Saturday, 16 June 2018

वह ‘फिर’ कभी लौटकर नहीं आया....

तब उत्तर बिहार के सोनपुर और दक्षिण बिहार के पटना के मध्य स्टीमर चलती थी गंगा में। हमलोगों का घर आना जाना उसी स्टीमर से होता था। एक स्टीमर यात्रा के क्रम में सोनपुर से आगे पहलेजाघाट में पिताजी के एक मित्र मिल गए। उनके साथ उनकी पुत्री थी श्वेता। ( ऐसा ही कुछ नाम था उसका ) हमलोग गंगा में स्टीमर पर सवार हो गए और स्टीमर नदी की धारा के साथ पटना की ओर चल पड़ा। पिताजी के दोस्त बोले, चलिए कैंटीन में चाय पीते हैं... मैं गांव से नया नया आया था..चीनी मिट्टी की प्लेट और प्याली में चाय पीने का अभ्यस्त नहीं था। लिहाजा पहली चुस्की में ही मेरा मुंह जल गया। श्वेता मेरी ओर देखकर मुस्कराई। मैं विचलिच हो अपने स्थान से हिला और चाय की कुछ और बूंदे गिरीं मेरे कपड़ों पर।
श्वेता ने आगे बढ़कर उसने मेरे कपड़ों से चाय की बूंदों को साफ करते हुए कहा गर्म चाय ऐसे नहीं पीते। पहले थोड़ी सी चाय प्याली में ढ़लकाते हैं, फिर उसे ठंडा करते हैं, फिर पीते हैं। मैं मंत्रमुग्ध सा कभी उसका चेहरा देखता कभी उसका चाय पीना। बहरहाल हमलोग चाय पीते पीते स्टीमर के लाउंज पर आ गए। मैं अचानक बोल उठा- ‘देखो-देखो पानी पीछे भाग रहा है।
श्वेता बोली उठी ‘नहीं रे मूर्ख, जहाज आगे जा रहा है।‘ उसके बाद ढेर सारी बातें चलती रहीं।  स्टीमर से पटना उतरने तक हमलोग अच्छे दोस्त बन चुके थे। यह सुखद संयोग ही रहा है कि आगे की रेलयात्रा में भी हमलोग साथ साथ चलने वाले थे। श्वेता अपनी उम्र के अनुसार बहुत तेज तर्रार और चालक थी। बार-बार मेरी भोली भाली बातों और सहज अज्ञानता पर हंस पड़ती। फिर मेरे समान्य ज्ञान में अभिवृद्धि के प्रयास में लग जाती। उसके खिलखिलाने के साथ उसकी मुखमुद्रा में विराजमान श्वेत, धवल दंत पंक्तियां, विद्युत रश्मि बिखेरते प्रतीत होते। मेरे उपर तो जादू सा होता चला जा रहा था।

रेलगाड़ी में हमने खिड़की के पास आमने सामने की जगह चुनी। रेल की छुक छुक पीछे भागते पेडों के मध्य हमारा परिचय और प्रगाढ़ होता रहा।
कौन से वर्ग में पढते होक्या खाना अच्छा लगता है...क्या तुम्हारे टीचर जी ने कभी तुम्हें मुर्गा बनाया...
मुर्गा...हमारे टीचर जी को हमें गधा कहते हैं। और पिता जी गुस्से में होते हैं तो बैल तक कह डालते हैं। फिर वह खिलखिलाकर हंस पड़ी।

अचानक रेल एक पुल से गुजरी। श्वेता बोल पड़ी,  देखो ये फल्गु नदी है। इसको न दशरथ जी का शाप लगा हुआ है। साल भर नदी सूखी रहती है। लेकिन इसके अंदर अंदर पानी बहता है। इसको खोदोगे न, तो पानी निकलेगा।

अचानकर अगले स्टेशन पर रेलगाड़ी धीमी होकर रूकती चली गई। गया जंक्शन आ गया था। श्वेता अपने पिताजी के साथ उतर गई। उतरते हुए वह मुझे एक चाकलेट थमा गई। प्यार की मिठास भरी। उसके आखिरी शब्द थे...गुड बाय... फिर मिलेंगे। परंतु वह ‘फिर’ कभी लौटकर नहीं आया।
-          विद्युत प्रकाश मौर्य ( नवभारत टाइम्स, 20 दिसंबर 1995 )   (SHORT STORY ) 


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