Thursday, 25 January 2018

सोचता हूं बोल दूं ( कविता )



सोचता हूं बोल दूं  
कि तुम मेरी हो
लेकिन तुम
अनुपम अनुकृति सृष्टि सर्जक की
सिर्फ मेरी और मेरी
कैसे हो सकती हो
तुम का मैं होजाना
और मिल जाना
आकंक्षाओं का आकंक्षाओं से
सपनों का सपनों से
कहीं मौत न हो जाए
कुछ बेहतर संभानाओं की
कुछ सोच सोच कर शब्द रूक जाते हैं
जीवन के मधुवन में
सुनहरे ख्वाबों के
एक नीड़ के निर्माण में
न जाने कितनी देरी हो
फिर फिर सोचता हूं बोल दूं
कि तुम मेरी हो..

-    विद्युत प्रकाश मौर्य


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