जब आप टीवी देख रहे होते हैं तो कई बार ऐसा होता है कि एक बाद दूसरा
व दूसरे के बाद तीसरा विज्ञापन आता रहता है। आप अपने मनपसंद प्रोग्राम का इंतराज
करते हुए झल्ला उठते हैं कि आखिर ये विज्ञापन कब खत्म होगा। आप परेशान होकर चैनल
बदलते हैं तो वहां भी विज्ञापन आ रहा होता है। यानी आप टीवी पर लगातार विज्ञापन
देखते देखते बोर हो चुके हैं। अब सरकार इस मामले में हस्तक्षेप करने का मन बना रही
है। यानी टीवी पर एक घंटे में कितनी देर तक विज्ञापन दिखाया जाए इसके लिए आचार
संहिता बनाई जाए। अभी तो यह स्थिति है कि 60 मिनट
के प्रसारण में लोकप्रिय चैनलों पर 30 मिनट तक
विज्ञापन दिखाई देते हैं। ऐसे में दर्शक टीवी कैसे देखे। खास कर पे चैनलों के
मामले में जहां आप टीवी चैनल देखने के लिए भी भुगतान कर रहे हैं वहां पर कोई सीमा
रेखा तो तय होनी ही चाहिए।
इस मामले
में अखबारों और पत्रिकाओं में एक आचार संहिता तय है। कुछ समाचार पत्र खुद ही इसका
पालन करते हैं। जैसे अधिकांश अखबार पहले पन्ने पर कितना विज्ञापन लेना है इस मामले
में अपनी नीति बनाते हैं। व्यवहार में कोई भी समाचार पत्र संपादकीय पन्ने पर कोई
विज्ञापन नहीं लेता है। पूरे अखबार के बारे में एक एक आचार संहिता तय की गई है कि 40 फीसदी से ज्यादा विज्ञापन प्रकाशित नहीं
किए जाएंगे। हालांकि इस नियम को कई बार अखबार भी नहीं मानते।
ठीक इसी तरह
टीवी के बारे में भी सरकार तय करना चाहती है। सरकार की मंशा है कि टीवी पर एक घंटे
में 12 मिनट से अधिक विज्ञापन नहीं दिखाया जाए।
यानी कि 20 फीसदी से ज्यादा विज्ञापन कंटेंट न हो।
बाकी सब साफ्टवेयर कंटेंट ही हो। कुछ उपभोक्ता संगठनों की सलाह है कि जो पे चैनल
हैं वे दर्शकों से सब्सक्रिप्शन फी वसूली करते हैं चैनल देखने की एवज में इसलिए
उन्हें अपने चैनलों पर विज्ञापन बिल्कुल ही नहीं दिखाना चाहिए। अमेरिका सहित कई
देशों में ऐसी परिपाटी है। वहां पे चैनल बिना विज्ञापन के होते हैं। वहीं कुछ चैनल
सीमित विज्ञापन ही दिखाते हैं। भारत में भी टीवी चैनल विज्ञापनों की अधिकता को
महसूस तो करते हैं पर विज्ञापन उनकी कमाई के बड़े साधन हैं इसलिए इस मामले में वे
कोई नियम या आचार संहिता नहीं बनने देना चाहते हैं। आप टीवी पर किसी मूवी चैनल में
एक ढाई घंटे की फिल्म देखना चाहते हैं तो आपको चार घंटे टीवी के साथ चिपके रहना
पड़ेगा। इस चार घंटे में न जाने कितनी बार ब्रेक आएगा। यानी फिल्में देखने का
स्वाद खराब। कुछ चैनलों ने बिना किसी ब्रेक के फिल्म दिखाने की परिपाटी भी आरंभ की
है पर ऐसा सिर्फ हप्ते में एक दिन किसी फिल्म के साथ होता है।
वहीं जब
समाचार चैनलों पर कोई लंबी खबर या किसी गंभीर विषयों पर चर्चा चल रही होती है तो
उसमें भी बार बार कामर्सियल ब्रेक लिया जाता है। वह भी बता बता कर। कई बार तो खास
कार्यक्रमों के लिए तुरंत फुरत विज्ञापन बुक किए जाते हैं। कई बार ऐसा लगता है कि
शो या विशेष रिपोर्ट विज्ञापन के लिए ही दिखाया जा रहा हो। ये विज्ञापन कई बार
किसी शो की गंभीरता को खत्म कर देते हैं। सभी चैनल मिलकर विज्ञापनों के लिए कोई
संहिता तय करें ऐसा तो नहीं लगता, अब यह
देखना है कि सरकारी प्रयास कितना रंग ला पाता है।
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