता है क्या क्या।

-माधवी रंजना madhavi.ranjana@gmail.com



Thursday, 10 December 2009

चुनरी संभाल गोरी....

चुनरी संभाल गोरी उड़ी चली जाए रे...। कवि ने जब ये पंक्तियां लिखी होंगी तो इसके कुछ अच्छे मतलब रहे होंगे। पर आजकल जब फैशन शो के रैंप पर देखें तो चुनरी तो गायब हो ही गई है बाकी कपड़े संभालने को लेकर भी डिजाइनरों में कोई सावधानी नहीं दिखाई देती। इस बार तो इंडिया फैशन वीक के दौरान अजीब घटनाएं देखने को मिलीं। एक माडल जो रैंप पर आई उसका आगे का वस्त्र सरक कर गिर गया। उस माडल ने रैंप पर चलते हुए ही अपने कपड़े को संभाला और वापस चली गई। उसके दो दिन दाबद एक दूसरी माडल जो स्कर्ट पहन कर रैंप पर आई वह पीछे से फटी हुई थी।
मीडिया में इस घटना के बाद अलग अलग तरह की प्रतिक्रियाएं हुई। कई लोगों ने उस माडल के आत्मविश्वास की तारीफ की। साथ ही वे माडल और डिजाइनर रातों रात चर्चा में आ गए। 

वहीं लोगों ने फैशन के नाम पर परोसे जा रहे इस नंगापन की भी आलोचना की। कुछ माडलों ने बताया कि फैशन शो के दौरान जो आउटफिट ( कपड़े) उन्हें दिए जाते हैं उन्हें पहन कर चेक करने का वक्त नहीं होता कि वे ठीक से सिले हुए हैं या नहीं। इसलिए कई बार इस तरह की घटनाएं हो जाती हैं। कुछ साल पहले दिल्ली के एक फैशन शो में भी रैंप पर एक माडल का स्कर्ट खुल गया था। इस आधुनिक तकनीक के दौर में ऐसी घटना होने पर फोटोग्राफरों के कैमरे के फ्लैश धड़ाधड़ चमकने लगते हैं। लोग अपने मोबाइल फोन से वीडियो फिल्म बनाने लगते हैं। इस बार भी इन घटनाओं को वीडियो क्लिपों को ट्रांसफर किया गया। यहां तक कि इंटरनेट की कुछ वेबसाइटों पर भी जारी कर दिया गया। भले ही ये घटनाएं लोगों के मजे लेने की चीज हो पर क्या हमारे नामी गिरामी डिजाइनर अपने कपड़ों को लेकर इतनी सावधानी भी नहीं बरत सकते हैं कि वे ठीक से सिले हुए हैं या नहीं। जब हम दर्जी से भी समान्य कपड़े सिलवाते हैं तो इतनी लापरवाही की उम्मीद नहीं करते। फिर नामी गिरामी डिजाइनर क्या अपने बनाए कपड़ों को क्रास चेक नहीं करते। लिहाजा यह उनकी लापरवाही तो है ही पर इसका दूसरा पहलू भी है कि उन्हें इन घटनाओं से काफी पब्लिसिटी मिल जाती है। भले ही यह निगेटिव प्रचार है पर कहते हैं कि बदनाम होंगे तो क्या नाम न होगा वाली कहावत यहां लागू होती है। इन घटनाओं में माडल व डिजाइनर दोनों ही मीडिया की सुर्खियों में छाए रहे। तो क्या कुछ माडल व डिजाइनर जानबूझ कर इस तरह के काम कर रहे हैं।
सोचने वाली बात है कि ये घटनाएं स्पांटेनियस थीं या प्री प्लान्ड। और जैसे भी ये घटनाएं हों इससे देश के जाने माने फैशन शो की बदनामी तो होती ही है। ऐसे डिजाइनरों को इस तरह की घटनाओं को के लिए सार्वजनिक तौर पर माफी मांगनी चाहिए। साथ ही फैशन शो के आयोजकों को इस तरह के डिजाइनरों का अगले शो के लिए बहिष्कार करना चाहिए। ऐसी घटनाओं की जांच भी कराई जानी चाहिए जिससे ऐसी घटनाओं पर रोक लग सके। वैसे भी भारतीय डिजाइनरों को फैशन शो फैशन टीवी के उस दौर की ओर ही बढ़ रहे हैं जिसमें फैशन कम बदन दिखाने का शो ज्यादा होता है। अगर डिजाइनरों को खुल कर बदन दिखाने का मौका नहीं मिलता है तो वे दूसरे तरीके अपनाते हैं। आखिर किस ओर जा रहे हैं ये फैशन शो। यह सवाल अनुत्तरित है। इसका हमें जवाब ढूंढना होगा।
-    विद्युत प्रकाश मौर्य


Saturday, 5 December 2009

कैमरा मोबाइल परख कर ही खरीदें

आजकल कैमरा मोबाइल का चलन बढ़ गया है। हर कोई मोबाइल खरीदते समय उसमें कैमरा लेना चाहता है। पर कैमरा मोबाइल खरीदते समय कुछ सावधानी जरूरी है। सबसे पहले आप यह देखें की आपको कैमरे की जरूरत क्यों हैं। अक्सर सस्ते मोबाइल में जो कैमरे दिए जा रहे हैं उनके मेगा पिक्सेल कम होते हैं। उनसे खिंची गई फोटो का इस्तेमाल किसी व्यवसायिक कार्य में मुश्किल होता है। अगर आप पत्रकार हैं और आप चाहते हैं कि आपके कैमरा मोबाइल से खिंची हुई तस्वीर अखबार में प्रकाशित होने लायक हो पिक्सेल का खास तौर पर ख्याल रखें।

आपको अगर डिजिटल कैमरा व्यवसायिक उपयोग के लिए चाहिए तो बेहतर होगा कि आप डिजिटल कैमरा अलग से ही खरीदें। आमतौर पर आठ नौ हजार रुपए में एक बढ़िया डिजिटल कैमरा मिल जाता है। वैसे डिजिटल कैमरा दो हजार रुपए के रेंज में भी उपलब्ध है। पर इसकी क्षमता भी कम होती है। जैसे जैसे डिजिटल कैमरे में मेमोरी, जूम क्षमता और उसके मेगा पिक्सेल में इजाफा होता है उसकी कीमत बढ़ती जाती है।

क्या है पिक्सेल- चाहे डिजिटल टीवी हो या कैमरा उसमें तस्वीरों का निर्माण छोटे-छोटे डाट्स से मिलकर होता है जिन्हें पिक्सेल कहते हैं। जाहिर है कि प्रति इंच क्षेत्र में पिक्सेल की संख्या जितना ज्यादा होती तस्वीरों की स्पष्टता भी उतनी ही बेहतर होगी। फोटोग्राफी अब पूरी तरह डिजिटल युग में प्रवेश कर चुकी है। डिजिटल फोटोग्राफी से न सिर्फ समय की बचत हुई बल्कि फोटोग्राफी का खर्च भी कम हो रहा है।

रील वाले कैमरे इतिहास बनेंगे - दुनिया की कैमरा बनाने वाली सबसे बड़ी कंपनियों में एक निकोन और दूसरी कंपनी कोडक ने रील वाले कैमरे बनाने की ईकाई बंद करने का भी फैसला कर लिया है। यानी आने वाले दौर में रील वाले कैमरे इतिहास का हिस्सा बन जाएंगे। हालांकि भारत जैसे देश में रील वाले कैमरे का दौर अभी जारी रहेगा। 1.2 मेगा पिक्सेल से ज्यादा क्षमता का कैमरे की तस्वीर ही आमतौर पर प्रकाशित होने लायक होती है। आजकल 3.2 मेगा पिक्सेल तक के कैमरा मोबाइल भारतीय बाजार में उपलब्ध हैं। पर इनकी कीमत 15 हजार से उपर है।

दो हजार मे मोबाइल कैमरा - भारतीय बाजार में लगभग पांच हजार रुपए वाले मोबाइल फोन में कैमरा मिल जाता है। पर आप खरीदने से पहले यह देख लें कि यह कैमरा आपके कितने काम है। मोबाइल फोन बनाने वाली कंपनी क्लाकाम ने तो सीडीएमए मोबाइल फोन में मात्र 2000 रुपए में ही कैमरा और एमपी3 प्लेयर देने की घोषणा कर दी है। यानी कैमरा मोबाइल सस्ते तो होते जा रहे हैं, पर खरीदने वाले को अपनी जरूरत देखकर ही कोई फैसला लेना चाहिए। काफी लोग बिना जरूरत ही कैमरे पर पैसा लगा देते हैं बाद में पछताते हैं।


-    विद्युत प्रकाश मौर्य


Monday, 30 November 2009

भोजपुरी फिल्मों का बढ़ता बाजार

सुपर स्टार अमिताभ बच्चन जब लंबी बीमारी केबाद स्वस्थ हुए तो उन्होंने सबसे पहले कौन सी शूटिंग में हिस्सा लिया। वह एक भोजपुरी फिल्म गंगा थी जो उनके मेकअप मैन दीपक सावंत बना रहे हैं। अमिताभ इससे पहले भी एक भोजपुरी फिल्म पान खाएं सैंया हमार में अतिथि भूमिका कर चुके हैं। एक दशक के कैप के बाद भोजपुरी फिल्मों का बाजार एक बार फिर गरमा चुका है। 

भोजपुरी फिल्में अब सिर्फ बिहार या उत्तर प्रदेश तक ही सीमित नहीं है। इनका दायरा बढ़कर दिल्लीमुंबई, पंजाबगुजरात मध्य प्रदेशछत्तीसगढ़ व राजस्थान तक हो गया है। पिछले दिनों मुंबई में जब मनोज तिवारी की ताजी फिल्म रीलिज हुई तो वहां दर्शकों का हुजुम बाक्स आफिस पर टूट पड़ा। अब पटनाहाजीपुर और उसके आसपास हर हप्ते किसी न किसी भोजपुरी फिल्म की शूटिंग चल रही होती है। किसी जमाने में भोजपुरी फिल्मों के स्टार रहे अभिनेता फिर से भोजपुरी फिल्मों की ओर वापस आ रहे हैं। भोजपुरी फिल्मों को इस नए दौर की शुरूआत के स्टार है भभुआ के मनोज तिवारी और रवि किशन और ललितेश झा। रवि किशन की फिल्म पंडित जी बताईं ना बियाह कब होई सुपर हिट रही है। अब वे अपने नाम की ही फिल्म रवि किशनगंगाहमार घरवाली जैसी फिल्मों में काम कर रहे हैं।
सिर्फ दीपक सावंत ही नहीं भोजपुरी फिल्म निर्माण के क्षेत्र में कूद पड़े हैं और कई बड़े नाम। दिलीप कुमार की पत्नी सायरा बानू, डांस डाइरेक्टर सरोज खान तो शराब और एयरलाइन का बिजनेस करने वाले विजय माल्या भी भोजपुरी फिल्म बना रहे हैं। सायरा बानू की भोजपुरी फिल्म है अब त बन जा सजनवा हमार। कई बड़े नामों का भोजपुरी फिल्म निर्माण के क्षेत्र में आना इस भाषा के लिए सुखद स्थिति है। किसी समय में राकेश पांडे और पद्मा खान भोजपुरी फिल्मों के हिट जोड़ी रही है। अब राकेश पांडे एक बार फिर से भोजपुरी फिल्मों में चरित्र भूमिकाएं करने के लिए आ गए हैं। हालांकि पद्मा खन्ना आजकल लंदन में डांस स्कूल चला रही हैं। पर दक्षिण की नायिका नगमा को आजकल भोजपुरी फिल्मों में खूब भूमिकाएं मिल रही हैं। वे एक साथ कई फिल्मों में काम कर रही हैं।
यह भोजपुरी फिल्मों के विकास का दूसरा दौर है जो आर्थिक और व्यवसायिक रुप से पहले दौर की तुलना में ज्यादा सुनहरा दिखाई दे रहा है। भोजपुरी फिल्मों के पटकथा लेखक और पत्रकार आलोक रंजन कहते हैं कि भोजपुरी भाषा के लिए यह एक अच्छे दौर की शुरूआत जरूर है पर इसमें एक खतरा है। एक दशक पहले भोजपुरी फिल्में एकदम से बननी इसलिए बंद हो गई क्योंकि इस क्षेत्र में दूसरी भाषा के लोग सिर्फ पैसा बनाने की चाह लेकर आ गए थे। उन्होंने इस भाषा का बड़ा अनिष्ट किया। पर अब एक भाषा जो देश में 20 करोड़ से ज्यादा लोग बोलते और समझते हैं उसको लेकर सावधान रहने की जरूरत है फिर कहीं वैसी ही आवृति न हो। क्योंकि इस बार बड़ी संख्या मराठी, गुजराती और अन्य राज्यों के लोग भोजपुरी फिल्मों के निर्माण के क्षेत्र में सिर्फ इसलिए आ रहे हैं कि उन्हें कम लागात में ज्यादा लाभ होता हुआ दिखाई दे रहा है। जरूरत इस बात की है कि भोजपुरी में ऐसे लोग आएं जिनका इस भाषा के प्रति अपनेपन भरा लगाव भी हो तथा भाषा को आगे बढ़ाने के लिए समर्पण का भाव भी। तभी हम अन्य भाषायी फिल्मों की तरह भोजपुरी को भी आगे बढ़ता हुआ देख सकते हैं।
- विद्युत प्रकाश मौर्य ( 2007) 



Wednesday, 25 November 2009

लालू जी हम भी गरीब हैं (व्यंग्य)

लालू जी बड़े गरीब नवाज हैं। जहां भी रहते हैं गरीबों की सुध लेते हैं। गरीबों को सपने दिखाने में उनका कोई सानी नहीं है। लिहाजा उन्होंने रेलवे में भी गरीबों के लिए नई रेलगाड़ी शुरू कर दी है। गरीब रथ। इस गरीब रथ में देश की जनता जनार्दन वातानुकुलित कोच में चलने का आनंद उठा सकेगी वह भी सस्ते में। 
इस रेलगाड़ी में चलने के लिए आपको यह घोषणा करनी पड़ेगी कि आप गरीब हैं तभी आप गरीब रथ में सवार हो सकेंगे। पर क्या यह रेलगाड़ी गरीबों की गरीबी का मजाक उड़ाती नहीं प्रतीत होती है। आखिर आज के दौर में कौन खुद को गरीब कहलाना पसंद करता है। सभी लोग अमीर बनना चाहते हैं। भले ही कोई जेब से फकीर हो पर वह नहीं चाहता है कि उसे कोई गरीब कहे। अगर किसी ने गरीब रथ में यात्रा कर ली तो अब उसके नाम के आगे तो मार्का ही लग जाएगा कि वह गरीब है। किसी गरीब को अगर आप याद दिलाएं कि वह गरीब है तो वह इसे अपने आत्मसम्मान पर ले लेता है। भला तुम कौन होते हो मुझे गरीब कहने वाले। क्या है तुमसे मांग कर खाते हैं।
गरीब भले ही गरीब हो पर वह अपने आत्मसम्मान के साथ कोई समझौता नहीं करेगा। वह फिर उसी सेकेंड क्लास के डिब्बे में जलालत और गरमी के बीच यात्रा करना चाहेगा पर खुद को गरीब डिक्लियर करके गरीब रथ के वातानुकूलित कोच में नहीं बैठेगा। वहीं जो लोग चालू पुर्जा किस्म के हैं, भले ही उनके पास पैन कार्ड हो इनकम टैक्स भी जमा करते हों पर सस्ती यात्रा करने के लिए थोड़ी देर के लिए गरीब बन जाएंगे। कई अमीर लोग हमेशा गरीब ही बने रहना चाहते हैं। वे अपनी असली आमदनी का खुलासा नहीं करना चाहते। वे अमीर की चादर में गरीबी की पेबंद लगाकर सोना चाहते हैं। वे ऐसा करके देश के गरीबों को और सरकार को धोखा देते हैं। वे आयकर विभाग को चकमा देकर चूना लगाते हैं। तो भला ऐसे लोगों को रेलवे को चकमा देने में कौन सी देर लगेगी। कहेंगे लो जी हम भी गरीब हैं। हमें भी गरीब रथ का टिकट दे दो। इस तरह अमीर भी लूटेंगे सस्ते में गरीबी का मजा। पर यह क्या लालू जी आप तो गरीबों की आदत बिगाड़ रहे हैं। 

गरीबों के घर में तो अभी तक बिजली भी नहीं पहुंची है। पंखे भी नहीं लगे हुए हैं। जिनके घर में पंखे लगे हुए हैं वे भी भला कौन सा हमेशा पंखे में सो पाते हैं। क्या करें बिजली रानी ही नहीं आतीं। अब भला जिन्हें पंखे भी नसीब नहीं हैं वे कुछ घंटे के लिए अगर गरीब रथ के वातानूकुलित डिब्बे में सफर कर लेंगे तो उनकी आदत नहीं बिगड़ जाएगी। वे फिर घर वापस आएंगे तो उसी मुफलिसी का सामना करना पड़ेगा। कहेंगे अरे बापू ट्रेन में बड़ी प्यारी नींद आई थी। गरमी के दिन में भी ठंडी ठंडी हवा चल रही थी। अब गांव वापस आने पर फिर से सूरज की गरमी से चमड़ी जल रही है। यह गरीबों की गरीबी का मजाक नहीं तो और क्या है। थोड़ी देर के लिए उनको ठंडी ठंडी हवा में सपने दिखा देते हो। अगर असली गरीबों के हमदर्द हो तो पहले उनके घरों को वातानूकुलित करने की योजना बनाओ न। तुम तो सिर्फ सपने दिखाने में लगे हुए हैं। गरीब रथ में सफर करके लौटने के बात एक तो अपनी गरीबी का एहसास हो ही जाता है। उपर से अपनी गरीबी पर बड़ा रोना भी आता है। किसी शायर ने कहा है-
आधी-आधी रात को चुपके से कोई जब मेरे घर में आ जाता है।
कसम गरीबी की अपने गरीब खाने पर बड़ा तरस आता है।
 इसलिए लालू जी कुछ ऐसा इंतजाम कीजिए कि एक अदद एयर कंडीशनर हमारे गरीबखाने में भी लग जाए।
- vidyutp@gmail.com


Friday, 20 November 2009

रेलवे और सस्ते एयरलाइनों में टकराव

कई सस्ते एयरलाइनर जिन्हें हम लो कास्ट एयरलाइन कहते हैं अब रेलवे के एसी 2 टीयर के बराबर किराे में हवाई यात्रा का सुख दे रहे हैं। ऐसे में भारतीय रेल को प्रतियोगिता का सामना करना पड़ रहा है। जैसे आपको दिल्ली से मुंबई या चेन्नई जाना है तो आपको लो कास्ट एयर लाइन का टिकट 2500 से 4000 रुपए में मिल जाता है। वहीं रेलवे के एसी 2 टीयर में भी 2500 रुपए तक किराया देना पड़ता है। ऐसे में रेलवे के उच्च वर्ग में सफर करने वाले लोगों पर लो कास्ट एयर लाइनों की नजर है। वहीं एयर डेक्कन जैसे एयर लाइनों का सूत्र वाक्य है कि लोगों को पहली बार हवाई यात्रा के ख्वाब दिखाना। एक मध्यम वर्ग का आदमी एक बार हवाई यात्रा कर लेगा तो शायद बार बार करना चाहेगा।


अभी आसमान में एयर डेक्कन, स्पाइस जेट, गो एयर, इंडिगो सहारा और पैरामाउंट एयरवेज जैसे हवाई संचालक लोगों को सस्ते में उड़ने के सपने दिखा रहे हैं। इन विमान सेवाओं ने प्राइवेट रेल टिकट बुक करने वालों को हवाई टिकट बुक करने के लिए कुछ इंसेटिव देना भी आरंभ कर दिया है। यानी आप रेल टिकट बुक कराने जाएंगे तो आपका एजेंट आपको हवाई जहाज से चले जाने के फायदे बताएगा।
अब स्पाइस जेट और एयर डेक्कन आदि एयरलाइनरों ने रेलवे के राजधानी और शताब्दी एक्सप्रेस के डिब्बों में अपने विज्ञापन देने की नीति भी अपनाई है। जिससे इस क्लास के लोगों को हवाई यात्रा करने के लिए आकर्षित किया जा सके। एक सर्वे के अनुसार रेलवे के 3 फीसदी यात्री उच्च वर्ग के लोग हैं। वे बड़े आराम से हवाई यात्रा में लो कास्ट एयरलाइन को अपना सकते हैं। अगर इनमें से एक फीसदी भी हवाई यात्रा करने लगे हो हवाई यात्रियों में 35 फीसदी का इजाफा हो सकता है। कुछ एयरलाइन कंपनियां पंपलेट पोस्टर और विज्ञापनों से रेलवे के यात्रियों को अपनी ओर आकर्षित करने की कोशिश में लगे हुए हैं।
अब रेलवे भी अपने यात्रियों का आधार खोना नहीं चाहती है इसलिए वह हर रेल बजट में रेल यात्रियों के लिए कुछ आकर्षक आफर लेकर आती है। पिछले साल रेलवेके एसी 2 टीयर में सफर करने वाले यात्रियों के लिए भारतीय स्टेट बैंक के साथ लांच शुभयात्रा क्रेडिट कार्ड में डिस्काउंट की पेशकश की गई है। इस साल के रेल बजट में उम्मीद की जा रही है राजधानी और शताब्दी जैसी रेल गाडि़यों में कई तरह के डिस्काउंट की घोषणा की जा सकती है। पिछले साल रेलवे ने अपग्रेडेशन प्रणाली आरंभ की है जिसके उत्साहजनक परिणाम सामने आए हैं। वहीं सस्ते में वातानूकुलित क्लास में यात्रा की परिकल्पना को साकार करने वाली गरीब रथ ट्रेन को भी लोगों ने अपनाना आरंभ कर दिया है। अगले रेल बजट में कुछ और नए मार्ग पर भी गरीब रथ जैसी रेल गाडियों की घोषणा हो सकती है या फिर कुछ पुरानी गाडि़यों को पूरी तरह वातानुकूलित बनाने की योजना पेश की जा सकती है।
अगर आप दिल्ली से चेन्नई रेल से जाते हैं तो दो दिन लग जाते हैं वहीं आप हवाई जहाज से यही सफर मात्र दो घंटे में तय कर लेते हैं। इस तरह आपके दो दिन की बजत होती है। अगर आपकी एक दिन की आमदनी एक हजार रुपए है तो आप हवाई सफर करके आप दो हजार रुपए की बजत भी करते हैं। इस अर्थशास्त्र को समझें तो हवाई यात्रा करना आपके लिए सस्ता भी हो सकता है।



Sunday, 15 November 2009

कैमरा फोन से फिल्म बनाएं

टीवी पर ऐसी फिल्म का प्रदर्शन हो चुका है जो कैमरा फोन से बनाई गई है। यह प्रयोग के एक नए दौर की शुरूआत है। दक्षिण अफ्रीका के जोहंसबर्ग में फिल्माई गई इस फिल्म में आठ कैमरा युक्त मोबाइल फोन की मदद ली गई। एक दक्षिण अफ्रीकी निर्देशक के मन में यह आइडिया आया कि क्यों न हम मोबाइल फोन की मदद से ही फिल्म बनाएं। आजकल ऐसे मोबाइल फोन आ गए हैं जिनमें दो घंटे तक की वीडियो शूट की सुविधा उपलब्ध है। जब
मोबाइल फोन में कैमरा की सुविधा का आगमन हुआ तब यह लोगों के मजाकिया इस्तेमाल में ही आ रहा था। पर जल्द ही मोबाइल फोनों में उन्नत किस्म के कैमरों का इस्तेमाल होने लगा। अब मोबाइल फोन में 1.2 मेगा पिक्सेल से ज्य़ादा क्षमता वाले कैमरे आ गए हैं। इनके रिजल्ट का व्यवसायिक इस्तेमाल हो सकता है। इससे आगे बढ़ते हुए ऐसे मोबाइल फोन आ गए जिसमें कैमरे के अलावा वीडियो शूट की सुविधा उपलब्ध है। अगर आपके पास आधे घंटे से दो घंटे के वीडियो शूट का कैमरा उपलब्ध है तो कई जगह अपने काम की फिल्म बना सकते हैं। इसका सबसे बड़ा फायदा है कि बड़ा वीडियो कैमरा लेकर कहीं जाने की जरूरत नहीं है। अगर आपको कहीं भी आते-जाते कोई खास विजुअल नजर आता है जिसका कोई इस्तेमाल हो सकता है तो आप उसकी वीडियो फुटेज तैयार कर सकते हैं।
अब इसका फायदा टीवी चैनलों को भी खूब हो रहा है। वे दर्शकों को आमंत्रित करते हैं कि आपके आसपास कोई घटना होती है तो आपकी उसकी वीडियो फुटेज हमें भेजिए। मुंबई में आई बाढ़ के दौरान काफी लोगों ने अपने घर और आसपास के हालात के वीडियो बना कर लोगों के भेजा। इससे चैनलों को यह लाभ हुआ कि उनको मौके की जाती तस्वीरें मिल गईं। यह सत्य है कि हर जगह टीवी चैनलों के संवाददाता तो हर जगह पहुंच नहीं सकते। मीडिया में सिटीजन जनर्लिस्ट की जो परिकल्पा शुरु हुई है उसमें मोबाइल कैमरा और मोबाइल वीडियो का बड़ा योगदान है।
अब मोबाइल फोन के इससे भी बढ़कर अभिनव प्रयोग आरंभ हो चुके हैं। यानी मोबाइल फोन से ही लघु फिल्म बनाने का। जोहंसबर्ग के उन उत्साही युवाओं के इस प्रयास की तारीफ की जानी चाहिए जिन्होंने इस तरह का प्रयोग किया। इस टीम ने पहले एक स्क्रिप्ट बनाई। उसके बाद आठ मोबाइल फोन कैमरों का इस्तेमाल किया। एसएमएस शुगर मैन नामक इस फिल्म की शूटिंग 11 दिनों में की गई। इसमे कुल तीन कलाकारों ने काम किया। यह फिल्म दो उच्चवर्ग की वेश्याओं की कहानी है। बाद में इस फिल्म को 35 एमएम के फीचर फिल्म के आकार में शिफ्ट किया गया। यह फिल्म लो बजट की फिल्म का आदर्श उदाहरण बन गई है। हो सकता है दुनिया के अन्य देशों के लोग भी इससे कुछ प्रेरणा ले सकें।

-    विद्युत प्रकाश मौर्य


Tuesday, 10 November 2009

सफलता की गारंटी है गाने

आजकल कई धारावाहिकों को फिल्मी गाने देखने को मिल रहे हैं। किसी सीरियल को सफल बनाने के लिए उसमें किसी हिट फिल्म के गाने को पिक्चराइज करना एक नए मसाले की तरह इस्तेमाल में आ रहा है। खास तौर पर एकता कपूर के धारावाहिकों में। हम यह तो देख ही रहे हैं कि स्टार प्लस या जी टीवी के धारावाहिक हाई प्रोफाइल परिवारों की कहानियां ही दिखाते हैं। टीवी पर मध्यम वर्ग का परिवार और उसकी समस्या नदारद हैं। इन हाई प्रोफाइल परिवारों में पनपने वाले अवैध संबंध और इगो टकराहट धारावाहिकों की कथानक का मुख्य सांगोपांग होता है।

विज्ञापनदाताओं का दबाव - किसी भी धारावाहिक को ध्यान से देखें तो पाएंगे कि उसमें अभिनेत्रियां महंगी साड़ियां और गहने पहनती हैं। पुरूष डिजाइनर वस्त्र में सजेधजे रहते हैं। वे जिन कंपनियों की साड़ियां और गहने पहनती हैं धारावाहिक के आगे पीछे उन्हीं कंपनियों के विज्ञापन भी आते हैं। यानी हर धारावाहिक की कहानी में बड़ी चालाकी से बाजार को घुसाया गया है जिसे आप आसानी से समझ नहीं पाते हैं। टीवी धारावाहिक बनाने वाले एक निर्देशक का कहना है कि हमें 23 मिनट के धारावाहिक में काफी कुछ दिखाना पड़ता है। एक एक दृश्य में बाजार की जरूरत के हिसाब से एलीमेंट डालने का दबाव होता है। यानी ये धारावाहिक विज्ञापनदाताओं के दबाव में अपनी कहानी बनाते हैं। विज्ञापनदाताओं के दबाव में ही पात्रों के परिधानों का चयन भी करवाते हैं। इन सबके पीछे एक गहरी साजिश चल रही है जिससे टीवी के सामने बैठा दर्शक अनजान ही है।
त्योहारों का सेलिब्रेशन - अब धारावाहिकों को भव्य और मनोरंजक बनाने के लिए उसमें सेलिब्रेशन का एलीमेंट फीट किया जा रहा है। इसके तहत कई सालों से ये परंपरा चल पड़ी है कि अंतहीन कथानक वाले मेगा धारावाहिकों में होली, दीवाली, रक्षा बंधन, क्रिसमस जैसे सभी त्योहार मनाए जाते हैं। ये त्योहार उस साल पड़ने वाले त्योहारों की वास्तविक तारीख के बीच ही पड़ते हैं। इन त्योहारों के साथ भी कई तरह के उपभोक्ता वस्तुओं की मार्केटिंग होती है। इसलिए धारावाहिक की कहानी में त्योहारों का प्रसंग रखना भी जरूरी है। वैसे भी अतंहीन धारावाहिकों के लेखक के पास किसी नए विषय वस्तु का अभाव होता है। उसे तो कोई बहाना चाहिए जिससे धारावाहिक के कुछ एपीसोड आगे खींचे जा सकें।

कुछ नहीं तो गाने सही - कुछ फिल्मों में किसी पुराने फिल्मी गाने के एक अंतरे को या मुखड़े को रीपिट किया गया था। पर धारावाहिक आजकल कई लोकप्रिय गानों को अपने सेट पर रीशूट कर रहे हैं। गाना वही म्यूजिक वही बस उस पर थिरकने वाले पात्र बदलते हैं। यह सब कुछ बहुत आसान भी है। शादी विवाह समारोहों अधिकांश घरों में लोग लोकप्रिय गानों की धुन पर नाचते हुए देखे जाते हैं। यानी इस काम के लिए कोई ज्यादा मेहनत नहीं करनी पड़ती है। बस धारावाहिक के सभी पात्र एक जगह जुट कर कमर हिलाना शुरू कर देते हैं। इसके साथ ही कहानी में म्यूजिक डालने का एक बहना मिल जाता है। शूटिंग में सेट पर भी थोड़ी मौजमस्ती हो जाती है। इन सबके बीच आम दर्शकों को गाना बजाना देखने को मिल जाता है। मौका मिले तो ड्राइंग रूम में टीवी देख रहे लोग भी नाचने लगते हैं।
 vidyutp@gmail.com



Thursday, 5 November 2009

तो तुम्हें साथ-साथ रहने की आजादी चाहिए...

भला किसी को किसी के साथ रहने के से कौन रोक सकता है। अमृतसर में ऐसे दो मामले सामने आ चुके हैं जब दो लड़कियों ने आपस में शादी रचा ली। इसी तरह का एक मामला हाल के दिनों में मेरठ में सामने आया है। इस बारे में देश के कानून भी मौन हैं। वास्तव में दो लोगों के साथ साथ रहने को लेकर कोई कानून बनाना भी मुश्किल काम है। किसी को अगर किसी का साथ अच्छा लगता है तो इसमें भला कानून कर भी क्या सकता है। मेरठ में ऐसे सह जीवन (इसे विवाह तो कह नहीं सकते) के खिलाफ वहां की कुछ सामाजिक संस्थाओं ने विरोध प्रदर्शन भी किया। बकौल कुछ समाज सेवक यह सब कुछ ठीक नहीं है। पर यह किसी की अभिव्यक्ति या जीवन जीने के पद्धति की आजादी छीनने जैसा नहीं है। किन्ही दो लोगों का जीवन जब तक समाज को प्रभावित नहीं कर रहा हो तब तक समाज के लोगों को इस पर छींटाकशी करने या विरोध करने का कोई मतलब नहीं होना चाहिए। देश में ऐसे मामले तो हमेशा से सामने आते रहे हैं जब दो पुरूष साथ साथ रहते हों। जब दो पुरूष साथ रहते हों तो आमतौर पर लोगों को यह शक भी नहीं होता है कि उनके बीच कोई शारीरिक संबंध भी हो सकता है। पर जब दो लड़कियां साथ रहने की सार्वजनिक तौर पर घोषणा करती हैं तो बवाल मचता है। हो सकता है दो स्त्रियों में भी भावनात्मक संबंध इतना मजबूत हो कि वे साथ साथ रहना चाहती हों। अभी हाल में हरियाणा के एक जिले में भी ननद भौजाई ने साथ साथ रहने की घोषणा कर डाली।
हमें यह मान कर चलना चाहिए कोई भी समाज हो वहां कुछ अनकनवेंशनल रिश्ते हो सकते हैं। ऐसा हमेशा से होता आया है। जब तक ऐसे रिश्ते दूसरों को हानि न पहुंचाते हों, हाय तौबा मचाने का क्या फायदा। कोई अपने बाथरूम में कपड़े पहन कर नहाता हो या नंगा होकर क्या फर्क पड़ता है। जब वह सड़क पर नंगा नहाने लगे तो आप उसे पत्थर जरूर मारिए। कहिए कि ऐसा मत करो हमारे बच्चों पर बुरा असर पड़ रहा है।
कई ऐसे लोग साथ-साथ रहने का फैसला कर लेते हैं जिनके बीच उम्र का बहुत बड़ा अंतर होता है। ऐसे संबंधों पर कुछ टीवी कार्यक्रम भी बने हैं। केस स्टडी भी की गई है। पर ऐसे मामलों तो तूल देना हवा देना प्रचारित करना शायद गलत होगा। पर अगर किसी भी उम्र, जाति अथवा लिंग के लोगों को अगर साथ अच्छा लगता हो तो लगने दीजिए। उसपर समाज की ढेर सारी बंदिशें मत लगाइए। न उम्र की सीमा हो न जन्म का हो बंधन, जब प्यार करे कोई तो देखे केवल मन। यह मन माने की बात है भाई। किसी शायर ने लिखा है- आंसूओं से धुली खुशी की तरह रिश्ते होते हैं शायरी की तरह।


-    विद्यत प्रकाश मौर्य