Thursday, 24 March 2011

पे चैनल - मतलब पैसा फेंको तमाशा देखो


गांव में आपना बाइस्कोप देखा होगा। बाइस्कोप वाले का एक गीत प्रसिद्ध है.- आई रे मैं आई बाइस्कोप वाली पैसा फेंको तमाशा देखो...पैसा नहीं है तो उधार देखो। टीवी पर तमाम सेटेलाइट चैलनों के आने के साथ ही पे चैलनों की परिकल्पना विकसित हो गई है। पे चैनल का मतलब है वैसा चैनल जिसे देखने के लिए उपभोक्ता को चैनल आपरेटर को प्रसारण शुल्क देना पड़ता है। पे चैनल प्रति उपभोक्ता चैनल के लिए पांच रूपये से 30 रूपये तक वसूलते हैं।

भारत में जब सिर्फ दूरदर्शन था तब टीवी देखने के लिए दर्शकों को कोई शुल्क नहीं देना पड़ता था। यानी टीवी चैनलों के सिग्लन फ्री में उपलब्ध थे। सेटेलाइट चैनलों ने भी आरंभ दर्शकों को फ्री में चैनल परोसे लेकिन जल्द ही देश में पे चैनल की परिकल्पना आ गई। यानी कोई टीवी चैनल अपनी कमाई के लिए सिर्फ चैनल पर दिखाई देने वाले विज्ञापनों पर ही नहीं बल्कि दर्शकों से वसूली जाने वाली फीस पर आश्रित है। हालांकि जब भारतीय बाजार में एक एक कर सेटेलाइट चैनलों का आगमन शुरू हुआ तब लोगों को पता नहीं था कि उनके टीवी स्क्रीन पर दिखाई देने वाले चैनल धीरे धीरे उनसे हर चैनल का शुल्क वसूलेंगे। लेकिन सेटेलाइट चैनलों का दर्शक वर्ग बढ़ने के साथ पे चैनलों की फेहरिस्त में भी इजाफा होने लगा।

केबल टीवी पर आने वाले चैनलों में स्टार मूवीज और जी सिनेमा प्रारंभ से ही पे चैनल हैं। दर्शकों में फिल्मों के डिमांड के कारण ये चैनल शुरू से ही पे चैलन थे। केबल टीवी उपभोक्ता को हर महीने अपने केबल आपरेटर को मासिक शुल्क देना पड़ता है। पे चैनलों के आने के बाद केबल आपरेटरों ने केबल की मासिक फीस में भी इजाफा करना शुरू कर दिया। शुरूआती दौर में केबल आपरेटर उपभोक्ताओँ से 50 से 100 रुपये प्रतिमाह की दर से केबल का शुल्क वसूलते थे लेकिन जैसे जैसे पे चैलनों की संख्या बढने लगी केबल आपरेटरों ने मासिक शुल्क में भी इजाफा शुरू कर दिया। भारत में जब इएसपीएन जैसा खेल चैनल आया तो शुरूआत में उसकी फीस तीन रूपये महीने थी लेकिन एक साल बाद ही उसने अपना शुल्क बढाकर 5.70 रूपये प्रतिमाह कर दिया। दर्शकों में खेल चैनलों कि मांग ज्यादा है इसलिए धीरे धीरे बाजार में कई खेल चैनल आए और बाजार की मांग के अनुसार उन्होंने मनमाना प्रसारण शुल्क तय किया। आजकल स्टार स्पोर्ट्स, नियो क्रिकेट, नियो स्पोर्ट्स, स्टार क्रिकेट, टेन स्पोर्ट्स जैसे सभी चैनल पे चैनल हैं। 

पे चैनलों के बढ़ने शुल्क के कारण केबल आपरेटरों और ब्राडकास्टरों में अक्सर लड़ाई और विवाद देखने में आता है। अपनी मांग बढ़ने के बाद ब्राडकास्टर न सिर्फ पे चैनलों की कीमतों में मनमाने ढंग से इजाफा कर देते हैं बल्कि वे केबल आपरेटरों से उपभोक्ताओं की मिनिमम संख्या की गारंटी भी मांगते हैं। जैसे कोई पे चैनल केबल आपरेटर को अपना पे चैनल तभी देता है जब वह उसे कमसे 1800 ऊपभोक्ताओँ का मासिक शुल्क जमा कराए।

पे चैनल बनना मजबूरी बाजार में आने वाला हर चैनल सिर्फ विज्ञापनों के भरोसे ही बाजार में टीके नहीं रहना चाहता है। वह कालांतर में उपभोक्ताओँ से वसूली करना चाहता है। कहते हैं भारत में जब पहली बार चाय की खेती शुरू की गई तो अंग्रेज हाथी पर गली गली में घूम कर लोगों को मुफ्त में चाय पीलाते थे जब लोगों को चाय का स्वाद अच्छी तरह लग गया तो लोग चाय खरीदकर पीने लगे। टीवी चैनलों के साथ भी कुछ इसी तरह का मामला है पहले तो आपको एडीक्ट बनाया जा रहा है। जब आपको किसी चैनल को देखने की आदत पड़ जाएगी तो आप उसके लिए शुल्क देने को भी मजबूर हो जाएगें।

इएसपीएन ने भारतीय क्षेत्र के प्रबंध निदेशक रहे आरके सिंह बताते हैं कि खेलों का लाइव प्रसारण इतना महंगा है कि सिर्फ विज्ञापनें के भरोसे खेल चैनल दर्शकों को मुफ्त में नहीं परोसे जा सकते हैं। इसके लिए उपभोक्ताओं को भी अपनी जेब ढीली करनी पड़ेगी। इसलिए दर्शकों को साझीदार बनाना हमारी मजबूरी है और समय की मांग भी। पे चैनलों की परिकल्पना भारत के लिए नई जरूर है लेकिन विदेशों में इसका चलन पहले से चला आ रहा है। वहीं पे चैलनों के पक्ष में तर्क देने वालों का ये भी कहना है कि अगर दर्शक सिनेमाघर में जाकर एक फिल्म के लिए 50 से 150 रूपये के टिकट खरीद सकता है तो टीवी पर फिल्में देखने के लिए पैसे क्यों नहीं दे सकता।

केबल पर फिलहाल दर्शकों को चैनल तीन तरह के मोड में उपलब्ध हैं। पहला फ्री टू एयर चैनल। फ्री टू एयर चैनल की डाउनलिंक फ्रीक्वेंसी मालूम होने पर आप अपने डिश एंटेना को उस एंगिल पर सेट कर उसका सिग्नल प्राप्त कर सकते हैं। लेकिन दूसरा स्टेज है फ्री टू एयर बट इंक्प्टेड सिग्नल। इंक्रप्टेड सिग्नल वाले चैनलों को सिग्नल को डिजिटल मोड में लाकर इन्क्रप्ट कर दिया गया है। यानी ऐसे चैलनों को देखने के लिए केबल आपरटेर को कंपनी की ओर से एक सेट टॉप बाक्स प्राप्त करना पड़ता है जिसके बाद उसके सिग्लन को उपभोक्ताओं तक पहुंचाया जा सकता है। इनक्रप्टेड सिग्लन वाले चैनल पे चैलन की पहली सीढ़ी है। पे चैनलों के डिकोडर को जहां ब्राडकास्टरों से शुल्क देकर खरीदना पड़ता है वहीं तय मासिक शुल्क का भी भुगतान करना पड़ता है। जब भारत में डिस्कवरी चैनल आया तो वह फ्री टू एयर मोड में था लेकिन एक साल बाद ही उसने अपने चैनलों को इन्क्प्ट कर डिजिटल मोड पर कर दिया। उसके कुछ समय बाद डिस्कवरी भी पे चैनल हो गया। आज की तारीख में अधिकांश चैनल डिजिटल मोड पर ही उपलब्ध हैं। क्योंकि सारे चैनल कभी न कभी दर्शकों के बीच जरूरत बनकर पे चैनल के प्लेटफार्म पर जाने की तमन्ना रखते हैं।

क्या है कैस- कैस यानी केबल एड्रेसब्लिटी सिस्टम। पे चैनलें की बढ़ती संख्या के कारण भारतीय बाजार में केबल एड्रेसब्लिटी सिस्टम लाने पर विचार हुआ। कैस एक ऐसा उपकरण था जिसके तहत उपभोक्ता अपनी पसंद के चैनलों को चुनने का विकल्प मिलता है। यानी पे चैनलों में जो चैनल आपको पसंद है सिर्फ उन्ही चैनलों आप टीवी पर देखने के लिए चुन सकते हैं। इससे आपको उन चैनलें के लिए केबल आपरेटर को हर महीने शुल्क नहीं देना पड़ेगा जिन्हें आप देखना नहीं चाहते हैं। कई सालों की कवायद के बाद दिल्ली मुंबई के कुछ इलाको में कैस लागू कर दिया गया। लेकिन इसके लिए सेट टाप बाक्स उपभोक्ता को अपनी राशि खर्च कर लगानी पड़ती थी। उतने ही खर्च पर बाजार में डीटीएच की उपलब्धता ने कैस की लोकप्रियता को खत्म कर दिया। लिहाजा कैस बुलबुला जल्द ही फूट गया।

भारतीय बाजार में एक एक कर आए सभी विदेशी चैनल धीरे धीरे पे चैनल में बदल गए। कभी फ्री टू एयर रहा सोनी समूह के सभी चैनल पे चैनल हैं तो स्टार समूह के सारे चैनल भी पे चैनल में बदल चुके हैं। लेकिन भारतीय बाजार में उपलब्ध 500 से ज्यादा चैनलों में बड़ी संख्या में ऐसे भी चैनल हैं जो अभी भी दर्शकों को फ्री में उपलब्ध हैं। चैनलों की बढ़ती संख्या के बीच नए नए चैनलों के सामने दर्शकों की बीच पहचान बनाने का संकट है इसलिए हर नया चैनल अक्सर फ्री टू एयर मोड में ही आता है।

टीवी के दर्शकों के बीच खेल और मूवी चैनल ज्यादा लोकप्रिय हैं इसलिए वे पे चैनल के रूप में गाढ़ी कमाई कर रहे हैं तो बच्चों के कार्टून चैनल और महिलाओं के लिए लंबे धारावाहिक लेकर आने वाले मनोरंजन चैनल भी पे चैनल के रूप में दर्शकों से वसूली कर अपनी झोली भर रहे हैं। बच्चों के सभी कार्टून चैनल पे चैनल मोड पर हैं क्योंकि उनकी डिमांड ज्यादा है। कुछ ऐसा ही हाल खेल चैनलों के साथ भी है। जाहिर सी बात है पे चैनलों के कारण ही केबल टीवी की मासिक शुल्क बढ़कर 300 से 400 रूपये प्रतिमाह तक पहुंच गया है। लेकिन पे चैलनों के इस खेल में कई चैनलों को मुंह की भी खानी पड़ी है दर्शकों में ज्यादा मांग नहीं होने पर कई पे चैनलों को फिर से फ्री टू एयर मोड पर वापस आना पड़ा है। जाहिर की चैलनों की इतनी बड़ी भीड़ में बहुत कम ही चैनल ऐसे हो सकते हैं जो दर्शकों की डिमांड में बने रहें। देश के केबल आपरेटरों को प्रमुख संगठन आल इंडिया आविष्कार डिश एंटेना संघ के अध्यक्ष डाक्टर एके रस्तोगी कहते हैं कि तमाम बड़े ब्राडकास्टर पे चैनल बनना चाहते हैं कि लेकिन दर्शकों में चैनल की डिमांड नहीं बन पाने पर मजबूरन उन्हे फ्री टू एयर चैनल के रूप में वापस आना होगा। अगर किसी चैनल के चलाने के अर्थशास्त्र की बात करें तो म्यूजिक चैनल या धार्मिक चैनल चलाना सबसे सस्ता सौदा है। धार्मिक चैनल में धर्मगुरूओं का प्रवचन फ्री में मिलता है साथ उनके अनुयायी दर्शक के रूप में मिलते हैं। इसलिए ज्यादातर धार्मिक चैनल फ्री टू एयर हैं। वहीं म्यूजिक चैनल पर दिखाए जाने वाले बहुत सारे नई फिल्मों के गाने प्रमोशनल होते हैं इसलिए उसका भी खर्च कम आता है लेकिन एक समाचार चैनल, मूवी चैनल की लागात बढ़ जाती है। खबरें जुटाना और बनाना खर्चीली प्रक्रिया है तो मूवी चैनलों को फिल्मों के सेटेलाइट अधिकार खरीदने पड़ते हैं। ऐसे में बाजार में बने रहने के लिए ब्राडकास्टर कई तरीके से कमाई चाहते हैं।  
 - विद्युत प्रकाश मौर्य

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