Friday, 5 January 2018

कितना अच्छा होता ( कविता )


कितना अच्छा होता
अगर ऐसा ही होता।
हम तुम हमेशा कक्षा की बेंच
या महानगर बस में होते।


कितना अच्छा होता
सारा देश ही कालेज होता
और देशवासी छात्र
मैं पंजाब होता
तुम राजस्थानहोती


कितना अच्छा होता
जलगांव के सेक्स स्कैंडल
उत्तराखंड आंदोलन
मुंबई बमकांड
आरक्षण विरोध,समर्थन
की जगह अखबारों में छपा करते
लेह लद्दाख, इस्लामाबाद-कराची
देहरादून मसूरी, ढाका चटगांव
के लोगों के प्रेम पत्र


कितना अच्छा होता
तुम शिमला की शरमाई सी
शाम होती
या बनारस की सुबह...


कितना अच्छा होता
तुम दही और जलेबी होती
और मैं छोला भठूरा


कितना अच्छा होता
कि दिल्ली की कनॉट प्लेस
मुंबई की चौपाटी
कोलकाता का एस्प्लानेड
बंगलोर की मैजेस्टिक बन जाती
हमारे गांव की चौपाल

वहां उग आते कुछ कदम के पेड़
और सरसों के खेत


कितना अच्छा होता
कहीं रोटी की कतार न होती
कहीं खूनी तलवार न होती
दसों दिशाओं में तुम्हारी
शरमाई सी सूरत होती


कितना अच्छा होता
तुम हमेशा इक्कीस की होती
और मैं बाइस का
तुम नोट्स के बहाने
मुझसे मिलने आती
और मैं कलम के बहाने
छू लेता तुम्हारी उंगलियां


कितना अच्छा होता
डिक्सनरी में साइन डाई
और बेरोजगारी जैसे

शब्द न होते
कितना अच्छा होता
बेनकाब हो जाते
सारे बहुरूपियों के चेहरे
फिर जल्दी पहचान लेता जमाना
सुषमा का सौन्दर्य, प्रीत की मुस्कान


कितना अच्छा होता
पहाड़ मैदान और जंगल लोग
समझ लेते एक दूसरे की भाषा
राज करते एक दूसरे के दिलों पर...


कितना अच्छा होता
जाह्नवी, मंदाकिनी
अलकनंदा, पद्मा या फिर या गंगा
जिस नाम से भी मिलती तुम
हम तुम मिलते
जीवन के हर एक मोड़ पर

कितना अच्छा होता....

रेगिस्तान में खिलते गुलमोहर
वहां होता एक गौदौलिया चौराहा
और बांस फाटक का फूल बाजार







कितना अच्छा होता
आधी आबादी फूल होती
और आधी आबादी सौदागर
आधी आबादी फूल होती
और आधी आबादी सौदागर......
कितना अच्छा होता।


- विद्युत प्रकाश मौर्य
( वाराणसी, 12 मार्च 1995 )

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