Thursday 23 August 2018

कुलदीप नैयर - मगर जब याद आते हैं तो अक्सर याद आते हैं…

14 अगस्त 1924 (सियालकोट) – 23 अगस्त 2018 (दिल्ली)
साल 1997-98 के दिन थे। दिल्ली के कांस्टिट्यूशन क्लब में हमलोगों ने भारतीय युवा पत्रकार संगठन की ओर से एक सेमिनार का आयोजन करवाया था। सेमिनार का विषय था – पत्रकारिता में बेरोजगारी। मुख्य वक्ता थे कुलदीप नैयर। वही कुलदीप नैयर जिनको हमें बचपन से पढ़ते आए थे। दिल्ली में रहते तीन साल हो गए थे पर उनसे मिलना नहीं हुआ था। कुलदीप नैयर ने बोलना शुरू किया। कहा – आप सब पत्रकारिता के क्षेत्र में आए हो तो ये बेरोजगारी का विषय बेकार है। कुलदीप नैयर ने अपने बारे में बताना शुरू किया। मेरे जीवन में भी तीन ऐसे वक्त आए जब मुझे भी बेरोजगारी का दंश झेलना पड़ा। फुटपाथ पर सोना पड़ा, ब्रेड खाकर रात गुजारनी पड़ी। मतलब था कि पत्रकारों को ऐसे अनुभव के लिए तैयार रहना चाहिए। उन्होंने आगे कहा, अस्सी के दशक में इंडियन एक्सप्रेस की नौकरी छोड़नी पड़ी, क्योंकि संजय गांधी के समर्थन में लिखने का दबाव था। मैं ऐसा नहीं कर सकता था। अब ऐसा दौर आया कि कहीं संपादक बनने का मौका नहीं था और जूनियर पद पर काम नहीं कर सकता था। उसी दौर में अपना साप्ताहिक कालम लिखना शुरू किया। अब ये देश भर में कई भाषाओं में 40 से ज्यादा अखबारों में छपता है और इससे इतने पैसे आ जाते हैं कि रोजी रोटी आराम से चल जाती है।
फोटो सौ - संजय राय

फिर कुलदीप नैयर ने अपने शुरुआती दिनों को याद किया। लाहौर के एक कालेज में वे पत्रकारिता में नामांकन लेना चाहते थे, पर वहां उन्हें नामांकन नहीं मिल सका। यह पहली असफलता थी। पर बनना तो पत्रकार ही था। दिल्ली आए। दरियागंज से निकलने वाले उर्दू के रिसाला अंजाम में काम मिला। तो पत्रकारिता का आगाज (शुरुआत) अंजाम नामक पत्र के साथ हुई। इसी अंजाम में उनकी मुलाकात मशहूर शायर हशरत मोहानी से हुई, जो यहां वरिष्ठ पत्रकार के तौर पर अपनी सेवाएं दे रहे थे। वही हशरत मोहानी जिनकी गजल की प्रसिद्ध नज्म है - नहीं आती तो याद उनकी महीनों तक नहीं आती मगर जब याद आते हैं तो अक्सर याद आते हैं
उस सेमिनार में कुलदीप नैयर साहब ने हम सब में अपने अनुभवों के आधार पर जोश भरा कि बेरोजगारी जैसे शब्द ने निराश मत होना। हमेशा कोई रास्ता खुलता है – कारवां उजाले का राह में कभी नहीं रुकता है...एक रास्ता बंद होता है तो कई रास्ते खुलते हैं।
कुलदीप नैयर सियालकोट ( अब पाकिस्तान) में पैदा हुए थे। उसी सियालकोट में जहां फैज अहमद फैज और गुलजारी लाल नंदा जी भी पैदा हुए थे। वे उर्दू के पत्रकार थे,  अंग्रेजी के पत्रकार थे। पर हिंदी अच्छी बोलते थे। सबसे बड़ी बात वे पत्रकार होने के साथ एक एक्टिविस्ट थे। गांव, मजदूर किसान, गांधीवाद, समाजवाद से उनका जुड़ाव था। पटना में1999 में एक सेमिनार दुबारा सुनने का मौका मिला। वे गांधी मैदान के सामने गांधी संग्रहालय के एक कार्यक्रम में पहुंचे थे। कार्यक्रम के बाद कुछ स्थानीय किसानों से उनकी समस्याओं पर बात करते हुए बाहर सड़क पर निकल गए और फुटपाथ पर बैठकर उनसे बातें करने लगे।
उनकी एक संस्था हुआ करती थी जनतंत्र समाज। उसका एक दफ्तर गांधी शांति प्रतिष्ठान में संचालित होता था। वहां मेरे के एक पुराने साथी प्रेमचंद भाई उस संस्था के कार्यालय सहायक हुआ करते थे। वे हमें पहली बार 1992 में बेंगुलुरु में मिले तो जनतंत्र समाज कुलदीप नैयर, जस्टिस राजेंद्र सच्चर और एनडी पंचोली आदि के बारे में बताया।


कुलदीप नैयर के साथ संजय राय -- अब यादें शेष हैं...
कुलदीप नैयर साहब भारत पाकिस्तान के लोगों के बीच सतत संवाद हो इसके पक्षधर थे।इसलिए वे दो बार बड़ी संख्या में बुद्धिजीवियों को लेकर अटारी-वाघा सीमा पर पर गए। वहां मोमबत्तियां जलाकर पाकिस्तान के लोगों के साथ सद्भावना दिखाने की कोशिश की गई।
दिल्ली में रहकर 95 साल अगर कोई जीता है तो समझिए कि उसपर ईश्वर का बहुत आशीर्वाद है। कुलदीप नैयर दिल्ली के वसंत विहार में रहते थे और 95 साल का सक्रिय जीवन जीया। मृत्यु के 10 दिन पहले भी वे एक कार्यक्रम में मौजूद थे। हमारे साथी संजय राय ने उस कार्यक्रम की तस्वीरें साझा की हैं। उन्होंने लंबा सुजीवन जीया। उनकी यादों को श्रद्धांजलि। उम्मीद है आने वाली पीढ़ियों के पत्रकार भी उनसे प्रेरणा लेंगे और पत्रकारिता में मानवीय संवेदना के साथ काम करने ध्यान रखेंगे।
-        विद्युत प्रकाश मौर्य
( KULDIP NAYAR, MEDIA ) 

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