टेलीविजन की दुनिया में नया कोड
आफ कंडक्ट लाने की चर्चा जोरों पर है। इसमें विभिन्न चैनलों पर कई तरह के प्रतिबंध
लगाने की बात चल रही है। जो मुद्दे विचारणीय है उनमें स्टिंग आपरेशन, चुंबन दृश्य, संगीन अपराध के कार्यक्रम, हारर शो, असभ्य भाषा अंधविश्वास बढ़ाने वाले
कार्यक्रम और खबरें शामिल हैं। हालांकि टीवी की दुनिया के एक बड़े तबके को इस तरह
की आचार संहिता बनाए जाने या किसी कानून बनाए जाने से आपत्ति है। उनका मानना है कि
हम जो दिखाते हैं उसमें सरकार नियमन करने वाली कौन होती है। वे इसे मीडिया पर
सेंसरशिप के रुप में देखते हैं।
पर क्या यह वास्तव में सेंसरशिप होगी। या यह वक्त
की जरूरत है। निश्चित तौर पर आज जब देश में 400 के
करीब टेलीविजन चैनल हैं जिसमें 50 से अधिक समाचार
चैनल विभिन्न भाषाओं में प्रसारित हो रहे हैं उनके लिए किसी तरह के कोड आफ कंडक्ट
की जरूरत महसूस की जा सकती है। अखबारों में जब प्रकाशित होने वाली खबरों के लिए
कानून तो ऐसा इलेक्ट्रानिक मीडिया के लिए भला क्यों न हो। जिस तरह के दर्जनों
इलेक्ट्रानिक मीडिया के चैनलों में दर्शकों की भीड़ जुटाने के लिए प्रतिस्पर्धा
बढ़ रही है उसमें कई चैनल लक्ष्मण रेखा का उल्लंघन कर रहे हैं।
निश्चित तौर पर आज
टीवी चैनलों की पहुंच देश की 90 फीसदी से ज्यादा
आबादी तक है ऐसे में विजुअल मीडिया में क्या दिखाया जाए और क्या नहीं इसकी कोई
आचार संहिता तय होनी चाहिए।
स्टिंग आपरेशन – लगभग सारे समाचार चैनल आजकल छोटे बड़े स्टिंग आपरेशन जरूर कर रहे हैं। इस
पर पूरी दुनिया में चर्चा चल रही है कि बिना किसी को बताए हुए शूटिंग करना कहां तक
उचित है। यह अग बात है कि कई स्टिंग आपरेशनों ने बड़े बड़े भ्रष्टाचार को बेनकाब
किया है। पर यह सवाल उठता है कि चोर को पकड़न के लिए चोरी कहां तक उचित है। अगर हम
गांधी जी का हवाला दें तो सिर्फ साध्य ही नहीं साधन की पवित्रता भी जरूरी है। जब
स्टिंग आपरेशन किया जाता है तब जिन तरीकों का इस्तेमाल किया जाता है उसे सही नहीं
ठहराया जा सकता है। अगर स्टिंग आपरेशन के लिए किसी अधिकारी को रिश्वत दी जाती है
तो ऐसी स्थिति में रिश्वत देने वाला भी उतना ही दोषी है और कानून उसे भी सजा उतनी
ही होनी चाहिए जितनी भ्रष्टाचारी को।
हां अगर आपको किसी भ्रष्टाचार की शिकायत
मिलती है तो आप उसे सीबीआई से ट्रैप करवा दें और उसका लाईव शूटिंग करें तो यह एक
हद तक उचित हो सकता है। अगर हम पत्रकारिता की लिहाज से देंखे तो खोजी पत्रकारिता
का एक लंबा इतिहास रहा है वहीं किसी की निजी जिंदगी में झांकर कर देखने का भी एक
लंबा इतिहास है। पर आज इलेक्ट्रानिक मीडिया जगह जगह लोगों की निजता में दखल दे रहा
है। कहां कौन सा हिडेन कैमरा आपको शूट कर रहा हो इसकी कोई गारंटी नहीं दी जा सकती।
अब जब मीडिया तमाम लोगों की निजता भंग कर रहा है तो मीडिया वालों पर नजर रखने की
जरूरत पड़ सकती है। इस पेशे में भी अगर गंदे लोग हैं तो उन्हें भी बेनकाब किया
जाना चाहिए। पर आखिर उन्हें कौन बेनकाब करेगा। बड़े बड़े पत्रकारों को कई बार
बायस्ड होकर खबरें करते हुए देखा जा सकता है। कई बार ऐसा देखा जा सकता है कि किसी
खबर के पीछे असली खबर कुछ और होती है। कई बार अगर कोई पीड़ित व्यक्ति अपना पक्ष रखना
भी चाहता है तो उसकी अवहेलना करते हैं। किसी बयान के उस हिस्से को खास तौर पर
संपादित करके बार बार दिखाते हैं जिससे सनसनी फैलती हो। कुछ टीवी चैनलों ने स्टिंग
आपरेशन को लेकर अपनी आचार संहिता बना रखी है कि वे सामाजिक उत्तरदायित्व का ख्याल
रखते हुए ही कुछ दिखाएंगे।
अपराध के तौर तरीके- लगभग सभी टीवी चैनलों पर अपराध के बुलेटिन प्रमुखता से दिखाए जाते हैं। यह
कुछ उसी अंदाज में है जैसे कभी मनोहर कहानियां और सत्यकथा जैसी पत्रिकाओं में होता
था। उन पत्रिकाओं की हर उम्र तक पहुंच नहीं होती थी। पर टीवी के कार्यक्रमों को बच्चों
के कोमल मन पर कैसा प्रभाव पड़ता है इसका सहज ही अंदाजा लगाया जा सकता है। वहीं
मुद्रित माध्यम का समाज पर उतना प्रभाव नहीं पड़ता जितना दृश्य माध्यम का। इसलिए
कहानी और उपन्यास पर भी जब कोई फिल्म बनती है तो उसे सार्वजनिक प्रदर्शन से पहले
सेंसर बोर्ड से लाइसेंस लेना पड़ता है। वहीं टीवी के कार्यक्रमों के लिए कोई
सेंसरशिप का प्रावधान नहीं है पर इसके लिए कोई कोड आफ कंडक्ट तो तय होना ही चाहिए
कि क्या दिखाया जाए और क्या नहीं दिखाया जाए। क्राइम के विशेष बुलेटिनों में
अपराधियों के अपराध करने के तौर तरीकों ( मोडस आपरेंडी) दिखाया जाता है उससे जहां नए अपराधी प्रेरणा लेते है वहीं किशोर वय के
बच्चों में भी अपराध करने की प्रवृति बढ़ती है। ऐसे में इसकी भी कोई सीमा रेखा तय
करनी जरूरी है कि कितना दिखाया जाए।
हारर शो, अंधविश्वास - इसी तरह हारर शो और
अंधविश्वास बढ़ाने वाले क्रायक्रमों को लेकर भी कुछ आचार संहिता तय होनी चाहिए।
हारर शो देखकर छोटे-छोटे बच्चों को मष्तिष्क पर बुरा प्रभाव
पड़ता है। इससे कुछ बच्चे बचपन से ही जहां डरपोक प्रवृति के हो जाते हैं वहीं छोटी
उम्र से ही वे कई बार अंधविश्वासी भी बनने लग जाते हैं। देश भर में प्रचलित
अंधविश्वास की परंपराओं को कई टीवी चैनल खबर के रुप में महिमामंडित करके दिखाते
हैं। भले ही वे अंत में कहते हैं कि अंधविश्वास है पर ऐसे कार्यक्रमों के विजुअल
लंबे समय तक दिखाए जाते हैं। इससे निरक्षर समाज में प्रचलित अंधविश्वास की
परंपराओं को अनावश्यक प्रचार मिलता है।
चुंबन दृश्य और भाषा- अमूमन हर टीवी चैनल पर अब चुंबन दृश्य आम हो चले हैं। फिल्मों में जहां यह
सब कुछ खुलेआम हो रहा है वहीं फिल्मी खबरों में ऐसे दृश्यों खुलेआम आवृति होती है।
वहीं सार्वजनिक स्थल पर ऐसा कोई विजुअल मिल जाए तो समाचार चैनल उस पर टूट पड़ते
हैं। शिल्पा शेट्टी और रिचर्ड गेर के चुंबन दृश्य को असंख्य बार टीवी चैनलों ने
रीपिट किया। हालांकि अब समाज में चुंबन को स्वीकार्य मान लिया गया है पर यह देखना
जरूरी है कि वह कितना शालीन है।
इलेक्ट्रानिक मीडिया को शब्दों
को लेकर भी सावधान होने की जरूरत है। टीवी सीरियलों भाषा और समाचार चैनलों की भाषा
सयंत होनी चाहिए। जिस तरह लंबे चलने वाले सोप ओपेरा में अवैध संबंधों की दास्तान
दिखाई जाती है और उसमें जिस तरह की भाषा का प्रयोग किया जाता है, वह सब कुछ किसी वयस्क फिल्म की कथानक की तरह ही होता है। हमें यह याद रखना
चाहिए कि दुनिया में सोप ओपरा की शुरुआत समाज को परिवार नियोजन और अन्य सामाजिक
मूल्यों की शिक्षा देने के लिए हुई थी। वहीं आज कई सामाजिक संस्थाएं इस पर विचार
करती नजर आ रही हैं कि अगर परिवारों को विघटन से बचाना है तो वे एकता कपूर के
धारावाहिकों को न देखें। इसमें एक हद तक सच्चाई है कि अंतहीन कथानक वाले मेगा
धारावाहिकों से परिवारों का विघटन हो रहा है। वहीं कुछ समाचार चैनल भी लेट नाइट शो
में लोगों की यौन समस्या का निदान पेश करने वाले फोन इन कार्यक्रम पेश कर रहे हैं
जिनकी भाषा निहायत ही बोल्ड या यों कहें की भदेश होती है जो बातें बंद कमरे में किसी
डाक्टर से की जाना चाहिए उसे लाखों करोड़ों लोगों के बीच एयर किया जा रहा है। यानी
टीवी चैनल अब सेक्स क्लिनिक के रुप में भी फंक्शन करने लगे हैं। इस प्रवृति से भले
किसी टीवी चैनल के दर्शक बढ़ रहे हों पर क्या इसे सेक्स कंसल्टेंसी के नाम पर उचित
ठहराया जा सकता है।
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