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ओजस्वी वक्ता
विजयराजे की स्कूली पढ़ाई
वाराणसी के एनी बेसेंट थियोसोफिकल स्कूल और लखनऊ के आईटी कॉलेज में हुई। 1942 में
विवाह के बाद ग्वालियर राजघराने में आ गईं। पर आजादी के बाद पति की मृत्यु होने पर
राजसी जीवन छोड़कर राजनीति में सक्रिय हुईं। आकर्षक व्यक्तित्व की स्वामी राजमाता
मंच पर ओजस्वी वक्ता थीं। उनकी लिखने पढने में रूचि थी। उन्होंने दो पुस्तकें लिखी
हैं। अंग्रेजी में द लास्ट महारानी ऑफ ग्वालियर और हिंदी में लोकपथ से राजपथ उनकी
आत्मकथात्मक पुस्तकें हैं।
राजनीतिक रसूख
उनकी लोकप्रियता का आलम था कि
चाहे किसी भी दल में रहीं हों जीवन में ज्यादातर चुनाव में जीत हासिल की। साठ के
दशक में राजमाता विजय राजे मध्य प्रदेश की राजनीति में ऊंचा रसूख रखती थीं। मार्च
1967 में विजयाराजे सिंधिया ने मध्य प्रदेश
में कांग्रेस की द्वारका प्रसाद मिश्रा सरकार का तख्ता पलट करा दिया था और
गोविंदनारायण सिंह को राज्य का नया मुख्यमंत्री बनवाया था।
कांग्रेस से जनसंघ में
विजयराजे सिंधिया ने 1957 के
बाद 1962 में दूसरा लोकसभा चुनाव ग्वालियर से कांग्रेस के टिकट पर जीता। पर 1967
में वे कांग्रेस से अलग होकर गुना से स्वतंत्र पार्टी से लोकसभा का चुनाव जीतीं।
इसके बाद वे जनसंघ में शामिल हो गईं। 1971 का चुनाव उन्होंने गुना से जनसंघ
उम्मीदवार के तौर पर जीता।
सत्ता के बजाय संगठन पर जोर
1980 में भारतीय जनता पार्टी के
गठन के बाद वे जीवन भर वे पार्टी के शीर्ष नेताओं में शामिल रहीं। वे विश्व हिंदू
परिषद में भी काफी सक्रिय रहीं। अपने राजनीतिक जीवन में कभी वे कभी सत्ता पाने की
आकांक्षी नहीं रहीं। इसके बजाय उन्होंने संगठन को मजबूत करने में अपना ज्यादा वक्त
लगाया। उन्होंने कई बार मंत्री पद को ठुकराकर संगठन के लिए काम करना पसंद किया।
राजमाता विजय राजे का शिक्षा के
क्षेत्र मे काफी योगदान रहा। उन्होंने ग्वालियर में कई शैक्षणिक संस्थानों की
स्थापना कराई। उनके बेटे माधवराव सिंधिया कांग्रेस के बड़े नेता रहे। उनकी बेटी
वसुंधरा राजे सिंधिया राजस्थान की मुख्यमंत्री बनीं। एक और बेटी यशोधरा राजे भी
राजनीति में सक्रिय हैं।
सफरनामा
1919 में 12 अक्तूबर को सागर
में जन्म हुआ।
1941 में 21 फरवरी को जीवाजी
राव सिंधिया से विवाह हुआ।
1957 में दूसरी लोकसभा के लिए
गुना से कांग्रेस के टिकट पर चुनी गईं।
1962 में तीसरी लोकसभा में
चुनीं गईं।
1971 में पांचवी लोकसभा में
चुनी गईं।
1975 में इमरजेंसी के दौरान 19
महीने तिहाड़ जेल में रहीं।
1978 में राज्यसभा की सदस्य
चुनी गईं।
1980 में इंदिरा गांधी के खिलाफ
रायबरेली से चुनाव लड़ा पर हार गईं।
1989 1996, 1998 में भाजपा के टिकट पर लोकसभा का चुनाव जीता।
2001 में 25 जनवरी को ग्वालियर
में उनका निधन हो गया।
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