Wednesday, 29 December 2010

बीएचयू के पुराने दोस्तो से एक मुलाकात

कई साल पुराने कई दोस्त एक साथ मिल जाएं तो अनुभव कितना सुखद हो सकता है, इसे सिर्फ महसूस ही किया जा सकता है। दिल्ली की एक सर्द भरी शाम में ऐसे ही कुछ पुराने दोस्तों से मुलाकात हो गई। मौका था 25 दिसंबर को मालवीय जयंती का। वैसे तो मालवीय जयंती हर साल मनाई जाती है। लेकिन दीन दयाल उपाध्याय मार्ग पर नव निर्मित मालवीय स्मृति भवन में इस बार मेरे बैच के कई दोस्तों ने तय किया कि हमलोग आयोजन में पहुंचने की कोशिश करेंगे।

 तो 1993 बैच के स्नातक और 1995 बैच के एमए के कई साथ मिल गए इस मौके पर। संजीव गुप्ता, राजेश गुप्ता बंधु तो कई सालों से दिल्ली में हैं।  अमिताभ चतुर्वेदी, गाजियाबाद, शक्तिशरण सिंह, उत्तम कुमार, ज्ञान प्रकाश, अमित कौशिक का एक साथ मिल जाना महज संयोग ही था। बीएचयू एलुमिनी एशोसिएशन में सक्रिय रोहित सिन्हा जो दिल्ली में सुप्रीम कोर्ट में वकालत करते हैं हमारे समकालीन ही हैं। आदर्श सिंह, ( जनसत्ता में कार्यरत ) और हरिकेश बहादुर (दूरदर्शन ) और चंदन कुमार पहुंच नहीं सके। लेकिन सबसे सुखद रहा अलख निरंजन से मिलना।

मनोविज्ञान के साथी अलख इन दिनों अरूणाचल प्रदेश में एक आवासीय विद्यालय चला रहे हैं। वे अपनी पत्नी और नन्ही सी बिटिया के साथ आए थे। दक्षिण भारत दौरे से लौटे अलख अपने दोस्तों से मुलाकात के लिए ही दिल्ली में रूक गए थे। इस बार के हुए कार्यक्रम में लोक गायिका मालिनी अवस्थी ने सुरों की धार बहाई।
अब थोड़ी सी बात मालिनी के गीतों की कर लें तो मालिनी जी की स्टेज परफारमेंस बड़ा ही रोचक, मनभावन और नाट्य प्रस्तुति लिए होता है। उन्हें टीवी पर सुनना और लाइव सुनना दोनो ही अलग अलग अनुभूति है। गिराजा देवी की शिष्या मालिनी अपने ट्रूप के साथ आई थीं। ईश वंदना के बाद उन्होने सोहर पेश किया। इस मौके पर सोहर का इतिहास और उसकी बारिकियां भी बताती गईं। उनकी दूसरी प्रस्तुति मां शारदे का गीत था। और फूट पड़ी बनारस की कजरी...मिर्जापुर कइल गुलजार कचौड़ी गली सुन कईल बलमू....इस कजरी की रचयिता गौहर जान की कहानी भी मालिनी जी ने साथ साथ सुनाई....
और पुराना लोकगीत...बन्ना बुलाए बन्नी नहीं आए...अटरिया सुनी पड़ी...( दूर कोई गाए धुन ये सुनाए....तेरे बिन छलिया रे...ये फिल्मी गीत इसी धुन पर है)  इसके बाद रेलिया बैरन पिया को लिए जाए रे.....तो सुरों की गंगा बहती रही घंटो...इसके साथ ही मालवीय स्मृति भवन में सभी पूर्व छात्रों के लिए भोजन का भी उम्दा प्रबंध था। सबसे पुराने एलुमनी डा. पीएल जायसवाल, एल एंड टी में कार्यरत आईटी बीएचयू के एलुमनी शक्तिधर सुमन की मेहनत आयोजन मे साथ झलक रही थी.... ( 25 दिसंबर 2010 )
विद्युत प्रकाश मौर्य ( MA BHU, 1995)

Saturday, 18 December 2010

होम्योपैथी में है डेंगू से बचाव की दवा

डेंगू का खौफ लोगों की नींद हराम कर देता है। डेंगू से घबराएं, नहीं सचेत रहें और योग्य चिकित्सक से उपचार कराएं। होम्योपैथी के जरिये भी बिना किसी साइड इफेक्ट के डेंगू का कारगर इलाज संभव है। किसी भी बुखार से प्लेटलेट्स गिरने को लोग डेंगू मान बैठते हैं। समय से उपचार कराया जाए तो होम्योपैथी में डेंगू से बचाव की औषधि उपलब्ध है।

यह दवा लें -  होम्योपैथी में यूपेटोरियम परफोलिएटम 200 की दो खुराक 15 दिन में लेनी चाहिए। जिन लोगों को डेंगू बुखार न हुआ हो वे बचाव के लिए भी दवा ले सकते हैं।
होम्योपैथी में डेंगू का निश्चित उपचार है। उपचार किसी योग्य चिकित्सक की देखरेख में करना चाहिए। इतना ही नहीं, रोगी की प्लेटलेटस गिरने पर ¨चिंता नहीं करनी चाहिए। इस पद्धति में रोगी खून में प्लेटलेट्स बढ़ाने की भी औषधि उपलब्ध है, जो मरीज की स्थिति के अनुसार चिकित्सक निर्धारित कर दे सकते हैं। दवा लेने के बाद प्लेटलेट्स 48 से 72 घंटे में बढ़नी शुरू हो जाती है।

ऐसे करें बचाव - 

- किसी भी खुले बर्तन व गडढ़े में पानी इक्ट्ठा नहीं होने दें।

- अगर आप बाल्टी या किसी बर्तन में पानी इक्टठा करके रखते हैं तो इसे ढ़कना नहीं भूलें।

- मच्छरों से बचने के लिए मच्छरदानी का प्रयोग करें। रात को मच्छरदानी लगाकर ही सोएं।

- कूलर के पानी में डेंगू के मच्छरों के पैदा होने की संभावना ज्यादा होती है।

- नगर निगम द्वारा मच्छर मारने की दवा का छिड़काव करवाएं।

- खिड़की व दरवाजों में जाली लगाकर रखना चाहिए। जिससे मच्छर घर में नहीं आ सकें।  


Tuesday, 23 November 2010

बेगानी की शादी में अब्दुल्ला दीवाना ( व्यंग्य)

गाना बहुत पुराना है पर अपना मतलब आज भी रखता है। बेगानी की शादी में अब्दुला को भला क्या मतलब । पर उसे हर फटी में अपनी टांग अड़ाने की आदत है ना। अब देश भर के ज्योतिषी यह गणना कर बताने में लगे हैं कि अभिषेक व एश्वर्य राय की शादी कितनी टिकाउ हो सकेगी। कई ज्योतिषियों ने तो अपनी गणना के आधार पर यह बता दिया है कि यह शादी ज्यादा नहीं चलने वाली है। अरे भाई अभी तो सात फेरे भी नहीं पड़े शुभ शुभ तो बोलो। कई जगह टूटते टूटते तो जाकर दो दिल जुड़े क्या हुआ जो लड़की लड़के से तीन साल बड़ी है। सुनील दत्त से नरगिस भी तीन साल बड़ी थी। सचिन तेंदुलकर की श्रीमती जी वही अपनी डाक्टर साहिबा भी उनसे उम्र में बड़ी हैं। शादियां खूब चलीं। तुम दिल जलों को क्या पता।

अब अपनी ऐश पर आरोप है कि उन्होंने कईयों का दिल तोड़ा। सल्लू मियां उसे पब्लिकली अपनी प्रापर्टी समझने की गलती कर बैठे। अपने विवेक ओबराय भी काफी समय तक सेवा भाव से लगे रहे। पर बन्नी को तो जिसके घर जाना था वहीं जाएगी। अब यह तो सबको पता है कि दिल बड़ी नाजुक चीज होती है। यह टूटने और जु़ड़ने की ही चीज होती है। वो क्या गाना था शीशा हो या दिल हो टूट जाता है। अब ऐश जैसी अनार हो तो कई बीमार होंगे ही। कईयों का दिल जुड़ेगा भी और टूटेगा भी। अब भला इसमें ऐश का क्या दोष है। पर अभी देश भर के कई ज्योतिषी बीमार हुए पड़े हैं। वे दिन रात यह गणना करने में व्यस्त हैं कि आखिर यह शादी कितनी स्थायी सिद्ध होने वाली है। 
कई ज्योतिषियों को यह मलाल है कि बच्चन परिवार ने उनसे आकर कंसल्टेंसी क्यों नहीं ली। ऐसे में वे मीडिया का सलाह देने में लगे हैं। अभिषेक का फलां ग्रह कमजोर है तो ऐश का फलां ग्रह मजबूत है। उनके बीच संबंध टिकाउ नहीं दिखाई देते। अब यह तो सबको पता है कि पति पत्नी के संबंधों में झगड़े होते ही हैं और कई अरेंज मैरेज वाले रिश्तों में भी बात में खटास आती है। जिस शादी में हजारों लोग शिरकत करते हैं वैसी शादियां भी टूटती हैं। फिर फिल्मी सितारों की शादी के क्या कहने। कई ऐसे जोड़े हैं जिन्होंने पति पत्नी के रिश्ते को सालों भर ढोया है। अब अगर दो दिल मिल रहे हैं तो दुनिया को चाहिए कि उन्हें आशीर्वाद दें। हमारे बिग बी साहब को जल्दी है। वे चाहते हैं कि वे जल्दी से दादा बनें। तो देश भर के ज्योतिषियों को भी चाहिए कि वे सात फेरे होनें दें इसमें कोई अड़ंगा न लगाएं। हमारे अभिषेक बबुआ की एक मंगनी पहले भी तय होकर टूट चुकी है। ऐसे में इलाहाबाद के लोग भी चाहते हैं कि उनके बबुआ का जल्दी से विवाह हो जाए। देखा आपने जैसे ही उनकी मंगनी की खबर पहुंची अमिताभ बच्चन के पुश्तैनी घर के आसापास के लोगों ने खूब पटाखे फोड़े।



अब भला ऐश की शादी हो रही है तो विवेक ओबराय भी चुपचाप हैं। सल्लू मियां भी चुपचाप तमाशा देखने को मजबूर हैं यह अलग बात है कि वे अंदरही अंदर सुबक रहे हों। उनकी उम्र सुना है चालीस के पार कर गई है। एक शायर ने लिखा थाहेलल हेलल भइंसिया पानी मेंमोर शादी न भइल जवानी में। अब सल्लू मिंया अगर शादी कर भी लें तो भला कितने साल विवाहित जीवन का सुख भोग पाएंगे। इसलिए उनके साथ की हीरोइनों को उनसे सिर्फ सहानुभूति भर है। इसलिए मिंया हम तो कहते हैं जहां भी बाजा बज रहा हो बजने तो तुम भी थोड़े से ठुमके लगा लो पर यह नहीं कहो कि अमुक शादी नहीं हो सकती है। अगर हो सकती है तो चल नहीं सकती है। बहरहाल ऐश भाभी और अभिषेक बबुआ को हमारी ओर से शुभकामनाएं। दिल जलों दूर रहो....
-vidyutp@gmail.com 

Saturday, 13 November 2010

प्यार में कुत्ता होना ( व्यंग्य )

कलम उठाते ही मैं उन कुत्तों से क्षमा मांग लेना चाहता हूं जो स्वामीभक्त होते हैं। प्यार में कुत्ता होने से हमारा तात्पर्य वैसे कुत्तों से है जो आवारा होते हैं। मांस के टुकड़े की तलाश में दूर-दूर तक भटकते रहते हैं। अखबारी भाषा में फ्री लांसर होते हैं। उनकी सी.आर. लिखने के लिए उनके उपर कोई अधिकारी या स्वामी नहीं होता। अंग्रेजी में एक कहावत है वांडरिंग वन गेदर्स हनी...यानी शहद उन्हें ही मिलता है जो भटकते हैं। इसलिए इस कहावत से प्रेरणा लेकर मुझे लगता है कि अच्छा प्यार पाने के लिए कुत्तों की तरह भटकने में कोई बुराई नहीं है।
आज की आधुनिक होती नव यौवनाओं की दो पसंद खास होती जा रही है। एक कुत्ता पालना और दूसरा कुत्ता टाइप प्रेमी पालना। अब कुत्ता टाइप प्रेमी बनने के लिए आपके अंदर कुछ खास योग्यताएं होनी चाहिए। पहली जंजीर में बंधे रहना और उतना ही उछलना जितना की ढीली हो जंजीर। बिस्कुट तथा ब्रेड खाना और अपनी स्वामिनी ( या प्रेयसी ) के लिए आइसक्रीम लाना। राह चलते आपकी स्वामिनी के पुराने कुत्ते ( या प्रेमी) मिल जाएं तो उनके प्रति सदभावनापूर्ण विचार रखना।

अगर आप परमानेंट तौर पर पालतू प्रेमी ( या कुत्ता ) बने रहना चाहते हैं तो भूंकने के मामले में नितांत सावधानी बरतनी चाहिए। कभी भी अधिक बिस्कुट प्राप्त करने के लिए या तफरीह में आजादी के लिए भूंकिए मत। वरना आपके स्स्पेंड तदुपरांत डिसमिस किए जाने की संभावना बढ़ जाएगी।अगर आप अपने प्रेम में सुरक्षात्मक दृष्टिकोण अपनाए रखना चाहते हैं तो इस चौपाई पर अमल करें- जाही विधि रखे राम ताही विधि रहिए। यानी वृंदावन में रहना है तो राधे राधे कहना ही होगा।

अगर आप कदम कदम पर रिस्क लेने और चैलेंज स्वीकार करने के आदी हैं तो आवारा कुत्तों सा प्रेम किजिए। नहीं रिस्क ले सकते तो सुरक्षात्मक दृष्टिकोण अपनाइए। कालकुलेटेड रिस्क ही लिजिए। अपने सूंघने की शक्ति का विशेष इस्तेमाल किजिए। स्वाभिमान, पुरूषार्थ, नैतिकता जैसे शब्दों को अपने शब्दकोश से निकालकर बंगाल की खाड़ी में डूबो दीजिए।

आप नए जमाने के प्रेमी हैं। बेशक भूंकिए मगर काटिए मत। किसी बड़े आशिक ने कहा था प्रेम सब कुछ सह सकता है मगर उपेक्षा नहीं। इस कथन को भूल जाइए, चाहे कितनी भी उपेक्षा मिले 'आशाएं' मत छोड़िए। उनकी गली का पता मत भूलिए। मौसम के बदलने और फिर से बहार का इंतजार कीजिए। जैसे किसी मशहूर शायर ने कहा था..

तेरे जितने भी चाहने वाले होंगे

होठों पे हंसी और पांवों में छाले होंगे।

पांवों के छाले का दर्द भूलकर मेहंदी वाले हाथों की लचक का ख्याल रखिए। यकीन मानिए आपके कुत्तापन पर उनको एक न एक दिन तरस जरूर आएगा। परंतु स्वामीभक्ति कभी मत दिखाइए। मध्यकालीन राजाओं के दरबारी कवियों की तरह तारीफ में सिजदे पढ़ने की काबलियत का विकास किजिए।

संस्कृत में विद्यार्थियों के पांच गुणों की चर्चा आती है। काग चेष्टा( कौवे की तरह कोशिश ), वको ध्यानम ( बगुले की तरह ध्यान ), स्वान निद्रा ( कुत्ते की तरह नींद ), अल्पाहारी ( कम भोजन करने वाला) और गृह त्यागी ( घर छोड़ देने वाला) । ये सब गुण आज के विद्यार्थियों से बहुत दूर जा रहे हैं पर कुत्ता टाइप प्रेमियों के बहुत करीब हैं।

अपनी स्वामिनी पर कभी अविश्वास मत किजिए, चाहे वह आपके सामने ही सफेद झूठ क्यों न बोले। जी हां प्रेम में कभी अविश्वास न करें चाहें वह आपको कितना भी दुख क्यों न पहुंचाता हो ( नेवर डिस्ट्रस्ट द लव इवेन इफ इट गिव्स शारो टू यू )

इक्कीसवीं सदी में आपके जैसे प्रमियों की दास्तान कही और सुनी जाएगी। बकौल शायर-





है रीत आशिकों की तन मन निशार करना। 
रोना सितम उठाना और उनसे प्यार करना।

अपनी स्वामिनी को अपने प्रेम का विश्वास दिलाने के लिए बार बार अपने कुत्ता होने की याद जरूर दिलाते रहें- उन्हें यंकी दिलाने के लिए यह कविता सुनाएं-

मैं तुम्हारे प्यार में कुत्ता हो गया...
यकीं नहीं आता तो सुनो- भों-भों- भों!!!

- विद्युत प्रकाश मौर्य 


Saturday, 23 October 2010

जमाना आया ई बाइक्स का...

बिना पेट्रोल को गाड़ी चली फुर्र। जी हां अब महानगरों में लोग तेजी से ई बाइक्स को अपना रहे हैं। ई बाइक मतलब बिजली से चार्ज होकर चलने वाली बाइक। यानी पेट्रोल डालने का कोई चक्कर नहीं है। ऐसी बाइक जहां प्रति किलोमीटर माइलेज में सस्ती पड़ती है तो पर्यावरण के प्रति अनुकूल भी है, यानी कि यह हवा में धुआं नहीं छोड़ती है। देश की साइकिल बनाने वाली दो प्रमुख कंपनियां हीरो और एवन ई बाइक्स बना रही हैं। अब घड़ी बनाने वाली कंपनी अजंता भी ई बाइक्स लेकर आ रही है। पहले तो ई बाइक्स को लोगों का ठंडा रेस्पांस मिला था पर अब लोग इसके प्रति सजग हो रहे हैं।
जेब पर हल्की
ई बाइक्स जेब पर हल्की पड़ती है। अक्सर महिलाएं जिस तरह का स्कूटर खरीदती हैं वह 30 से 35 हजार में आता है और 40 से 45 किलोमीटर प्रति लीटर से ज्यादा माइलेज नहीं देता। इस सिगमेंट के लिए ई बाइक बहुत अच्छा विकल्प है। ई बाइक महज 15 पैसे प्रति किलोमीटर के खर्च में चलती है। शहरों में 50 से 100 किलोमीटर का सफर करने के लिए ई बाइक बहुत अच्छा विकल्प है। एक बार चार्जिंग में आमतौर पर ई बाइक 70 किलोमीटर तक चलती है। यह बाइक की तरह लांग ड्राइव में जाने के लिए ठीक नहीं है। पर शहरी स्थितियों के लिए यह बहुत शानदार है, इसलिए यह लोगों की पसंद बनती जा रही है। ई बाइक के शुरूआती माडल 20 हजार में भी उपलब्ध हैं पर ये दो वजनी लोगों को नहीं ढो पाते। पर 30 हजार तक में आने वाले इ बाइक की क्षमता ठीक है।
आजकल महानगरों की बड़ी समस्या बढ़ते पर्यावरण प्रदूषण की है। पेट्रोल और डीजल वाहनों की बढ़ती भीड़ वातावरण में लगातार कार्बन की मात्रा बढ़ा रहे हैं, जो बेहतर भविष्य के लिए बड़ा खतरा हैं। ऐसे में ई बाइक्स का ज्यादा से ज्यादा इस्तेमाल कई स्तरों पर लाभकारी हो सकता है। आपकी जेब के लिए भी और आने वाली पीढ़ी के लिए भी। सरकारें भी ई बाइक्स की जरूरत को समझकर इस पर सब्सिडी दे रही हैं। दिल्ली सरकार ई बाइक्स पर पांच हजार रुपये तक सब्सिडी दे रही है। बाकी सरकारें भी इसी तरह का कदम उठा रही हैं। ई बाइक के साथ थोडी़ सी समस्या चार्जिंग की है। अगर बिजली नहीं रहे तो आप इसे चार्च नहीं कर सकते हैं। अगर आप घर से बाहर निकल चुके हैं तो चार्जिंग नहीं हो सकती। अब ई बाइक्स के लिए सार्वजनिक स्थलों पर पार्किंग आदि में चार्जिंग प्वाइंट बनाने पर भी विचार चल रहा है।
अब ई कार भी
ई बाइक के बाद बाजार में ई कार भी दस्तक दे चुकी है। बिजली से चार्ज होकर चलने वाली कार रेव-3 ने बंगलोर के बाद दिल्ली में वितरण शुरू कर दिया है। कंपनी जल्द ही चंडीगढ़ में भी इलेक्ट्रिक कार बेचना शुरू करेगी। ई कार पर भी सरकार 30 हजार तक सब्सिडी दे रही है। दिल्ली में तीन लाख रुपये में उपलब्ध रेव चार सौ रुपये खर्च में 1200 किलोमीटर का सफर तय करती है। यानी 33 पैसे प्रति किलोमीटर का खर्चा। यह पेट्रोल चलित बाइक से भी सस्ती है।   

Email - vidyutp@gmail.com 

Sunday, 17 October 2010

लो फ्लोर बसों ने बदला सफर का अंदाज

याद किजिए दिल्ली की ब्लूलाइन बसों की भीड़ में बदबूदार सफर को...लेकिन डीटीसी की नई लो फ्लोर बसों ने सफर का मजा बदल दिया है। जितना आरामदायक सफर आप मारूति 800 मॉडल की कार में करते हैं कुछ उतना ही आरामदेह सफर है डीटीसी की नई लो फ्लोर बसों का। परंपरागत बसों की तुलना में ऊंचाई कम होने के कारण बच्चे बड़े और बुजुर्ग सबके लिए बसों में चढ़ पाना भी आसान हो गया है। जिन रूट पर लो फ्लोर बसें चलने लगीं हैं वहां लोगों को सफर पहले की तुलना में बहुत अरामदेह हो गया है। बसों के दरवाजे हमेशा बंद रहने के कारण गेट पर लटक कर सफर करने की भी कोई संभावना नहीं रह गई है। इससे कई तरह की दुर्घटनाओं भी निजात मिली है। दिल्ली की सड़कों पर दौड़ रही कुछ सौ बसों ने शहर का नजारा बदलने में मदद की है। अब दिल्ली सरकार 1600 से अधिक लो फ्लोर बसें और लाने जा रही है। इसके बाद दिल्ली वासियों को और आरामदेह सफर का मजा मिल सकेगा। कामनवेल्थ गेम्स से पहले दिल्ली को अंतराष्ट्रीय मानकों के अनुरूप शहर बनाने की दिशा में ये प्रयास भर है। लेकिन जब दिल्ली की सड़कों से ब्लू लाइन बसें और डीटीसी की पुरानी खटारा बसें पूरी तरह अलविदा हो जाएंगी तब दिल्ली का नजारा बदल चुका है और दिल्ली का आम आदमी राहत का सफर कर सकेगा। लो फ्लोर बसों के आरामदेह सफर के बाद लोग अपनी कार या टैक्सी आटो रिक्सा से चलना छोड़कर बसों में सफर करना पसंद करेंगे। इससे दिल्ली की सड़कों पर ट्रैफिक का बोझ कम हो सकेगा। दिल्ली सड़कों पर वाहनों की बढ़ती अंधाधुंध भीड़ से निजात के लिए यह जरूरी है कि ज्यादा से ज्यादा लोग बसों में सफर करें। न सिर्फ आम आदमी बल्कि वीआईपी कहे जाने वाले और अमीर लोग भी बसों में सफर करें। इसके लिए बसों के सफर को और आरामदायक बनाना होगा। इसमें एसी बसों के परिचालन भी बढ़ाना होगा। डीटीसी ने लो फ्लोर वाले एसी बस भी सड़कों पर उतार दिए हैं। इन बसों की आवाजाही भी लोकप्रिय रूट पर ज्यादा से ज्यादा बढ़ानी चाहिए। इससे आटो रिक्सा में बैठकर जल्दी पहुंचने वाला लोग इन बसों का सहारा ले सकते हैं। एसी बसों में सफर करना आटो रिक्सा या टैक्सी में सफर करने से सस्ता है। मुंबई में जैसे शहरों के लिए एसी बसें कोई नई बात नहीं है पर दिल्ली में यह शुरूआत काफी देर से हुई है। साथ ही जो कम लोकप्रिय रूट हैं वहां मिनी बसें चलानी चाहिए। मेट्रो स्टेशनों से चलने वाली फीडर बसें जो छोटे आकार की हैं उनका जाल भी ज्यादा रूट पर बढ़ाना जरूरी है।

बसों का सफर आरामदेह होने से यह भी उम्मीद की जा सकती है कि दिल्ली के वातावरण में प्रदूषण की मात्रा भी कम होती जाएगी। क्योंकि सीएनजी से चलने वाली लो फ्लोर बसों संख्या बढ़ने से सड़कों पर डीजल पेट्रोल चलित निजी वाहनों का शोर थमता नजर आएगा। अगर हम चाहते हैं कि नई पीढ़ी के लिए राष्ट्रीय राजधानी रहने लायक सांस लेने लायक शहर हो तो हमें प्रदूषण करने की हर कवायद के साथ खड़ा होना पड़ेगा।
-विद्युत प्रकाश मौर्य, ई मेल vidyutp@gmail.com

Sunday, 10 October 2010

कर्ज है हम सबके ऊपर

कई साल के संघर्ष के बाद मैंने बैंक से कर्ज लेकर एक छोटा सा फ्लैट खरीद लिया। अब फ्लैट खरीद लिया तो इसकी खुशी भी है कि अब मेरा अपना पता है जिसे मैं अपना कह सकता हूं। साथ ही इस बात का गम भी साथ चलता रहता है, कि फ्लैट अपना होकर भी पूरी तरह अपना नहीं है। भला क्यों अपना नहीं है। अपना इसलिए नहीं है कि मैं इसकी इएमआई चुका रहा हूं। जब तक इएमआई पूरी नहीं हो जाती, मकान पूरी तरह अपना नहीं हो पाएगा।

अब ये इएमआई तो 20 साल बाद पूरी होगी। बीस साल बादतो मैं बुढापे के करीब आ जाउंगा, रिटायरमेंट के करीब आ जाउंगा। इस बीस साल में जीवन में कई उतार चढ़ाव भी आ सकते हैं। पूरी दुनिया मंदी के दौर से गुजर रही है। किसी भी नौकरी पर कभी भी खतरा मंडरा सकता है। ऐसे हाल में इएमआई का क्या होगा। सचमुच ये चिंता की बात है। कर्ज लेकर फ्लैट खऱीदने की खुशी पूरी खुशी नहीं है। ये अधूरी खुशी है। ऐसी खुशी जिसमें कर्ज का बोझ मंडराता रहता है। किराये के मकान में हमेशा इस बात को लेकर तनाव रहता था कि कहीं वेतन मिलने से पहले ही खड़ूस मकान मालकिन किराया मांगने के लिए नहीं टपक पड़े। अब इस बात का बोझ मन पर रहता है कि बैंक वाले ने इएमआई निकाली की नहीं। इसलिए मकान खरीदने के बाद जब भी दोस्तों को यह बताता हूं कि अपने मकान में आ गया हूं तो यह खुशी पूरी खुशी नहीं होती है। एक पुराना शेर है..गौर फरमाएं-
हजार गम है दिल में, खुशी मगर एक है...
हमारे होठों पर किसी की मांगी हुई हंसी तो नहीं।


लेकिन ईएमआई का मकान तो मांगी हुई हंसी की तरह है, ये हंसी हमारे होठों की हंसी नहीं है। ये वैसी प्रेमिका की तरह है जिसके साथ मंगनी तो हो गई है लेकिन अभी ब्याह नहीं हुआ। ब्याह तो तब होगा जब बैंक वाला मकान के पेपर आपको वापस देगा। इसी दुख में मैं दुबला हुआ जा रहा हूं कि कर्ज में ली हुई चीज को कैसे अपना कहूं। इसलिए जब भी दोस्तों से अपने नए पते की चर्चा करता हूं कुछ न कुछ मलाल रह ही जाता है।

खैर मेरी एक बहुत पुरानी दोस्त हैं, कुलप्रीत कौर जो चलाती तो पीआर एजेंसी हैं लेकिन विचारों से आध्यात्मिक हैं। जब उनको कर्ज में लिए फ्लैट की दास्तां सुनाई तो उन्होंने मुझे प्रत्युत्तर में दिव्य ज्ञान दिया है। बकौल कुलप्रीत दुनिया का हर आदमी कर्ज में डूबा है। भारत देश कर्ज में डूबा है। हर साल घाटे का बजट पेश करता है। सबसे धनी देश अमेरिका पर भी बहुत से लोगों का कर्ज है। हर भारतीय कर्ज के बोझ में पैदा होता है और कर्ज चुकाते चुकाते इस दुनिया से कूच कर जाता है। हमारी हर सांस पर किसी न किसी का कर्ज है। ये जिंदगी जिस माता पिता कि दी हुई है उसका कर्ज हम जीवन भर नहीं चुका पाते हैं। हमारी हर सांस पर ईश्वर का कर्ज है, क्योंकि हम सबकी जिंदगी उसकी की दी हुई है। फिर कर्ज से कैसा घबराना...इसी कर्ज के बोझ में हमें मुस्कुराना सीख लेना चाहिए। इस दिव्य ज्ञान से मुझे थोड़ी तसल्ली मिली है। आपका क्या ख्याल है...

-विद्युत प्रकाश मौर्य, ई मेल vidyutp@gmail.com 




Saturday, 2 October 2010

अपने दम पर खड़ी होगी खादी

हर साल की तरह इस साल गांधी जयंती पर देश भर में खादी वस्त्रों पर छूट नहीं मिलने जा रही है। यानी अब खादी के वस्त्र सालों भर एक ही दाम पर मिलेंगे। आमतौर पर खादी के कद्रदान दो अक्टूबर का इंतजार करते हैं। सरकार 30 से 40 फीसदीतक छूट की घोषणा करेगी और हम खादी के कुरते या दूसरे कपड़े खरीदेंगें। लेकिन इस साल से सरकार ने खादी पर छूट को पूरी तरह से खत्म करने का फैसला लिया है। हो सकता है कि खादी के कद्रदानों को ये बात कहीं से कचोटे लेकिन सरकार का ये फैसला खादी के हक में अच्छा है। इससे खादी अपने पैरों पर खड़ी हो सकेगी।

वास्तव में छूट की व्यवस्था खादी को लाचार बना रही थी। और इस छूट के पीछे खादी संस्थानों में हो रहा था बड़ा घोटाला और कमीशनबाजी का खेल। सरकार से जो छूट के लिए सब्सिडी की रकम जारी होती थी उसको पाने के लिए कई खादी संस्थाएं भ्रष्ट तरीके का भी इस्तेमाल कर रही थीं। इस छूट का सीधा लाभ उन लोगों तक तो बिल्कुल नहीं पहुंच पा रहा था जो लोग खादी के धागे बनाकर दैनिक आमदनी कर रहे थे लेकिन कुछ खादी संस्थाओं से जुडे लोग मालामाल जरूर हो रहे थे। लेकिन खादी पर छूट खत्म कर दिए जाने के बाद अब तमाम खादी संस्थाएं अपने उत्पादों लेकर बाजार में प्रतिस्पर्धा के लिए तैयार होंगी। जब बाजार में प्रतिस्पर्धा की बात आएगी तो उत्पाद की गुणवत्ता को लेकर भी निर्माता सजग होंगे। इससे उपभोक्ताओं को बेहतर उत्पाद मिल सकेगा। सरकारी अनुदान प्राप्त संस्थाएं खादी में टेक्सचर और रंगों को लेकर  लापरवाही बरती थीं। इसका नतीजा होता था कि कई बार खादी के उत्पादों के रंग बहुत जल्दी गिरने लगते थे तो वहीं कपड़ों को लेकर भी ग्राहकों में संतोष नहीं होता था।
इसके उलट हम खादी में के व्यवसाय से जुडे निजी ब्रांडों की बात करें तो फेब इंडिया जैसे ब्रांड चार दशकों से खादी के कारोबार में हैं। लेकिन वे अपने शो रूम में खादी के उत्पाद अपेक्षाकृत ऊंचे दामों में बेचते हैं और उच्च वर्ग और मध्यम उच्च वर्ग के परिवारों के लोग संतुष्ट होकर यहां के उत्पादों को खरीदते हैं। लेकिन इसके उलट खादी की सरकारी सहायता पाने वाली संस्थाएं अपने उत्पादों का बाजार में वह ब्रांड वेल्यू नहीं बना सकी हैं जो निजी उत्पादों ने बनाए। खादी के और ग्रामोद्योग से कई सालों से जुड़े लोग भी ये मानते हैं सरकारी छूट के इस कारोबार ने खादी संस्थाओं को भ्रष्ट बनाया। लेकिन अब हालात बदल भी रहे हैं कि कई खादी संस्थाओं के उत्पाद अच्छी गुणवत्ता वाले आ रहे हैं। ये उत्पाद बिना किसी छूट के भी बाजार मूल्य में के हिसाब से मध्यमवर्ग के उपभोक्ताओं के जेब के करीब हैं वहीं इनकी टेक्सचर और रंग भी अच्छी गुणवत्ता का है। 

इधर खादी में रेडीमेड के कारोबार ने भी अच्छा बाजार पकड़ा है। अगर आप खादी के किसी शो रूम से एक हाफ शर्ट खरीदते हैं तो ये 200 से 300 रूपये के बीच में बिना किसी सरकारी छूट के मिल जाता है। जबकि किसी भी ब्रांडेड कपड़ों के शो रूम में भी इससे सस्ते में एक शर्ट नहीं खरीदा जा सकता है। वहीं अगर खादी के कपड़े की गुणवत्ता की बात करें तो ये पूरी तरह से सूती धागे का होने के कारण किसी भी दूसरे तरह के कपड़े की तुलना में ज्यादा इको फ्रेंडली भी है। साथ ही जब आप एक खादी का उत्पाद खऱीदते हैं तो इससे सीधे कुटीर उद्योग से जुड़े मजदूर का पेट भरता है। जबकि आप एक ब्रांडेड उत्पाद खऱीदते हैं तो आपके रूपये एक बड़ा हिस्सा एक बड़े औद्योगिक घऱाने के मुनाफे में जाता है। हालांकि बिना इस मुद्दे पर विचार किए खादी इसलिए भी पहना जा सकता है कि ये शरीर के लिए पॉलीएस्टर, टेरीकॉट या रेयान जैसे वस्त्रों की तुलना में ज्यादा हितकारी है। आज जरूरत इस बात की है कि सरकार और खादी संस्थाएं लोगों की बीच खादी के फायदे को सही ढंग से पहुंचाएं, न कि सरकारी छूट का का रोना रोएं। 

सरकारी अनुदान के खत्म होने के बाद हो सकता है कि कई खादी संस्थाओं को इससे शिकायत हो लेकिन आने वाले कुछ सालों में हो सकता है कि इससे खादी का बड़ा भला हो। सरकार की सहयता से खादी उत्पादों की मार्केटिंग के लिए जगह जगह शो रूम खोले गए हैं। जन जन तक खादी के उत्पादों को पहुंचाने के लिए जरूरी है कि इसके नेटवर्क को और मजबूत किया जाए। लोगों तक पहुंच और सही जानकारी होने के बाद खादी अपने आप लोगों अपना सही स्थान बनाने में कामयाब हो जाएगी।
-    विद्युत प्रकाश
    

Friday, 17 September 2010

कई सालों बाद-2

दिल्ली में साल 2011 में हुई जोरदार बारिश के बाद मेरी भावनाएं कुछ इस तरह उमड़ी। आम तौर पर दिल्ली में बारिश बहुत कम होती है। 

कई सालों बाद   



दूर देश जा बसी प्रेयसी का


आया है लंबा सा खत


खत में है ढेर सारी


नन्ही नन्ही खुशियां


कुछ मोती कुछ सीप


लेकिन हम कहां रखे सहेज कर


ये खुशियां


हमारे पास नहीं है


इतनी लंबी चादर


कई सालों बाद


आई है सुहाने बचपन की याद


जब नौ दिन तक लगातार


हुई थी बरसात


खेतों ने ली थी


लंबे अंतराल बाद


सुख की एक लंबी अंगडाई.....


लेकिन अब इन कंक्रीट के जंगलों में


जीवन को खुल कर जीने की जगह


कहां बची..


हम बार बार अपनी


पुरानी प्रेयसी के खत


के लिफाफे को उलट पलट कर


देखते हैं लेकिन नहीं मिलता


एकांत जहां बैठकर


इस खत को बांचे.


और बहाएं ढेर सारे आंसू


कि सितम हमने खुद पर ही ढाए हैं


इतने सालों से


कि तुझे हम क्या देंगे


खत का जवाब


कई सालों बाद आया है


दूर देश जा बसी प्रेयसी का


लंबा सा खत....


- विद्युत प्रकाश मौर्य ।

Tuesday, 14 September 2010

कई सालों बाद-1

कई सालों बाद



कई सालों बाद मेरे शहर में


जमकर बदरा बरसे हैं


कई सालों बाद


आसमान ने धरती के सीने पर


अपनी ढेर सारी रूमानियत उडेली है


कई सालों बाद


मानो युग युग से प्यासी


धरती की गोद हो गई है


हरी भरी


कई सालो बाद


विरह की आग में जलती स्त्री ने


लूटा है ढेर सारा


अपने प्रियतम का सुख।


कई सालों से सूखे


नदी नालों कुएं बावड़ियों में


दिखा है


यौवन का उफान


कई सालों से


जलधारा जा रही थी


नीचे और नीचे


पाताल की ओर


एक बार फिर उसे


आसमान का प्यार खींच लाया है


थोड़ा उपर...


निष्ठुर और बेदर्द लोगों के शहर में


हुई है प्रकृति की मेहरबानी


कई सालों बाद


लेकिन हम नहीं थे तैयार


आसमान का इतना प्यार को


सहेज को रख पाने के लिए


हमारे पास नहीं थे घड़े


इतनी रसधार को समेट पाने के लिए


हमारी दुनिया हो गई है


इतनी छोटी


कि हम नहीं बटोर पा रहे हैं


आसमां का इतना सारा प्यार


दुखी होकर हम कह रहे हैं


जाओ रे बदरा


कहीं दूर देश जाकर बरसो


की सालो बाद आसमां ने


उड़ेला है धरती पर ढेर सारा प्यार...


- विद्युत प्रकाश


- 13 सितंबर 2010 ( दिल्ली में कई सालों बाद जमकर हो रही बरसात पर )


Friday, 20 August 2010

आम आदमी के लिए साहित्य

किताबें आदमी की मेहरबान दोस्त होती हैं। लेकिन हिंदी साहित्य में आजकल अलपमोली पुस्तकें छापने का चलन खत्म होता जा रहा है। अधिकांश प्रकाशक पेपर बैक के बजाए लाइब्रेरी संस्करण छापते हैं, जिसे आम पाठक खरीदकर पढ नहीं सकता। खरीदे भी भला कैसे जब किसी नए लेखक की 100 पेज की किताब 200 से 300 रूपये की आएगी। लेकिन देश के कुछ प्रकाशक आज भी लागत मूल्य पर किताबें छापने की सुंदर प्रयास कर रहे है। इसी तरह का बीडा़ उठाया है बोधि प्रकाश जयपुर ने। प्रकाशक ने दस दस रुपये में 10 किताबों का सेट प्रकाशित किया है। यानी 100 रूपये मे दस किताबें। सभी किताबों का कवर आकर्षक है। दस लेखकों में चार तो देश भर में जान पहचाने हैं। प्रकाशक ने इन पुस्तकों का नाम दिया पुस्तक पर्व। आम लोगों तक सद साहित्य को पहुंचाने का ये प्रयास स्तुत्य है।






पुस्तकों के सेट




कहानी


आठ कहानियां – महीप सिंह


गुडनाइट इंडिया- प्रमोद कुमार शर्मा


घग्घऱ नदी के टापू- सुरेंद्र सुंदरम


कविता


जहां उजाले की रेखा खींची है – नंद चतुर्वेदी


भीगे डैनो वाला गरुण – विजेंद्र


आकाश की जात बता भैया- चंद्रकांत देवताले


प्रपंच सार सुबोधिनी – हेमंत शेष


विविध


कुछ इधर की कुछ उधर की- हेतु भारद्वाज


जब समय दोहरा रहा हो इतिहास- नासिरा शर्मा


तारीख की खंजड़ी - सत्यनारायण


- इन किताबों के सेट को डाक से भी मंगाया जा सकता है।


प्रकाशक का पता


बोधि प्रकाशन


एफ 77, सेक्टर 9, रोड नंबर 11, करतारपुरा इंडस्ट्रियल एरिया, बाइस गोदाम,  जयपुर- 3020 06


फोन- 0141- 250 3989 मो. 98290 18087

Tuesday, 25 May 2010

सरकार का एक साल

जनता ने आपका पांच साल और सरकार चलाने का मौका दिया। एक साल बाद आपने कहा सरकार हर मोर्चे पर सफल। हां सरकार सफल तो है...दूसरी बार कमान संभालने के बाद आपने जनता को चूस ही तो लिया लेकिन लोग उफ भी नहीं कर सके...चीनी इतनी महंगी कर दी नौनिहालों को बिना चीनी के दूध पीने की आदत पड़ गई। दाल इतनी महंगी हो गई कि लोगों को 100-100 ग्राम के पाउच खरीदने को मजबूर होना पड़ा। 

लेकिन आपने यहां भी सितम ढाना नहीं छोड़ा। तेल के दाम इतने बढ़ा दिए कि मिड्ल क्लास लोगों का भी सड़क पर चलना मुश्किल हो गया। हाल में खबर आई है कि प्राकृतिक गैस भी महंगी होगी तो जाहिर है कि बिजली भी महंगी होगी। जैसा कि आपके उर्जा मंत्री ने चेता ही दिया है। बिजली महंगी होगी। रसोई गैस, पाइप लाइन से आने वाली गैस, सीएनजी सबकुछ मंहगी होगी। जाहिर है आम आदमी का सफर यानी पब्लिक ट्रांसपोर्ट भी महंगा हो जाएगा। लेकिन अपनी यूपीए-2 के एक साल पूरे होने पर न जाने आप किस महंगाई पर आने वाले छह महीने में काबू कर लेने बात कर रहे हैं....

हमने माना कि तगाफुल ना करोगे लेकिन,


खाक हो जाएंगे हम तुमको खबर होने तक।


पहले आपके कृषि मंत्री ने गरीबों की गरीबी का मजाक उड़ाया था ये कहते हुए कि अगर चीनी महंगी हो गई तो ऐसी कोई चीज तो महंगी नहीं हो गई जिसके खाए बिना आदमी मर जाए। हां काफी हद तक सही भी है गरीब आदमी तो बिना चीनी के ही गुजारा कर सकता है। उसके शरीर को भला ग्लूकोज की क्या जरूरत...कुपोषण से पीड़ित लोगों को अरहर और मूंग का दाल खाने की क्या जरूरत। वे पीली मटर की दाल खाएं जिसे आप विदेशों से मंगवा रहे हैं। सुना है विदेशों में इसे जानवर खाते हैं। वहां दस रूपये किलो बिकने वाली पीली मटर की दाल अपने देश में 30 रूपये किलो बिक रही है। गरीब आदमी का क्या है वह कुछ भी खाकर गुजारा कर सकता है। आप तो अमीरों की चिंता करते हैं इसलिए सस्ती कारें बाजार में पेश कर लोगों को सब्जबाग दिखा रहे हैं...सचमुच आपकी उपलब्धियां बहुत शानदार हैं। आपके राज में निर्दोष लोगों का, गरीबों का खून हो रहा है। नक्सलवादी आम लोगों को मार रहे हैं। फौजियों को भी मार रहे हैं। देश के नक्शे में उनके वारदात की सीमाएं बढ़ती जा रही हैं। फिर भी आप अपने कार्यकाल को सफल बता रहे हैं। आपका नाम मनमोहन है तो सचमुच आपने अपनी बातों से मन मोह ही लिया है। चलिए थोड़ी देर के लिए हम भी खुश हो लेते हैं। बकौल शायर...


हमको मालूम है जन्नत की हकीकत


लेकिन दिल को खुश रखने को गालिब ये ख्याल अच्छा है।


- विद्युत प्रकाश


Monday, 24 May 2010

सौ साल बाद...मार्क ट्वेन की आत्मकथा

एडवेंचर आफ टाम सायर और हकलबेरी फिन जैसी लोकप्रिय पुस्तकों के लेखक मार्क ट्वेन की आत्मकथा जल्द ही बाजार में दस्तक देने वाली है। मजेदार बात ये है कि मृत्यु के सौ साल बाद मार्क ट्वेन की आत्मकथा प्रकाशित हो रही है। 21 अप्रैल 1910 को मार्क ट्वेन की मृत्यु हुई थी। मार्क ट्वेन अपने जीवन में वसीयत कर गए थे कि उनकी आत्मकथा मृत्यु के सौ साल बाद ही प्रकाशित होनी चाहिए। कैलोफोर्निया यूनीवर्सिटी ट्वेन की आत्मकथा की पहली प्रति इसी साल नवंबर में जारी करेगी। उन्नीसवीं सदी के लोकप्रिय लेखक मार्क ट्वेन की आत्मकथा में पांच लाख शब्द होंगे। मार्क ट्वेने ने जीवन में काफी उतार चढ़ाव देखा था लिहाजा उनकी आत्मकथा के भी काफी रोचक होने के आसार हैं।



मार्क ट्वेन के पन्नों से : 1870 में लेखन शुरू करने वाले ट्वेन ने 1906 में टाइप करने के लिए लियोन को स्टेनोग्राफर नियुक्ति किया। लियोन ट्वेन के काफी करीब आ गईं थी। 1909 यानी अपनी मृत्यु से एक साल पहले ट्वेन ने लियोन को लताड़ लगाते हुए निकाल दिया। उनका कहना था कि वह उनकी संपत्ति की पावर आफ अटार्नी हासिल करने के लिए सम्मोहित कर रही थीं। ट्वेन की आत्मकथा से लियोन के साथ उनके रिश्ते के बारे में काफी कुछ पता चलेगा।






सैमुएल क्लीमेंस यानी मार्क ट्वेन का जन्म फ्लोरिडा में वर्ष 1835 में हुआ था। शरारत करने में क्लीमेंस का पहला नंबर आता था। पढ़ने-लिखने के नाम से उसे बुखार आ जाता था। जब वह बारह साल का हुआ तो पिता की मृत्यु हो गई। अब क्लीमेंस को पढ़ाई के साथ मजदूरी भी करनी पड़ी। बाईस साल की उम्र में उसने एक नाविक की नौकरी की। फिर उसे छोड़कर एक समाचार पत्र का संवाददाता बन गया। सन्‌1870 में वह एक पत्र का संपादक बन गया। इसी बीच वह हास्य व्यंग्य की कहानियाँ लिखने लगा।
एक दिन उसने सोचा कि क्यों न अपने बचपन के शैतानी भरे जीवन पर एक उपन्यास लिखूँ। उसने एक छद्म नाम से लिखना चाहा। तभी उसे 'मार्क ट्वेन' वाले बाँस की घटना उसे याद आई। और उसने अपना नाम रखा 'मार्क ट्वेन।' उसने अपने उपन्यास का नाम रखा 'टॉम सायर'। जब यह प्रकाशित हुआ तो उसे दुनिया भर के बच्चों ने पसंद किया। वह विश्व बाल साहित्य का कालजयी उपन्यास है। टॉम एक ऐसा चरित्र बन गया है जो शरारती और नटखट होकर भी चतुर है और वह अच्छे काम करना भी पसंद करता है। मार्क ट्वेन के व्यंग्य भी अंग्रेजी साहित्य की धरोहर स्वीकार किए गए।






Thursday, 20 May 2010

आचार्य राममूर्ति- कुछ यादें कुछ बातें

आचार्य राममूर्ति हमारे बीच नहीं है। आइए जानते हैं आचार्य राममूर्ति के बारे में...............


1938 में लखनऊ विश्वविद्यालय से एमए इतिहास में प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण होकर उन्होंने बनारस के क्वींस कॉलेज में अध्यापन कार्य किया. 1954 में कॉलेज की नौकरी छोड़कर वह श्री धीरेंद्र मजूमदार के आह्वान पर श्रमभारती खादीग्राम (मुंगेर, बिहार) पहुंचे, जहां उन्होंने श्रम-साधना, जीवन-शिक्षण और सादा जीवन के अभ्यास के साथ एक नए जीवन की शुरुआत की. यहां उन्होंने गांधी जी की कल्पना की नई तालीम का अभ्यास और शिक्षण शुरू किया.



आचार्य राममूर्ति के सही जीवन की शुरुआत खादीग्राम से हुई. आचार्य विनोबा भावे के भूदान आंदोलन के सिलसिले में उन्होंने मुंगेर ज़िले की पदयात्रा की, जिसके द्वारा उन्होंने भूदान यज्ञ आंदोलन का विचार प्रसार तथा भूमिहीनता दूर करने के निमित्त जनजागरण किया. आचार्य श्री ने सांप्रदायिक एवं जातीय संघर्षों को कम करने या उन्हें समाप्त करने के कई प्रयोग किए, जिनमें बड़हिया (मुंगेर, बिहार) में बागियों को आत्मसमर्पण के लिए तैयार करना और उनका आत्मसमर्पण कराना प्रमुख था. वह सर्वोदय आंदोलन के केंद्रीय संगठन सेवा संघ के अध्यक्ष भी बने. सर्वोदय आंदोलन की पत्रिकाओं नई तालीम, भूदान यज्ञ, गांव की आवाज़ का संपादन भी आचार्य जी ने किया तथा उन्होंने गांव का विद्रोह, शिक्षा संस्कृति और समाज, जे पी की विरासत, भारत का अगला क़दमः लोकतंत्र समेत कई किताबें लिखी हैं.



आचार्य राममूर्ति मूलतः शिक्षक हैं और उन्होंने अपना सारा जीवन समाज को शिक्षित करने में लगा दिया. सन्‌ 1974 में जब जयप्रकाश जी ने भ्रष्टाचार के खिला़फ छात्र आंदोलन का समर्थन किया और उसे नेतृत्व देने का फैसला किया तो आचार्य जी उसमें कूद पड़े. आचार्य विनोबा भावे इस आंदोलन को सही नहीं मानते थे, पर आचार्य जी ने अपने साथियों सहित इस आंदोलन को सफल बनाने में जान लगा दी. आचार्य जी बिहार के कोने-कोने में गए और उन्होंने संघर्ष की वैचारिक नींव मज़बूत की. जयप्रकाश जी ने संपूर्ण क्रांति के विचार को जब देश के सामने इस आंदोलन के माध्यम से 1975 में रखा तो आचार्य जी ने इसका वैचारिक भास्य हर जगह जाकर समझाया. आचार्य राममूर्ति की भाषा इतनी सहज, सरल और तार्किक होती थी कि लोग मंत्रमुग्ध हो जाते थे. आज भी आचार्य जी की भाषा उतनी ही मीठी, प्रिय, तार्किक, सीधी और सरल है कि बुद्धि बिना ना-नुकुर के उसे सहेज लेती है.



सर्वोदय आंदोलन के कई बड़े नेता चले गए, लेकिन अभी ठाकुरदास बंग, नारायण देसाई और आचार्य राममूर्ति हमारे बीच हैं. आचार्य राममूर्ति ने धीरेंद्र मजूमदार और जयप्रकाश जी के साथ आज़ाद भारत के गांवों, उनके स्वराज्य और स्वराज का सपना देखा था. इसके लिए उन्होंने अपना सारा जीवन लगा दिया. सारा जीवन लोकशिक्षण के लिए वह यायावरी करते रहे. अब जब शरीर पूरा साथ नहीं दे रहा तो कभी पटना तो कभी खादीग्राम में रहते हैं. वी पी सिंह जब प्रधानमंत्री थे तो उन्होंने आचार्य जी को राज्यपाल बनाने का प्रस्ताव किया था, लेकिन आचार्य जी ने इसे अस्वीकार कर दिया और शिक्षा के क्षेत्र में काम करने की इच्छा जताई. तब वी पी सिंह ने उन्हें राष्ट्रीय शिक्षा नीति की समीक्षा समिति के अध्यक्ष के रूप में ज़िम्मेदारी दी. उनकी रिपोर्ट शिक्षा नीति और शिक्षा में क्रांति की दृष्टि से अत्यंत महत्वपूर्ण है.



आज आचार्य जी की उम्र 97 साल है. तो क्या वह अपनी वृद्धावस्था में खामोश बैठे हैं और केवल समय गुज़ार रहे हैं? आम आदमी के तौर पर इसका उत्तर हां ही हो सकता है, पर यह है नहीं. आचार्य जी ने जनवरी 2010 में अपनी नई पुस्तक लिखी है, महिला शांति सेना: शांति की नई संस्कृति के लिए एक विधायक और रचनात्मक क्रांति. 97 साल की उम्र में भी समाज के लिए सोचने एवं विचार करने के लिए सामग्री और सवाल खड़े करने वाला शख्स हम सबके सलाम का अधिकारी है.



2002 में आचार्य जी ने एक नई शुरुआत की. उन्हें गांधी जी की एक बात याद आई. जब आज़ादी मिलने के कुछ दिन बाकी थे तो एक दिन पत्रकारों ने गांधी जी से पूछा, ‘‘अंग्रेजों के जाने के बाद आप कौन सा काम सबसे पहले करना चाहेंगे?’’ गांधी जी का उत्तर था, ‘‘लोकतंत्र को आगे बढ़ाना (सेटिंग डेमोक्रेसी ऑन दि मार्च)’’ आचार्य जी ने इसी सूत्र को अपना रास्ता बनाया.



सामाजिक कार्यकर्ता, राजनैतिक दलों के नेता आचार्य जी से मिलते रहते थे. वे आचार्य जी को आदर देते थे, लेकिन साथ देने का वायदा नहीं करते थे. सर्वोदय और स्वयंसेवी संस्थाएं भी खामोशी वाला उत्तर देती थीं. आचार्य जी ने एक कोशिश पंचायती राज के पंच पर की. उन्हें पंचायती राज व्यवस्था के अंदर परिवर्तन की एक संभावना नज़र आई, क्योंकि महिलाओं को एक तिहाई स्थान पंचायती राज के हर स्तर पर प्राप्त हुआ. आचार्य जी का मानना है कि महिलाओं में रचना और सृजन की अपार शक्ति छिपी हुई है. वे पंचायती राज के बहाने गांव से लेकर राज्य स्तर तक सभाओं में जाते रहे और अपनी बातें रखते रहे.



27 फरवरी 2002 को महावीर और बुद्ध की धरती वैशाली में दस हज़ार लोगों की सभा हुई, जिसे वैशाली सभा का नाम दिया गया. यहां महिला शांति सेना की घोषणा हुई. यह सभा ऐतिहासिक थी, जिसमें पांच हज़ार से ज़्यादा महिलाएं शामिल थीं. इस सभा के बाद महिला शांति सेना के शिक्षण, प्रशिक्षण और संगठन का काम शुरू हुआ. आज महिला शांति सेना बिहार के अलावा असम, अरुणाचल, मणिपुर, त्रिपुरा और उड़ीसा तक फैल चुकी है. यह पुस्तक आचार्य जी द्वारा बोले गए, लिखे गए लेखों तथा सवालों-जवाबों का अद्भुत संग्रह है. आइए, आपको झलक दिखाते हैं. ‘‘आज जिस तरह की वैचारिक और विधायक क्रांति की ज़रूरत है, वह उन्हीं लोगों से शुरू होगी, जो सभ्यता के धरातल पर मनुष्य जाति के विकास को कुछ दूर तक देख सकते हैं.’’ ‘‘स्थानीय जीवन सुखी और शांत स्थायी जीवन भारत की दुनिया को एक देन होगी और इसका श्रेय महिला शांति सेना को मिले बिना नहीं रहेगा.’’ ‘‘शांति की संस्कृति एक रचनात्मक आंदोलन है, जो जनमत की शक्ति पर विश्वास रखता है और प्रचलित सत्ता के साथ सम्मानपूर्ण सहयोग करके परिवर्तन की स्थिति पैदा करना चाहता है, क्योंकि उसका विश्वास है कि परिवर्तन पहले नागरिक का होना चाहिए और उसके बाद ही संस्थाओं और संगठन का.’’



‘‘भावी क्रांति हितों के संघर्ष की नहीं है, बल्कि एक नई मानवीय संस्कृति के निर्माण की है. परिस्थिति की इस बारीकी को जो लोग नहीं समझेंगे, वे चाहते हुए भी क्रांति के वाहक नहीं बन सकेंगे.’’



‘‘अब बंदूक़ और तलवार के भरोसे परिवर्तन का प्रयोग हमेशा के लिए छोड़ देना चाहिए. मनुष्य को आज तक जो सिखाया गया है, उसे भूलने के लिए समय तो देना ही पड़ेगा और शिक्षण की सीढ़ियां बनानी पड़ेंगी, जिन पर आदमी धीरे-धीरे चढ़ सके. हो सकता है कि कुछ सीढ़ियों पर धीरे-धीरे चढ़ने के बाद मनुष्य में छलांग लगाने की शक्ति आ जाए.’’



‘‘पूंजी से जो विकास होगा, वह थोड़े लोगों के लिए होगा, पूरे समाज के लिए नहीं होगा. पूरे समाज को ध्यान में रखकर परिवर्तन लाने की बात हो तो बेशक़ बुनियादी परिवर्तन करना पड़ेगा.’’‘‘आज की पंचायत का उद्देश्य स्थानीय जीवन को समग्र और समृद्ध करने का है. पंचायत राज्य शक्ति का अंग नहीं है, बल्कि पंचायत का क्षेत्र स्वतंत्र नागरिक शक्ति का क्षेत्र है. उसमें समता है, सहकार है और सहभागिता है.’’ जिनके मन में समाज बदलने की, कुछ करने की चाह है, उन्हें आचार्य राममूर्ति के पास जाना चाहिए और उनके अनुभव और ज्ञान को आत्मसात करना चाहिए. 97 वर्ष की उम्र में भारत के सामाजिक एवं राजनैतिक इतिहास के जीवित और सबसे विश्वसनीय व्यक्ति के पास जाना चाहिए और समझना चाहिए कि क्यों सपने पूरे नहीं होते, क्यों लोग चलते तो मंजिल की तऱफ हैं, पर क्यों भटक जाते हैं. ले सकें तो वह ताक़त भी उनसे प्राप्त करनी चाहिए कि कैसे 97 वर्ष की आयु में भी मानसिक एवं शारीरिक रूप से चेतन और सक्रिय रहा जाता है. आचार्य राममूर्ति इस समय हमारे देश में अकेले जीवित इतिहास हैं और शांतिपूर्ण बदलाव का ज़िंदा शब्दकोष हैं।



(( चौथी दुनिया से साभार ))

नहीं रहे आचार्य राममूर्ति

जाने माने गांधीवादी शिक्षाविद और समाजसेवी आचार्य राममूर्ति का निधन हो गया है। 98 साल के उम्र में पटना में उन्होने अंतिम सांस ली। आचार्य राम मूर्ति जय प्रकाश नारायण के सहयोगी थे। मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने आचार्य राममूर्ति के निधन पर शोक संवेदना जताते हुए उनकी राजकीय सम्मान से अंत्येष्टि कराने की घोषणा की है। आचार्य जी के निधन पर आरजेडी अध्यक्ष लालू प्रसाद यादव ने भी शोक जताया है। आचार्य राममूर्ति का आश्रम जमुई में था लेकिन उनकी तबीयत कई महीनों से खराब थी और पटना के इंदिरा गांधी हृदय रोग संस्थान में उनका इलाज चल रहा था। 1938 में लखनऊ विश्वविद्यालय से एमए इतिहास में प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण करने के बाद आचार्य राम मूर्ति ने बनारस के क्वींस कॉलेज में अध्यापन कार्य किया। 1954 में कॉलेज की नौकरी छोड़कर वे धीरेंद्र मजूमदार के आह्वान पर श्रमभारती खादीग्राम मुंगेर, बिहार पहुंचे, जहां उन्होंने सादा जीवन के अभ्यास के साथ एक नए जीवन की शुरुआत की। यहां उन्होंने गांधी जी की कल्पना की नई तालीम का अभ्यास और शिक्षण शुरू किया। आचार्य राममूर्ति की अगुवाई में 1990 में राष्ट्रीय शिक्षा नीति में सुधार के लिए कमेटी का गठन किया गया था। आचार्य राममूर्ति समिति ने अपनी रिपोर्ट शिक्षा व्यवस्था में आमूलचूल परिवर्तन की सिफारिश की थी।

Tuesday, 18 May 2010

रेल मंत्री शर्म करें

रेलमंत्री का ये बयान शर्मशार करने वाला है कि नई दिल्ली स्टेशन पर रविवार को जो हादसा हुआ उसमें यात्रियों की गलती थी। रेलवे एक सेवा है। सारे यात्री रेलयात्रा के एवज में किराया देते हैं।

 16 मई को नई दिल्ली स्टेशन पर जो लोग जुटे थे वे सब घर जाने के लिए अपनी अपनी ट्रेन पकड़ना चाहते थे। इन सभी यात्रियों ने ट्रेन का टिकट खरीदा हुआ था। जाहिर है रेलवे के लिए वे सभी लोग उपभोक्ता की तरह हैं। त्योहार, गर्मी की छुट्टी और शादी के मौसम में रेलवे अतिरिक्त ट्रेने चलाता है तो वह यात्रियों को कोई खैरात नहीं बांटता बल्कि इसकी एवज में कमाई करता है। अगर वह लोगों को यात्रा के टिकट बेचता है तो उनके लिए बैठने के इंतजाम करना भी उसकी जिम्मेवारी बनती है। बिना पूरी घटना की जांच पड़ताल किए ममता बनर्जी जिस तरह टिप्पणी कर दी वह लोकतंत्र के लिए घातक है। बिहार के लोग गरीब जरुर हैं लेकिन वे लोग जिन राज्यों में जाकर नौकरी करते हैं वहां मेहनतकश होते हैं। त्योहार और शादियों के मौसम में हर कोई अपने गांव घर जाना चाहता है। भला ममता बनर्जी अपने रेलमंत्री के पुनीत दायित्वों को छोड़कर ज्यादा समय बंगाल में गुजारती हैं, आसन्न विधान सभा चुनाव में उन्हें मुख्मंत्री कुरसी नजर आ रही है, लेकिन ममता दीदी को ये समझाना चाहिए कि जैसी बंगाल की जनता है वैसी ही बिहार की जनता। अगर तृणमूल के लोग बंगाल को लेकर बेहद भावुक हैं तो उन्हें बिहार के लोगों का भी दर्द समझाना चाहिए। कुछ नहीं तो एक अच्छे सेवा प्रदाता के नेता रेलवे को अपने यात्रियों ( उपभोक्ताओं ) का पूरा ख्याल तो रखना ही चाहिए।
- विद्युत प्रकाश मौर्य

Saturday, 3 April 2010

ब्लू अम्ब्रेला- आत्मा की खुशी के लिए फायदा नुकसान नहीं देखते


इधर छुट्टी के दिन एक शापिंग मॉल में गया वहां तीन फिल्मों की सुपर डीवीडी का पैक मुझे बड़े की रियायती कीमत पर मिल गया। इसमें एक फिल्म थी विशाल भारद्वाज की ब्लू अंब्रेला। 

ये फिल्म इसी नाम पर बच्चों के नामचीन लेखक रस्किन बांड की लिखी कहानी पर आधारित है। फिल्म में पंकज कपूर का शानदार अभिनय है। फिल्म की कहानी एक नीली छतरी के आसपास घूमती है। फिल्म को देखना एक अच्छे उपन्यास को पढने जैसा ही है। फिल्म की पात्र बिनिया (श्रेया शर्मा ) को एक नीली छतरी मिल जाती है, जिस छतरी पर पंकज कपूर की बुरी नजर है। वह छतरी पाने में सफल भी हो जाता है। छतरी को पाने के पीछे उसका तर्क भी बड़ा रोचक है। सुनिए----

बारिश के पानी में नाव दौड़ाने से 

कोई फ़ायदा होता है क्या? 
सूरज को उस पहाड़ी के पीछे डूबते हुए
देखने से कोई फ़ायदा है क्या? 
आत्मा की ख़ुशी के लिए 
फ़ायदा-नुकसान नहीं देखा जाता।’


ब्लू अंब्रेला की पूरी शूटिंग हिमाचल प्रदेश के डलहौजी शहर में हुई है। पूरी फिल्म में फोटोग्राफी बहुत शानदार है। कहानी भी....भले ही फिल्म तारे जमीं पर की तरह हिट नहीं हुई लेकिन फिल्म बार बार देखने लायक है। खास कर बच्चों को दिखाई जा सकती है।
- विद्युत प्रकाश मौर्य।

Tuesday, 16 March 2010

मसूरी में जूनियर तेंदुलकर


जूनियर तेंदुलकर यानी अर्जुन आजकल पहाड़ों की हसीन वादियों के बीच बल्ले पर जोर आजमाइश कर रहे हैं। सचिन तेंदुलकर इन दिनों आईपीएल का मैच खेलने में व्यस्त हैं लेकिन उनकी पत्नी अंजलि और उनके बेटे पहाड़ों की हसीन वादियों में छुट्टियां मनाने के लिए पहुंच गए है। हालांकि मसूरी सचिन तेंदुलकर की फेवरिट जगह है।
सचिन अक्सर छुट्टियां मनाने के लिए मसूरी का रूख करते हैं लेकिन इस बार सचिन मसूरी नहीं आ सके हैं, क्योंकि वे आईपीएल सीजन थ्री में व्यस्त हैं। तो क्या हुआ जूनियर सचिन अपनी स्कूलों की छुट्टियां खत्म होने के बाद पहुंच गए हैं मुंबई का कोलाहल छोड़कर मसूरी। पापा की तरह अर्जुन को भी मसूरी बहुत पसंद है। मसूरी के बच्चों को संग क्रिकेट खेलते हुए मसूरी उन सारे टिप्पस को शेयर कर रहे हैं जो उन्होंने अपने पापा से सीखा है। मसूरी के बच्चे भी जूनियर तेंदुलकर के संग गली क्रिकेट खेलकर खुद को धन्य मान रहे हैं।
दिन भर अर्जुन और उनकी मां अंजलि मसूरी की सड़कों पर घूमने और खाने पीने का जमकर लुत्फ उठा रहे हैं। हालांकि लगता है कि मन में इस बात की कसक जरूर है कि पापा सचिन भी साथ होते तो छुट्टियां मनाने का मजा कुछ और होता।

Monday, 8 March 2010

कृपालु बाबा की जय...

सचमुच जिंदगी और मौत को भगवान के हाथ में ही होती है। इसलिए यूपी के प्रतापगढ़ जिले में कृपालु महाराज के आश्रम में जिन लोगों की मौत हुई उसमें कृपालु महाराज का कोई दोष नहीं है। क्योंकि जो लोग अचानक मची भगदड़ में काल के गाल में समा गए उन्हें भगवान ने जल्दी अपने पास बुला लिया। भला इसमें कृपालु महाराज का दोष…वे तो वैसे भी इंसान को भगवान से मिलाने का काम जीवन भर करते आए हैं। 

लेकिन मैं कहता हूं कि भगवान किसी को इतनी गरीबी भी मत देना जितनी की कुंडा में कृपालु महाराज के आश्रम में जुटी भीड़ में जुटे लोगों को दे रखी थी। सुना है कि वे सभी लोग महज 20 रूपये, चार लड्डू और एक थाली ग्लास के लिए वहां जुट गए थे। हम क्या करें हिंदुस्तान के कई इलाकों में इतनी गरीबी है कि लोग दो मुट्ठी चावल के लिए दौड़ पड़ते हैं। खैर दुर्घटना के बाद कृपालु महाराज ने बहुत कृपा बरसाई है। उन्होने भंडारे का आयोजन और गरीबों को रूपये बांटने का सिलसिला जारी रखा है। लगता है महाराज के पास अनाज का भंडार और रूपये की कोई कमी नहीं है। मुझे तो लगता है कि देश भर के स्कूलों में चलाए जाने वाले मिड डे मील का ठेगा कृपालु महाराज को ही दे देना चाहिए।
- vidyutp@gmail.com